‘आजकल क्या लिख रही हो?’ स्टेला ने मुझसे पूछा था।

‘एक कोशिश कर रही हूँ… देखोऽऽ कब सफल हो पाती हूँ।’

जरूर, मेरा फ्रस्ट्रेशन फोन के पार उस तक पहुँचा होगा, तभी वह एकदम से आश्वस्त करती हुई अपनी खुशनुमा हँसी के साथ बोली थी, ‘शुरू कर दिया है, तो पूरा भी कर लोगी… वैसे है क्या?’ स्टेला दूसरों को उन्मुक्त करने की काबिलियत रखती है। मैं भी उस जादुई असर में आ, अपनी हिचक छोड़, उसे अपने महामहत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के बारे में बताने लगती हूँ।

‘एक नाटक पर काम रही हूँ, जिसमें क्राइम और मोरालिटी की नई परिभाषाएँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ।

‘अच्छाऽऽ’ वह खासी उत्तेजना से कहती है।

‘लगता है, इस बार मॉर्डन क्लासिक जैसा कुछ रच दोगी तुम।’

‘न-न, मॉर्डन से कुछ आगे के समय की बात करना चाहती हूँ। क्लासिक होगा कि नहीं वह तो समय ही बताएगा, लेकिन इस बार मेरा इरादा बहुत सारी अकल्पनीय डिबेट्स को जायज ठहराने का है।’

‘अरेऽऽ, क्या यह संभव है?’ वह गहरे आश्चर्य में डूब गई थी।

‘हाँ।’

‘वेलकम टू द वर्ल्ड ऑफ पोस्ट मॉडर्निज्म बेबी…।’

यह मैं जोर से नहीं कहती। मन ही मन में मथती हूँ। जानती हूँ उसे, इस तरह की बातें कम ही समझ में आती हैं, फिर उसे उलझाने से क्या फायदा?

दरअसल स्टेला नौरिस बरसों-बरस से एक-सी रही है। हद दर्जे की शौकीन, खूब हँसनेवाली, मीठा बोलनेवाली और तुनकमिजाज। लेकिन एक घटना समान उसमें पहला बदलाव मुझे तब महसूस होता है, जब वह अपने चालीसवें जन्मदिन के सेलिब्रेशन के वक्त घर में जुटे फूलवालों, रंगीन बल्लियोंवालों और अन्य साज-सज्जावालों से कहती है, ‘यह सब मत करो, प्लीज कीप इट सिंपल।’

मैं देखती हूँ, उसी दिन के बाद से वह यह जुमला लगातार दुहराती है। बताती नहीं, कहाँ से उठाया है, लेकिन मेरा अनुमान है, दीपक चोपड़ा या रौंडा बर्न जैसे किसी लेखक की प्रेरणादायी किताब ही इसका स्रोत है। आजकल वह अलग-अलग किस्म की किताबें खरीदती रहती है। पढ़ती कितनों को है, यह ठीक-ठीक पता नहीं, लेकिन तरह-तरह की चर्चाएँ खूब करने लगी है। कभी उपभोक्तावादी कल्चर से अलग जाने की बात करती है, कभी दुनियादारी की चालाकियाँ उसे नागवार लगने लगती हैं कभी कुछ तो कभी कुछ। और तो और चर्चाओं तक ही उसका सिलसिला ठहरता नहीं, वह अलग, मौकों पर अक्सर रूप भी अलग दिखलाती रहती है। जब अपने पति स्टीव नौरिस के अगल-बगल होती है तो उसकी पतली नाक ग्रेशियन आभिजात्य का ढिंढोरा पीटने लगती है। और जब अपने घर में काम करनेवाली औरतों को सिस्टर कह कर पुकारती है, तो उसके चेहरे पर सिस्टरहुड की ऐसी सर्वहारा चमक फैल जाती है कि मैं उससे पूछने पर मजबूर हो जाती हूँ, ‘तुम हर मौके पर इतली अलग-सी क्यों हो जाती हो?’

‘मेरी मर्जी।’ वह छोटा-सा जवाब दे, कुछ भी नामाकूल-सा करने लगती है। मुझे अटपटा-सा लगता है। लगता है कछ भ्रमित-सी तो नहीं हो रही ये, कितनी आसानी से ‘मेरी मर्जी’ कह कर आगामी सवालों के घेरे से निकल जाना चाह रही है। मेरी मध्यमवर्गीय चेतना में ‘मेरी मर्जी’ कुछ ज्यादा ही किस्म के स्वतंत्रता बोध को जगाता है, और यह डरावनी बात लगने लगती है। मैं यह भी जानती हूँ कि इस तरह का ‘डर’ पॉलिटिकली इनकरेक्ट भाव है और स्टेला का मेरी वर्गीय चेतना से कोई वास्ता नहीं, फिर भी मित्र होने के नाते मैं उसे टोक देती हूँ

‘स्टेला, क्या तुम खुदगर्ज किस्म की नहीं होती जा रही हो?’

‘हाँऽऽ।’ वह प्यार से कहती है और अपने भरे-भरे लेकिन रूखे हो चुके होठों को गीला करने के उद्देश्य से उनपे जीभ फिराती है। मैं देख कर सन्न रह जाती हूँ कि ऐसा करते वक्त वह सेक्सी कम जरूरतमंद ज्यादा लगती है।

अब जैसे मैं स्टेला को बरसों से देख रही हूँ, ठीक वैसे ही उसके पति स्टीव नौरिस को भी उससे ज्यादा बरसों से देख रही हूँ। वह दिल्ली शहर का नामी-गिरामी आदमी है। पक्का, सफल बिजनेसमेन। कनाट प्लेस में गाड़ियों का बड़ा शो-रूम है उसका। चर्च में लोग अक्सर बातें करते हैं कि नौरिस प्रधानमंत्री का करीबी है। यह दीगर बात है कि प्रधानमंत्री हर पाँच-दस साल में बदल जाता है, लेकिन नौरिस का रिश्ता प्रधानमंत्री से बदस्तूर रहता है। जाहिर है प्रधानमंत्री टाइप के लोगों को हमेशा से नौरिस जैसे लोगों की जरूरत बनी रहती है। लोग तो यहाँ तक कयास लगा चुके हैं कि नौरिस को जल्द राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जाएगा। वैसे भी नौरिस लोग खानदानी अमीर-उमरा रहे हैं। पीढ़ियों से सत्ता से उनका रिश्ता कायम रहा है। दे डिजर्व इट!

सच तो यह है कि स्टीव मेरे पसंदीदा लोगों में से हैं। हमेशा मस्त रहता है। अपने खानदान के पुरखों की बड़ी शानदार कहानियाँ हैं उसके पास। खालिस अंग्रेजों का वंशज है वह। उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद जो कुछ अंग्रेज रह गए भारत में, उन्हीं में से एक उसके खानदान के लोग थे। उसके कई रिश्तेदार उसके बाद आस्ट्रेलिया चले गए। उनमें कोई मिक्सिंग नहीं हुई। वे कभी-कभी इंडिया आते हैं तो आस्ट्रेलियन ही कहलाते हैं। यहाँ जो उसके खानदान की शाखा रह गई, पता नहीं उसमें स्थानीय लोगों की आमद हुई या नहीं, इस बाबत ठोस जानकारी नहीं है हमारे पास लेकिन सुखद तरीके से स्टीव का डीएनए तो पूरा विदेशी ही जान पड़ता है। उसका लंबा कद, उसका गठीला शरीर, उसकी गोराई, उसके बालों का भूरा रंग और उसकी भूरे कंचे जैसी आँखें जो बेहद खूबसूरत हैं। कई बार महफिलों में बैठे-बैठे स्टीव हमें सुदूर अतीत की सैर करवाता है। और स्टीव और मैं वहाँ की शानो-शौकत से रूबरू हो बेहद तरोताजा और आत्मविश्वासी महसूस करते हैं। मैं, क्योंकि नौस्टैल्जिया मेरी कमजोरी है, (वही चिरपरिचित मध्यमवर्गीय लोलुपता का बोध) और वह, क्योंकि शासक वर्ग से ताल्लुक रखना अपने आप में बड़ी अनुभूति है। अलबत्ता स्टेला को अतीत में जाना बिल्कुल नहीं पसंद और तो और मुझे लगता है, उसे भविष्य के बारे में सोचना भी पसंद नहीं। थोड़ी अजीब ही है वह और-और अजीब बनती जा रही है। स्टीव इन विषयों पर उसकी विरक्ति पर उसका चिबुक उठा कर कहता है।

‘भोंदू।’

स्टेला इस पर आँखें बंद कर लेती है। मैंने गौर किया है कि यह सिर्फ एक बार की बात नहीं। स्टेला स्टीव के किसी भी प्रकार के उकसाने का जवाब यों ही देती है। पूरी तरह भोंदूपने को जीते हुए, मानो कोई बहुत छोटा बच्चा छुप्पम-छुपाई का खेल खेल रहा हो और छुपने के बजाए अपनी आँखें बंद कर लेता हो, यह सोचते हुए कि अब जो वह नहीं देख पा रहा है, तो शर्तिया खुद ही छुप गया होगा। एक दम चिढ़ानेवाली हरकत है यह। पता नहीं स्टीव उसकी इस हरकत पर चिढ़ता क्यों नहीं। उल्टे उसे और दुलराने लगता है।

‘स्टेला अपने आप से ही छिपती हो क्या?’ मैं कुरेदती हूँ।

‘क्या बकवास करती हो, लेखक हो तो क्या हर बात में पेंच ढूँढ़ोगी? समटाइम्स कीप इट सिंपल।’

फिर उसका वही तकिया कलाम। वह चिड़चिड़ा कर भी यही बोलती है, और यह बोल वो न सिर्फ सबको लाजवाब कर देती है बल्कि अब तो लगने लगा है कि हमारी जुबान को भी इस जुमले की लत लग ही जाएगी। खैर! यह सब भविष्य की बातें हैं और भविष्य के बारे में कौन-कब ठीक-ठीक जान पाया है।

सोचते-सोचते यकायक स्टीव की मस्ती की बात याद आती है। सुबह की संडे सर्विस के बाद हम चर्च से निकले तो स्टीव ने अपनी लेटेस्ट चकाचक सफेद ऑडी में हमें बिठाया और फर्राटे से गाड़ी दौड़ा दी, लुटियन्स की दिल्ली और आभिजात्यों की दिल्ली से अलग दिशा में, ‘कहाँ जा रहे हो?’ स्टेला अस्थिर होने लगी।

‘सदर… चलो आज तुम्हें वह जगह दिखा ही दूँ जहाँ मेरे पुरखे रहा करते थे। कितनी बार सोचा…।’

इसके बाद उसने गाड़ी एक गली के मुहाने पर पार्क कर दी। और हम गली में पैदल चल पड़े। बारिशों के दिन थे। चारों ओर गंदगी, गड्ढों और बदबू का साम्राज्य फैला था। इसके बावजूद स्टीव का उछाह देखने लायक था। झक सफेद टाई सूट पहने वह चल नहीं – दौड़ रहा था। ऐसा लगता था मानो सदर की इस गली में दफन पुरखों की हड्डियों की मिट्टी से उसे साँसें मिल रही हों। और वह अपने अतीत के गौरव की गंध से उन्मत्त हो रहा हो। उसके वजूद से ऐसी अथाह मस्ती टपक रही थी।

स्टेला उससे ठीक उलट नाक और मुँह बिचकाती अपनी साड़ी दो इंच पिंडलियों से ऊपर उठाए, धीरे-धीरे चल रही थी।

‘ये देखो,’ स्टीव एक भद्दी कंक्रीट की दो-मंजिला दुकान के निचले-पीछे के हिस्से को दिखाते हुए बोला, ‘यही वह कोठी थी, जिसमें मेरे परदादा और दादा रहते थे।’

स्टेला ने अवमानना से नाक सिकोड़ी। मैंने अपनी निराशा पर काबू पाते हुए, ‘अभी भी उत्साहित हूँ’ वाला चेहरा ओढ़ लिया।

‘मेरे परदादा, अलबर्ट नौरिस फर्ग्यूसन। पूरी दिल्ली में बड़ा नाम था उनका। जिधर निकल जाते थे, लोग सर झुका लेते थे। इतना रुतबा था उनका हुँह।’

स्टीव की बातों और सामने खड़ी इमारत में कोई मेल नहीं दिख रहा था, फिर भी मैं लगातार उसकी बातें सुने जा रही थे, लेकिन स्टेला अवज्ञा की हद तक निस्संग बनी हुई थी और स्टीव उस पर ध्यान दिए बिना उजबक-सी रौ में बोले जा रहा था।

‘ये जो खिड़की है न, उससे अंदर झाँको, फायर प्लेस दिखेगा देखो… देखो वह पत्थर का है, और बरामदे के ये पिलर्स कितने मजबूत और गोल है, और देखो वहीं फायर प्लेस के ऊपर एक नक्काशीदार लोहे का कुंदा है, वह भी सन 1900 के आसपास का है।’

‘क्या टँगता था उसमें?’

हैरतवाली बात थी, स्टेला पूरी तरह दृश्य से कटी हुई नहीं थी क्या? उसने ये सवाल किया तो कैसे? उसके यों सवाल करने पर स्टीव ठिठक गया था। कुंदे की ओर इशारा करती उसकी उँगली कुछ देर हवा में प्रलंबित रह गई थी। फिर धीरे से सिर झुकाते हुए उसने उद्घाटित किया था, ‘बंदूक टँगती थी वहाँ।’

‘क्यों?’ स्टेला बाज नहीं आ रही थी, इसके बावजूद स्टीव ने बहुत लाड़ से स्टेला के कान खींचते हुए कहा था, ‘बताया था न, मेरे परदादा पुलिस की नौकरी में थे।’

‘हाँऽऽ ‘बहुत नाटकीय अंदाज में अपनी घनी पलकों को ऊपर-नीचे करती बोली स्टेला, ‘याद आ गया, जेल के दारोगा थे न?’

इसके बाद न जाने क्यों, स्टीव वहाँ ठहर नहीं पाया और उल्टे कदमों से गाड़ी की ओर भागने लगा, मानों किसी पीछे लगे भूत से अपना पीछा छुड़ा रहा हो। स्टेला वैसी ही बनी रही और इत्मीनान से स्टीव के पीछे चल पड़ी।

दोनों के बीच यह कैसा वार्तालाप हुआ, मैं बिल्कुल समझ नहीं पाई और छुट्टी के दिन के खाली बाजार की गली नापते हुए उस भारी सवाल के नीचे दब-सी गई कि, स्टीव ने मुझे यह क्यों नहीं बताया था कि उसके परदादा अंग्रेजों के जमाने के दारोगा जेलर थे? फिर मुझे याद आया, स्टीव ने तो कभी बताया ही नहीं कि उनकी रैंक क्या थी। वह तो मेरी कल्पना का ही खेल था कि मैं उन्हें बहुत ऊँचे रैंक का समझती रही। फिर बाद में मैंने सोचा, रैंक-वैंक से क्या होता है, आखिर अंग्रेज तो अंग्रेज ही था न, और वही होना उसका रुतबा था।

जब तक मैं गाड़ी तक पहुँची, देखा स्टेला गाड़ी की अगली सीट पर बैठी हुई कुछ बड़बड़ाती जा रही है। उसके ठीक पीछे बैठते हुए मैंने सुना।

‘चारों ओर कितने मीठे-मीठे झूठ है। सब उसे ही सच मान जीए जाते है।’

जब मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखालाई तो वह चुप हो गई। मैं गाड़ी के बाहर नजर दौड़ाने लगी, और सोचने लगी किस तरह के झूठ की बात कह रही थी वह। हमारे ठीक सामने स्टीव खड़ा था और एक पच्चीस-छब्बीस साल के युवक से बात कर रहा था। युवक के गले में प्रोफेशनल फोटोग्राफरवाला कैमरा लटका हुआ था, लेकिन शक्ल से वह कोई रिसर्च स्कालरनुमा लगा रहा था। दुबला-पतला, आकर्षक-से व्यक्तित्व का था। स्टीव उससे बात करता हुआ, अपना विजिटिंग कार्ड पकड़ा रहा था। युवक विजिटिंग कार्ड को हाथ में थामे, उस पर टंकित गुरूर को तसल्ली से जज्ब कर रहा था। कार्ड को हाथ में थामे-थामे ही उसने एक बार गाड़ी के अंदर नजर दौड़ाई थी। उसी क्षण स्टेला की नजरें उससे मिली थीं। मैंने पीछे से उचक कर उस नजर को पकड़ा था और मैं असमंजस से भर गई थी। दोनों की नजरों का भाव एक था। तहरीर स्क्वायर पर सत्ता के खिलाफ नारे लगाते लोगो का भाव था वह, जो दो अनजान लोगों के बीच भी समान हो सकता था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, कि स्टेला बिना जाने उस युवक को ऐसी साझेदारी से देख सकती है, लेकिन इससे पहले कि मैं उससे पूछती, ‘स्टेला तुम उसे जानती हो क्या’, वह निहायत सपाट स्वरों से पूछ बैठी थी, ‘कौन था वह?’

यह सुन मुझे राहत महसूस हुई थी और स्टीव ने गाड़ी में बैठ रफ्तार बढ़ाते हुए कहा था, ‘फोटो जर्नलिस्ट है दिल्ली के कोलोनियल मॉन्यूमेंट्स पर किताब तैयार कर रहा है। रिसर्च के दौरान सदर में बची-खुची कोठियों के हिस्सों को ढूँढ़, अपने कैमरे में कैद कर रहा है। मेरे बारे में भी जानता था। मैने उसे घर बुलाया है, कल। बहुत कुछ बताना है उसे।’

‘लेकिन कल तो हमें मानेसर जाना है। भूल गए, फार्म हाउसवाली पार्टी का इंतजाम देखने। और चर्च से बच्चे भी आनेवाले हैं, कैरोल की प्रैक्टिस शुरू करवानी है उन्हें।’

‘कोई बात नहीं सब हो जाएगा, मै ऑफिस से टाइम निकाल किसी भी समय इंतजाम देख आऊँगा और उसके आने तक आ जाऊँगा, तुम बच्चों को कैरोल्स सिखाना।’

‘क्रिसमस एक महीना दूर था और नौरिस परिवार की चर्च में संलग्नता और उनकी दी हुई पार्टीज का दिल्ली शहर को इंतजार था। पेज थ्री के कई दिन उन पार्टीज के बदौलत छपने थे। इन दिनों स्टेला बहुत मसरूफ हो जाती थी, और उसके पर्सनल टच की वजह से ही क्रिसमस इतना शनदार हो जाता था, लेकिन स्टीव तो स्टीव था, वह अगर एक बार कुछ कह देता था तो वह बात पत्थर की लकीर हो जाती थी, उसे काटा नहीं जा सकता था। इसीलिए स्टीव ने जो ‘न’ कहा तो ‘न’ ही रहा और स्टेला मानेसर नहीं गई। उस दिन स्टेला के घर बच्चे आए, स्टेला ने उनके लिए कुछ खास कैरोल्स चुने, फिर उसने ‘गिफ्ट आफ मैजाई’ की तर्ज के एक छोटे से नाटक का आइडिया बच्चों को दिया, जिसमें तीन गड़ेरिए आज के जमाने के गिफ्ट जैसे मोबाइल, प्लेस्टेशन, नोटबुक ले कर चर्च में खड़े रहेंगे और दूसरे बच्चों का स्वागत करेंगे, यह आइडिया बच्चों को बहुत पसंद आया और वे हल्ला मचाते हुए वापस लौटे।

‘बच्चों का जाना और उसका आना एक साथ हुआ। साँस भी नहीं ली थी कि हाजिर – मेरा नाम अपूर्व चौधुरी है।’ पहले उसने युवक के आने पर झल्लाहट प्रकट की, शिकायत की ‘स्टीव भी मानेसर से नहीं लौटा’ फिर युवक की मिमिक्री लगातार करती रही और फिर खुद ही तंजिया हँसी रुक कर फिर हँसती रही बोली, ‘टिपिकल इंटलेक्चुअल बंगाली हैऽऽऽ स्ट्रेट फ्रॉम कोलकाता, समझीऽऽ…।’ और फिर इस बयान के बाद वह और जोर से इतरा-इतरा कर हँसने लगी और उसके बाद उसकी अपेक्षा भरी हँसी खिंचती चली गई। इतनी की मुझे खटक गई, ‘बहुत हँस रही हो उस पर, तुम खुद क्या हो? हाँ टिपिकल… क्या? अपने बारे में भी बताओ जरा…।’

‘मैं?’ वह कुछ पलों के लिए ठक से रह गई। फिर एक अपरिचित शर्मसार-सी टोन में कुछ बुदबुदाई।

‘क्या? मैं नहीं सुन पाई?’

‘मैंऽऽमैं… ‘कैबरे डांसर’…’ वह कानफोड़ू वॉल्यूम में चीखी और फोन बंद कर दिया।

अब ठक से रह जाने की बारी मेरी थी। ये क्या बोल रही थी वह? एकदम अनाप-शनाप। बहुत हर्ट हो गई शायद…। मैं सारी रात ग्लानि से भरी सोचती रहीं, और अगले दिन पहली फुर्सत में उसे मनाने पहुँची।

मेरे सामने गजब का नजारा था। स्टेला ने हरा शरारा पहन रखा था, और कुछ लाउड मेकउप भी कर रखा था। मुझे देखते ही उसने झटके से नाचना शुरू कर दिया।

पूरी तरह आमंत्रित करनेवाले अंदाज में। सारी अदाओं के साथ।

मैं ग्लानि से मरने लगी। ‘अरे बाबा, आई एम सॉरी, मैं तो यों ही… प्लीज गुस्सा थूक दो।’ उसके सामने बैठ मैं, बार-बार माफी माँगने लगी।

‘इसमें सॉरी की क्या बात है? तुमने ठीक ही सवाल किया’, कुर्सी पर अपना पूरा बोझ डालते हुए वह बोली।

‘अपूर्व चौधरी बहुत अच्छा आदमी है, मुझे उसका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। बस उम्र में मुझसे बहुत छोटा है, क्या करूँ?’

यह बताते वक्त उसकी आवाज रुँआसी हो गई थी, ठीक उस बच्चे सामान, जिसे अपना पसंदीदा खिलौना किसी दुकान के शोकेस में दिख जाता है, लकिन वह उसे खरीद नहीं पाता है। मुझे उसका पूरा व्यवहार बहुत अजीबोगरीब लगा। लेकिन उसने मुझे ज्यादा सोचने नहीं दिया। खट् से सिचुऐशन पलट दी और हौज खास विलेज ले जा कर मेरी ढेर सारी शॅापिंग करा डाली।

जिस दिन स्टीव ने अपूर्व से कहा, ‘अरे कभी-कभी स्टेला को भी अपने साथ घुमाने ले जाया करो। हो सकता है, तुम्हारे साथ घूमने पर इसे भी ओल्ड कॉलोनियल मोन्यूमेंटस में इंटिरेस्ट पैदा हो जाय, उसी दिन मैंने सोचा था, स्टीव गलती कर रहा है। अरे, साझेदारी और एकात्मकता कोई उम्र देख कर थोड़ी पैदा होती है? लेकिन स्टीव तो स्टीव था, अपनी बात को कहता ही नहीं था, चाहता था, सभी उससे सहमति भी प्रकट करें, इसीलिए जोर-जोर से अपूर्व की पीठ ठोक ऐलान कर रहा था, ‘यू आर ए ब्राइट यंग किड… अच्छे बच्चे हो तुम…। है न… है न?’ जब तक हमने सिर हिला कर अपनी रजामंदी नहीं दिखला दी, वह हमारी ओर देखता रहा था।

बच्चे और बड़े की बारीक अंतःरेखा को कभी पकड़ ही नहीं पाया स्टीव, लिहाजा जो बच्चे थे वे बड़े हो गए और बड़े बच्चे।

स्टेला ने भी स्वीकार किया था, जिंदगी बहुत तेज रफ्तार से बदलने लगी थी उन दिनों और दुख और सुख के सारे संदर्भो में वे दिन अविस्मरणीय हो गए थे। सारी बातें जायज और सही लगने लगी थीं।

इसी बीच न जाने कैसे, उसने मुझसे एक दिन पूछा था।

‘नाटक पर काम हो रहा है या नहीं?’

‘नहींऽऽ’ मेरा फ्रस्ट्रेशन बढ़ता जा रहा था। मुझे नई बातें सूझ ही नहीं रहीं थी। सब कुछ पेचीदा होता जा रहा था।

‘कोई बात नहीं, ज्यादा टेंशन मत करो देखना अपने आप सब कुछ साफ होता चला जाएगा, और एक बात याद रखना, कीप इट सिंपल।’

इसके बाद चर्च के कई कार्यक्रमों में अपूर्व भी हमारे साथ शामिल हुआ। फिर पार्टीज की प्लानिंग में भी वह स्टेला की मदद करने लगा। एक दो मॉन्यूमेन्ट्स भी स्टेला ने उसके साथ देखे, कई बार रात को ड्रिंक्स पर भी अपूर्व हमारे साथ बैठा। स्टीव और स्टेला दोनों का ही वह अजीज हो चुका था, इसीलिए हर वक्त मौजूद रहता था, लेकिन मेरे मन में पता नहीं क्यों, उसे ले कर बहुत आश्वस्ति बन नहीं पा रही थी।

और अब उस दिन का क्या कहूँ, जिस दिन मेरी शंका अपने समूल-डरावने रूप में मेरे सामने उपस्थित हो गईं। उस दिन तो लगा था, अब इस छोटी-सी सृष्टि पर कोई नहीं बचेगा यदि सबको नहीं तो ज्यादा लोगों को मरना ही होगा। लेकिन आश्चर्य सभी बच गए और तभी कहानी आगे बढ़ी।

क्रिसमस पार्टी के पहले दौर की कोई पार्टी थी, स्टेला और स्टीव के ग्रेटर कैलाशवाले घर पर। बातों-बातें में अपूर्व ने कहा, ‘दिल्ली है ही ऐसी, मुझ बंगाली को भी जकड़ लिया है।’ लोग मुस्करा दिए। तवज्जो सुरूर को था, बात को नहीं, लेकिन स्टेला बेतहाशा हँसती रही थी, मानो वही दिल्ली हो।

‘क्या इमारतें हैं, यहाँ सर,’ स्टीव को संबोधित करता हुआ वह स्टेला को देखता रहा था। स्टेला फिर हँस पड़ी थी।

‘सरऽऽ सर, वो अपने परदादावाली, कहानी फिर सुनाइए न… वो शिकार का उनका जुनून…।’ अपूर्व मोहब्बत से बार-बार इसरार कर रहा था।

माहौल में नशा बढ़ता जा रहा था। स्टीव अब अपूर्व की बातों को ठीक से सुन भी नहीं पा रहा था। उसकी आँखें मुँदने लगी थीं। इसी बीच मैंने देखा स्टेला धीरे-धीरे डगमगाती हुई आई और अपूर्व की कुर्सी के हत्थे पर बैठ गई। इतनी आकर्षक और छरहरी फिगरवाली दीख रही थी वह अपनी गुलाबी ड्रेस में, जिस पर दिल की जगह एक छोटी एंजेल बनी हुई थी। अपूर्व, स्टेला को यूँ देख, एक पल को हैरान हुआ था फिर सहज हो मुस्करा दिया था। उसी दम एक जहरीली फुफकार गूँजी थी सभा में। गुलाबी ड्रेस की ऐंजल कह रही थी, ‘कितनी बार सुनोगे वही कहानियाँ? स्टीव के परदादा दारोगा जेलर थे, उनको शिकार का जुनून था सुना तो है तुमने। सचमुच जुनून था उन्हें… ही किल्ड पीपल। यह सुना है? नहीं न? तो सुनो। नेटिव्स पसंद नहीं थे उन्हें। इसीलिए ‘धायँ’, उन्हीं का शिकार कर लेते थे वो, समझेऽऽऽ?’

यह सुन अपूर्व का चेहरा तेज हवा के उत्पात से कँपकँपाती चिमनी की लौ जैसा हुआ और फिर उत्पात के गुजर जाने के बाद का-सा, खूब रौशन और साफ। चारों और शोर-नशे और मुगलई खानों की तीखी गंधों के बीच ‘ऐंजल’ की अवाज का सबब ठीक उन लोगों तक ही पहुँचा, जहाँ उसे पहुँचना चाहिए था और मैंने डर और राहत से सोचा, कोई बात नहीं, चलो सृष्टि बच गई।

स्टीव मेरा फेवरेट है। उसके खानदानी गौरव की धज्जियाँ उड़ा दी थीं स्टेला ने। कैसा कहर बरपाया था? लेकिन नहीं, नहीं… नहीं, मैं इस सच को स्वीकारने से इनकार करती हूँ स्वीकार करना तो दूर की बात है, मैंने तो कुछ सुना ही नहीं और चूँकि मैं यह मानती हूँ कि सच कितना भी जरूरी हो लेकिन अगर वह किसी की स्थापित प्रतिष्ठा पर प्रहार करता है, उसके स्तर को मटियामेट करता है, तो मुझे सच के बजाए झूठ ही पसंद। स्टेला कुछ भी कह ले, झूठ के खिलाफ कैसे भी खड़ी हो जाय, मैं, झूठ के पक्ष में ही रहूँगी। स्टीव के झूठ के पक्ष में। अच्छा हुआ, वह कुछ नहीं सुन पाया। मैं पुरानीवाली शान के साथ ही उसके साथ बनी रह रहूँगी।

इस उद्घाटन के बाद अपूर्व ने स्टेला का हाथ पकड़ा और दोनों, मेरे ठीक सामने लगे बार पे खड़े हो बातें करने लगे। उस बहके और बेहोश पल में भी दोनों की आँखों में उठनेवाली चिंगारी पूरी तरह बाहोश थी। अपूर्व चौधुरी और स्टेला नौरिस सच के पाश में एक हो चुके थे।

उस दिन के बाद से स्टेला मुझसे मिलने से बचने लगी। जब मिलती भी तो शौपिंग और शौपिंग की बातें करती थी। अपूर्व की बात करने का मौका ही नहीं आता था। क्रिसमस को बरमुश्किल सात दिन बचे थे। कैरोल गानेवाली टोलियाँ घर-घर जा रही थीं। और गाने गा कर, गिफ्ट दे कर फिर और जोश से सड़कों पर भी निकल रही थीं। ‘पास्टर’ को जब मौका मिलता, तब वे गरीब घरों में जा कर लोगों को आशीर्वाद दे रहे थे। इन मौकों पर मेरी याददाश्त में पहली बार स्टेला मौजूद हुई थी। सीमापुरी, गीता कालोनी, आजाद कालोनी जैसे स्लम उसने पहली बार कैरोल गायकों की टोलियों के साथ देखे। उसके साथ बिला नागा अपूर्व बना रहा था। पता नहीं अपनी इस तरह की आवाजाही की बातें स्टेला ने स्टीव को बताईं कि नहीं, लेकिन मेरे सुनने में स्टीव की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई।

एक दिन दोपहर को स्टेला बिना सूचना दिए मेरे घर पहुँच गई। उसका चेहरा उत्तेजित लेकिन कुम्हलाया हुआ था। मेरे पलंग पर वह चारों खाने चित्त-सी लेट गई और बैग से टिश्यू निकाल अपनी आँखें पोंछने लगी। आँखों के चारों ओर काजल गीला हो छितरा गया था। हालाँकि आजकल हम दोनों के बीच एक रूखी-सी चुप्पी खिंचने लगी थी जिसकी वजह से मैं उसे ले कर कभी सहज नहीं हो पाती थी, फिर भी मैंने अधिकार से चिंता प्रकट की –

‘क्या हुआ?’

‘कहता है, बहुत हौसलामंद है वह। मैंने कहा बच्चे हो, मेरे बेटे की उम्र से थोड़े ही बड़े… तो बेहद नाराज हो गया, कहने लगा बेटे की उम्र के पास का होना और बेटा होने में फर्क समझती हैं? दो पीढ़ियों के मूल्यों के बीच फँसी औरत हैं आप। जो चाहती थीं कभी कर पाईं? न इधर की रहीं, न उधर की।’

‘तुम उससे दूर रहो। भगाओ उसको। है क्या वह… हुँह… एक अदना-सा फोटोग्राफर? तुम उसकी बातों की जद में बेवजह आती जा रही हो। अब एक अजनबी, एक बच्चा तुम्हें डॉमिनेट करेगा?’ आज उसके यों खुल कर भाव प्रदर्शित करने से मैं भी, इतने दिनों से भीतर बैठी नागवारी को बहने दे रही थी। स्टीव का खयाल रह-रह कर जो आता था, मेरा गुस्सा बढ़ता जाता था। मेरे बात करते-करते ही मैंने देखा, वह चुप हो गई थी और चुप्पी के बाद संग्रहित ताकत का तेज उसके माथे पर चमकने लगा था। तन कर बैठती हुई बोली थी।

‘नहीं-नहीं, तुम गलत समझ रही हो। मैं तो जीवन भर बहुत कारणों और लोगों से डॉमिनेटेड रही हूँ। वह तो इन चीजों से मुझे फ्री कर रहा है। आज की लाइव दुनिया से मेरा इंट्रोडक्शन करवा रहा है। जाने दो… तुम नहीं समझोगी,’ बोल वह मेरे घर से बिजली की तरह लापता हो गई थी।

यह तोहद थी! इस भोंदूपने पर, सिर पकड़ कर परास्त हो जाने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था।

बाईस दिसंबर की रात उसने मुझे फोन कर निमंत्रण दिया था।

‘आओगी? जनपथ पर कॉफी, ढेर सारी जिप्सी स्कर्ट्स की खरीदारी और कनाट प्लेस की भीड़ से अलग, सेंट्रल पार्क में घास पर लेटे चाँद उगने का इंतजार करेंगे। जानती हो ऐसी ठंड में घास पर लेटना कितना मजेदार होता है, अपूर्व के साथ कई बार इस तरह इंतजार किया है मैंने।’

‘क्या कर रही हो स्टेला? इस तरह कनाट प्लेस के आसपास घूमती रहती हो अपूर्व के साथ? स्टीव के शो रूम के स्टाफ ने देख लिया तो क्या होगा?’

‘क्या होगा?’ उसका चिरपरिचित भोंदूपन पुख्ता होने लगा।

‘लोग तरह-तरह की बातें करेंगे, इतना भी समझ में नहीं आता तुम्हें?’

‘हँह! परवाह किसे है? और ये स्टेटस वगैरह की बातों का कोई मतलब होता नहीं है। अच्छा…’ उसने गहरे निःश्वास से कहा, ‘आना जरूर आज तुम्हें कुछ बातें बतानी हैं। तुम्हारे आने से पहले अपूर्व को रवाना कर दूँगी।’ मुझे लगा, यह अच्छा ही रहेगा। आज उसे इस तरह के संबंधों की परिणति के बारे में, और सामाजिक प्रतिष्ठा (फिर वही मेरा मध्यमवर्गीय आग्रह) के बारे में भी चार बातें समझा ही दूँगी।

ठंडी घास, कड़ाके की सर्दी के बीच, स्टेला और मैं उग आए चाँद को निहार रहे थे, जब मैंने उससे सवाल किया था, ‘तुम दोनो के बीच आखिर है कैसा रिश्ता?’

वह खुशी से भर, तत्परता से बोली थी,

‘अपूर्व कहता है, इट्स नॉट ए चीप-ब्रीफ अफेयर फॉर हिम।’

‘गलत कहता है वह, बरगला रहा है तुम्हें, उसके लिए यह अफेयर ही है और तुम्हारे लिए एक एडवेंचर… समझीं।’ मेरा गुस्सा उसे तेजी से जला गया।

‘हाँ?’ वह उत्तेजित हो एकदम से खड़ी हो गई थी।

‘एडवेंचर बहुत हो चुका मेरे जीवन में। जानती क्या हो तुम हाँ? लेखक हो तो बड़ी-बड़ी बातें बनाती रहती हो।’ फिर वह तेज-तेज चलने लगी और बड़बड़ाने लगी। बिल्कुल विक्षिप्तों की तरह। मुझे दौड़ कर उससे कदम मिलाना पड़ा।

‘उस दिन उस दिन…ऽऽ फोन पर मैंने तुमसे ठीक कहा था, लेकिन तुम्हारे अंदर न जाने कैसी जिदें और कुंठाएँ हैं कि तुम लोगों के सचों को स्वीकार करने से कतराती हो। मैं शादी से पहले एक स्टेज डांसर ही थी। बचपन के मेरे शहर बेतिया से एक डांसर निकली थी, जो हिंदी फिल्मों में बहुत मशहूर हुई। जानती हो उसका नाम…? हेलन! ऐसा लोग कहते थे। जाने अफवाह थी या सच। लेकिन मैंने उसे अपने भविष्य का सच बनाया। स्टीव ने मुझे…।’ इसके बाद वह चुप हो कर, पार्क के कोने में बैठ गई थी, मानो उसका काम खत्म हो गया है, और वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई है। मैं भी उसके इस खुलासे से सन्न हो उसके पास बैठ गई थी। मुझे याद आने लगी थी, चर्च और स्टीव के परिचित लोगों की खुसपुस जो आज से बीस-बाईस साल पहले हुआ करती थीं।

‘पता नही, कहाँ फँस गया स्टीव।’

‘कोई चीप-सी डांसर है, जिसे उठा लाया है।’

‘न-न शादी की है, हमने अटेंड की है, प्राइवेट सेरेमोनी में, घर पर। ‘

‘न-न…, बहुत अच्छी है। वेरी अट्रेक्टिव एंड सोफिस्टिकेटेड, फादर-मदर भी नहीं हैं लड़की के।’

यह सब याद करते हुए, मुझे फिर लगा कि आज दुबारा स्टेला ने मेरे सामने चुनौती रखी थी कि मैं अपने भ्रमों से मुक्त हो, सच को सच की तरह स्वीकार करूँ और सहज बनी रहूँ। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती स्टेला। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकती, इसीलिए मैं आज भी इनकार करती हूँ कि स्टेला मैंने तुम्हारे बारे में कुछ नया जाना है। ऐसा कुछ नया जो इतने दिनों से बनी तुम्हारी इमेज को खंडित करता है। इसीलिए – ऐसा ही हो, कि स्मृति ने आज किसी नई बात को दर्ज नहीं किया है। सनद रहे – स्टेला और स्टीव की उलझी हुई कोई भी बैक स्टोरी नहीं है।

‘कीप इट सिंपल, जस्ट कीप इट सिंपल।’

क्रिसमस की पूर्व संध्यावाली पार्टी में मानेसरवाले फार्म हाउस पर भव्य इंतजाम था। चारों ओर क्रिसमसी गाने बज रहे थे। खूब सारी झक-झक करती हुई बत्तियों के बीच आत्मविश्वास से भरा अपूर्व चौधुरी मंच पर चढ़ा और अपने बोल्ड समय का ऐलान करते हुए बोला, ‘यह इक्कीसवीं सदी का क्रिसमस है स्टीव सर, आप मुझे इजाजत दें तो मैं आपसे एक सीक्रेट शेयर करना चाहता हूँ। बचपन से हिंदी फिल्मों की डांसर हेलन, मेरी फेवरिट रही है। क्यों न आज की पार्टी उसी के नाम हो जाय। क्यों न आज हम उसी के गानों पर डांस करें?’

चारों और तालियाँ और सीटियाँ बजने लगीं। स्टीव चिल्लाया,

‘वाई नॉट?’ और जब स्टीव के बगल में बैठी स्टेला का हाथ माँगते हुए, अपूर्व ने इजाजत माँगी, ‘क्या मैं मैम के साथ डांस कर सकता हूँ?’ तो स्टीव ने बड़ा-सा ठहाका लगाया। अलबत्ता स्टेला की आँखों में एक नन्हा जिद्दी आँसू देर तक अटका रह गया।

कई बातें जो स्टेला ने मुझे बाद में बताईं, उनमें से एक अहम बात यह भी थी कि मेरे अलावा सिर्फ अपूर्व चौधुरी ही वह शख्स था, जिससे उसने ‘बड़ी हो कर हेलन जैसी बनना चाहती हूँ’ वाली ख्वाहिश बाँटी थी। अपूर्व ने उसकी ख्वाहिश का सम्मान किया था। ‘वह बहुत बड़ी सोचवाला, छोटी उम्र का आदमी है,’ उसने दाँत पीसते हुए कहा था और मेरी और उलाहना भरी नजरों से देखा था।

उन्ही दिनों मुझे असम जाना पड़ा, एक लंबे दौरे पर। लौट के आने के बाद पता चला स्टीव और स्टेला अपने बेटे से मिलने और यूरोप घूमने जा रहे हैं। जब स्टेला मुझसे मिली तो, शहर के नामी-गिरामी लोगों के बारे में ढेर-सारी बातें सुनाने लगी। अपूर्व चौधुरी की एक बात न की। मेरे अंदर शंका के बादल घुमड़ने लगे। हिम्मत कर मैंने पूछ ही डाला, ‘और अपूर्व का क्या हाल है?’

‘बिल्कुल ठीक।’ वह थोड़ी लापरवाही से बोली और हँसने लगी, एक गीली-गीली-सी हँसी।

‘गया था, कोलकाता, अपनी किताब के पब्लिशर से मिलने। आएगा परसोंवाली पार्टी में। वहीं मानेसर।’

‘फिर पार्टी है?’

‘हाँऽऽ’ धीरे-धीरे निस्तेज-सी होती जा रही वह बोली, ‘लोग थकते कहाँ हैं पार्टियों से, स्टीव के ऊपर दबाव बनाया ‘पोस्ट क्रिसमस पार्टी’ करो तुम लोग, अब महीने भर की रौनक समेटे तो यूरोप चले जाओगे। भरपाई करो उसकी।’

‘हूँऽऽ’, मैने उसे उकसाने की गरज से कहा, ‘तुम भी तो नहीं थकतीं, इतनी सारी चीजें, एक साथ सँभालती रहती हो।’

‘न, तुम फिर गलत हो, तुम देख ही नहीं पा रही हो, मैं कितना थक रही हूँ।’

जी किया कह दूँ ‘कीप इट सिंपल बेबी’ दे मारूँ उसी का मंत्र उसके मुँह पर, लेकिन फिर जाने दिया, उसकी अंदरुनी सेहत बहुत माफिक नही लगी मुझे।

मानेसर की पोस्ट-क्रिसमस पार्टी खास रेट्रो थीम पर रखी गई थी। सब साठ-सत्तर के दशक की हिंदी फिल्मों से इंस्पायर्ड कपड़े पहन कर आए थे। फिजा में टि्व्स्ट, रॉक ऐंड रोल, सांबा का डांस म्यूजिक गूँज रहा था। कुछ नही तो दो सौ गेस्ट थे, जिनके बीच से मैने अपूर्व चौधुरी को मुश्किल से तलाशा। वह एक कोने में ठीक डीजे के मंच के साथ बैठा था और सिगरेट फूँकता हुआ, धुएँ के छल्ले बना रहा था। वह किसी सोच में डूबा हुआ भी लग रहा था। किसी से बातचीत भी नहीं कर रहा था। स्टेला बहुत देर तक उसके पास नहीं फटकी, और एक बार जो गई भी तो दोनों के बीच, नजरों के अलावा कोई आदान-प्रदान नही हुआ। इसके बाद, अपूर्व अपनी टेबल पर शराब के गिलासों का अंबार लगाने लगा। पहली बार मुझे उसकी मनःस्थिति पर चिंता होने लगी। सोचा, स्टेला को बुला कर आगाह कर दूँ, कहीं कोई अप्रिय सीन न हो जाय, लेकिन इसका मौका ही नहीं मिला, क्योंकि उस दिन स्टीव नौरिस पर भी कोई रेट्रो भूत सवार हो गया था। वह बहुत पीने के बाद मंच पर गिरता पड़ता चढ़ गया था, और म्यूजिक बंद करवा कर, माइक में चीखने लगा था, ‘साइलेंस… साइलेंस।’

लोग इस अचानक की घोषणा से चकित हो, अपनी-अपनी जगहों पर जम गए। जब स्टीव को पूरी चुप्पी का एहसास हो गया तो वह फिर माइक से चिल्लाया ‘स्टेला नौरिस, क्या तुम अब भी स्टीव नौरिस को प्यार करती हो?’

इस अप्रत्याशित सवाल से चारों ओर की हवा भारी हो गई। दबाव की भाषा तनाव भरी थी। लगा शिराएँ फट जाएँगी, धमनियों का खून चारों ओर फैल जाएगा और जो कुछ लोग डूब गए तोऽऽ…। सवाल सुन स्टेला सन्न रह गई। उसने मंच से अपना चेहरा हटा कर, मंच के कोने में रखी इकलौती कुर्सी, और टेबल पर रखे तमाम गिलासों के बीच से अपूर्व चौधुरी की आँखों को खोजा, उसने वहाँ पर भी वही सवाल पाया जो स्टीव ने अभी-अभी उसकी ओर उछाला था। जवाब जान कर, उसका दिल बहुत जोर का दुखने लगा था। उसने बिना समय गॅँवाए, दौड़ कर, स्टेज पर चढ़ कर, स्टीव से माइक छीना और चिल्ला कर कहाँ, ‘हाँऽऽ हाँऽऽ हाँऽऽ।’

लोगों ने इस लाउड शो ऑफ इमोशन पर जोरदार तालिंयाँ बजाईं। कुछ लोगों ने आँखों की कोरों से पानी भी पोंछा, और स्टेला और स्टीव ने लोगों के जाने के बाद भी नाचना नहीं बंद किया।

इसके कुछ ही दिनों बाद स्टीव और स्टेला यूरोप चले गए। फेस बुक अपडेट्स से पता चलता रहा, परिवार बहुत मजे कर रहा है।

स्टेला जब लौट कर आई, तब दिल्ली अपने सबसे खूबसूरत पड़ाव पर थी चारों ओर फूल ही फूल, हल्की-फुल्की सहलाती ठंडक और गुनगुनाती धूप। मेरे मन में भी अनोखी उमंग थी। जिंदगी की सच्चाई पर फिर फिर विश्वास करने का मन करने लगा था। जी चाह रहा था, स्टेला से जल्द से जल्द मिलूँ और अपनी बातें शेयर करूँ। इसीलिए उसके आने के अगले ही दिन, मैं उसके घर पहुँच गई। देखा, वह लॉन में बैठी हुई थी और घर के अंदर से किसी अंग्रेजी गाने की आवाज आ रही थी। गौर किया तो समझ में आया, हमारे कॉलेज के जमाने के एक गाने का नया संस्करण था।

LAST CHRISTMAS, I GAVE YOU MY HEART,

BUT THE VERY NEXT DAY

YOU GAVE IT AWAY.

फिर उसे पास से देख तो धक्का लगा। वह एकदम बेजान और मुरझाई हुई लग रही थी। उसके कपड़े बेतरतीब थे, बाल फैले हुए। आज तक जो अपनी उम्र से दस साल कम लगती रही आज अपनी उम्र का ऐलान कर रही थी।

‘क्या हुआ?’

‘कुछ नहीं।’

‘कैसी हो ?’

‘मस्त।’

इसके बाद हमारे बीच एक बेरहम-सी चुप्पी पसर गई। कॉफी के दूसरे दौर के बाद उसी ने चुप्पी को भंग किया।

‘अपूर्व चौधुरी और मेरे बीच कुछ नहीं रहा।’

‘समझती हूँ।’

इसपे उसने मुझे जिबह हो रहे जानवर की आँखों से देखा। मैं उसके इस दुख से भीतर तक थर्रा गई। क्या हुआ था ऐसा… कुछ बताती भी नहीं थी।

फिर उसका मूड अचानक पलट गया।

नाटकीय हँसी हँसते हुए बोली, ‘तुम्हारे नाटक में इंटरल्यूड की जगह है? वैसे इंटरल्यूड का वजन होता कितना है? फिल अप द ब्लैंक्स जैसा क्या? हाऽ हाऽऽ बताओ न?’

मैंने उसकी विक्षिप्तता से हुज्जत करने की जरूरत नहीं समझी। चुपचाप उसका हाथ पकड़, उसे बेडरूम में ले गई। वह एक उदास छोटे बच्चे की तरह मेरी बात मान गई। वहाँ पलंग पर हम दोनों सिरहाने से पीठ लगा बैठ गए। मानों अब यही अगला कदम होना था, फिर अगला घटित होगा और उसके बाद फिर अगला। सचमुच उसके बाद वह हलक में फँसी जान को धीरे-धीरे आजाद करने के वास्ते सिसकने लगी। उसके बाद ही, मैंने उसे, मरने के पहले जिंदगी का राज बताना शुरू किया था। इस उम्मीद के साथ कि अब तक जो वह मरने की तैयारी कर रही है, उसे एक सिरे से यदि खारिज नहीं भी कर पाए तो किसी अघोषित अनजान समय के लिए स्थगित तो जरूर ही कर देगी।

‘स्टेला, मुझे अंदाजा नहीं था तुम्हारे साथ क्या हुआ लेकिन इस बीच मेरे अंदर भी बहुत कुछ बदला है। तुमने कहा था न, कई बार बहुत सोचना नही पड़ता, चीजें अपने आप सुलट जाती हैं। ऐसा ही होता है स्टेला, मैं मानने लगी हूँ समय बड़ा जालिम हो गया है, झूठ और सच का भ्रम बहुत ज्यादा है। लेकिन जानती हो, फिर भी मैं अब मानने लगी हूँ कि दुनिया अभी भी धोखों की बदौलत नहीं विश्वास के बल पर चल रही है। जानती हूँ, तुम्हारा मन नहीं, लेकिन फिर भी तुम्हारे लिए एक गिफ्ट लाई हूँ। खोलोगी?’ प्लीज…।’

वह, एकटक मेरी ओर देख रही थी, और इस बार खुली आँखों से अपने भोंदूपने का इजहार कर रही थी। मै समझ रही थी, स्टीव इस पर क्यों मरता है, और अपूर्व चौधुरी ने इसमें क्या पाया होगा।

धीरे से मैने गिफ्ट उसके हाथों में धकेल दिया। उसने यंत्रचालित-सी हो, उसका रैपर खोला। अंदर से एक किताब निकली। मैंने अपनी नजरें नीचे कर रखी हैं। उसी किताब पर, जो मैं उसके लिए लाई हूँ। मैं इस वक्त उसका चेहरा देख उसके आश्चर्य की पवित्रता को नष्ट नही करना चाहती हूँ। मैं सुनती हूँ, उसके गले से एक घुटी हुई चीख निकलती है। वह अब जरूर देख रही है। किताब का कवर सीपिया रंग में रँगा है। शीर्षक बोल्ड अक्षरों में है।

COLONIAL MONUMENTS OF OLD DELHI

लेखक – अपूर्व चौधरी

वह निस्संदेह अब एक के बाद एक बड़े एहतियात से पन्ने पलट रही है।

किताब में एक पन्ना समर्पण के लिए सुरक्षित है। समर्पण किताबों का स्थायी भाव है।

पन्ने के बीचो-बीच लिखा है,

‘कुछ चीजें चिरकालिक होती हैं।’

‘यह किताब – हेलन के लिए।’

स्टेला की उँगलियाँ वहाँ ठहर कर, फिर उठ जाती हैं। वह किताब के अन्य पन्नों को नहीं पलटती। धीरे से किताब बंद कर देती है और किताब को एक बार अपनी छाती से चिपका लेती है, फिर दुबारा किताब अपनी गोद में रख, धीरे-धीरे बड़ी मुलायमियत से ‘अपूर्व चौधुरी’ के नाम पर उँगलियाँ फिराने लगती है, बार-बार, मानो किसी कोमल निष्पाप मेमने की देह सहला रही हो।

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