स्पीड ब्रेकर | गोविंद सेन
स्पीड ब्रेकर | गोविंद सेन

स्पीड ब्रेकर | गोविंद सेन – Speed Breaker

स्पीड ब्रेकर | गोविंद सेन

हफ्ते-दो हफ्ते में कोई न कोई स्पीड ब्रेकर मिल ही जाता है। अमूमन सुबह घूमकर लौटने में मुझे सवा घंटा लगता है। लेकिन जब कोई स्पीड ब्रेकर मिल जाता है तो पंद्रह मिनट से लेकर आधे घंटे तक की देरी हो जाती है। पत्नी पूछती है – ‘आज देर हो गई?’ मेरा जवाब होता – ‘एक स्पीड ब्रेकर मिल गया था। साले ने आधे घंटे तक चगने ही नहीं दिया। फोकट मगज खाता रहा।’ स्वर में खिन्नता होती। अनचाहे ही रास्ता रोककर मगज खाने वाले को मैं स्पीड ब्रेकर ही कहता हूँ। ये स्पीड ब्रेकर स्वाभाविक गति को बाधित कर दिमाग की धारा को एक अलग मोड़ दे देते हैं। घर पहुँचने की कितनी ही जल्दी क्यों न हो, स्पीड ब्रेकर अपनी बात पूरी बताए बगैर छोड़ते ही नहीं। मेरी ऊब और जाने की जल्दी को समझते ही नहीं। ऐसे परिचित मिलते ही रहते हैं।

एक बार एक परिचित शुगर के लिए खुद पर आजमाए हुए देशी नुस्खे ही बताता रहा – वह भी आधे घंटे तक। अनिच्छा से उसे सुनना ही पड़ा। चूँकि वह तो मेरे भले के लिए ही बता रहा था। इसलिए मैं उसे सुनने से कैसे इनकार कर दूँ। आखिर सौजन्य भी कोई चीज होती है।

आज भी एक स्पीड ब्रेकर मिल गया था। मैं अपने आपको कोसता हूँ। क्यों दो मिनट लेट न हुआ। दो न सही एक मिनट ही लेट हो जाता तो उसके दृष्टिपथ में तो न आता। मन्या का शिकार न बनता। बालीपुर फाटे से वह बालीपुर के लिए मुड़ जाता और मैं उसकी पकड़ में आने से बच जाता। लेकिन होनी बलवान होती है – होकर ही रहती है।

मन्या मंडी से सब्जियाँ लेकर लौट रहा था। वह मध्यान्ह भोजन के लिए सब्जियाँ लाता है। रोज मंडी टच करता है। अक्सर वह स्कूटी से आता-जाता दीखता रहता है। लेकिन कभी न उसने मिलने की कोशिश की थी, न मैंने। लेकिन आज तो वह मिलने को उत्सुक ही नहीं, बल्कि आमादा लग रहा था।

जैसे ही मैं बालीपुर फाटे पर पहुँचा, मन्या की निगाह मुझ पर पड़ गई। उसकी तो बाँछें खिल गईं। जैसे उसे अपना शिकार अनायास और निष्प्रयास मिल गया हो। उसने अपनी स्कूटी रोक दी थी। चाबी घुमाकर स्कूटी बंद कर दी। पहले तो मैं भी खुश हुआ था कि चलो, बरसों पुराने एक परिचित से मिलना हो जाएगा। लेकिन कुछ ही समय बाद खुद को फँसा हुआ महसूस करने लगा। वह आठ-दस साल बाद मिला था और उसकी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। वह बिना रुके अपनी सफलता की कहानी सुनाता ही जा रहा था। जैसे फर्राटे से दौड़ती बिना ब्रेक की गाड़ी हो।

मन्या यानी मन्नालाल। बचपन में हम उसे मन्या ही कहते थे। मैंने बालीपुर से ही मौसी के घर रहकर मिडिल पास की थी। क्लास में अव्वल आता था। तब अव्वल आना बड़ी बात होती थी। अव्वल आने वाला लड़का चर्चित हो जाता था। यह मान लिया जाता था कि यह आगे चलकर डॉक्टर, इंजीनियर या बड़ा अफसर बनकर खूब पैसे कमाएगा। गाँव के हिसाब से यह बड़ी बात होती। मेरी यही छवि मन्या के दिमाग में भी बनी हुई होगी। अब वह उस छवि को ध्वस्त करने पर लगभग आमादा था।

मन्या का घर मौसी के घर से बिलकुल सटा हुआ था। पकी-अधपकी ईटों की कामचलाऊ दीवारें थीं। आधी छत कवेलू और आधी पतरों से ढकी थी। आर्थिक हालत खराब थी जो कि अधिकांश लोगों की थी। मन्या मुझसे आठ-दस साल छोटा होगा ही। वह मौसेरे भाई मुकेश का हमउम्र था। दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे। मन्या एक किसान परिवार से था। तीन भाइयों में वह सबसे छोटा था। हिस्से-बँटवारे के बाद जमीन कम हो गई थी। मन्या को रोजगार और पैसे कमाने के दूसरे विकल्प तलाश करने पड़े थे। उसका रुझान तिकड़म और जुगाड़ में अधिक था।

वह विस्तार से बताता जा रहा था। कैसे उसने शून्य से शुरू हो शिखर को छुआ था। एक जमाना ये था कि वह लोगों से पैसे माँगता फिरता था। उसके पास सौ-दो सौ का भी सोय नहीं होता था। सत्रह धंधे और फंदे किए। जुड़ाई की। मकान बनाने के ठेके लिए। फिर भी बात नहीं बनी। बलात्कार के एक केस में भी फँसा। हालाँकि उसने यह नहीं बताया कि उसने सचमुच बलात्कार किया था या नहीं। मैंने भी सौजन्य वश सच्चाई जानने की कोशिश नहीं की। जज को एक लाख रुपये देकर वह उस केस से बरी हुआ था। इस हिसाब से तो वह बहुत परेशानी में फँसा हुआ था।

मुझ से रहा न गया। पूछा – ‘फिर यह कायापलट कैसे हुई?’

शायद वह इसी सवाल का इंतजार कर रहा था। उसने फटाक से जवाब दिया -‘एमडीएम से। मध्याह भोजन मेरे लिए अनमोल रतन साबित हुआ।’ जैसे मीराबाई को राम रतन धन प्राप्त हुआ था वैसे ही उसे एमडीएम रूपी रतन प्राप्त हुआ था। पहले वह सीईओ को हजार-दो हजार के लिए ब्लैकमेल किया करता था। सीईओ ने कहा – ‘तू एमडीएम क्यों नहीं चलाता।’

तब उसके पास पैसे कहाँ थे। कुछ समय पहले उसने बैंक में क्राफ्ट लोन के लिए आवेदन कर रखा था। संयोग से खबर आई कि मन्नालाल तेरा लोन मंजूर हो गया है। पर तीन हजार देने होंगे। वह उत्साह से बताने लगा – ‘मेरी तो उड़ के लगी थी। मैंने कहा – तीन नहीं चार हजार लेना, एक हजार मेरी तरफ से और मैंने उसे लोन में से ही चार हजार खुशी-खुशी दे दिए। वह भी खुश, मैं भी खुश। इस तरह साठ हजार मुझे बैंक से मिल गए।’

उसने गौर किया कि पहले की तरह मन्या गाँव की आड़ी बोली से एकदम ठेठ खड़ी बोली पर आ गया था। हालाँकि लहजा उसका वही गाँव वाला ही था। शायद हिंदी में बात करने से ज़्यादा वजन पड़ता है। दूसरी बात शायद यह हो कि वह मुझे प्रभावित करना चाहता हो। चूँकि अब मैं गाँव में नहीं रहता, शहर का बाशिंदा हो गया हूँ। जबकि मन्या गाँव में ही रहता है। इसलिए वह यह दिखा देना चाहता है कि अब वह गाँव का सीधासादा मन्या नहीं, बल्कि शहरी बाबुओं, मास्टरों और अफसरों को भी घुमा देने वाला मन्नालाल बन चुका है।

उसने बैंक से लोन के बाद की कहानी बताना शुरू की। अब सवाल गेहूँ का था।

‘याद करो कि बद्रीलाल वर्मा मास्टर कैसे मरा?’ मुझसे मुखातिब हो उसने पूछा।

‘हार्ट अटैक से’। मेरे जवाब पर वह मुस्काया। जैसे मैंने कोई निहायत ही बचकाना जवाब दिया हो।

‘लेकिन हार्ट अटैक क्यों पड़ा?’

मन्या के इस सवाल का मेरे पास जवाब नहीं था। तब रहस्य पर से पर्दा उठाने के अंदाज में उसने कहा – ‘पहले एमडीएम मास्टर चलाते थे। वर्मा मास्टर ने कंट्रोल से गेहूँ उठाया ही नहीं। कागज पर एमडीएम चलाता रहा। दस क्विंटल गेहूँ इकट्ठे हो गए। वह जिस दिन कंट्रोल से, चोरी से गेहूँ ले जा रहा था, मैंने पकड़ लिया। धमकाया कि अभी कंप्लेन करता हूँ। बस वर्मा मास्टर घबरा गया। अटैक आया और वहीं खतम। यदि मैं बीच में नहीं आता तो वह पूरा गेहूँ बेचकर खा गया होता।’

वर्मा की मौत की हकीकत जान मैं अवाक रह गया।

अब आगे का किस्सा सुनो – ‘अंबाराम पाटीदार को मैंने कहा – गेहूँ दिलवा दो तो एमडीएम शुरू करता हूँ।’

‘अंबाराम कौन?’ मैंने जानना चाहा।

‘अरे, वही, जो बीओ ऑफिस में है, एमडीएम सँभालता है… उसने झट से कागज बना दिया कि दस क्विंटल गेहूँ मन्नालाल राठौर को दिया जाय।’

मुझे कुछ तो मालूम था ही। लेकिन उससे कन्फर्म करना चाहता था। मगज में अंबाराम पाटीदार की फाइल खुलने लगी। वह मूलतः शिक्षक ही था। लेकिन मंडल संयोजक बना बैठा था। स्थानीय विधायक का खास कृपा पात्र था। उसने एमडीएम के लिए आए हुए गेहूँ का पूरा का पूरा एक ट्रक ही पार कर दिया था। बहुत जुगाड़ी है। उसकी थोक स्टेशनरी की दुकान चल रही है। ब्लाक की सभी स्कूलों और सरकारी कार्यालयों में उसी की दुकान से स्टेशनरी जाती है। गाँव में लम-सम खेती-बाड़ी तो है ही।

मन्नालाल ने जोर देकर बताया कि आज मेरे पास सात आँगनवाड़ी और चार स्कूल हैं। पूरे ब्लाक की आँगनवाड़ियों के लिए सत्तू बनाने का काम भी मुझे ही मिला था। उसने थोड़े धीमे स्वर में बताया कि सत्तू-वत्तू कुछ बना नहीं। साहब ने कहा -‘मन्नालाल सत्तू बनाने की कोई जरूरत नहीं पाँच लाख आए हैं। तीन तू ले और दो मैं रखता हूँ। तीन लाख फ़ोकट के आ गए। भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है… फिर और सत्तू का काम मिल रहा है।’

‘एमडीएम भी एक नंबर चलाता हूँ। भोजन मीनू अनुसार ही बनता है। सब लोगों से कहता हूँ कि पहले मेरी आँगनवाड़ी चेक करो। सब चेक करते हैं और पीठ ठोककर जाते हैं। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर मास्टरों और अफसरों को विशेष भोजन देता हूँ।’ फिर वह मीनू अनुसार भोजन बनाने और निरीक्षकों को खुश रखने की खुद की ईजाद की हुई तरकीबों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालता रहा।‍‌

‘तुम्हारी कितने साल की सर्विस है?’

सवाल सुन मैं थोड़ा अचकचा गया। मैं इसके लिए कतई तैयार नहीं था। यह पहली बात थी जिसका संबंध मुझ से था। अभी तक वह केवल अपना ही वर्णन-विवरण और विचार प्रस्तुत कर रहा था, वह भी बहुत ही प्रभावी तरीके से। मुझ पर तो जैसे अचानक हमला हुआ हो। मैं तो अभी उसकी ही बातों में डूब-उतरा रहा था। लेकिन मुझे जवाब तो देना ही था। पता नहीं वह यह क्यों जानना चाहता है? मन में अनाम आशंका फन उठाने लगी। मन ही मन हिसाब लगाने लगा।

‘तीस साल तो हो गए हैं। चौरासी में लगा था।’

मन्या उत्साह से बताने लगा – ‘एमडीएम चलाते-चलाते अभी मुझे केवल छह साल हुए हैं। बैंक में मेरे तीस लाख पड़े हैं।’

सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। मन्या का चेहरा खुशी से दीप्त होता जा रहा था। मेरा चेहरा बुझता जा रहा था। मुझे अपना दयनीय बैंक खाता याद आया। बच्चे ठीक रोजगार से लग नहीं पा रहे थे। प्राइवेट स्कूल में मास्टरी कर रहे थे।

उसने आगे बताया – ‘एक पिक-अप, बुलेरो, मोटरसाइकिल और ये स्कूटी है। तीन मंजिला मकान खड़ा कर लिया है। कभी आकर देखो तो… कभी स्कूल से छुट्टी भी ले लिया करो। छुट्टी तो तुम क्या लेते होंगे। गेप भी क्या मारते होंगे। कुछ करो दादा, कोरी मास्टरी से क्या होगा… मेरे छोरे ने बीफार्मा कर लिया है। तीन लाख दे दिए हैं। एमवाय में उसका हो जाएगा। छोरी भी इंदौर में सीए का कोर्स कर रही है।’

मुझे अपनी जिंदगी व्यर्थ होने का अहसास तीव्रता से होने लगा। क्यों मैं अंबाराम पाटीदार या मन्या जैसा नहीं बन पाया!

‘मुकेश बहुत पिछड़ गया है। बाल के धंधे में कोई दम नहीं है।’

मुझे तो वह धराशायी कर ही चुका था। अब उसे उसने उसके साथ पढ़ने वाले मौसेरे भाई मुकेश को भी पकड़ लिया था। उसने उसे भी अपटनी लगा दी। अखाड़े में मन्या के सामने न मैं कुछ लग रहा था, न मुकेश। दोनों उसके सामने धूल चाट रहे थे।

मुकेश बाल बनाने का काम न करे तो क्या करे। खेती-बाड़ी तो है नहीं। क्या वह भी मन्या जैसा हो जाय या उसे गुरु बनाकर पैसे कमाने के तरकीबें सीखे। तिकड़मों के पाठ पढ़े।

तभी मोबाइल बजा। मोबाइल उठाने से पहले मैंने उससे इजाजत ली – ‘अच्छा चलूँ’ और उसकी इच्छा की परवाह किए बगैर मैंने आगे बढ़ते हुए पत्नी का मोबाइल अटैंड किया। पत्नी मुझसे पूछ रही थी कि मैं कहाँ अटक गया हूँ। अभी तक लौटा क्यों नहीं।

‘अरे, कुछ नहीं, रस्ते में एक स्पीड ब्रेकर मिल गया था।’ मैंने पत्नी को कारण बताया जो शायद उसके सिर के ऊपर से निकल गया था।

खैर, रस्ते भर मन्या की बातें मगज में उमड़ती-घुमड़ती रहीं। मन्या ने अपना विराट रूप दिखाकर मुझे वामन सिद्ध कर दिया था। खूब पढ़ा-लिखा होने के बावजूद मेरी गुजर जैसे-तैसे ही हो रही थी जबकि मन्या बमुश्किल आठवीं पास होगा। लेकिन मजे कर रहा है।

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं मन्या को धिक्कारूँ या खुद को… या उस व्यवस्था को जो मन्या जैसे लोगों को हीरो बना देती है।

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