त्रिलोक सिंह ठकुरेला
त्रिलोक सिंह ठकुरेला

भाँग खाकर
नींद के आगोश में
खोया शहर

हर तरफ
दहशत उगाती
रात आकर
पतित मन
छल-छद्म करता
मुस्कराकर
और सहसा
घोल देता हवा में
तीखा जहर

सिकुड़ जाती
आपसी संबंध की
पतली गली
नजर आती
देह भी विश्वास की
झुलसी, जली
प्रकट होती
मानवों के बीच में
चौड़ी नहर

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