सूत-कपास | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
सूत-कपास | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

(नरेंद्र जैनदेवीलाल पाटीदारमनोज कुलकर्णीविनय उपाध्याय और गीत चतुर्वेदी के लिए)

सूत हर कपास का स्वप्न है

कातता है जिसे कबीर
तैयार करता है झीनी-बीनी चदरिया
और जतन से ओढ़कर धर देता है जस की तस

वही सूत जिससे गांधी का चरखा
कपड़ा बुनते-बुनते
बुन देता है आजाद भारत का महास्वप्न
इसी सूत को बचाने के लिए
बापू ने जलाई थी बरतानियाँ कपड़ों की होली
और बन गया था देश का खादीमन

कोरी या बुनकर का करघा
अपने ताना-बाना में लेकर आता है
कपास की आँच और उजास

हर धागा में पगा होता है
कारीगर की मेहनत का महत्व
और करघे का संगीत
इसीलिए चादर को ओढ़ना-बिछाना
संजीदा शऊर होता है

इधर चादर फट रही होती है
उधर सूत के लिए खेत में
चटख रही होती है कपास
ऐसे ही चलता है हमारा महाजीवन
बुन-सिल कर ही हम से
हो पाता है जिंदगी का निबाह

शास्त्र कहते हैं : देह आत्मा का वस्त्र है
इसी तर्ज पर हम कह सकते हैं कपास देह का
आत्मा तक पहुँचता है जिसका अँजोर!
कपास के पीताभ फूलों से
बढ़ती है हमारे खेतों की उमर
और मेड़ों का मन ऊँचा
रहा आता है

किसान औरत की हँसी की उजास
चली आई है कपास में
और कपास के हर रेशे में
किसान की मेहनत का विश्वास है

ऐसे में किसानों की खुदकुशी की खबरें
हिलाकर रख देती हैं जिंदगी का रकबा
और कविता की आत्मा पर लगता है गहरा आघात!
आजकल मिल मजूरों की हालत भी गहराती है
हमारे माथे पर चिंता की लकीर

सूत-कपास की कितनी-कितनी तो स्मृतियाँ हैं
मसलन – बड़े पिता द्वारा तकली पर काता सूत
अभी-भी पुरानी पोथियों में मिल जाता है औचक
और हमारे भीतर जोड़ देता है
यह आख्यान से वह आख्यान

बेहना जब रुई धुनता
तो ताँत से निकलता संगीत
कौतुक से भर देता था हमें
आज तो मशीनें छीने ले रही हैं
आदमी के हाथ का हुनर!

बचपन में नए कपड़े मिलने की खुशी
पंक्तियों में कहाँ की जा सकती है बयान

सूत कातते या खर करते देखता हूँ
बुनते या सिलते किसी को
याद आता है मुझे
माँ का सूजी-डोरा (सुई-धागा) से सिलना
हमारी फटी कमीज
हम जानते ही हैं कि जब कोई स्त्री
सिल रही होती है फटी कमीज
तब कविता में पूरा हो रहा होता है
कोई न कोई अधूरा वाक्य
सिलाई-कढ़ाई, तुरपाई करती औरतें
बुनती हैं बेपनाह बातें और
इससे बढ़ती जाती है हमारी जबान की अरज
और थान की तरह
खुलती जाती हैं अनंत कथाएँ
जिनमें बहुत खूबसूरती से
अक्सर लिपटी मिलती है हमें
धड़कती हुई जिंदगी

बाँह के जख्म पर
नर्स ने दवा से भीगा जो फाहा रखा था
रह गए हैं उसके भी कुछ रेशे मेरी देह में
इस तरह कह सकता हूँ –
मेरे शरीर की बनावट या बुनावट में
कपास के हैं बहुत सारे एहसान
उस नर्स का चेहरा भी
कपास जितना ही था निर्मल और सादगीपूर्ण
करुणा से भीगी उसकी आँखें
जब-तब मुझे निगाह देती रहती है

हमारे प्रेम के लंबे रियाज में
कोई कपास-हँसी ही है
जो हमारी स्मृति में भरती है उजास

कच्चे सूत की तरह होते हैं हमारे रिश्ते-नाते
जिन्हें बहुत महीनता से बरत कर
देना होता है मुकम्मिल मुकाम
छोटी-सी चूक से भी
हो जाता है जिंदगी भर का नसाव-बिगाड़
इस भूमंडल पर कोई डोर ही है
जो जोड़कर रखती है हम सब को साथ
त्रासद है कि आज जोड़कर रखने की चीजें कम हो रही हैं
और बढ़ रहे हैं तोड़ने वाले हाथ!

‘रहिमन धागा प्रेम का’ सलामत रखना
हुआ अब बहुत कठिन

बारात लगने के पहले सूत से ही
कंकन भाँजते हैं लड़के के मामा
लोक में मनौती या टोटके के लिए
पीपल या बरगद पर लपेटा जाता है कच्चा सूत
कितना नाजुक है कच्चा सूत
फिर भी उठाए हुए है कितना तो लोक का वजन!

धागा देखकर जाग जाता है
जुलाहे का इल्म
और यह दुनिया को जरूरी लिबास देने की
सही शुरुआत होती है

जिल्दसाज धागा की सिलाई से
किताब को कर देता है दुरुस्त
दर्जी धागा से ही जान लेता है
कपड़े की उमर
परिधान चाहे कितना भी कीमती हो
लेकिन उससे बहुत बड़ा होता है कपास का संघर्ष

आसमान की कपास में ही
दिन भर रखा रहता है
रात का चंद्रमा
और साँझ ढले
अपनी शीतल खिलखिलाहट से
उतारता है सबकी
उदासी और थकान

इत्र-फुलेल कपास के भरोसे ही
बचाए रखते हैं अपनी महक
कपूर की तरह अपना प्रेम सहेज कर रखने में
कपास ही देता है हमें जरूरी तमीज

गगन मंडल से एक सूत की तरह
दिखाई देती है गंगा
देखा जाए तो
एक सूत पर ही घूमती है पृथ्वी
अक्षांश-देशांतर के साथ

लोक गायक ‘दुई-चार दिना की प्रानी
हमरा जिंदगी की डोर बा’ में
गाता है जीवन का गूढ़ दर्शन

सूत की गाथाएँ
कलाई के रक्षाबंधन से
द्रोपदी के चीरहरण तक जाती हैं
जहाँ कुछ सूत के उपकार में
बढ़ती है साड़ी थान पर थान
और परास्त होकर दुःशासन गिरता है औंधे मुँह

सूरज कपास में चुपपाँव प्रवेश करता है
और आया था की याद में
छोड़ आता है अपनी उजली धूप
कपास के बादल उड़ते देख
जी लेते हैं हम भरा-पूरा आसमान

धारोष्ण दूध की तरह रुई
अपने पात्र को रखती है गरम
रजाई में रुई ही देती है
हमारे शिशु-सपनों को गर्मास
महान कथा-शिल्पी की ‘पूस की रात’ में
ठंड से दाँत बजते देख
थरथराता है कपास
और बनकर पिछौरी-चद्दर
देह से लिपट जाना चाहता है
आपादमस्तक
आँखों में रोती है जब-जब रात
कविता के वक्ष पर गिरती है
कोई भीगी हुई चूनर

हँसी का कपास
बुन-बुन कर ही तो
ढँकता है
हमारा लोक
अपनी दीनता और दुक्ख

हमारे भीतर भी
मन के किसी कोने में
धरी होती हैं कपास की कुछ गाँठें
जो नंगई से बचाती हैं हमें

मनुष्य और कपास के रिश्ते की
कथाएँ अनंत हैं
पहली रुलाई से देह-दाह तक
साथ देती है हमारा कपास

दुनिया में होता है वही हुनरमंद
उलझती नहीं जिससे जिंदगी की डोर
और बुन पाता है वह
अपने नाप की भरी-पूरी चादर

घर बनाते हुए राजगीर सूत मिलाकर चलता है जब
या बुनकर का हाथ बुनते हुए चादर
तब यह कपास का सम्मान होता है
यहाँ एक क्षेपक है कि कवि भी
सूत मिलाकर बरते भाषा को
तो कविता नहीं होती बेडौल

जोर जबरदस्ती
खींचतान में जब भी कोई धागा टूटता है
दुनिया में एक रिश्ता कम हो जाता है
मित्रो! आपको याद है न!
अँधेरे के खिलाफ
बहुत अँधेरे के खिलाफ
कपास की बाती ही लड़ती है
पूरी-पूरी रात!

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