सिंहवाहिनी | कविता
सिंहवाहिनी | कविता

सिंहवाहिनी | कविता – Sinhavahini

सिंहवाहिनी | कविता

वह एक श्यामलवर्णी क्रमशः अधेड़ावस्था की ओर अग्रसर स्त्री थी और वे एक गौरवर्ण अधेड़ पुरुष। उसकी उम्र चालीस के आसपास और वे पचपन के करीब-करीब। चौंकिए नहीं, उम्र के इस अंतर पर तो कदापि नहीं। ऐसी शादियाँ उस समय के समाज में सामान्य ही मानी जाती थीं। और अब भी तो प्रबुद्ध, बुद्धिजीवी और संपन्न लोग रचाते ही हैं ऐसे विवाह और वह भी प्रेम विवाह… अब इन विवाहों में प्रेम की जगह कोई और शब्द चेंप कर खुश न हो लें आप।

वह समय उससे एक डेढ़ दशक पहले का था जब हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार कहे जानेवाले अभिनेता की फिल्में धड़ाधड़ फ्लॉप हुई जा रही थीं… या कि वह समय जब स्मिता पाटिल और शबाना आजमी जैसी सशक्त अभिनेत्रियाँ भी कला फिल्मों का रुख छोड़ व्यावसायिक फिल्मों में पराश्रित और सताई हुई स्त्रियों का किरदार करने को तैयार हो चुकी थीं… और फिर उसके बाद क्रमशः अपने जीवन में भी विवाहित पुरुषों की दूसरी पत्नी बनने को भी।

…ठीक-ठीक कहें तो यह वही समय था जब आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी चुनाव हार गई थीं और जनता पार्टी सत्तारूढ़ हो चुकी थी।

खैर छोड़िए अब समय की बात… उसके बारे में तो थोड़ा बहुत बूझ ही चुके होंगे आप। समय पर बहस छोड़ कर अब मूल कहानी की बात…

वे बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे थे और वह बस पाँचवीं-सातवीं तक…

वे जहीन और वह सुघड़, घरचलाऊ औरत… कम से कम दुनिया तो यही जानती और मानती थी।

वे केशहीन थे, नहीं, उम्र के कारण नहीं। कुछ-कुछ जन्मजात और थोड़े अपने चिंतनशील, अध्ययनशील और जिम्मेदार व्यक्तित्व के कारण। भरी-पूरी जवानी के समय में भी।

उनके बीच की केमेस्ट्री भी ठीक-ठाक ही थी। अगर कुछ चलताऊ, ऊबाऊ मुद्दे पर उनकी खीज और गुस्से के बलबलेवाले अंश की बात यहाँ छोड़ दी जाए तो। और वैसे भी उस मुद्दे पर तो आना ही आना है। पर उससे पहले एक अहम जानकारी और एक जरूरी दृश्य… यूँ तो यह दृश्य कहानी के बिल्कुल अंत का है पर क्या करें कुछ करतब कुछ शीर्षासनों के बगैर आजकल कहानियों की चर्चा ही कौन करता है…

दृश्य यह कि अपने खुले बालों को लिए हुए केशी खड़ी है उनके बिल्कुल सामने और उसकी आँखें बिल्कुल निस्पृह। न डर, न भय, न कोई आवेग, न नफरत। वर्षों बाद केशी का यह रूप उन्हें अपरूप नहीं लगा था… बहुत भयावना सा। केशी कुछ वैसी जैसी की शेर पर सवार दुर्गा या फिर काली… और वे जैसे उसके पैरों के नीचे दबा कोई राक्षस। वे पहली बार जिंदगी में बेहोश हुए थे। उस गहन तंद्रा में भी उन्हें लगा था कि वे डूब रहे हैं किसी अतल सागर में और केशी के बाल तैर रहे हैं उनके आसपास। वे चाहें तो केशी के बालों का सहारा लें और…

हाँ, वह अहम जानकारी यह कि जिस तरह वे जन्मजात केशहीन थे उसी तरह वह जन्मजात केशवती। घुटने क्या जमीन को छूते असामान्य रूप से काले, घने और चमकीले बाल। हालाँकि बालों के ऐसा होने से उसे परेशानी भी बहुत थी। उन्हें सँवारना, गूँथना, धोना आदि-आदि सब के सब झंझट। गूँथना-सँवारना तो गाहे-बगाहे दो-चार दिनों पर हो भी जाता। एक बार चोटी बना लो तो दो-चार दिनों की छुट्टी। वक्त मिला तो कभी ऊपर-ऊपर ही कंघी मार ली। पर धोना… वह अपनी जिम्मेदारियों के तहत इस कार्य को जितना भी स्थगित करना चाहे, महीने में कभी-कभी एक तो कभी-कभी दो बार यह जरूरी हो ही जाता था… कि बाल तो धुलने ही हैं… कि बाल धुले बगैर चूल्हे-चौके में घुसने की इजाजत नहीं। अब जमाना ऐसा भी न था कि वह बड़े-बुजुर्गों से पूछती कि महीने के उन खास दिनों से बालों के गंदे होने या कि धोने का क्या संबंध। नहाना-धोना, साफ होना तो समझ में आता है पर…

हजारों सवालों की तरह इस एक सवाल को भी मन में दबा कर वह उसी चली आती परंपरा का हिस्सा हो चुकी थी। हालाँकि शासन करने और समझानेवाली कोई बुजुर्ग छत्रछाया रह नहीं गई थी अब उसके इर्द-गिर्द।

गोकि उसके बाल थे और जरूरत से ज्यादा घने और लंबे थे, उसे झाड़ू और बर्तन-चूल्हा करते वक्त अपनी चोटी को कस कर अपनी कमर के इर्द-गिर्द लपेटना पड़ता। पर चोटी थी कि फिर खुल-खुल जाती और लोटने लगती जमीन पर विषधरों की तरह। कभी-कभी आधे से ज्यादा झाड़ू तो उनकी चोटी ही लगा देती। एक बार वह रोटियाँ सेंक रही थीं कि चोटी गिरी थी झप्प से कोयले के चूल्हे में और वह लहलहाते आग को नहीं बल्कि झुलसती चोटी को देख बेहोश हो कर गिर पड़ी थी – हाय रे उसके प्यारे बाल, उसकी एक मात्र धरोहर और संपत्ति…

गोकि कटे हुए बाल फिर पंद्रह दिन के भीतर ही अपनी यथास्थिति को पहुँच चुके थे; सो उनका दुख भी… पर एक बात तो साफ थी कि उसे अपने बालों से बेहद प्यार था। जब कभी जिंदगी में एकांत के क्षण आते वह अपने बाल खोल कर, कत्थई गोल बिंदी को और बड़ा और चटक बना कर शीशे के सामने खड़ी अपना चेहरा निहारती रहती देर तक। हालाँकि ऐसे क्षण जिंदगी में आते बहुत कम थे, पर कम होना नहीं होना नहीं होता और उसे इस बात की खुशी भी थी…

कभी-कभार जब उसकी बेटियाँ स्कूल गई होतीं और जाड़े के ऐन दिनों में भी बाल धोना बहुत ही जरूरी हो जाता वह बाल धो कर छत पर बैठ जाती दरी बिछा कर। बाल दरी पर पड़े-पड़े सूखते रहते और वह तहाती रहती स्मॄतियों को। यही एक मात्र वक्त होता उसका अपना। और उसे अब भी लगता कि दूर कहीं बहुत दूर से एक जोड़ी आँखें उसे निर्निमेष देख रही हैं… पर वह अपने उस वहम को सही करती, उस समय से काफी आगे निकल आया है समय। अब वह कहाँ, बेटियाँ जाती हैं स्कूल… और वह… छठी के बाद स्कूल जाना बिल्ल्कुल बंद। यूँ कहें कि बड़ी की शादी के बाद से ही। हालाँकि बड़ी की शादी के कई बरस बाद हुआ था उसका ब्याह। वह जिद करती, रोती – बड़ी तो शादी तक स्कूल गई थी। पर वही क्यों… जब तक शादी नहीं होती तब तक तो… पापा पिघलते… पर माँ… और अंततः जीत तो माँ के हठ की ही होनी थी… माँ की जिद। पापा ने पहले होलटाइमरी छोड़ी, फिर पार्टी की सदस्यता, फिर प्राइमरी स्कूल की टीचरी… माँ की जिद से घर में देवी देवताओं के नित्यप्रति चलनेवाले अनुष्ठान… माँ की ही वजह से सात बेटियों के बाद आनेवाला उसका इकलौता लाड़ला भाई। माँ का ही कहना – लड़कियाँ ज्यादा पढ़-लिख गईं तो उनकी पढ़ाई और उम्र के अनुरूप वर खोजने की दिक्कत। उसे पढ़ना अच्छा लगता और खूब लगता। कविताएँ वह अपनी तो क्या बहनों की किताबों से भी रट जाती, अखबारों-पत्रिकाओं से भी। क्लास में अव्वल तो नहीं पर सेकेंड जरूर आती रही, अपने जीतोड़ प्रयास के बावजूद। उसे लगता और हमेशा लगता कि द्वितीय होना शायद उसकी किस्मत है। भाई-बहनों के क्रम में बड़ी से हर बात में की जानेवाली तुलना में और स्कूल में भी…।

पढ़ना-लिखना भी सिरे से छूट गया था कि उसने छोड़ दिया था खुद ही स्कूल छुड़वा दिए जाने के बाद। पापा कहते और हमेशा कहते, अखबार पढ़, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ इससे तो किसी ने नहीं रोका न। वह हँस कर टाल देती उनकी बात और माँ के पीछे चौके में चली जाती।

यहाँ तक कि उसने छत पर बाल सुखाने जाना भी छोड़ दिया था। बारहमासी नजला-जुकाम झेलती रहती पर कोई बात नहीं। पर उसे लगता या कि महसूस होता और दिल से होता कि एक जोड़ी आँखें अब भी निहार रही हैं उसे।

उसके इस बाल सुखाने की आदत से पहले-पहल सास भी खीजतीं, ठीक माँ की ही तरह। पर कोई उपाय था कि बन ही नहीं पाता कि उन्हें रोक लिया जाय यूँ उघड़े सिर छत पर महफिल जमाने से। अब बाल गंदे होंगे तो धुलेंगे भी। धुलेंगे तो उन्हें सुखाना भी होगा। नहीं सूखेंगे तो उनका बारहमासी नजला-जुकाम… और वो अगर तेज हुआ तो फिर रसोई-पानी। सास बेचारी सिर्फ कुड़बुड़-कुड़बुड़ कर के रह जातीं। माँ की तरह गाली-गलौज करके छत से उतरने को मजबूर नहीं करती। काटती भी नहीं जबरन या कि गुस्से में उनके सुंदर केशों को। वे भी मानती थीं इस मान्यता को कि सुहागिन की किसी एक लट में उसका सुहाग बँधा होता है। अगर वह लट गलती से भी कट जाए तो… बेटे की जिंदगी हर माँ की तरह उनके लिए भी बेशकीमती थी।

गो कि बाल थे तो जिंदगी के कुछ पल भी थे उनके हिस्से हमेशा से अपने कहे जाने लायक… रात को जब सब लड़ते, खास कर के उनकी तीनों बेटियाँ तकिए की खातिर वे सब को तकिया थमा देतीं और अपने बालों को गुड़ी-मुड़ी करके रख लेती सिरहाने। कभी-कभी तो वे उनकी किसी छोटी बच्ची के सिरहाने का भी काम कर लेते। वो लोरियाँ या कि परियों की कहानियाँ सुनती हुई सोई रहती उनके बालों के तकिए पर चुपचाप।

वह जानती थी और खूब जानती थी कि वह जब-जब छत पर बाल सुखाती है, आसपास की खिड़कियाँ गुलजार हो उठती हैं, हमेशा से ही। पर वह ध्यान नहीं देती थी इस पर बिल्कुल ही… शायद गलत, वह ध्यान न देने के यत्न में भी भीतर तक एक तोष से भर उठती थी… कि वह है और खूब है, सबसे अलग-थलग; कि आखिर कुछ तो है ही उसके पास जो उसे सबसे भिन्न करता है, इस उम्र में भी। रंग-रूप की अपनी सादगी कुछ पलों को जैसे वह भूल ही उठती।

माँ थी वो, पहचानती थी उसकी नस-नस, ऐसे ही कभी जब वह ऊपर से निस्पृह और भीतर से भरी उमगी सी बैठी रहती दर्शनार्थियों-अभ्यार्थियों से मुँह मोड़े, वे बालों से ही खींच कर उन्हें सीढ़ियाँ उतार लेती – सूख गए बाल कि मेरे प्राण सुखाने हैं, उतर नीचे मेरी साँस टँगी रहती है। आठ-आठ बच्चों को सँभालना और इनकी ये मटरगश्ती… जल्दी से जल्दी से जल्दी ब्याह हो इसका कि और बच्चों का भी जीवन सँवरे…

वह तब नहीं समझ पाती थी और अब भी कि दूसरों के जीवन को सँवारे जाने के लिए…

उसका ब्याह चौदह की उम्र में हो गया था और उससे बड़ी बहन का सोलह की उम्र में। हालाँकि कुछ-कुछ समय और बहुत ज्यादा परिवेश को ध्यान में रखते हुए यह कोई जल्दीबाजी भी न थी। पर केशी को लगता उसके साथ ज्यादती हुई और खूब-खूब हुई। बड़ी बहुत सुंदर थी। नयन-नक्श, कद-काठी सब तरह से सुंदर। उस जमाने में भी पिता ने बड़ी के लायक वर खोजने में दिन-रात एक कर दिया था। बहनोई भी सुंदर सजीले थे, ऊपर से उस जमाने के इंजीनियर। बस बाल थे बड़ी के कि भूरे, पतले और लगभग कंधे से थोड़े ही नीचे तक। अब नहीं थे तो नहीं थे। इसमें केशी क्या कर सकती थी या कि कोई दूसरा। लड़केवाले जब बड़ी को देखने आते और उन्हें देख कर प्रसन्न होते कि तभी केशी प्रकट हो जाती वहाँ किसी न किसी बहाने अपने रीठा-आँवला से साफ किए हुए खुले केशों या कि नागिन सी चुटिया लिए चाय-पानी या कि पड़ोसन किसी भी बहाने।

उसके पहुँचते ही बड़ी को देख कर गदगद होते वे लोग कोई दूसरे से होने लगते। उसके बालों की स्याही बड़ी, माँ, बाबूजी सबके चेहरे पर जैसे पुत सी जाती; और आगंतुकों की खुशी पर भी। सबकुछ तो ठीक है पर बाल…

देखो तो छोटी बहन का चेहरा कैसा निखरा-निखरा दिखता है… बड़ी और-और बुझती जाती यह सब सुन कर। उसके ब्याह के सोलहवें में होने की शायद एक वजह यह भी हो।

बड़ी को देखने जब बहनोई आ रहे थे माँ ने उसे एकदिन बड़े प्यार से बुलाया था। कैसे केश खोले घूमती रहती है दिनभर। बाल उलझ-उलझ कर टूटते जा रहे हैं सारे। आ तेल लगा कर चुटिया बना दूँ। माँ की इस लाड़ पर वारी-वारी वह बैठ गई थी चुटिया बनवाने। पर चोटी बनवाने की आड़ में जो कुछ हुआ था वो बिल्कुल अप्रत्याशित था। उसके केश एक झटके में बस उतने ही लंबे रह गए थे जितने कि बड़ी के। माँ के वश में जो कुछ भी था उन्होंने कर दिखाया था। पर चाह कर के भी वे उसके बालों का स्याहपन और घनापन नहीं कम कर सकी थीं। केशी छटपटाई थी बेतरह जिस तरह वे काले नाग अपना तन मन धन खो देने से पहले… वह ठीक भी हो गई थी धीरे-धीरे। पर प्रसन्नता की बात यह कि बड़ी का रिश्ता उस बार पक्का हो गया था।

बड़ी का ब्याह खूब धूमधाम से हुआ और उसने भी खूब नखरे दिखाए। बाल काट देने के जुर्म से पशेमान माँ उसकी हर बात मान लेती। साटन का नीला गरारा, सुनहरी जूतियाँ, सुनहरा चमकीला हेयर पिन… और ब्याह होते-होते उसके बाल फिर कमर तक आ ही चुके थे। माँ परेशान थी। दुल्हन देखने आते लोग एक बार दुल्हन को देखते फिर एक बार केशी को। जब जयमाल के लिए सजी-सँवरी बड़ी को ले कर वह स्टेज तक जाने लगी तो सब की नजरें सिर्फ केशी पर। पर बड़ी का रूप वैसे भी झीने से घूँघट की आड़ में सहमा सकुचाया जा रहा था।

सास-ससुर का दमकता चेहरा क्षण भर को फीका हो आया था। वरमाल ले कर बढ़ते दूल्हे के किसी दोस्त ने फिकरा कसा था – देखना, सँभल कर, जयमाल किसी और के गले में न पड़ जाए। बहनोई की नजरें सिमट गई थीं… शादी शुभ-शुभ निबट गई थी। उसके ब्याहता हो लेने के बाद भी माँ ने उसे किसी छोटी बहन के दिखावे में नहीं बुलाया था। वे बुलाती थीं सिर्फ बड़ी को। और वह अपने अंदर एक दुख, एक असंतोष लिए बड़बड़ाती फिरती। शादी में ही क्यों बुलाती हैं। न बुलाती तो भी… मैं न भी जाऊँ तो… पर सुलझे समझदार उसके पति को उसका यह दुख बिल्कुल समझ में नहीं आता। यह कौन सी तकलीफ मानने की बात है… और दुख तो क्या उन्हें तो केशी ही समझ में नहीं आती थी। दिन भर चौका-चूल्हा, काम और उस पर ये लंबे-लंबे बाल। जब देखो तब दाल-भात-सब्जी किसी न किसी में निकल ही आते हैं… और निकल गए तो समझो कि उनका मन खराब। पहले पहल प्यार से फिर खीज से और अब जिद से वे केशी से कहते और बार-बार कहते कि इन्हें छोटा करवा लो। चाहे तो बिल्कुल इंदिरा गांधी कट में। छोटे बालों को सँवारना ज्यादा आसान होता है। देखो तो इंदिरा जी के बाल छोटे हैं तो देश सँभाल रही हैं और तुम पुराने तरीके की औरतें… रखो लंबे-लंबे बाल और सँवारते रहो उन्हें। यहाँ तक कि जब बेटियाँ पैदा हुईं, उन्होंने तीनों में से किसी को भी लंबे बाल नहीं रखने दिया। न रखे केशी छोटे बाल पर बेटियाँ तो उनकी हैं। देश सँभालनेवाला जुमला इमर्जेंसी के समय में उनके मुँह तक आते-आते थम जाता। बाद में जनता पार्टी के शासनकाल में तो और।

वे इंदिरा गांधी के बहुत बड़े प्रशंसक थे। वे सोचते और सोचते रहते कि इंदिरा गांधी ने ऐसा बुरा क्या कर दिया था सिवाय देश में अनुशासन भरने और उसकी चाह करने के। वे मानते और तहे दिल से मनाते कि अगला चुनाव इंदिरा जी ही जीतें और वे केशी को… इस बीच उन्हें लगता था और बार-बार लगता था कि जब-जब वे बच्चियों का बाल कटवाने ले जाते हैं, केशी के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान होती है। पहले-पहल उन्हें लगता कि यह उनका भ्रम है शायद पर धीरे-धीरे उन्हें यह यकीन होने लगा था… उस दिन तो और ही जब वे दफ्तर से घर पहुँचे, बच्चियाँ लाल-हरा झंडा हाथ में उठाए जोर-जोर से चिल्ला रही थीं –

‘जॉर्ज फर्नांडिस के तीन कसाई,

इंदिरा संजय सी बी आई…’

‘इमर्जेन्सी के तीन दलाल

इंदिरा संजय बंशी लाल…’

उन्होंने आव देखा न ताव, उसी झंडे की डंडियाँ खींच कर बच्चों की पिटाई शुरू कर दी, इतनी कि उनमें से एक तो बीमार ही पड़ गई थी बिल्कुल। बाद में वे शर्मिंदा भी हुए थे खुद पर… मासूम बच्चियों पर हाथ उठाना… इससे गलत और क्या हो सकता था। ठीक है उन्हें गुस्सा बहुत तेजी से आता है पर केशी और बच्चियों मे अंतर तो है न। कहाँ फूल सी बच्चियाँ और कहाँ ढीठ केशी। फिर उन्हें बच्चियों को एक दिन ‘कर्फ्यू ऑर्डर’ खेलते देख कर लगा था बच्चों के लिए तो हर चीज खेल। दिन भर नारा लगाते लोग घूमते रहते हैं गली मुहल्ले में उन्हीं से सीख लिया होगा, इसमें केशी की क्या चाल। उसे दाल-भात घर-दुआर से फुर्सत ही कहाँ है। बच्चे तो सीख ही लेते हैं इधर-उधर से कुछ-कुछ।

फिर… फिर…

उस दिन वे बच्चियों को स्कूल के सालाना जलसे में कविता पाठ के लिए कविता रटवाने बैठे थे। अब इस अनपढ़ जाहिल केशी को इन सब बातों की क्या चिंता। उन्हें अपनी बेटियों को उसकी तरह जाहिल थोड़े ही बनाना है। उन्होंने बड़ी बेटी को बुला कर कविता की प्रति थमाई थी – शाम तक याद कर लेना। उसने कहा था उसने तो कविता याद कर ली है। वे अचरज से बोले थे, याद कर लिया है…? सुनाओ तो… बेटी में एक सहज-स्वाभाविक संकोच था… सुनाऊँ?… उन्होंने प्यार से उसका सिर सहलाया था – हाँ सुना दो चलो। फिर तुम्हें ननकू हलवाई के यहाँ से मिठाइयाँ और नमकीन ला कर दूँगा। बिटिया की आवाज धीरे-धीरे सुर पकड़ रही थी…

भिवानी में थे एक फटीचर वकील

न कानून जानें न जानें दलील

वो करते थे जो भी वकालत की बातें

वो सब थी सरासर जिहालत की बातें

चलते-चलते धोखा खाते

दाएँ मुड़ते बाएँ जाते

ये थे उनके खास कमाल

नाम था जिनका बंशी लाल।

तिरछी टोपी, टेढ़ी चाल

कहाँ गए वो बंशी लाल।

वे सँभले थे, समझे थे बच्चियों के सामने बात-बात पर गुस्सा होना ठीक नहीं। चलो खत्म हुई कविता। वे बच्चियों को कोई अच्छी सी कविता याद करा देंगे। कि मँझली शुरू हो गई थी सस्वर…

किसी देश में थी एक रानी

बड़ी चतुर थी बड़ी सयानी

उसका छोटा राज-दुलारा

बिगड़ गया था लाड़ का मारा

…उनकी वक्रदृष्टि से डर कर मँझली सहम गई थी… जरूर कुछ गलत हो गया। पर छुटकी ने रुके हुए स्वर को वहीं से थाम लिया था, कुछ नया कर दिखाने की चाह में। मँझली-बड़की के रोकने के बावजूद कि तू तो भाग नहीं ले रही…

…पढ़ा लिखा कुछ खास नहीं था

दसवाँ भी तो पास नहीं था

पढ़ने जब स्कूल गया वह

गुण तो सारे भूल गया वह

याद रहा बस मौज उड़ाना

लड़ना-भिड़ना धौंस जमाना…

उनका काबू अपने आप पर से हटता जा रहा था। उन्होंने तड़फड़ा कर पर्दे के डंडे खीच लिए थे – किसने सिखाया यह सब, किसने?… बच्चियाँ चुपचाप। पर उनकी मौन दृष्टि माँ को ताकने लगी थी। और केशी खुद आ खड़ी हुई थी बच्चियों के आगे। अब उन्हें नहीं पता कि बच्चियों को बचाने या कि अपना जुर्म कबूलने की खातिर… जाहिल, गँवार औरत… कोई समझ नहीं है क्या तुम्हें… केशी फिर भी प्रतिरोध में कुछ नहीं बोली थी। चीखी रोई थीं बेचारी बच्चियाँ और वे दो टुकड़ा हो चुके पर्दे के डंडे को वहीं पटक कर बाहर निकल गए थे।

बाहर निकलते-निकलते सोचते रहे थे वे कि केशी हमेशा से ही ऐसी है। चुप रह कर भी उन्हें चिढ़ाते रहनेवाली, परेशान करनेवाली। पहले वे ध्यान नहीं देते थे इन बातों पर। पर कब तक अनदेखी की जाय आखिर। बातें अब अपना अर्थ अपने आप खोलने लगतीं। और अब तो बच्चियाँ भी बड़ी हो रही हैं। उन पर क्या असर… वे इतना चाहते थे कि बच्चियाँ… पर यह केशी…

वे टहलते-टहलते पार्क तक आ चुके थे। पार्क में एक नवविवाहित जोड़ा बैठा हुआ था, एक दूसरे में लीन। छोटी-छोटी बातें करता, हँसता-मुस्कराता। उन्हें याद आया कि विवाह के पच्चीस से ज्यादा वर्षों में केशी कभी उनके साथ घूमने-फिरने नहीं निकली। वे अगर कहते भी कभी तो वह काम का बहाना बना लेती। शुरु में माँ के घर में अकेले होने की बात करती बाद में बच्चियों के छोटे होने का बहाना। अरे उन्होंने तो कभी इस पर भी गुस्सा नहीं जताया कि केशी ने उन्हें तीन-तीन बेटियाँ ही दीं। वो महिलाओंवाली सारी पत्रिकाएँ खरीद कर रखते घर में। इन्हें पढ़ कर ढंग से घर-परिवार चलाना तो आ ही सकता है, और कोई भी काम छोटा कहाँ होता है… पर बाद में उन्हें यह लगने लगा था कि वे पत्रिकाएँ अनपढ़ी ही पड़ी रहतीं। फिर उन्होंने बंद कर दिया था उन्हें लेना। दिनमान, धर्मयुग और अखबार उनके लिए आते थे सो आते ही रहे। केशी से कहा सिलाई-बुनाई ही सीखो पर सो भी नहीं। केशी जीने के अपने ढब से खुश और संतुष्ट थी। कि उन्हें तो ऐसा ही लगता था। और उन्हें उसकी इस संतुष्टि से ही चिढ़ थी।

वे जो कहें केशी के लिए वही मुश्किल। बारह बरस निकल गए थे उस रात के बाद। उनका दुख कमता नहीं था और केशी थी कि बदलती नहीं थी।

उन्होंने हमेशा चाहा था बीवी को बराबरी के दर्जे पर रखना पर केशी को अगर नीचे ही रहना भाए तो वह क्या करें। शहर में बस जाने, माँ के गुजर जाने और बड़ी बेटी के होने के बाद उन्होंने वर्षों से दबी हुई मन की एक इच्छा जताई थी। सलवार कमीज ला कर। उनकी आँखों में बसी थी उस जमाने की हिरोइनों नंदा और मुमताज की कसी-कसी जाँघें, गदराई छातियाँ और नितंब। उन्होंने सोचा था अगर केशी पहनेगी इसे तो कहेंगे कि एक बार उनकी स्टाइल में जूड़ेवाली चोटी भी बना कर दिखाए। और केशी को तो इसके लिए नकली बालों के गुच्छे भी भीतर नहीं डालने होंगे। केशी के बाल तो खुद ऐसे ही… उन्हें केशी पर प्यार आ रहा था। न सही गोरी-चिट्टी पर नक्श कितने तीखे हैं इसके। और उस पर उसके ये जानलेवा बाल। उन्हें पता था केशी के केशों की ताकत। वे इसीलिए चाहते थे कि केशी कस कर चोटियाँ बना कर रहे दिन भर। किसी के भी सामने बालों को खोल कर न जा पहुँचे। इसीलिए वे तरह-तरह के बहाने गढ़ते। फिर अगर केशी चोटी कर लेती तो उन नागिनों को देख कर भी मन मचलने लगता। वे सोचते अगर दिन-रात देखने के बावजूद उन पर ये असर तो फिर… वे डर कर तरह-तरह से कहते केशी बाल छोटे करवा लो… पर सलवार कमीज में केशी की कल्पना करते हुए उन्हें उसके उन्हीं बालों पर गुमान हो आया था।

पर केशी थी कि उन कपड़ों को लिए बुत बनी खड़ी थी। दो-एक बार कहने के बाद वे झुँझलाए थे। जा नहीं पहनना है तो मत पहन। मर ऐसे ही। जब ठीक से नहीं ही रहना है तो… और धकेल दिया था केशी को बिस्तर से। केशी फिर भी कुछ नहीं बोली थी। थोड़ी देर के इंतजार के बाद उठ खड़ी हुई थी कंधों को सहलाती हुई। फिर उनके मुँह फेर लेने के बाद चुपचाप अपनी जगह पर लेट गई थी। उन्हें नहीं पता जागी कि सोई… केशी ऐसी ही थी और हमेशा से थी।

…पहली रात को उन्हें देख कर न मुस्कराई थी न रोई थी। न उठी थी न पाँव छुए थे। जड़ बनी बैठी रही थी। भाभियों का दिया पान का बीड़ा उन्होंने ही दिया था उसे पर वह उसे मुँह में डालने के बजाय हाथ में लिए रही थी उन क्षणों तक। जब उनकी हथेलियों का जोर उन हथेलियों को दबाने, दबाए रखने में था उन्हें लगा कुछ चुभा है उनकी हथेली को। उन्होंने झटके से उसकी मुट्ठी खोली थी। वही पान अब सूखा, लिसलिसा… उनके मन में कुछ कसैला सा उगा। नहीं खाई तो रख दिया होता कहीं…

उसके बाद तो सबकुछ जैसे चुभता-चुभता ही सा। केशी के जूड़े के पिन, केशी की सितारोंवाली साड़ी, केशी की काँच की चूड़ियाँ, केशी के पायल बिछिया… उनका मन कसैला-कसैला हो गया था। यह माँ भी किसे पसंद कर लाई। न रंग न रूप। बस चुभन।

…उन्होंने खुद को समझाते हुए केशी से उस रात कहा था। केशी आराम से रहे। चाहे तो कपड़े बदल ले। चाहे तो केश खोल ले। केशी ने आधी बात मानी थी, आधी नहीं। उसका केश खुला था और केशी अपरूप हो गई थी। इतनी अपरूप कि उनसे सही न जाए। इतनी अपरूप कि जिसे छुआ भी न जाए… उनकी अपनी उजड़ी हुई खेती उन्हें उस क्षण और वीरान होती हुई लगी थी। उन्हें लगा था वे सचमुच बूढ़े हैं केशी के सामने। उन्होंने उस दिन पहली बार बहुत प्यार से कहा था उससे – इतने बाल! इन्हें सँभालती कैसे हो? इन्हें ले कर काम-धाम सब कैसे होगा? माँ तो बूढ़ी हो चली हैं और बीमार भी। सबकुछ तो तुम्हें ही करना है। केश ही सँभालती रहोगी तो इस घर को… छोटा करवा लो इन्हें, थोड़ी सहूलियत हो जाएगी। केशी कुछ भी नहीं बोली थी। न हाँ, न ना। उसने अपने बालों को समेट कर रख लिया था बीच में और तब से वे बाल हमेशा वहीं उनके बीच ही पड़े थे।

बाल… बाल… बाल… पहले वे थाली खिसका देते। बाद में पलटने लगे थे। यानी कि उस दिन का अनशन। और फिर उसके भी बहुत बाद में केशी पर किए जानेवाले अत्याचार। जो कुछ सामने मिल जाए वही… पर बाल थे कि अब पहले से भी ज्यादा निकलते थे। छठे-छमाहे के बाद, महीने-पंद्रहवें और इस पच्चीसवें साल के आते-आते हर दूसरे-तीसरे दिन।

वे आक्रामक होते जा रहे थे। हद से ज्यादा हिंसक। अपनी पूरी सहृदयता के बावजूद। और केशी और भी ज्यादा सहनशील।

बाल… बाल… बाल…। थाली में ही नहीं उनके कंघे में, बिछावन पर… कपड़ों पर वे चीखते खीज कर और जैसे बालों को इस चीख से दोगुना हो जाने की शक्ति मिलती।

वे सोचते केशी तो हर वक्त अपने बालों को बाँधे रखती है उस पहली रात के बाद, उनके सामने तो जरूर ही। इसकी तो सख्त हिदायत दे रखी है उन्होंने फिर ये बाल, केशी के बाल आते कहाँ से हैं आखिर।

वे गौर से देखते कभी-कभी। केशी के बाल इतने कमजोर भी नहीं दिखते। कभी इतने सँवरे कि उनके यहाँ-वहाँ गिरने की बात अजीब लगती… कभी इतने दिन की चोटी कि कंघी करने में बाल टूटते होंगे का तर्क बेमानी लगता। वे सोचते भी, एक अकेली औरत और इतना सारा काम। वह बालों का खयाल भी रखेगी तो कैसे। बाल तो गिरेंगे ही न। उम्र भी तो हो रही है। बालों का झड़ना तो प्राकृतिक है। उन्होंने उसे कभी बढ़िया तेल-साबुन भी कहाँ ला कर दिया इन अनमोल बालों को सहेजने की खातिर।

और उन्होंने उसी शाम केशी को बाजार से नया-नया आया शैंपू खरीद कर ला दिया। खुश्बूवाला आँवले का तेल भी। और शैंपू तो यह जानते बूझते भी कि उसमें अंडा है। घोर शाकाहारी उनके लिए यह त्याग या कि निर्णय बहुत बड़ा था…। पर केशी के केशों से बड़ा तो बिल्कुल नहीं था। …वे सोचना चाह रहे थे जबरन अब केशी के बाल और सुंदर दिखेंगे और केशी भी… उन्हें उम्मीद थी और दिल से थी, केशी के बाल अब इत-उत, नहाते-खाते हर जगह तैरते नहीं मिलेंगे। और इस तरह उनका सबकुछ विषादमय नहीं होगा, बिल्कुल भी नहीं…

केशी को ये सब थमाते वक्त उनकी नजरें नीची जरूर थीं पर बहुत सतर्क भी… केशी की प्रतिक्रिया कहीं से छूटी न रह जाए…। कहीं कुछ भी अछूता…

पर केशी तो निस्पृह थी, ठीक वैसी ही जैसी कि उनकी खुशी-हँसी, दुख-पीड़ा, या फिर उनके थाली हटाने, फेंकने या कि उस पर चलाने से…

पहली बार उनके भीतर कुछ मरा था… पहली बार कुछ टूटा था भीतर ही भीतर… पर इस टूटन का भी कोई इल्म केशी को कहाँ…

केशी अपनी दैनंदिनी में उसी तरह जुटी थी। उसी तरह उनकी जरूरतों की खातिर तत्पर। बेटियों का खयाल रखने में… घर-बार सँभालने में शाम से रात हुई… रात से सुबह…

…सुबह जब नींद टूटी, भीतर की टूटन से वे इतने बिखरे पड़े थे कि खुद को इतना भी न सँभाल सके कि रोज की तरह उठ कर दाढ़ी बनाएँ, कपड़े पहनें, खाएं और दफ्तर निकल जाएँ…। वे लेट गए थे चुपचाप बीच बरामदे पड़ी उस पुरानी सी खाट पर… केशी ने फिर भी न कुछ कहा, न पूछा न प्रतिवाद किया।

उन्होंने खुद ही कहा… तबीयत ठीक नहीं है, आज दफ्तर नहीं…

केशी चुपचाप चली गई। नाश्ता दिया उन्होंने अधखाया ही छोड़ दिया… बाद में वह उसे लेती गई… फल, उन्होंने छुआ तक नहीं।

केशी ने नहाने का पानी गर्म किया। चापाकल चलाया, बाल्टी भरी, तौलिया साबुन रखा और हमेशा की तरह सूचना दी…

वे फिर भी उठ कर नहीं गए। केशी रोज की तरह अपनी दिनचर्या में लग गई जैसे कि वे हों ही न वहाँ। जैसे कि उनका वजूद कोई मायने ही न रखता हो उसके लिए…

झाड़ू-बुहारू, साफ-सफाई, धुलना-पसारना… खाना बनाना। वे चादर ओढ़े देखते रहे, केशी किस तल्लीनता से करती है अपने सारे काम। किस चाव और लगन से… वे गदगद हुए ऐसी सुघड़ पत्नी… और वे…

खाना बना लेने के बाद वह नहाने बैठी। बीच आँगन उसी पटरे पर जो कि उनके लिए लगाया गया था। वह मलमल कर नहाती रही… जैसे वर्षों का मैल जमा हो शरीर पर। फिर अपने लंबे-काले केशों को खोला। वे खुश हुए थे शायद वह उनका लाया नया शैंपू लगाए… पर नहीं, वह उसी तरह बीच नहावन से उठी, चौके तक गई और अपना बनाया हुआ रीठा-आँवला-शिकाकाई का घोल ले कर आई और अपने बालों को धोती रही। उन्हें उनका बीच आँगन, सीने पर पेटीकोट बाँध कर नहाना बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रहा था। पर वे हमेशा के विपरीत चुप थे और अपने को समझाने की कोशिश में भी…

वह छत पर गई, बाल सुखाया। लपेटा। फिर चौके में बनी-बनाई चीजों को गर्म किया, छौंक-बघार, सलाद, चटनी। थाली-कटोरे सब तरतीबबार।

फिर अपने कमरे में… बाल को सुलझाया, सँवारा, बड़ी सी कत्थई बिंदी। वे देखते रहे… सोचते भी रहे… अमूमन केशी इतनी बड़ी बिंदी नहीं लगाती। उसकी बिंदी तो बिल्कुल नामालूम सी… केशी फिर अपरूप हो उठी थी। वे फिर अपना गंजा सिर सहलाते हुए चिढ़ने लगे थे। फिर उन्होंने खुद को समझाया। किस बात की चिढ़ केशी तो उनकी अपने… घर से बाहर तक नहीं निकलती, बच्चियों और परिवार में उलझी-बिसरी रहती है अपना सबकुछ। फिर… पर चिढ़ थी कि फिर भी दबाए न दबे…

वे देख रहे थे केशी निहार रही है खुद को, निहारती जा रही है। उन्हें जलन होने लगी। अब इतना भी क्या डूबना खुद में कि ये भी भूल जाना कि वे घर में हैं। बीमार हैं और उन्हें भूख भी लग सकती है… भूख… सचमुच उन्हें भूख लग आई थी जोरों की। वे चीख उठते कि उन्होंने देखा केशी ने बेमन से अपने बाल सँभाले, चोटियाँ गूँथी और वही नामालूम सी बिंदी।

उन्हें चैन मिला हो जैसे… केशी सचमुच चौके में ही गई थी। उसने ठंडा हो चुका खाना फिर से गर्म किया, थाली अबकी निकाल भी ली पर चेहरा बहुत उतरा हुआ था उसका… जैसे कि सारा सत्व निचोड़ लिया गया हो। वे उठंग बैठ गए थे उसी खटिए पर खाने की प्रतीक्षा में।

वह बुदबुद जैसा कुछ पढ़े भी जा रही थी… वे सोच रहे थे कि आखिर क्या… फिर केशी ने झटके से लगी थालियों को परे किया। अपने कमरे तक गई। केश खोला… वही बड़ी बिंदी। खो चुका तोष लौट आया था।

…उसने टूटे हुए बालों को इकट्ठा किया, चौके तक आई, शायद कूड़ेदान में…

…वे जैसे सकते में थे…। केशी ने एक-एक कर उन बालों को उनकी थाली के सब्जी-दाल और चावल में मिलाया, करीने से मिलाया… और थाली ले कर उनकी तरफ बढ़ ली।

उन्हें लगा साक्षात दुर्गा अपना केश खोले, अपने हाथों में थाली के बजाय अपना अस्त्र-शस्त्र लिए उनकी तरफ बढ़ी आ रही हैं। उन्होंने अखबार उठा लिया था अफरातफरी में अपना चेहरा ढँकने को। उन्होंने देखा अखबार के उसी पन्ने पर किसी चित्रकार ने इंदिरा जी की दुर्गा के रूप में अभ्यर्थना की थी और नीचे उनके चुनाव जीतने और पुनः सत्तारूढ़ होने की खबर थी… पर वे खुश नहीं हो सके थे।

उनका माथा चकरा रहा था बुरी तरह…

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सिंहवाहिनी – Sinhavahini

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