सिकंदर के खाली हाथ | दीपक मशाल
सिकंदर के खाली हाथ | दीपक मशाल

सिकंदर के खाली हाथ | दीपक मशाल

सिकंदर के खाली हाथ | दीपक मशाल

तमाशबीन बनी ईंटें
और चहलकदमी करते विचार
धूमकेतु के पदचिह्नों पर चलती
अनावश्यक रूप से अनावृत सोच
और वो भेड़ों-बकरियों के बाड़े से उपजतीं
बदलाव की शोशेबाजियाँ

विद्रोह की बयार उठती किन्हीं कोनों में
और करती प्रेरित सोई चट्टानों को
लोग उम्र के ढलान पर आकर भी
डरते ढोने से जिम्मेदारियाँ
कहीं बूढ़ी होती आजादी पर तंज कसते
कहीं गुलामी पर

दिन-ब-दिन कुरूपता की ओर प्रगतिशील
लोकतंत्र, राजतंत्र और कम्युनिज्म के
विद्रूप चेहरों से उकताए चोट खाए बाशिंदे

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हर शाम पतंगों की तरह आसमाँ में उग आते
और रात ढलते धराशायी होते परिवर्तन के पीपल
किंतु सब करते परिक्रमा एक समूह की
कभी द्वीप, कभी देश के नाम पर

प्रयोगशालाओं में 24×7 चलते
अनंत के पर्याय प्रयोग
नए-नए समीकरणों के उलझाव से सुलझते भविष्य के जीवन

बनती-बिगड़तीं, धँसतीं-उभरतीं
धूल-मिट्टी, ईंटों से लेकर
तारकोल, बजरी, कंक्रीट तक
फिर उससे आगे कंक्रीट, सरिया, सीमेंट को धारण करती सड़कें
सड़कों के विकास की यात्रा
कितना आगे ले जाने का माद्दा समेटे हैं नभ / जल / थलचर को ???

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आश्चर्य !!!
आश्चर्य कैसा?
हर जगह तो है पहरा, याकि कब्जा कहें
हाँ मेरा, तुम्हारा, हमारा… हम सबका… मानव का कब्जा
गलत है अब जंतुविज्ञान जो कहता मानव को थलचर
त्रिलोकी बन शांति, समृद्धि, संपन्नता को खोजती
सृष्टि के आदि से जन्मती उसे
उसे… ईश्वर को
ईश्वर को खुद ही बनाती, झुठलाती खुद ही
बहुआयामी विकास का दंभ भरती असफल सभ्यता

बात-बात पर बमक पड़ती
हो जाती उद्वेलित ये तथाकथित सभ्यता
युद्ध को जोड़ती गिनतियों से प्रथम, द्वितीय…
फिर डराती अगली गिनती से
शाख पर बैठ उसे ही काटते कालिदास पर हँसती तो
मगर ना सीखती उससे
दोहराती वही मूर्खता…
नहीं कर पाती
सर्दियों की तरह प्रतिवर्ष लौट आते संदेह को संतृप्त

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फिर-फिर लौटता पतझड़
फिर पंछी प्रवासी होते
फिर बंजारन बनती प्रजातियाँ
फिर कई शून्य, पराजित युधिष्ठिर
नजरें नीचे झुका तकते चौपड़ की बिसात
फिर विश्वविजेता सिकंदर के खाली हाथ
खुलते ताबूत से बाहर आसमान की ओर

आखिर हड्डियों पर चढ़े चमड़े के ढाँचे से अलग
ये स्तनधारी और क्या कर पाएगा सिद्ध स्वयं को…

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