शुभकामना का शव | चंदन पांडेय
शुभकामना का शव | चंदन पांडेय

शुभकामना का शव | चंदन पांडेय – Shubhakamana Ka Shav

शुभकामना का शव | चंदन पांडेय

तैंतीस वर्षीय कामना खुद के लिए तो मर चुकी थी पर आए दिन कोई न कोई उसे बताता कि वो अभी जीवित है। यह सुन कर वो उठती। खुद को समेटती, जैसे उसके जिम्मे काम बहुत हों या कुछ कदम चलती और फिर अपनी परछाईं पर ढह जाती। उन दिनों लू तेज थी या उसे एड्स होने की अफवाह, बता पाना कठिन है पर वो दस-पचास कदम चलते ही निढाल पड़ जाती, जैसे आज ही वो दक्खिन दिशा वाले पीपल की जड़ों पर मरणासन्न पड़ी हुई थी। दलसिंगार चरवाहे ने उसे अपनी लाठी से कोंच कर बताया कि वो अभी जीवित है और उसे अपने घर जाना चाहिए। कहे तो वो मदद करे। मदद की बात पर कामना ने अपनी समूची शक्ति बटोर कर दलसिंगार के लिए दो तीन गालियाँ फुसफुसाई और फिर वहीं निढाल हो गई।

दिन-ब-दिन कामना का वजन घटता जा रहा था। वह इतनी कमजोर और पस्तहाल हो गई थी कि अपने ही खर्राटों से उसकी जाग खुल जाती। गाँववासियों की राय थी : ऐसा उसके लड़ाकूपन की वजह से है। हर दूसरे-तीसरे दिन अपने ब्लाउज की सिलाई चुस्त करते हुए वह भी सोचती थी, आखिर उसके शरीर का वजन जा कहाँ रहा है। सौ कदम की दूरी तय करने में दो-दो या तीन बार सुस्ताती थी फिर भी जवाब हर किसी का देती थी।

पहले उस पर वैधव्य गहराया। दो वर्ष बाद ससुराल वालों ने उसके लड़ने झगड़ने से आजिज आकर उसे नइहर भेज दिया। छोटा हाथी (टाटा एस नामक छोटी ट्रॉली) में पीछे बैठ कर विदा हुई। ड्राइवर के साथ उसका भतीजा उसे छोड़ने आ रहा था। विदा से ठीक पहले, सास और दोनों जेठानियों ने खोईंछा भरा। सास ने सारा प्रयोजन बाएँ हाथ से निबेरा। दाहिने हाथ में खटिया का पाया पकड़कर, कल रात, कामना को पीटने से उनका हाथ भी सूज गया था। तो भी आज अपने भाव में वो बोसीदा लग रही थीं। उन्होंने दूब, हल्दी, सिंदूर, खड़े दाने का पसेरी भर चावल और इक्कीस रुपये, कामना की कुचैली साड़ी में रखे।

इनमें कोई संवाद संभव नहीं था। सास ‘घर दुआर धरती अकास’ को बता रही थी, मनई के दुख मनई ही जाने। हम तो चाहत रहे पतोहू यहीं रहे पर भगवान तहार लीला अपरंपार। जेठानियों ने मुट्ठी खड़ा चावल और ग्यारह ग्यारह रुपये खोईंछा में डाले और छोटी जेठानी ने कामना के सूजे गालों पर चिकोटी मसला और छेड़ चलाया : जा छिनरो, काट मजा। कामना की गर्दन पर, पीछे की तरफ से ही, अगर कल रात खटिए के पाए न मारे गए होते तो वह जवाब जरूर देती, पर पहली बार किसी को जवाब दिए बिना जाने दिया।

नइहर तक के अधूरे रास्ते तय करते हुए उसे तकलीफ उठानी पड़ी। पर अपने गाँव का सीमाना देखते ही जाने उसमें कौन सी लहर व्याप गई कि उससे ससुराल वालों को सरापना (श्राप देना) शुरू किया। फूहड़-फूहड़ गालियों की बौछार ऐसी कि छोटा हाथी के इंजन का शोर भी कामना की आवाज को पी नहीं पा रहा था। छोड़ने वाले उसे मय सामान गाँव के सीवान पर ही उतार कर चले गए।

आठ वर्ष बाद नइहर – देश आकर वो भूलभुलैयाँ में पड़ गई थी। पहचाने लोगों की शक्ल-ओ-सीरत सब बदल गई थी। नए निहोरे लौंडे लपाड़े घूमते दीखते जो कामना की मौजूदगी कुछ इस तरह स्वीकारते थे, ‘यही है झगड़हिनिया कमिनिया।’ गाँव की गलियाँ लोगों के ख्यालों से भी तंग हो गई थीं। गालियों और झगड़े वाले अपने शब्द भंडार में वो अर्थ भर नहीं पाती जो उसके भाव उकेरते थे, फिर भी उन्हीं किन्हीं दिनों इस आशय का कुछ सोचा : अब उसका इस दुनिया में जीने का मन नहीं करता। भौजाइयाँ उसे बतातीं कि कौन-सा कमरा किसका है तब भी वह मुस्कराती, यह सोचते हुए कि अपने ही घर में पता पूछना पड़ रहा है।

पहली दफा कचहरी जाने के दिन उसकी भौजाइयाँ उसे तैयार करा रही थीं। मँझली ने पाया कामना को बुखार है। किसी और को इत्तला करने से पहले पति को बता आई। बहन के मानस में सम्मान छेंकने की लड़ाई में हल्की बढ़त बनाते हुए मँझले ने बात बढ़ाई, ‘बहिनी को लेकर पहले वैद्य से मिलते हैं फिर कोई कोर्ट कचहरी होगी।’

कमजर्फ वैद्य ने मुस्की काटते हुए सबको सुनाया, ‘दुल्हिन को प्रेम ज्वर है।’ वैद्य के शब्द चयन पर लोग अमूमन शर्म और हैरानी व्यक्त कर रह जाते हैं। अपनी वैद्यकी पर लोगों के यकीन के नाते वो सार्वजनिक दिल्लगियाँ करते रहता था। पर इधर तो लड़ाई ही दूसरी थी। दो मानसिक गरीब पर शारीरिक मजबूत घराने लड़ रहे थे और फिर आपस का बाँट बखरा वाला अंदेशा भी भाइयों में व्यापने लगा था। इसलिए छोटे ने मँझले की बढ़त कुचलते हुए वैद्य को चिल्ला कर हड़काया। कहना कठिन है बहन कितनी चैतन्य थी और कितनी तरजीह इन बातों को दे रही थी।

दवा दारू लेकर वो सब तहसील कचहरी पहुँचे। कचहरी की जगह सीली थी। बाहर तिरपाल ताने ऊँघते अनमने से टाइपिस्ट, कचहरी की दीवार फाड़कर झाँकने के अंदाज में उगे पीपल के कुछ पौधे। अधिकतर कमरों में बंद ताले। गाली-गुफ्तार से हहराता कचहरी का अहाता। कामना का अंदेशा सच साबित हुआ। ससुराल वाले भी आए थे। इन सबके बीच पायलगी देर तक चली। यह सब उम्र के मुताबिक नहीं, रिश्ते के मुताबिक हुआ। जैसे, उम्र में छोटे जेठ का पैर कामना के बड़े भाई ने छुआ। ऐसे मिल रहे थे मानो किसी और के झगड़े में आए हों। कामना किसी टाइपिस्ट की चौकी पर नीम तले बैठी रही। बिना घूँघट किए। दोनों पक्ष के वकील, वकालत छोड़कर सब कुछ जानते थे। समझौते को दुनियादारी की संज्ञा से पुकारते और चाहते थे कि इन दोनों पक्षों की सुलह भी कचहरी के बाहर हो जाए। यही तरीका है। पहले जायदाद के फायदे दिखा कर अदालती मामला दर्ज करा दो, कई दफे फीस और खर्चे तमाम वसूल लो फिर सुलहा-सुलुफ करा दो। कामना के भाई सब, बहन को उसका, सोलह बीघे वाला, अधिकार दिलाना चाहते थे।

न्यायाधीश की टुटही कुर्सी के सामने ही दोनों पक्ष आपस में भिड़ गए। ससुराल वालों में से एक ने बंदूक निकाल ली। बंदूक के दरस पाकर सबसे पहले सिपहिया सब कचहरी से फरार हो गए। ससुराल वाले अपने वकील तक को बोलने नहीं दे रहे थे। सबसे बड़ा जेठ गुस्से में बोलते-बोलते अपनी ही जीभ दाँतों से काट बैठा तो सँझले ने मोर्चा सँभाला, जिसके पास बंदूक थी, ‘मलिकार (न्यायाधीश को संबोधित), मौली गाँव के कुबाभन सब बहन की कमाई खाना चाहते हैं। धंधा कर लो, बहिंचो। बड़का, बहिनी को अधिकार दिलाने आए। मलिकार, अभी से हमारी पुश्तैनी जमीन के ग्राहक चक्कर लगाने लगे हैं। बहन के हिस्से की जमीन मिलते ही ये सब बेच खाएँगे।’

लंबा एकालाप चला, उसने कामना को भी खूब सुनाया, लेकिन एक गलती कर दी। गर्मा-गर्मी के दौरान कामना को एक गाली दे दी, जिसपर वह फूट कर रो पड़ी। गाली थी, भतरकाटी (पति की हत्यारन)। इतना सुनना था कि उन बहादुरों की बंदूकें धरी की धरी रह गईं। कामना के भाइयों ने उसके जेठों और देवरों को कुर्सियों से मार-मार कर कुर्सियाँ तोड़ डाली। कूटने के बाद छोटे भाई ने हाँफते कहा, ‘बहिन का हिस्सा तो तोर बाप भी लिखेगा रे, दोगलासन।’

ये लोग ससुराल वालों को कूँचकाँचकर और बहन रुलाई रुकवाकर लौट रहे थे तब सिपहिया लोग आते दिखे। वही सब सिपाही जो दोनाली देख कर भाग गए थे। बिना किसी दरयाफ्त के उन सबों ने सफाई पेश की, ‘खैनी चूना वास्ते टहलने निकल आए थे। सब निबट गया? पाँड़े बाबा, बोहनी कराओ।’ मँझले भाई ने सौ-सौ के चार नोट अपनी जाँघ पर रखे और कहा, ‘ले जाओ दरोगा जी, तेल लगाने के काम आएगा।’ बड़के ने आँख तरेर कर बात घुमाई, कहा, ‘लड़बक, और पैसे उठा कर नायब के पैंट और जाँघिए में कहीं खोंस दिए।’

पुलिसवाले सोच नहीं पा रहे थे कि दरोगा वाले संबोधन से खुश हो लें या बाकी बातों का बुरा मान जाएँ। बड़े भाई ने फिर कहा, ‘दरोगा बाबू, गाँव की ओर कभी आओ।’ इस तरह पुलिसवाले अपनी आबरू को लेकर आश्वस्त हुए। दरअसल, इस इलाके में पुलिस इतनी बदनाम थी कि अगर ये दो-चार की संख्या में हुए और कोई गलती कर दी तो बड़ी मार पिटाई खाते थे। हाँ अगर दलबल के साथ हों तो फिर मामला उल्टा हो जाता था। यहाँ इन्हें डर था कि कुछ भी उल्टा सीधा हुआ नहीं कि सारी कचहरी मिल कर मारेगी।

भारत से दूर-देश के इस हरे भरे फिर भी अधमरे इलाके में वकीलों का बोलबाला था। अदालतों के आ जाने से जायदाद और मिल्कीयत के मामलों में पंचायती या बाहुबली फैसले अवैध हो गए थे। वकील थे कि वकालत से अलग सब करते थे। वो कोई भी राय दे सकते थे और मौके बेमौके उसे सही साबित कर सकते थे। कामना के ही मामले में जब दोनों तरफ के वकीलों ने सलाह दी, तारीखों पर आया करो, सब आते रहे। कचहरी में ही झगड़ते रहे। फिर सलाह दी, कामना जिस घर अधिक समय गुजारेगी, उसकी दावेदारी अधिक होगी। इस मशविरे पर कामना के अपहरण का सिलसिला शुरू हुआ, जो तब तक चला जब तक कामना बीमार न पड़ गई।

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दोनों तरफ के लोग जब झल्लाते, ऊबते, अदालती खर्चों से चिहुँकते तो कामना की पिटाई करते थे। ऐसे तो उसका बड़ा मान-जान था पर परेशान होते ही लोग उसे ऊँच-नीच कहना शुरू करते थे, जिसके जवाब में वो गरियाती और फिर पिटती। कभी कभी वो गाली न भी दे, तब भी लोग उसे पीट बैठते। इसका पता कामना की रुलाई से चलता।

जब वो मार के बरक्स गाली दे-दे कर लड़ती और अपने ऊपर के वार बचा-बचा कर लड़ती तो उसकी रुलाई में शोर हुआ करता। चिल्लाहट। रूखी सी कर्कश रुलाई। चोट उसे फिर भी आई होती पर उसके रोने से आप समझ जाते कि यह रुलाई मुकाबले में पराजित की रुलाई है। लेकिन जब वो बेकसूर पिट जाती, बिना गाली गलौज किए, तब उसकी रुलाई राहगीरों तक के मर्म को भेद देती।

कभी-कभी तो उसका रोना इतना विह्वल कर देता कि खुद पीटने वाला भी रोने लगता, वो चाहे उसके जेठ-देवर हों या सगे भाई। भौजाइयाँ भी चाहतीं कि वो खूब पिटे पर पिटाई शुरू होते ही वो ननद के पक्ष में रोने लगतीं। ऐसे में पीट चुके लोगों का तर्क होता था – क्या हुआ जो उसने मुँह से गाली नहीं दी, पर उन्होंने गाली को उसके गले में ही देख लिया था। कामना जिससे भी पिटती, उससे बातचीत बंद कर देती थी। धीरे-धीरे नइहर गाँव के दर्जी से अलग कोई उससे बात करने वाला नहीं बचा। सबको इसका दुख था कि क्यों नहीं कामना खुद से अपनी जायदाद उनके नाम कर देती है।

ससुराल वालों को कामना का व्यवहार इतना अखरा कि उन्होंने कामना के पति वाली बीमारी का हल्ला कामना के नाम पर फूँक दिया। भाइयों का भी यही हाल लेकिन वे इस उम्मीद में चुप थे कि आज नहीं तो कल, सब मिलना ही है। कामना के सातों भाइयों में बँटवारा हो चुका था और सिवाय कामना की जायदाद के वो किसी मुद्दे पर एकमत नहीं हो सकते थे।

दर्जी की बात दूसरी थी। जब से कामना नइहर लौटी, उसका स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा था। आए दिन, कपड़े चुस्त कराने या पुराने कपड़ों को उघड़वा कर नया बनवाने के लिए कामना दर्जी तक जाया करती।

दर्जी का नाम मियाँ जी पड़ चुका था और उन्होंने अपने डरे सहमेपन के नाते गाँव में अच्छा खासा सम्मान कमा रखा था। जब भी कामना वहाँ जाती, देर तक बैठती। लोग आते, अक्सर औरतें और दर्जी से बातचीत के बीच कामना को ऐसे देख लेते जैसे वो किसी परिचित गाँव की अपरिचित है। वो वहीं बैठी रहती, जब लोग चले जाते तो कुछ न कुछ बतियाती। होशियारों का शुबहा था कि दर्जी ही कामना का वकील बना है।

जबकि कामना मियाँ जी से जो बातें करती उसका कुल लक्ष्य होता था, जैसे वह दर्जी के माध्यम से अपने जीवन को जानना समझना चाहती हो। कामना का एकमात्र अपराध अकेला पड़ जाना था। इतना वो समझती थी। इसका दुख भी उसे था। वो दर्जी से अपने बारे में। अपनी शादी के बारे में पूछती। अपने पिता का चेहरा वो भूलने लगी थी। पिता उसे खास कोई प्यार भी नहीं करते थे। फिर भी खोई हुई उम्मीद की रोशनी की तरह उनके बारे में पूछती। मियाँ जी सिलाई मशीन की धुन पर उसे बहुत कुछ सुनाते। कुछ स्मृतियों के आसरे, कुछ गढ़कर, कुछ अपने जीवन का मिलाकर।। कामना के जीवन के किस्से पूरते।

मियाँ जी के किस्सों पर सवार कामना अपना जीवन देखती। पलटती और पाती कि उसे सब हूबहू याद आ रहा है। मसलन बचपन से ही उसके झगड़ालू होने को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया गया। गाँव में लड़ाका के नाम से वह मशहूर थी। कोई नहीं जानता, पंद्रह बीस सगे-चचेरे भाई-बहनों के बीच कब क्या हुआ कि कामना झगड़ालू दर झगड़ालू होती गई। लोग उसके इस स्वभाव का फायदा उठाते थे। किसी भी गलती के लिए उसे दोषी ठहराते हुए जैसे सब यही मान कर चलते थे कि झगड़ालू है तो भूल गलती इसी की होगी।

कामना के ब्याह में भी यह आरोप इस्तेमाल हुआ। ब्याह तय होने के तीन-चार महीने तक लोग यही बातें करते रहे कि खेतिहर के घर जा रही है – भाग्यशाली है, दूल्हे के पिता का नाम काम बड़ा है, बरसों-बरस से दोनों पहर का चूल्हा इनके घर जलता रहा है, दूल्हे का बड़ा भाई कचहरी में चपरास लगा है।

शादी तय तपाड़ होने के पाँच महीने बाद कामना की माँ को यह ख्याल आया, दूल्हा कैसा होगा? किसी ने देखा भी है या नहीं? कामना के पिता से पूछा। उनका कहना था, लड़का क्या देखना, यह नसीब की बात है। कामना के भाई ने बताया, ‘लड़का ट्रक चलाता है, जल्द ही अपना ट्रक खरीद लेगा, अभी ट्रक लेकर निकला हुआ है, ब्याह के दिनों ही आएगा।’ किसी ने पूछा, ‘लड़के का नाम?’ दरअसल लड़के के पिता, घर बार का नाम इतना बड़ा और व्यापक था कि दूल्हे का नाम किसी को मालूम ही नहीं था।

माँ को शायद पसंद न आया। सोचा, दामाद ट्रक घुमाता है, ऐबी होगा। जब तक वो शिकायत कर पाती उससे पहले ही कामना के सात भाई, सात भाभियाँ, तीन बहनें, तीन जीजा और पिता, सब ने समवेत स्वर में कहा – ऐसी झगड़ालू के लिए और भला कैसा लड़का चाहिए। भाइयों ने चूँकि मिलकर अभी कुछ ही दिनों पहले इसे मारा पीटा था इसलिए उनसे और उनके परिवारों से बातचीत बंद थी। वजह, चुरा कर दूध पीना, बतलाई गई थी।

कामना के बड़े भाई रामआसरे को कुछ एहसास हुआ और उन्होंने हजाम को बुलावा भेजा। हजाम आया, बख्शीश में ग्यारह रुपये पाकर नायगाँव की राह चल पड़ा, जहाँ दूल्हे का नाम मिल सकता था।

कामना बिहँसते हुए कहती थी, ‘वहाँ भी सबको पानी पिला दूँगी।’ लोग मजे लेते थे। वो जानती थी, लोग आनंद ले रहे हैं इसलिए वो बढ़-चढ़ के दावे करती थी। उसका सोचना बड़ा प्यारा और जिद भरा था। वो अकेले पड़कर थक चुकी थी। हर झगड़े-झंझट के बाद वो पाती थी कि तमाम मारपीट गाली गलौज खत्म होते ही वो अकेली पड़ गई है। जिसके लिए लड़ रही होती, वो ही, पता नहीं किस मुकाम पर कामना का साथ छोड़ विरोधियों से मिल जाता। बहाना वही, ‘बहुत लहजबान है।’ कई बार तो ऐसे बद्तर मौके भी आए जब उसे अपना भोजन अलग पका कर खाना पड़ा।

कामना ने तय कर रखा था कि नए घर में प्रवेश करते ही वो अपने आप को बदल लेगी। कोई जवाबा-जवाबी नहीं। कोई झंझट नहीं। ‘कुछ भी ऐसा नहीं करना कामना’ खुद से ही कहती, ‘कि सब तुम्हें अलग-थलग कर दें।’

उम्रवान और दुनिया देखे पति के लिए शादी की रस्म ही महत्वपूर्ण थी। सो, दो से तीन दिन ही में चलता बना। ख्याल उसके भी नेक थे पर विवाह के रोमांच से वह भिज्ञ था इसलिए शुरू दिन से ही एक प्रेमिल निस्पृहता उसने पत्नी के लिए बना ली थी। कामना ने भी अपने गाँव में नवेली ब्याहताओं की जो गति देखी, सुनी थी इसलिए उसे किसी बात का आश्चर्य नहीं हुआ। दुख भी नहीं। एक तो उसके साथ उसका दृढ़ निश्चय था जिसमें उसके ऊपर लगे झगड़ालू का निशान उतारना था, दूसरे गाँव का उसका अनुभव कि उसने चुप-चुप रहते हुए जीना शुरू किया।

लोगों की निगाह पर वो तब चढ़ी जब उसका पति सवा साल बाद बीमार, मरणासन्न, लौटा। साथ लौटे खलासी ने बीमारी का नाम एड्स बताया और यह भी कि डॉक्टर ने कहा है, अब चलने-चलाने का वक्त आ पहुँचा है।

बीमार पति को कामना के कमरे में डाल दिया गया। कामना को उसके आगम की खबर हो चुकी थी, फिर भी सारा काम निबटा कर, घर बुहारना, चौका लीपना, बर्तन माँजना, दिया बाती करना, मसाला पीसना, खाना पकाना, ठाकुर जी को भोग लगाना, सबको खिलाना, सास का बिस्तर लगाना, भैंस का भात चढ़ाना, खली भिगोना… सब निबटाकर अपने कमरे में लौटी। ढिबरी की नीम रौशनी में पति को आधा-अधूरा देखा। इच्छा और अनिच्छा के बीच के किसी भाव से ही सही, पैर छुए। अशक्त पति फुसफुसाया। न मालूम कहाँ का चोर उसके मन में समाया कि बच्चों के लिए रखे दूध में से पसर भर निकाल पर पति के लिए लेने गई। ला ही रही थी कि पकड़ी गई। ससुराल में उसकी यह पहली पिटाई थी।

दो महीने तक स्वरूप जीवित रहा। इस बीच का उनका जीवन कामना की खातिर सर्वोत्तम साबित हुआ। ऐसा नहीं कि साथ खूब मिला। न। दरअसल साथ होने के एहसास को वह पहली मर्तबा जी रही थी। सुबह जल्द उठ कर कामना स्वरूप का बिस्तर बाहर लगा देती, यह विदाई समूचे दिन की होती थी।

एक रात स्वरूप ने हाजत की बात बताई। किसी को बताए बिना कामना खुद स्वरूप के साथ बाहर चली आई। निबटान तक वो वहीं मेड़ पर बैठी रही। यह उसके लिए पहला मौका था जब वो पति के साथ घर से बाहर निकली थी। चाँद से भरी भारी रात में उसने पहल कर कहा, बैठते हैं।

अशक्त स्वरूप कामना के लिए कुछ करना चाहता था, इसलिए बैठ गया। जब बैठना मुश्किल लगने लगा तब उसने अपना सारा वजन कामना की गोद में डाल दिया। दोनों चुप थे। स्वरूप ने एक बात जरूर कही, ‘कोई भी मरना नहीं चाहता है।’ कामना आसमान देख रही थी। उसे बाबर का किस्सा मालूम नहीं था और न ही वह गीत लेकिन वह जो कुछ भी सोच रही थी कि काश पति को उसकी उम्र मिल जाए। सुबह होने तक वो दोनों वहीं रहे।

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गलती भी की कि प्रेम किया।

कामना का जीवन कचहरी, वैद्य, डाँट फटकार झगड़े, और बचे-खुचे आत्मसम्मान की लड़ाई में गुजर रहा था पर एक दिन ऐसा आया जब उसने बिस्तर पकड़ लिया। पहली दफा देख कर ही कंपाउंडर या कह लीजिए डॉक्टर ने जवाब दे दिया। जिला अस्पताल ले जाने को कहा पर फुर्सत किसे थी? सब अपने अपने अंदाज से बीमारी का अनुमान लगाए बैठे थे, लाइलाज वगैरह के विशेषण जोड़े बैठे थे लेकिन कामना का व्यक्तिशः जो अनुभव था, दीगर था – वह पहला दिन जब कामना का भरोसा जीवन मात्र से दरक गया।

दर्जी वैसे साथी में तब्दील हो रहा था जो तब आपका साथ देते हैं जब आप पर फैले इल्जाम आपको लाचार बना दें : सुख दुख का साझा, गाँव गिराँव की उलटबासियाँ। ऐसा अकुंठ अनुराग उपज आया था जो सहज संभाव्य होते हुए भी मर्यादितों के लिए वर्जना है। पर उस दिन दर्जी ने शरारत कर दी। इरादतन।

इस गाँव की दुपहरी में सुनसान भी शोर करता है। दर्जी ने झोंक में आकर कामना को दीवार से टिका दिया। वह व्यवहार से इच्छाहीन और शरीर से अशक्त जान पड़ता था। कामना माजरे से अनजान न थी। उसकी अपनी कामनाएँ होते हुए भी जैसे बंद किसी पोटली में ढकी रह गई हों कि वो अवाक पड़ गई। निर्जोर विरोध किया। दर्जी के हाथ पाँव चल रहे थे पर जाने क्यों आँखें मुँद गई थीं।

अपराध का बोध गहरा रहा हो शायद। कामना को सिलाई मशीन के पायदान तक खींचने लगा तभी कामना को अपने पति का रोग और खुद के बारे में फैली बीमारी की अफवाह याद आई। वह बिफर पड़ी। दर्जी को यह बिन बताए कि उसके भले के लिए वह यह सब कर रही है, उसने जोर का धक्का दिया। दर्जी खुली आँखों के संग दूर जा गिरा। यह सब जैसे कम हो कि बचे हुए विश्वास पर मिट्टी डालने के लिए दर्जी को दो चार तमाचे भी जड़ दिए।

कामना ठीक उसी दिन से मरणासन्न हुई। घरऊ लोगों को लगा, मर जाएगी। इसलिए पुरोहित को बुलाकर ‘बछिया दान’ कराई गई। सभी घरों सें एक या दो लोग आते, डलिए में लाया आटा दाल और दो तीन आलू कामना के शरीर से छुला कर पुरोहित को दान देते गए। पुरोहित कामना के एड्स होने के हल्ले से परिचित था इसलिए उसने तथ्य को जाहिर किए बगैर, सदाशयता के नाम पर, सारा का सारा चढ़ावा चमटोले में बाँट दिया। सबसे अच्छी पोटली बाबूलाल के हाथ लगी – दाल। पाँच किलो जिंदा दाल निकली। एक किलो दाल बाबूलाल ने खुद के खाने के लिए रख लिया बाकी की दाल बाजार के बनिए के हाथ बेच दिया। इसी बनिए से पुरोहित के घर का सामान खरीदा जाता था।

अनुमानों के उलट जब कामना जीवित बच गई तब सबकी उम्मीदों और जान में जान आई। वकीलों के मशविरों और उन पर अमल का दौर शुरू हुआ। नइहर पक्ष के वकील की फीस कम पड़ने लगी तो तय हुआ कि जब जमीन हिस्से में आ जाएगी तो चौथाई वकील साहब के नाम कर दिया जाएगा, जिसे सभी अधिकारियों से मिल बाँट लेंगे। यह भी तय हुआ कि इस चौथाई जमीन की लिखाई, रजिस्ट्री और खारिज दाखिल का सारा काम बड़े भाई को देखना होगा। वकील ने सलाह दी, ‘कामना को ससुराल भेजो। जल्द से भी जल्द। वहाँ मरी तो मामला अपने पक्ष में झुकेगा।’

किस्मत या वकीलों का सीमित ज्ञान, जो कहिए, ससुराल पक्ष के वकील ने भी यही सुनाया, ‘बहू को नइहर में ही मरने दो, अपना पक्ष मजबूत होगा।’ बाबूलाल वकील को भी वकील तरण मिश्रा की डील पता पड़ चुकी थी इसलिए उसने भी चौथाई जमीन का सौदा करना चाहा। लेकिन ससुराल वाले उलटे इनकी बची-खुची फीस लूटने पर आमादा हो गए इसलिए बाबूलाल वकील को यह ख्याल तज देना पड़ा।

कामना की मृत्यु, सबके मूल में यही था। कब्जा उसकी लाश पर होना था इसलिए पहली बार बहन की निगाह में गिरने से बचने की खातिर भाइयों ने कामना का अपहरण करा दिया। वो, अशक्त बीमार खुद से ही रूठी हमारी नायिका, शाम के समय ‘लौटने’ गई थी कि कुछ लोगों ने उसकी गर्दन पर चोट पहुँचा कर उसका अपहरण कर लिया।

गाँव में शोर। सबकी एक राय; जरूर यह ससुराल वालों की चाल है। वो कामना को अपने पास रखना चाहते हैं। सच ही सुबह-सुबह यह खबर आई कि कामना ससुराल के सीमाने पर भौंकते हुए कुछ कुत्तों के बीच पाई गई। इस गुमान में कुत्ते भूँके जा रहे थे कि उन्हें पहली बार किसी इनसान ने तरजीह दी है। नइहर में तैयारी चल रही थी कि अपहरण का यह मामला थाने में दर्ज हो। कोई सामान्य दिन होता तो केवल पट्टीदारी के लोग साथ जाते पर यह सोलह बीघे जमीन का मामला था और समूचा गाँव चाह कर भी यह सोचने से खुद को मना नहीं कर पा रहा था कि काश एक टुकड़ा उसके हिस्से आ जाए।

इसके कई प्रयास हो चुके थे। कभी कचहरी के मारपीट वाले मुकदमे के बहाने अपना नाम डालने की कोशिशें, कभी सीधे सीधे अपना नाम डालने की धौंस। आज भी थाने चलने के लिए कामना के घर के बाहर लोग जमा होने लगे थे। दोपहर ढलने को आ रही थी और अभी भी लोगों का इंतजार हो रहा था। पुलिस थाने का अतिरिक्त भय न होता तो कामना के भाई इनमें से किसी को साथ न ले जाते। उन्हें भय था। पुलिस का नहीं। इस बात का कि कहीं इन लालचियों में से किसी का नाम मुकदमे में न डल जाए।

इन्हीं तैयारियों के बीच गाँव के इकलौते छोटा हाथी के ड्राइवर ने आकर सूचना दी, ‘गाँव के बगीचे में किसी महिला को लिटा दिया गया है।’ पंच वहीं चले। शायदा कामना है या उसका शव। थाने जाने वालों का उत्साह पानी हो गया। परिवार वाले, अलबत्ता, बागीचे तक जरूर गए। कामना जीवित और मृत के बीच कुछ थी। बड़े भाई की रुलाई फूट पड़ी। ललकार में। जैसे कोई बाँध टूटता हो। यह देख सातों भाई सुबकने लगे। वो कानून और इच्छाओं के आगे मजबूर थे वरना बहन की यह दुर्दशा उनसे देखी नहीं जा रही थी।

अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी। वहाँ उसका था भी क्या। स्मृतियाँ जाले का शक्ल ले चुकी थीं और परिचित खूँखार हो चुके थे। माँ ने, लेकिन, विरोध किया। वो उस खटिये पर बैठ गई जिस पर कामना को लिटाया गया था। तकलीफ में कामना करवट तक नहीं बदल पा रही थी। वरना उसकी चाहत हो रही थी कि वो किसी ऐसे करवट घूम जाए जहाँ से इन सबका चेहरा न दिखे।

कामना को खटिये पर लिटा कर इसलिए नारियल की रस्सी से बाँध दिया गया था कि गाड़ी के हिलने डुलने से वो गिर न पड़े। यह ससुराल वालों ने किया था। इसलिए नइहर वालों ने, ख्याल की खातिर, प्लास्टिक की रस्सी भी चारपाई पर बाँध आए। अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी।

माँ को मशक्कत से मनाना पड़ा। उसे खुद को यह यकीन दिलाना पड़ा कि बेटी के जीवन से घर का कुछ भला हो सकता है। इस तरह दो दिनों में नइहर से ससुराल और ससुराल से वापस नइहर के कुल सोलह चक्कर लगे। दोनों तरफ, इत्तेफाक कि, गाड़ियाँ भी एक जैसी ही थीं – छोटा हाथी। बारी बारी से गाड़ियाँ कामना को या क्या पता कामना के शव को नइहर और ससुराल के सीमाने पर छोड़ कर चली आ रही थीं। यह सब वकीलों और गाँव के बुजुर्गों की देखरेख में हो रहा था।

तीसरे दिन यानी सोलहवें चक्कर की बारी, कामना की माँ ने ही पूछा, ‘देख तो लो, क्या पता कुछ खाना पीना चाहती हो?’ माँ तटस्थ दिखने की कोशिश कर रही थी, उसे लग रहा था कि बेटी के लिए उमगते भय और स्नेह का पता घर वालों को चलेगा तो कहीं बुरा न मान जाएँ। एक भौजाई गाड़ी के पास गई। यहाँ उसे अनजाने ही बढ़त हासिल हुई। कामना जिस चारपाई से बँधी पड़ी थी उस पर समय खर्चा, नब्ज टटोलती रही और मारे अचरज और खुशी के, रोने लगी।

मृतक के घर में ऐसा कोई न कोई निकल आता है जिसे शोक के सभी भाव स्थगित करने पड़ते हैं और लोहार, हजाम, पुरोहित आदि को बारंबार बुलाने जाना पड़ता है। कामना के भतीजे के जिम्मे यह काम आया। पुरोहित ने घर बैठे ही कफन-दफन के सामानों की सूची लिखा दी। कफन पहनाने से पूर्व पानी के गलबल छींटे मारकर कामना के शव को नहलाने की रस्म निभाई गई। पूरे शरीर में घी मलने की बारी आई। माँ ने अपना संताप परे रख यह काम लिया पर बेटी का चेहरा देख वहीं बैठ गईं और बिन आवाज रोती रही। मँझली भौजाइयों ने घी मलने का काम पूरा किया।

टिकठी (अर्थी का सामान) के लिए बाँस की जरूरत थी। सतऊ लोहार खुद न आकर अपने बेटे अयोध्या को भेज दिया। अब सतऊ के बड़े बेटे अयोध्या ही इस गाँव की लोहारी देखते हैं। बँटवारे में अयोध्या के हिस्से दो गाँव आए हैं और बाकी के दो बेटों के हिस्से एक एक गाँव। वो दोनों बेटे शहर जाकर बढ़ईगिरी करते हैं। अयोध्या इस पेशे में नए हैं फिर भी भिज्ञ हैं। टिकठी के लिए हमेशा तीन बाँस उसी घर की ‘बँसवाड़ी’ से काटते हैं जिनके यहाँ मृत्यु आई होती है।

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इस बार गाँव के तीन बड़े घरों की बँसकोठी से एक एक बाँस लिया। अयोध्या चूँकि मृतका के उम्र भर से वाकिफ थे इसलिए उनका कहना था, बाँस मजबूत चाहिए। अयोध्या बाँस काटते गए और मृत कामना के तीन भाई उसे बँसकोठी से खींचकर निकालते और फिर अपने दरवाजे पर लाकर रखते गए। टिकठी तैयार होने में एक घड़ी का समय लगा।

कामना के घर का मजाक बनते-बनते तब बचा जब भावनाओं के उछाह में बड़ी भाभी ने सिन्होरा (सिंदूरदान) भेजकर टिकठी के पास रखवा दिया। रोहू हजाम ने बताया, ‘विधवाओं के साथ कुछ नहीं जाता।’ चुपके से उस सिन्होरे को अंदर भेज दिया गया। वैसे, वहाँ मौजूद वकील ने इसे अपनी पराजय माना। अगर सिन्होरा भेजने की परंपरा होती तो अदालत में एक मौका यह भी कहने को मिलता, ससुराल पक्ष ने निर्दयतापूर्वक सिन्होरा दबा लिया इसलिए कामना के शव का संस्कार भी अधूरा हुआ। वकील का मानना था कि न्यायाधीश अधूरे संस्कार के इस तर्क पर विह्वल हो जाते और अगर नइहर के पक्ष में फैसला न सुनाते तो कम से कम सुनाने का मन तो बना ही लेते।

कामना का शव-दाह सरयू किनारे होना था। घर से आठ कोस दूर। अर्थी लेकर इतनी दूर पैदल चलना कठिन है, फिर भी लोग जाते हैं। इस बार लगभग सारा गाँव, नंगे पाँव, कामना की शवयात्रा में निकल पड़ा था। दर्जी गाँव में ही रह गया। लोगों ने पूछा भी पर वो आने से इनकार कर गया। समूचे रास्ते बारी बारी से लोग कांधा बदलते गए।

शव को घर से उठाकर और घाट पर फूकने के बीच पाँच दफे ही जमीन पर रखा जा सकता है, जिसमें एक बार गाँव के सीमाने पर रखने का भी चलन है। इसलिए बाकी के रास्ते में हर दो कोस पर अर्थी रखी जाती और लोग सुस्ताते। यहाँ से नए लोगों का समूह अर्थी उठाते हुए आगे बढ़ रहा था। कोशिश यही थी कि एकसमान ऊँचाई के लोग ही एक बार कंधा दें ताकि शव इधर-उधर न खिसक जाए और वजन किसी एक तरफ ही न बढ़ जाए पर घाट पहुँचते पहुँचते कामना का शव पीछे की ओर लुढ़क आया था।

छलगलैया गाँव के बूढ़े बरगद के नीचे, जहाँ अंतिम दफा शव को जमीन पर रखा गया, साइकिलहा और पैदल शवयात्री आराम फरमा रहे थे कि किसी ने खबर सुनाई – नायगाँव (ससुराल) वाले घाट पर दल बल के साथ इंतजार कर रहे हैं। सबका कलेजा सूख आया। वकील ने बताया, जरूर वो लोग लाश छीनने की कोशिश करेंगे। उन लोगो के पास बंदूकें थीं जो वो लेकर आए होंगे। नइहर के लोग इस आशंका से अनभिज्ञ थे इसलिए कुछेक के हाथ में टेक वाली लाठी के अलावा कुछ न था।

शवयात्रा को विराम दिया गया। लोग साइकिलों से वापस लौटे और जिस भी हालत में उनके पास जो भी हथियार मिले, लेकर आए। टॉगी और कुदाल से लेकर कट्टा-बंदूक सब लेकर आए और शवयात्रा आगे बढ़ी। दोपहर सबके कलेजे पर चढ़कर बोल रही थी। नदी का किनारा और उसकी तपती रेत का विस्तार इतना खुला था कि कोस भर दूर से ही लोगों के पाँव जलने शुरू हुए। कूदते फाँदते, रेत और सरयू नदी को गाली देते हुए लोग शव लेकर नदी की ही ओर भाग रहे थे।

नदी धूप की तरह चमक रही थी और उस खुले में इतनी रोशनी थी कि चौंध से सभी अंधे हुए जा रहे थे। डोम बुलाया गया। लकड़ी और गोईठा गाँव से ही आया था। डोम से दो किलो नीम की लकड़ी रस्म पूरी करने के लिए ली गई।

चिता सजाने के लिए लोग आम की मोटी बल्लियाँ नीचे बिछा रहे थे तो डोम ने टोका। आम की लकड़ी जल्द जलती है इसलिए उसे ऊपर रखिए। नीचे जामुन और खैर की लकड़ी रखी गई। लाश को तुरंत ही उस पर रख देना चाहिए था पर इस बात के फैसले में देर हो गई कि मुखाग्नि कौन देगा? सभी भाई अपनी विनम्र और अश्रुपूरित दावेदारी पेश कर रहे थे पर बड़े भाई ने अपने बेटे नरेश, यानी कामना के भतीजे को, आगे कर निर्णायक बढ़त ले ली। मँझले ने अपने बेटे की बात चलाई पर सभी ने एक स्वर में कहा, ‘उसका उपनयन संस्कार (जनेऊ) नहीं हुआ है इसलिए वो अयोग्य है।’

इधर चिता पर शव रखा जा रहा था और उधर पुरोहित नरेश को नदी स्नान के लिए तैयार कर रहा था। स्नान के बाद हजाम ने किनारे के कुछ बाल उतार लिए। अब आग जलाने की बारी थी जिसे डोम से लेना था। डोम को भनक पड़ चुकी थी कि मोटी जायदाद का मामला है इसलिए वो आग देने से पहले हजार रुपये की दक्षिणा पर अड़ गया। जबकि नइहर पक्ष ने ग्यारह रुपये की तैयारी कर रखी थी। गाँव के बिचवान आगे आए। डोम चिता स्थान छोड़ कर अपने डीह पर चला आया, पीछे-पीछे कामना के भाई तथा कुछ लोग भी आए।

ऐन उसी पल शोर का वह सैलाब उठा। यात्री अतीत के कंधे पर बैठकर देखें तो कह सकते हैं सब कुछ कितना सोचा समझा था पर उस वक्त किसी को यह समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है। ससुराल वाले एक साथ छह या सात ‘फायर’ कर कामना की चिता का अपहरण करने आ गए। पहले उनका इरादा सिर्फ शव लूटने का था। चिता वो खुद ही सजाना चाहते थे पर शव लूटना संभव होते न देख उन लोगों ने चिता पर ही धावा बोल दिया। जवाब में इधर से भी धुआँधार हवाई फायरिंग हुई। कुल्हाड़ियाँ, कुदाल और लाठी की लड़ाई शुरू हुई।

सबके हाथ सिर्फ इसलिए बँधे थे कि उन्हें कर्मकांड सहित शवदाह करना था वरना अदालत में उनका पक्ष कमजोर पड़ जाता, वरना अब तक चिता आग पकड़ चुकी होती। इस तरह, खून खराबे वाली मारपीट में चिता बिखरने लगी और सबसे तेज चीख तब मची जब किसी की कुल्हाड़ी का भारी वार शव पर पड़ा। फिर तो इतने टुकड़े हुए कि चिता का वह क्षेत्रफल लकड़ियों के बजाय खून से भर गया। लोगों को खोज-खोज कर पीटा जा रहा था। सरे बाजार ऐसा दंगा कभी नहीं देखा गया।

देर रात जब उन्माद थमा तो नदी का वह किनारा गिरे हुए पुरुषों से पटा पड़ा था। वकील जो भाग चुके थे वो नए तरकीबों के साथ वापस आए। तय हुआ कि जो भी यह साबित कर देगा, शवदाह उसके जरिए हुआ है, उसकी दावेदारी मजबूत होगी।

कामना के कुल एक सौ छप्पन शव उस रात जले। दोनों मुद्दई पक्ष पीछे छूट गए। दोनों गाँवों के ताकतवर लोगों ने लाश के टुकड़े चुन-चुन कर नदी के किनारे सौ से उपर चिताएँ जलाईं। कामना के भाइयों को होश आया तो वे भी चिता सजाने में लग गए। लकड़ियाँ खरीदने का धन नहीं था, इसलिए वहीं तय हुआ कि जायदाद का दसवाँ हिस्सा लकड़ी वाले को देना होगा। डोम भी दसवें हिस्से में मान जाता पर उसकी पत्नी ने भर मुँह गाली देते हुए उसे आग देने से मना कर दिया। सबने खुद ही आग जलाई और सब ऐसे किस्से गढ़ने लगे – कामना के जीवन में उनके घर परिवार का कितना बड़ा योगदान रहा है। बड़े भाई को चिता के लिए कामना का कटा हुआ पंजा मिला। दूसरे भाई ने कुहनी को लाश बनाकर जलाया। पुरोहित ने कितनों को कुश का शव बना कर दिया, उसे याद नहीं। पहले उसने गिनना शुरू किया पर दसवें हिस्से के उन्माद में गिनना ही भूल गया। मान बैठा कि जो ईमानदार होगा वो खुद ब खुद हिस्सा दे देगा।

मँझले भाइयों में से एक को जब कुछ न मिला तो उसने अपनी कमीज मूल चिता के पास फैले रक्त में डूबो कर चिता सजाई। कामना के जेठ और देवर भी कुछ खून उधार माँग कर ले गए। भाइयों ने अब जाकर सोचा, ‘जायदाद, किसी तीसरे को मिले इससे अच्छा है कि जिनका था उनके ही पास रह जाए। इसलिए उन लोगों ने उधार में नहीं बल्कि सहयोग भावना से खून तथा कामना के शरीर के कुछ टुकड़े खोज कर ससुराल वालों को दिए।

कस्बे के सारे हज्जाम बुला लिए गए। एक सौ छप्पन मुंडन में करते-कराते सुबह हो आई। सबसे जल्द और विधि-विधान के अनुसार, ग्राम प्रधान समेत आठ घर वालों ने शवदाह के कार्यक्रम निपटाए। कचहरी में भी इन सबने जो खेल खेला वह सराहनीय था। उन्होंने दोनों पक्षों के वकीलों को तोड़कर खुद के लिए रख लिया। फिर भी कचहरी में एक सौ छप्पन आवेदन पहुँचे, जिनमें से कामना के दो भाइयों को छोड़ दें तो किसी भी महत्वपूर्ण परिवार का आवेदन खारिज नहीं हुआ। फिर भी कामना के बड़े भाई ने बड़प्पन और दुलार में कहा, ‘अगर हम मुकदमा जीते तो सभी भाइयों में बराबर का हिस्सा बँटेगा।’

कामना की तस्वीर हर घर में मिल जाएगी। दालान या ओसारे में, ससम्मान टँगी इस तस्वीर से जुड़े अलग-अलग किस्से हर घर में मिल जाएँगे।

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शुभकामना का शव – Shubhakamana Ka Shav

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