श्रृंगार | आलोक धन्वा
श्रृंगार | आलोक धन्वा
तुम भीगी रेत पर
इस तरह चलती हो
अपनी पिंडलियों से ऊपर
साड़ी उठाकर
जैसे पानी में चल रही हो!
क्या तुम जान बूझ कर ऐसा
कर रही हो
क्या तुम श्रृंगार को
फिर से बसाना चाहती हो?
श्रृंगार | आलोक धन्वा
तुम भीगी रेत पर
इस तरह चलती हो
अपनी पिंडलियों से ऊपर
साड़ी उठाकर
जैसे पानी में चल रही हो!
क्या तुम जान बूझ कर ऐसा
कर रही हो
क्या तुम श्रृंगार को
फिर से बसाना चाहती हो?