बापू की गिरफ्तारी की खबर सुनकर मेरा मन रेत की तरह ढह गया था। चारों ओर किंकर्तव्यविमूढ़ता के गुब्बार उड़-उड़कर मेरे साहस, ज्ञान और कर्तव्य को ताने से दे रहे थे। मेरी यह मजबूरी या कमजोरी है कि ऐसे संकट-काल में मेरा संतुलन डगमगा जाता है और मैं उस वक्त इस स्थिति में कदापि नहीं रहता कि स्वविवेक से अपना निर्णय ले सकूँ। ऐसा ही इस समय भी हो रहा है। यह संकट अब तक के संकटों में सबसे बड़ा, पीड़ादायक और हताहत करने वाला है। बापू की सारी जिंदगी की कमाई मिट्टी में मिल गई। तिल-तिलकर जमा की गई इज्जत को जाते देख बापू किस तरह सधे होंगे – यह अनुभव बड़ा कष्टकारक था।

चार घंटे का लंबा सफर पहली बार इतना बड़ा और भयावह लगा था। एक-एक क्षण हथौड़ा लिए शरीर में कीलें ठोक रहा हो जैसे। स्मृतियाँ जब अपने समय के साथ धोखा देकर पुनः मानस में प्रवेश करतीं हैं, तब उनका जो रूप होता है, वह इतना सहज नहीं होता कि उसे उसी सहजता के साथ स्वीकारा जा सके। स्मृतियों की आँख-मिचौली कभी इतनी कष्टकारक भी होती होगी, शायद मैंने कभी अनुभव नहीं किया था। चेतना के जिन तारों पर उनका घर्षण हो रहा था, अब वे शायद फ्यूज हो उठे थे। मोटर के साथ आती धूल भारी हवा और यात्रियों की भीड़-भाड़ से अलग मैं पिछली सीट के एक कोने में दबा-सा बैठा रहा। दच्चियों की उठा-पटक शरीर को और भी अस्थिर किए थी।

गाँव में सब कुछ ढर्रे की तरह चल रहा था। किसी के चेहरे पर संवेदना के दो बोल भी नहीं फूट रहे थे। गर्दन नीची कर मैं घर आ गया। चबूतरे पर अम्मा बैठी थी -अकेली। माथे से जरा नीचे घूँघट और घुटना ऊपर को किए अम्मा शायद मेरी प्रतीक्षा ही कर रही थीं। उनके चारों ओर विषाद की ऐसी रेखा खिंची थी कि वहाँ सिवाय हल्की-सी दबी-पिसी साँस के अलावा और कुछ आ-जा नहीं रहा था। अम्मा ने दूर से ही मुझे देख लिया था, लेकिन पहले की तरह वे उठकर खड़ी नहीं हुई थीं और न उनके इर्द-गिर्द मेरे आने की खबर ने कोई सरगर्मी ही की थी, बल्कि एक सन्नाटा-सा और बुन गया था, एकाएक। अम्मा की साँसें इस सन्नाटे में स्पष्ट सुनाई पड़ रही थीं। मुझे देखकर साँसें और भी जोर से बढ़ गई थीं।

पास आकर जैसे ही मैं उनके पैर छूने को झुका तो अम्मा फफक पड़ीं। मेरे साहस का बाँध बहुत कोशिश के बावजूद पहले ही टूट चुका था। अम्मा‍ के गर्म आँसू मेरे शरीर के पोर-पोर में उनके कष्ट की दस्तक-सी दे रहे थे। वे इतना रोईं कि उन्हें और कुछ कहने-सुनने का होश ही नहीं रहा। मेरी स्थिति पल्टी नाव के सहयात्रियों जैसी थी, जो साथ-साथ जीवन-मरण के कष्टों में बह रहे थे, लेकिन चाहते हुए भी एक-दूसरे की कोई सहायता नहीं कर पा रहे थे।

रात में अम्मा ने खाना तो बनाया, मगर खाया हम दोनों ने ही नहीं। खाना पेट भरने के लिए ही नहीं खाया जाता। यदि ऐसा होता तो आदमी सुख-दुख में कभी भी खा सकता था। खाने का संबंध शायद मन से है। अम्मा की लाख कोशिश के बावजूद भी मुझसे नहीं खाया गया। इसी वक्त अम्मा ने आँगन में बैठकर बापू की गिरफ्तारी का सारा किस्सा मुझे सुनाया था। सुनाने से पहले अम्मा ने गहरी साँस ली थी – बस और…

अपनी जिंदगी में पहली बार बापू ने सरकारी कर्ज लिया था। भूमिहीनों के लिए सरकार द्वारा भैंस खरीदने पर कर्ज मिला था। सरकारी कर्ज पर बापू का विश्वास नहीं था। बहुत कहने पर उनका एक ही उत्तर था – गाँव का कर्ज अच्छा, जिसे जैसे-तैसे करके चुका दो, किंतु सरकारी कर्ज में चपरासी से लेकर अफसर तक पचास खसम। सबको मनाओ, कुछ-न-कुछ खिलाओ और कर्ज न चुकाने पर जेल की हवा। गाँव में कम-से-कम इतना नहीं है। गाँव वाले को थोड़ी-बहुत शर्म भी रहती है और यह भी खयाल रहता है कि इस साल नहीं है, तो अगली साल दे देगा और न भी होने पर फाँसी तो है नहीं उसके हाथ में। मगर सरकार – जो चाहे करा दे। यही एकमात्र कारण है, जिस वजह से बापू ने आज तक सरकारी कर्जा नहीं लिया।

तीन हजार रुपए मंजूर हुए थे, बापू के नाम, बहुत दौड़-भाग के बाद। पाँच सौ रुपए पहले ही खर्च हो गए – मंजूरी के चक्कर में। एक महीने तक बापू की नींद हराम हो गई थी। रोज जाते ब्लाक। शाम को आकर बापू अफसरों और कर्मचारियों की हरामखोरी पर गालियाँ बकते और फिर चुपचाप आकाश की ओर आँखें बिछाकर चारपाई पर पड़े रहते। खुली आँखों में हरे-हरे नोटों की जगह वसूली का अमीन और उसका चपरासी आता। वे डर जाते। नींद भी मुश्किल से आती। बड़बड़ाना उनकी आदत-सी बन गई थी।

रुपए मिलने पर बड़े बाबू के आदेशानुसार बापू कल्लू व्यापारी से भैंस ले आए थे। भैंस के सुघड़ पुट्ठे पर जब नंबर गोदा गया तो बापू उस पीड़ा से चीख पड़े थे। उन्हें लगा कि यह भैंस के पुट्ठे पर नहीं – बल्कि उनकी पीठ पर लोहे की गर्म मशीन से दागा जा रहा है – ‘सरकारी कर्जदार।’ भैंस लेकर बापू कई दिन तक उदास से रहे थे।

एक-एक दिन गुजरता गया – एक साल भी खत्म होने को आ गई, किंतु बापू पर कभी इतना पैसा इकट्ठा नहीं हुआ कि वे एक किस्त भी जमा कर दें। दूध बिकता कम, मुफ्त में ज्यादा जाता; गरीब आदमी किसी से मना भी तो नहीं कर सकता – गाँव का रहना-सहना, कब किससे काम पड़ जाए। और घी कभी बी.डी.ओ. का चपरासी ले जाता और कभी बड़े बाबू का। न देने पर किस्त की धमकी। बापू का मन ऐसी स्थिति में जल उठता, लेकिन कह नहीं पाते। अम्मा भी कहतीं तो धीरे-से कहते – मुझे ही कौन अच्छा लगता है ऐसा करना, लेकिन मजबूर आदमी अपनी मर्जी से काम कर ले तो मजबूरी फिर क्या रही? अपने बेटे के होते हुए घी दूसरे खाएँ – सब भाग्य का दोष है। कहते हुए बापू की आँखें भारी हो जातीं और होंठ काँपने-से लगते। अम्मा इस स्थिति को देखकर चुप हो काम करने लग जाती। बापू बहुत देर तक आँखें खोले एकटक देखते रहते। चेहरे की बुनावट कुछ अजीब-सी हो जाती।

अम्मा की चुप्पी न आँधी से पहले की तरह थी और न समुद्र की तरह, बल्कि एक इनसान की संवेदनशील चुप्पी थी। उनका चुप मन अंदर-ही-अंदर टूट-सा जाता। घर में पैसा कहाँ है। एक चीज भी अब नहीं बची, जिसे बेचकर कुछ काम कर सके। बापू जितना कमाते, उतना घर खर्च के लिए भी पूरा नहीं था। ऊपर से बापू की बीमारी। गरीबी बीमारी की जड़ होती है और यही लाइलाज बीमारी बापू को है।

अम्मा ने यह भी बताया कि जाते समय बापू यह भी कह रहे थे कि – मैं जानता था कि यह स्थिति एक दिन आएगी, इसी से बचना चाहता था जिससे बुढ़ापे में इज्जत बची रह सके, लेकिन तुम लोग कहाँ माने! अम्मा की आवाज में बापू का दर्द आ गया था। आदमी जिसे जिंदगी भर स्वीकार न करे, अंत में वही स्वीकार तो क्या करना भी पड़े तो, वह किस कदर अंदर तक टूट जाता है, वही जानता है। ऐसे में जिंदगी अचल हो जाती है। जिंदगी का रहस्य भी तो यही है, जिसे हम चाहते हैं, यदि वही मिल जाए तो फिर जिंदगी क्या बाजीगर का खेल हो जाती है – जो चाहो सो पाओ। यह बाजीगरी जिंदगी में नहीं चल पाती। इसलिए बापू ने जो चाहा, वह उन्हें नहीं मिला और जो मिला, वह इस कदर विपरीत था कि उसे पाकर उनका मन और भी दुखी हो उठता।

इकलौता बेटा भी नालायक निकले, तो जिंदगी का रहा-सहा आसरा भी खत्म हो जाता है। मेरी नौकरी न लगने के कारण बापू के कष्ट और बढ़ गए – ऐसा होना स्वाभाविक भी था, किंतु मैं चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सका। इसी कारण बापू की यह मान्यता और भी प्रबल हो गई कि मैं कुछ नहीं करना चाहता। उनका यह कथन एक भारतीय बाप की पीड़ा की अभिव्यक्ति थी और मेरी सफाई मेरी मजबूरी के अलावा और कुछ भी नहीं।

नौकरी न मिल पाने के कारण घर की जो हालत है, उसे अम्मा के लाख छिपाने के बावजूद मैं अच्छी तरह जानता हूँ। अम्मा की चिथड़े-चिथड़े धोती, पिछली साल जब बुआ आई थी, तब दे गई थी। अम्मा चाहकर भी मना नहीं कर सकी थी। बुआ समझती थी कि अम्मा को यह अच्छा नहीं लग रहा, लेकिन अच्छे लगने से ज्यादा आवश्यकता की अहमियत है। अच्छी तो बहुत-सी बातें नहीं लगतीं, लेकिन जिंदगी जीने के लिए उन्हें भी स्वीकारा जाता है। अम्मा चूँकि एक सामान्य औरत हैं, मतलब कि, हर हाल में जीने वाली, इसलिए वे चुप हो सब-कुछ सह लेती हैं। यही कारण है कि बाहर से शायद ही कभी वे बीमार रही हों, परंतु मन से शायद ही कभी ठीक। बाहर की स्थिति को हर कोई देख-समझ सकता है, मन को कौन जाने। अम्मा का मन है कि दर्द का संग्रहालय। जब भी कोई दर्द मिला – रोईं नहीं, चीखीं नहीं, किसी से कुछ कहा नहीं, बस आँखें गीली हुईं और पी लिया सब कुछ। कहीं बापू को न मालूम पड़ जाए और कहीं नम आँखों में मेरी आँखें न समा जाएँ, इसलिए सब-कुछ चुपचाप चलता रहा।

शहर में मेरे पास खबर भेजते समय अम्मा ने यह भी कहला भेजा था कि मैं चाचा को साथ ले आऊँ और यदि वे न आएँ तो उनसे कुछ रुपया उधार ले आऊँ। चाचा ने रुपए दिए और न वे आए। अम्मा ने सिर्फ पूछा भर था कि उन्होंने क्या कहा है। मेरे मना करने की कहने पर अम्मा के होंठ सिर्फ थरथराए थे। निश्चित ही चाचा का यह व्यवहार अम्मा को बुरा लगा होगा। जिस भाई को बापू ने अपने बेटे की तरह पाला और अम्मा ने दुलारा, आज वही गैरों जैसा व्यवहार करे तो बुरा लगना स्वाभाविक ही है। आज तक अम्मा ने इतनी बुरी बातें सही हैं कि अब ऐसी बातें उन पर कुछ असर नहीं करतीं। सिवाय इसके कि कुछ क्षण को वे और उदासी के सागर में डूब जाती हैं और फिर धीरे-धीरे किनारा पा लेती हैं।

अंगारे की मानिंद जलती आँखें अम्मा ने ऊपर उठाईं और बताया कि एक हजार रुपए जो तुम्हारी फौज की नौकरी के लिए रामबगला के हवलदार को दिए थे, उसने नहीं लौटाए – अभी तक। कई बार बापू के कहने के बाद भी। रुपए न दे पाने के कारण पुजारी भैंस खोल ले गया है। अम्मा की पलकें नीची हो गईं – स्वतः ही।

हवलदार रुपए दे-दे तो कुछ काम संभव है, लेकिन जब बापू के कहने पर ही नहीं दिए तो मेरे कहने से कैसे दे देगा। गाँव में रुपया उसी का वसूल होता है, जिस पर चार-छह लठैत हों और हो पुलिस का संरक्षण। बापू में ये दोनों गुण नहीं हैं, इसलिए पैसा वसूल नहीं हुआ। अतः बापू संतोष करके बैठ गए। निर्बल आदमी संतोष के अलावा कर भी क्या सकता है। निर्बल हृदय संतोष की उर्वर भूमि होता है।

अम्मा ने गाँव में और लोगों से भी रुपए उधार माँगे थे, लेकिन जिस पर कूँड़ भी खेती न हो और खूँटे पर एक भी जानवर, उसे रुपए तो क्या कफन भी नहीं मिलता – आजकल। अब वह जमाना नहीं, जिसमें एक आदमी दूसरे की सहायता करे।

गाँव में रुपए न मिलते देख रामबगला गया। यह जानते हुए भी कि वहाँ से खाली हाथ आना पड़ेगा। आदमी संकट में परखे हुए को भी परखने की कोशिश करता है। हवलदार के पिता ने मूँछों पर हाथ फेरते हुए साफ कह दिया कि लेन-देन के मामले में वही जाने, न तो मुझे तुमने दिए और न ही मुझे कुछ मालूम। वापिस आ गया। लौटते समय मुझे लगा कि मेरे पाँव भी शायद वहीं रह गए हैं। आँखों के आगे तिलूले नाच रहे थे।

बापू अभी जिला जेल नहीं भेजे गए थे – कुछ आमदनी के चक्कर में उन्हें थाने में ही रख छोड़ा था। मैं अपनी समस्त हिम्मत बटोरकर सुबह थाने गया। अम्मा मेरे कहने के बाद भी नहीं आईं। शायद वे इस दृश्य को बर्दाश्त नहीं कर पातीं। थाने के अंदर हवालात के सीखचों में बंद बापू। गर्दन घुटनों के अंदर, सिर के बाल अस्त-व्यस्त, कंधों पर फटी कमीज और घुटनों तक धोती। बापू की इस अवस्था को देखकर मैं काँप उठा था। हिम्मत जुटाकर मैंने कुछ कहना चाहा, मगर गला इतना भारी हो गया था कि शब्द बाहर निकल ही नहीं पा रहे थे। अचानक कुछ हवा में गूँज उठा – बापू ने गर्दन उठाई। सूखे चेहरे पर कुछ तरंगित हुआ। सफेद दाढ़ी में छुपी काली आँखें चौड़ गईं। माथे की झुर्रियाँ और गहरी हो गईं। बापू टकटकी बाँधे मुझे देखते रहे। यकायक अंदर से मजबूत हथकड़ी में जकड़े हाथ बाहर आने को आतुर हो उठे, लोहे के डंडों से थोड़ी निकली उँगलियाँ कुछ पाने को लपलपा उठीं। मैं कुछ झुका तो मेरी आँखों से दो बूँद टपक पड़ीं। बापू की आँखें गीली तो थीं मगर आँसू बाहर नहीं निकल पा रहे थे। काँपते होंठों से बापू ने अम्मा का हाल पूछा था और फिर चाचा के संदर्भ में…। पूरी बात वे कह नहीं पाए थे कि बीच में ही उनकी आँखें बह चलीं। स्थिति की भयावहता को मैं समझ रहा था, लेकिन ऐसे समझने का क्या अर्थ – जिससे समस्या का कोई समाधान ही न निकले।

बापू के थरथराते होंठ कुछ कहना चाह रहे थे…। ध्वनिहीन शब्द कानों में नहीं, मन में सुनाई दे रहे थे, लेकिन एक बेरोजगार बेटा ऐसे में क्या करे – यह समस्या मेरे सामने थी। अचानक मुझे लगा कि सरकारी कर्ज का दाग भैंस के पुट्ठे पर नहीं, बल्कि मेरे शरीर के एक-एक हिस्से में दागा जा रहा है। और हथकड़ी बापू के हाथों में नहीं, मेरे अस्तित्व को जकड़ गई है। मेरी संवेदना हवालात के सीखचों में कैद हो गई। शहर भेजते समय बापू के कहे ये शब्द आज पहली बार कितने थोथे लग रहे थे – ‘जिस बाप पर जवान बेटा हो उसे किसी बात की चिंता नहीं रहती।’ और बचपन में मुझे इतना आज्ञाकारी बनने की शिक्षा देना कि मैं उनकी इतनी सेवा करूँ कि उनकी जिंदगी के सारे घाव धो डालूँ। तभी वे अम्मा से लाड़ में भरकर कहा करते – देखना मेरा बेटा श्रवण कुमार बनेगा – एक दिन। और फिर लगातार चूमते रहते – गोदी में बैठाकर।

बापू का वह आत्म-विश्वास कितना खोखला था। खोखले विश्वासों और रेत-संबंधों की दुनिया में खड़े बापू आज अपने को अकेला और असहाय अनुभव कर रहे हैं। यही अहसास… बापू की आँखें बरस रही हैं।

और उनका श्रवण असहाय हो वापिस लौट रहा है – बापू के विश्वास की अर्थी उसके कंधे पर नहीं, सिर पर है और अम्मा की ममता मन के अंदर जमे हिमखंड को पिघला रही है। डग-डग करती जमीन उसके भारी पैरों को सहते हुए अनमना रही है। यह निरीह स्थिति…। श्रवण जाते समय दशरथ से अपने प्यासे माँ-बाप को पानी पिलाने को कह गया था, लेकिन बापू के विश्वासों का श्रवण इस स्थिति में भी नहीं है – आज!

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