शायद मुझसे ही मिलना था | जयकृष्ण राय तुषार
शायद मुझसे ही मिलना था | जयकृष्ण राय तुषार

शायद मुझसे ही मिलना था | जयकृष्ण राय तुषार

शायद मुझसे ही मिलना था | जयकृष्ण राय तुषार

बहुत दिनों से गायब कोई पंछी
ताल नहाने आया
चोंच लड़ाकर गीत सुनाकर
फिर-फिर हमें रिझाने आया।

बरसों से
सूखी टहनी पर
फूल खिले, लौटी हरियाली
ये उदास सुबहें फिर खनकी
लगी पहनने झुमके बाली,
शायद मुझसे ही मिलना था
लेकिन किसी बहाने आया।

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धूल फाँकती
खुली खिड़कियाँ
नए-नए कैलेंडर आए,
देवदास के पागल मन को
केवल पारो की छवि भाए,
होठों में उँगलियाँ फँसाकर
सीटी मौन बजाने आया।

सर्द हुए
रिश्तों में खुशबू लौटी
फिर गरमाहट आई,
अलबम खुले और चित्रों को
दबे पाँव की आहट भाई,
कोई पथराई आँखों को
फिर से ख्वाब दिखाने आया।

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दुख तो बस तेरे हिस्से का
सबको साथी गीत सुनाना,
कोरे पन्नों पर लिख देना
प्यार-मोहब्बत का अफसाना,
मैं तो रूठ गया था खुद से
मुझको कौन मनाने आया।

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