कई बार मैं सोचती हूँ कि यदि शेक्सपीयर इंग्लिश का लेखक न होकर हिंदी का लेखक होता तो क्या तब भी उसकी इतनी ख्याति होती? यदि वह बाँग्ला, तमिल, मलयालम, गुजराती, मराठी में लिख रहा होता तो उसे कितने लोग जानते? मगर यह संयोग है कि वह इंग्लैंड में पैदा हुआ। एक ऐसे देश में जिसने लंबे समय तक दुनिया के कई देशों पर राज किया। जैसा कि होता है विजेता अपनी भाषा-संस्कृति विजित लोगों पर थोपते हैं अंग्रेजों ने भी यही किया। इन लोगों ने जहाँ राज किया वहाँ अपनी भाषा-संस्कृति को लोगों पर लादा। अधिकांश औपनिवेशिक देशों की यह विडंबना है कि स्वतंत्रता पश्चात भी वे इंग्लिश के प्रभाव से उबर नहीं सके हैं। भारत उनमें से एक है। वरना क्या कारण है कि अपने देश, अपनी भाषा के साहित्य को भूल कर हम आज भी विदेशी साहित्य, शेक्सपीयर से आतंकित हैं। उसके बिना हमारा काम नहीं चलता है। इंग्लिश दुनिया के एक बड़े भूभाग, कई देशों में प्रयोग की जाती है। यूरोप के कई देश और अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया में इसका प्रयोग होता ही है। इसमें शक नहीं कि शेक्सपीयर इंग्लिश का महान लेखक है। उसने काव्य और नाटक को अपनी विधा बनाया। उसके नाटक काल की सीमा को पार कर आज भी लोकप्रिय हैं। स्थान की सीमा पर उसने विजय पाई है। प्रायः उसके सारे नाटक दुनिया भर में खेले जाते हैं। मूल भाषा इंग्लिश (प्राचीन नहीं वरन आधुनिक इंग्लिश में) और अनुवाद द्वारा विश्व की तमाम भाषाओं में इनका मंचन होता है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है।

नाटक की अपेक्षा फिल्म एक नई विधा है। फिल्म स्वतंत्र विधा होते हुए भी कई विधाओं का संगम है। राही मासूम रजा फिल्म को साहित्य का अंग मानते हैं और आज के संदर्भ में इसकी महत्ता बताते हैं, “मैं फिल्म को साहित्य का अंग मानता हूँ। आज के मानव की आत्मा की पेचीदगी को अभिव्यक्त करने के लिए साहित्य के पास उपन्यास और फिल्म के सिवा कोई और साधन नहीं है।” फिल्म मात्र साहित्य का अवतार नहीं है, न ही केवल बोलता हुआ साहित्य है। यह भौतिक यथार्थ से जुड़ा हुआ होता है। वास्तविक लोग, वास्तविक सेटिंग्स। निर्देशक दर्शकों से एक साझा संबंध बनाता है, दर्शक और समाज की जिंदगी बताता है। नाटक करने वालों और फिल्म बनाने वालों को शेक्सपीयर प्रारंभ से लुभाता रहा है। उसके नाटकों को फिल्म में रूपांतरित करना निर्देशकों के लिए आकर्षण का विषय होने के साथ ही चुनौती भी रहा है। विश्व के प्रमुख निर्देशकों ने शेक्सपीयर के काम को अपनी-अपनी फिल्म में साकार करने का प्रयास किया है। ‘रोमियो जूलियट’, ‘टेंपेस्ट’, ‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम’, ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’, ‘मैकबेथ’, ‘ओथेलो’ सब फिल्म निर्देशकों के लिए थीम रहे हैं। सिर्फ मैकबेथ की ही बात करें तो शेक्सपीयर के इस नाटक पर ओर्सन वेल्स, रोमन पोलांस्की, कुरुसोवा आदि दिग्गज निर्देशकों ने अपना हाथ आजमाया है। फिर भला भारत के निर्देशक कैसे पीछे रहते। प्रत्येक वर्ष भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं। हिंदी के अलावा यहाँ क्षेत्रीय सिनेमा भी खूब बनते हैं। इस आलेख में मात्र हिंदी सिनेमा की बात ली गई है। हिंदी सिने निर्देशक भी शुरू से शेक्सपीयर से प्रभावित रहे हैं। शुरुआत में ही शोहराब मोदी ने शेक्सपीयर के कई नाटकों पर फिल्म बनाई। अभी हाल-हाल में 2003, 2006 में विशाल भारद्वाज ने शेक्सपीयर को उठाया है और ‘मकबूल’ तथा ‘ओंकारा’ बनाई है। आइए यहाँ हम ‘मकबूल’ को देखते हैं।

यूँ तो शेक्सपीयर के सारे नाटकों में ढेर सारी विशेषताएँ हैं। लेकिन ‘मैकबेथ’ और ‘ओथेलो’ की बात ही कुछ और है। दोनों में मनुष्य के हृदय की उथल-पुथल का बड़ा बारीक विश्लेषण मिलता है। दोनों भारतीय दर्शन-विश्वास के बहुत करीब पड़ते हैं। दोनों में मनोविज्ञान की बारीकियाँ देखने को मिलती हैं। वह मानव मन का पारखी था इसमें कोई संदेह नहीं है भले ही तब तक मनोविज्ञान का एक विषय के रूप में प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। मैकबेथ की महत्वाकांक्षा उसके विनाश का कारण बनती है तो ओथेलो शक की बीमारी का शिकार होता है। मनुष्य कभी अकेले नष्ट नहीं होता है उसके साथ उसके संग रहने वाले भी नष्ट होते हैं। इन दोनों के साथ भी यही होता है। ये खुद भी नष्ट होते हैं मगर अपने साथ तमाम और लोगों को भी नष्ट करते हैं। दोनों नाटक त्रासदी नाटक हैं। दोनों नाटकों ने विश्व भर के नाटक प्रेमियों के दिल में अपनी जगह बनाई है। नाटक खेलने वालों के लिए दोनों नाटक चुनौती रहे हैं। जब फिल्म विधा सामने आई तो दोनों नाटक फिल्म निर्देशकों के लिए भी आकर्षण और चुनौती रहे हैं। भारत जहाँ सुखांत नाटक और कथाओं की परंपरा है वहाँ भी ये दुखांत नाटक दर्शकों द्वारा सराहे गए हैं। दुखांत हमारी परंपरा नहीं है मगर यहाँ हमारी परंपरा का विचलन होता है। इसी तरह दुखांत फिल्मों को हिंदी दर्शक द्वारा नकारे जाने की परंपरा रही है। यहाँ भी शेक्सपीयर अपवाद रहा है। ओथेलो का हिंदी रूपांतरण (हालाँकि इसे रूपांतरण कहना पूरी तौर पर सही नहीं है) ‘ओंकारा’ फिल्म न केवल आलोचकों और दर्शकों को पसंद आई इसने बॉक्स ऑफिस पर भी पर्याप्त सफलता पाई। ‘मैकबेथ’ पर आधारित ‘मकबूल’ फिल्म भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसे भारतीय दर्शकों, आलोचकों ने सराहा, भले ही वह आर्थिक दृष्टि से उतनी कमाई न कर सकी।

‘मैकबेथ’ शेक्सपीयर का ऐसा नाटक है जिसने दुनिया भर के फिल्म निर्देशकों को फिल्म बनाने के लिए उकसाया और उन्होंने इस पर फिल्म बनाई है। कैसे आइडिया मिला उसे इस नाटक का? इसके कथानक में शेक्सपीयर ने कई कथाओं को समेटा है। 1603 में महारानी एलीजाबेथ के मरते ही मुकुट धारण करने उसका भांजा किंग जेम्स स्कॉटलैंड से आ पहुँचा। तत्काल गृहयुद्ध प्रारंभ नहीं हुआ। शेक्सपीयर को आश्चर्य और राहत दोनों हुई। लेकिन जल्द ही 1605 में राजा की हत्या का षड्यंत्र ‘गनपाउडर प्लॉट’ के नाम से हुआ जिसका परिणाम गे फ़ॉक्स की गिरफ्तारी और फाँसी में हुआ। “शेक्सपीयर ने भाँप लिया कि उसके बार-बार आने वाले कथानक – राजा की हत्या – थीम उसके लिए माकूल है, जबकि हाल ही में उसने घरेलू मुद्दों पर ओथेलो बनाया था। भाँड (शेक्सपीयर इस तरह भी जाना जाता है) ने वर्तमान पर टिप्पणी करते हुए अतीत की कहानी को लिया।” और इस तरह ‘मैकबेथ’ नाटक का जन्म हुआ। मगर नाटककार ने मात्र यहीं से कथा नहीं उठाई। अपनी महत्वाकांक्षी पत्नी के उकसाने पर डोनवाल्ड ने डफ नामक राजा की उसके ही किले में हत्या कर दी थी। यह कहानी भी इसमें जोड़ी गई। इतिहास में एक अन्य हत्या की बात भी मिलती है। हत्यारे माल्कॉम ने स्कॉटलैंड के राजा केनेथ की हत्या की थी और कहा जाता है कि इस हत्या के बाद वह अपराधबोध के कारण सो नहीं पाता था। शेक्सपीयर को मैकबेथ के अपराधबोध और दुःस्वप्नों का आइडिया यहीं से मिला। उसने बेमेल विवाह की कहानी को भी शामिल किया। वृद्ध डंकन की जवान पत्नी का मैकबेथ के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है। इंग्लैंड को उसके अत्याचारी राजा से छुटकारा दिलाने के लिए स्कॉटलैंड के सिवार्ड की इंग्लैंड पर चढ़ाई को भी नाटक में जोड़ा गया। चलता-फिरता जंगल तथा आदमी जो औरत से पैदा नहीं हुआ है, पुराइतिहास काल की दो लोककथाओं को भी यहाँ लाया गया। चुड़ैलें (विच) तो उसकी खासियत हैं उन्हें तो आना ही था। इस तरह जगह-जगह से मसाला लेकर शेक्सपीयर ने जो रसायन तैयार किया उसका नाम है ‘मैकबेथ’। असल ने इन मसालों से उसने दो नाटक बनाए ‘मैकबेथ’ तो बना ही दूसरा नाटक बना ‘हेमलेट’। खैर ‘हेमलेट की बात फिर कभी और अभी तो शेक्सपीयर के महान नाटक ‘मैकबेथ’ और उस पर बनी फिल्मों को ही देखते हैं। आलोचक कहते हैं कि इस नाटक ने शेक्सपीयर को ग्रीक नाटककार सोफोक्लीस की ऊँचाई पर पहुँचा दिया।

1905 से ही मैकबेथ पर फिल्म बनने का सिलसिला प्रारंभ हो गया था। इस दौरान अमेरिका, इटली और फ्रांस में दो मिनट से लेकर पंद्रह मिनट तक की फिल्में बनी थीं। इन अल्पावधि की फिल्मों में मूल कृति के पूरी तरह उभरने की कोई गुंजाइश न थी। नाटक के साथ इन फिल्मों में न्याय नहीं हो सकता था। इनमें मैकबेथ मात्र एक खलनायक हत्यारे के रूप में चित्रित हुआ है। इन फिल्मों का ऐतिहसिक महत्व है। जिस समय हिंदी सिनेमा का प्रारंभ हुआ इसी साल सर्वप्रथम 1913 में जर्मनी के निर्देशक लुडविग लैंडमान ने इस पर सैंतालिस मिनट की पूरी फिल्म बनाई। अफसोस आज यह फिल्म उपलब्ध नहीं है। डी.डब्ल्यू. ग्रिफिथ की अमेरिकन फिल्म भी नष्ट हो चुकी है। इसके बाद काफी समय तक कोई फिल्म मैकबेथ पर नहीं मिलती है। पिछली सदी के पाँचवें दशक से मैकबेथ को लेकर फिल्म बनने का सिलसिला एक बार फिर चल पड़ा। कई देशों के फिल्म निर्देशकों ने इस पर अपना हाथ आजमाया। यहाँ तक कि जापान के महान फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा ने भी मैकबेथ को कोस्ट्यूम ड्रामा के रूप में फिल्माया। भारत में विशाल भारद्वाज ने इसे अपनी फिल्म का कथानक बनाया परंतु पूरी तौर पर भारतीयता में रंग कर और आज के अंडरवर्ल्ड से जोड़ कर। उन्होंने मैकबेथ को मकबूल नाम दिया। फिल्म हमारा मनोरंजन तो करती ही है साथ ही हमारे जीवन को भी दिखाती है, हमारी भावनाओं को स्पर्श करती है। यह मात्र ‘एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट’ ही नहीं है। यह गहराई में पैठ कर समकालीन चरित्रों, मुद्दों को उठाती है, हमारे अतीत-वर्तमान को जोड़ कर भविष्य की ओर इंगित करती है।

बीसवीं सदी के आखिरी दशक में शेक्सपीयर अचानक हॉलीवुड का लाड़ला बन बैठा। उसके कई नाटकों पर हॉलीवुड के साथ-साथ विश्व भर में फिल्में बनने लगीं। शुरू से भारत के फिल्म निर्देशक शेक्सपीयर की ओर आकर्षित रहे हैं। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में विशाल भारद्वाज ने शेक्सपीयर को हाथ में लिया। ‘यहाँ से सिनेमा’ में अरुण कुमार लिखते हैं, “संगीतकार विशाल भारद्वाज फिल्म निर्माण की दुनिया में आए। उन्होंने शेक्सपीयर के नाटक ‘मैकबेथ’ पर ‘मकबूल’ फिल्म बनाई। भारद्वाज ने इस फिल्म के संवाद भी लिखे और संगीत भी दिया। विदेशी रंग को देशीपन देने में यह फिल्म बहुत कामयाब रही।” इसी तरह कुछ लोग इसे वर्ष (2004) की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का दर्जा देते हैं। “विशाल भारद्वाज ने शेक्सपीयर के ‘मैकबेथ’ को फिल्मांकन के लिए चुनते हैं और उस पर आधारित फिल्म नहीं बनाते, ‘मकबूल’ के रूप में पुनर्रचना करते हैं। इस विदेशी कथा को सौ फीसदी देसी बना देते हैं और वह भी इस तरह कि मूलकथा की भावना को रत्ती भर भी ठेस न लगे।” मूलकथा को ठेस नहीं पहुँची है इस कथन से मैं सहमत नहीं हूँ।

मूलकथा में मैकबेथ जिस तरह अपराधबोध से ग्रस्त है और आत्मद्वंद्व से परेशान दीखता है मकबूल में वह बात नहीं आ पाई है। मूलकथा का अर्थ मात्र कहानी का कंकाल नहीं होता है। मूलकथा में डंकन की भूमिका इतनी सशक्त नहीं है जितना अब्बाजी की भूमिका। इरफान एक कुशल अभिनेता हैं पर पंकज कपूर (अब्बाजी) के अभिनय कौशल के सामने उभर नहीं पाते हैं। मरने के पहले और हत्या के बाद भी पूरी फिल्म पर जहाँगीर खान उर्फ अब्बाजी ही छाए रहते हैं। “अब्बाजी की भूमिका में पंकज कपूर किसी भी विदेशी जेम्स बांड के सामने बड़ी उपस्थिति हैं। बड़े से बड़ा स्टार उनसे सीख सकता है। बगैर किसी अतिरिक्त हरकत के सहजतापूर्वक माफिया डॉन का आतंक खड़ा कर देते हैं।” यह सही है कि बड़ा से बड़ा स्टार पंकज कपूर से सीख सकता है मगर इस फिल्म में उनकी जेम्स बांड से तुलना गलत है। जेम्स बांड एक्शन हीरो है जबकि अब्बाजी एक्शन हीरो नहीं हैं। हाँ वे डॉन हैं और उनका अभिनय देख कर उनकी संवाद अदायगी मुझे गॉड फादर की याद अवश्य दिलाता है। जैसे गॉड फादर में बिना हाथ-पैर फेंके और शरीर को हरकत में लाए मर्लोन ब्रांडो ने संवाद बोले हैं ठीक वही अंदाज पंकज कपूर का इस फिल्म में रहा है। यही नहीं उनकी बॉडी लैंग्वेज भी वैसी ही है, थोड़ी तोंद के साथ खास अदा में झुक कर चलना, बैठना, चेहरे का हावभाव सब। मैं यह नहीं कहूँगी कि उन्होंने मर्लोन ब्रांडो की नकल की है। वे एक मौलिक कलाकार हैं। प्रभाव भले ही मर्लोन ब्रांडो का हो मगर अदा पंकज कपूर की अपनी खास है। “गिलौरी खाया करो मियाँ, जुबान काबू में रहती है” उनका यह संवाद बहुत लोकप्रिय हुआ था। अब्बाजी असूलों वाले आदमी हैं। मुंबई को अपनी महबूबा मानते हैं और उसे छोड़ कर करोड़ों के लालच में भी कराची-दुबई जाने के लिए राजी नहीं है। यहाँ उन माफिया लोगों पर तंज कसा गया है जो दूसरे देशों में रह कर भारत में अपना कारोबार चलाते हैं। अब्बाजी मानते हैं कि केवल लाभ के लिए धंधा करना ठीक नहीं होता है।

ओर्सन वेल्स का ‘मैकबेथ’ शेक्सपीयर के ‘मैकबेथ’ की अपेक्षा ‘केन’ और ‘एंबरसन’ के अधिक निकट है। ओर्सन वेल्स का मैकबेथ “अपनी रिरियाती छोटी-सी पत्नी से भयभीत एक खोखला आदमी है। यह एक बड़े घर में रहता है जिसका खालीपन इस शक्तिशाली आदमी के आंतरिक शून्यता का प्रतीक है।” पोलांस्की में यह पात्र बहुत कम बोलता है। जबकि विशाल भारद्वाज निम्मी (तब्बू) को खेलने का भरपूर मौका देते हैं। वह अपनी सुंदरता, अदा और यौनिकता से अब्बाजी और मकबूल दोनों को नचाती है। फिर गर्भवती स्त्री के रूप में उसकी भूमिका है और अंत में रो-रो कर हलकान होते हुए वह मरती है। कठिन प्रसव के बाद मौत से जूझती हुई निम्मी को अपराधबोध चैन नहीं लेने देता है। वह इस अवश शारीरिक हालत में भी खुद को खून के दाग छुड़ाने से रोक नहीं पाती है। खून के दाग क्या ऐसी आसानी से छूटते हैं? तब्बू पात्र और परिवेश के अनुरूप अभिनय को उठाने में समर्थ हुई हैं मगर संवाद अदायगी में न मालूम क्यों खुल कर सामने नहीं आ पाती हैं। फिर भी उसकी शारीरिक और मानसिक असुरक्षा – लाचारी, स्त्री के रूप में अपना स्थान सुरक्षित रखने की जद्दोजहद दर्शक के मन में उसके प्रति सहानुभूति जगाती है। वह जानती है किसी भी दिन कोई मोहिनी उसे उसके स्थान से बेदखल कर सकती है। शेक्सपीयर की भी यह खासियत है कि वे गलत काम करने वाले आदमी के प्रति भी आश्चर्यजनक रूप से सहानुभूति उत्पन्न कराने में सक्षम हैं। यह व्यक्ति जानता है कि वह गलत है फिर भी गलत काम करता चला जाता है और पतन के गर्त में गिरता चला जाता है, अंत में नष्ट हो जाता है। मगर यह बात मैकबेथ और मकबूल पर लागू होती है। लेडी मेकबेथ अथवा निम्मी कभी नहीं जान-मान पाती हैं कि वे कुछ गलत कर रही हैं।

1947 में हमारा देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था इसी साल डेविड ब्रेडली ‘मैकबेथ’ बना रहे थे। उन्होंने बहुत कम खर्च, पाँच हजार से भी कम डॉलर में यह फिल्म बनाई। वे इलीनोइस के वुडस्टोक के उसी टोड स्कूल में पढ़े थे जहाँ ओर्सन वेल्स ने पढ़ाई की थी। उन्होंने यह फिल्म स्कूली शिक्षा के लिए तैयार की थी और उनका इरादा इस फिल्म को स्कूलों में बेच कर धन कमाना था। वे खूब मुनाफे का ख्वाब देख रहे थे मगर स्कूलों में घूम-घूम कर फिल्म बेचना इतना आसान न था। ब्रेडली को आशानुरूप लाभ न हुआ। कम खर्च के लिए उन्होंने किले के लिए पुरानी इमारतों का प्रयोग किया। घर के बेसमेंट को स्टूडियो में तब्दील करके घर पर ही एडीटिंग और साउंड रिकॉर्डिंग की। साउंडट्रैक का काम बाहर नहीं हो सकता था क्योंकि सारे समय हवाई जहाज खूब शोर करते हुए उड़ते रहते थे। “होठ संचालन हुए पर संवाद सहित सारी ध्वनि बाद में डब की गई।” फिल्म बनाने में उनके मित्रों ने खूब सहायता की। किसी ने कैमरा सँभाला तो किसी ने बैंको की भूमिका की, प्रकाश व्यवस्था का भार भी बैंको बने मित्र ने सँभाला। एक मित्र ने इस 73 मिनट की फिल्म के लिए ढेरों पोशाक का जिम्मा सँभाला। कबाड़ी बाजार से प्रोप्स खरीदे गए। कागज की लुगदी से हेलमेट और लकड़ी से तलवारें बनाई गईं। ब्रेडली की माँ इन सबके लिए खाने-पीने का इंतजाम करती। इस तरह सामूहिक सहयोग का प्रतिफल हुई एक और ‘मैकबेथ’ फिल्म। मार्के की बात यह है कि जब ब्रेडली ने ‘मैकबेथ’ बनाई वे केवल 26 साल के नौजवान थे, द्वितीय विश्वयुद्ध में सेना के सिग्नलकोर में काम कर चुके थे। फिल्म बनाने में उनके सहयोगी भी सेना में विभिन्न पदों पर काम करने ही वाले थे।

इसी टोड स्कूल से निकले ओर्सन वेल्स ने निर्देशन के क्षेत्र में विश्वख्याति पाई। वेल्स फिल्म में प्रकाश और छाया से खेलने वाले निर्देशक हैं। उनका अपने मीडियम, फिल्म पर उतना ही नियंत्रण है जितना शेक्सपीयर को अपने माध्यम, स्टेजप्ले पर हासिल है। चूँकि वेल्स की फिल्म ‘मैकबेथ’ श्वेत-श्याम है और ‘मकबूल’ रंगीन फिल्म है अतः फिल्म कला के रूप में दोनों की तुलना नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि जो प्रभाव प्रकाश और छाया द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है वह रंगों में उतनी खूबसूरती से संभव नहीं है। उदाहरण के लिए वेल्स के मैकबेथ का एक दृश्य काफी होगा। जब मैकबेथ हत्या करने जा रहा है उसका चेहरा रोशनी में है ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता है चेहरे पर अँधेरा बढ़ता जाता है। थोड़ी देर बाद चेहरा आधा प्रकाश और आधा अंधकार में है। फिर हत्या होते वह पूरी तौर से छाया में समा जाता है। यह प्रतीकात्मक तो है ही साथ ही बहुत प्रभावपूर्ण भी है। 89 मिनट की इस फिल्म में वेल्स ने शेक्सपीयर की कविता की सारी महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध पंक्तियों को समेटा है, इसके लिए उनकी आलोचना भी हुई। आज ओर्सन वेल्स की फिल्म को क्लासिक माना जाता है, बाकायदा उसका फिल्म स्कूलों में अध्ययन-अध्यापन होता है, मगर जब यह रिलीज हुई थी तो आलोचकों ने काफी नाक-भौं सिकोड़ी थी। यहाँ तक कि मैकबेथ के रूप में ओर्सन वेल्स के अभिनय और निर्देशक के रूप में उनको सराहा नहीं गया। संवादों के लिए कहा गया कि वे इतने खराब तरीके से संप्रेषित किए गए हैं कि सारी काव्यात्मकता के बावजूद इसे सामान्य दर्शक नहीं समझ सकेगा इसलिए इसके सबटाइटिल्स दिए जाने चाहिए। गौरतलब है कि फिल्म इंग्लिश दर्शकों के लिए बनी थी जो शेक्सपीयर की एक-एक पंक्ति कंठस्थ किए रहते हैं। “एक ब्रिटिश मसखरे ने सुझाव दिया कि फिल्म उत्तम हो जाएगी बस अगर उसमें इंग्लिश सबटाइटिल्स का साथ हो।”

ओर्सन वेल्स ने कम बजट में यह फिल्म बनाई थी। विशाल भारद्वाज ने भी मकबूल कम बजट में बनाई। उनकी अगली फिल्म ओंकारा एक बड़े बजट की फिल्म है। वेल्स की चुड़ैलें पुराने धर्म का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे धरा पर अराजकता की वाहक भी हैं। जबकि विशाल भारद्वाज ने तीन चुड़ैलों को आधुनिक युग के दो भ्रष्ट पुलिसवालों में परिवर्तित कर दिया है। ये दोनों पुलिस वाले पुरोहित (नसीरुद्दीन शाह) और पंडित (ओमपुरी) ज्योतिष भी हैं और फिल्म में हास्य (कॉमेडी) की सर्जना भी करते हैं। फिल्म राजनीति, अंडरवर्ल्ड और पुलिस के गठजोड़ को बखूबी दिखाती है। मूल की तरह ये भविष्यवाणी करके रुक नहीं जाते हैं संपूर्ण कथानक में हिस्सेदारी भी करते हैं। अब्बाजी से हफ्ता लेकर उनके खिलाफ मकबूल को उकसाते हैं। मकबूल और काका, गुड्डू को एक दूसरे के विरुद्ध करते हैं। जरूरत पड़ने पर पुलिस ऑफीसर की नाक के नीचे से मियाँ (फिल्म में अधिकांश समय मकबूल को इसी नाम से संबोधित किया जाता है) को निकाल ले जाते हैं। अंत में मकबूल को सीमा पार, तड़ी पार करने का इंतजाम करते हैं। यह बात दूसरी है कि मकबूल इसके पहले ही दुनिया के पार चला जाता है। ज्योतिष गणना के लिए चौपड़खाना (पत्री) बनाने के लिए कबाब, पानी की बूँद, बालू, कंकड़, सूखा मेवा, किसी भी चीज का प्रयोग करते हैं। इनका पेटेंट वाक्य है, “शक्ति का संतुलन चाहिए संसार में। आग के लिए पानी का डर होना चाहिए।” नसीर और ओम दोनों मँजे हुए कलाकार हैं। नसीर गंभीर भूमिकाएँ जितनी सहजता से करते हैं उसी अंदाज में वे हास्य भूमिकाएँ में उतरते हैं। ओम भी आजकल बराबर हास्य भूमिका करते नजर आते हैं। हिंदी फिल्मों में पहले अभिनेता खास भूमिका के लिए टाइप्ड होते थे। कुछ अभिनेता केवल गंभीर भूमिकाएँ करते थे, कुछ हास्य, हल्की-फुल्की भूमिकाओं के लिए नियत थे। मगर आज अगर हिंदी फिल्मों में सर्वाइव करना है तो गंभीर-से-गंभीर कलाकार को हास्य भूमिका करनी ही होगी। यह भी सही है कि इससे अभिनेता को अपनी सीमा के पार जाने, उसके विस्तार करने का अवसर मिलता है। एक बात और है, जब तक हम पश्चिम की नकल नहीं करते हैं हमें अपनी गुणवत्ता पर विश्वास नहीं होता है। आज चलन हो गया है कि परदे पर पेशाब करते हुए दीखना ही होगा। शुक्र है नसीर अभी तक कभी बहुत भौंड़े नहीं हुए हैं।

भले ही फिल्म साहित्य, संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी, मूर्तिकला, वस्त्रकला, वास्तुकला का सहारा ले, पर फिल्म एक स्वतंत्र विधा है। निर्देशक जो दिखाना चाहता है, जैसे दिखाना चाहता है, यथार्थ, कल्पना अथवा दोनों का मिश्रण दर्शक मात्र उतना ही देखने को विवश है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाते समय भी निर्देशक कथानक में जोड़-घटाव करने को स्वतंत्र है। अपनी विधा के अनुरूप उसे परिवर्तन करना भी चाहिए बशर्ते यह फिल्म की माँग हो। ओर्सन वेल्स, रोमन पोलांस्की, डेविड ब्रेडली, विशाल भारद्वाज सबने ‘मैकबेथ’ के साथ यह किया है। विशाल कथानक की आधुनिकता को बनाए रखने के लिए चुड़ैलों को पुलिस वालों में बदल देते हैं। वैसे देखा जाए तो दोनों में बहुत फर्क है नहीं। विशाल भारद्वाज ने बंबई के अंडरवर्ल्ड को दिखा कर हमारे समाज के आज के सच को उजागर किया है। राजनीति के आपराधिक चेहरे और अपराध की राजनीति दोनों को दिखाकर कटु सत्य द्वारा ब्लैक ट्रेजडी प्रस्तुत की है। वेल्स के यहाँ धर्म को बहुत महत्व दिया गया है। उनके अनुसार स्कॉटलैंड धार्मिक देश था जबकि इंग्लैंड को धार्मिकता में दीक्षित करना बाकी था। जिसका दायित्व स्कॉटलैंड पर था। इसीलिए स्कॉटलैंड की सेना के साथ आती हुई कटी हुई झाड़ियाँ भी हरे-भरे जंगल का भान देती हैं जबकि मैकबेथ के किले के पास के पेड़-पौधे रूखे-सूखे दिखाए जाते हैं। यही चलता हुआ जंगल मकबूल में आकर घर में घुसते दरिया का रूप धारण करता है। वेल्स के यहाँ मैकबेथ के सैनिक सींग के आकार के टोप पहनते हैं जबकि दूसरी ओर की सेना के लोग क्रॉस के निशान वाला टोप धारण करते हैं। मैकबेथ जब अपने नौकर सेटन को पुकारता है तो लगता है वह शैतान कह रहा हो। धर्म को प्रमुखता देने के कारण ही वे “एक मौलिक पात्र, एक धार्मिक व्यक्ति (होलीमैन) को ईजाद करते हैं। यह होलीमैन पहले तो मैकबेथ और बैंको की विजयी सेना का जय-जयकार करता है, फिर मनुष्यता को “कालिमा के वाहकों” के खतरे से बचे रहने की चेतावनी की पंक्तियाँ प्रेषित करता है। जिन शब्दों को बैंको याद रखता है; मैकबेथ अपने शाश्वत पश्चाताप के लिए याद नहीं रखेगा।” होलीमैन लेडी मैकबेथ को आने वाले खतरे से आगाह कराता है जबकि यह कार्य मूलकृति में रोसा के द्वारा किया जाता है। वेल्स की चुड़ैलें फिल्म की शुरुआत में आती है और अंत में भी आती हैं जबकि मूलकथा में अंत में वे नहीं हैं। विशाल ने अब्बाजी की बेटी समीरा (मौसुमी मखीजा) की कल्पना की है। मकबूल और निम्मी का बच्चा भी पैदा होता है।

भारत में मकबूल बनी इसलिए धर्म और जाति आनी ही थी। जाति की बात तो उतनी नहीं हुई है हाँ हिंदू-मुस्लिम दोनों प्रमुख धर्म अवश्य आए हैं। भारद्वाज ने गुड्डू और समीरा की शादी की स्वीकृति अब्बाजी से दिला कर दोनों धर्म को मिलाने की चेष्टा की। इस स्वीकृति में न तो गुड्डू के धर्म परिवर्तन की बात की जाती है न ही समीरा को ऐसा करने को मजबूर करने की बात आती है। वैसे भी माफिया लोगों का धर्म परंपरागत धर्म से अलग होता है। उनका धर्म-ईमान सब पैसा-सत्ता होता है इसके लिए वे किसी की भी जान ले सकते हैं। अब्बाजी जिस मुगल को अपना भाई कहते हैं उसे अपने रास्ते से हटाने में कोई गुरेज नहीं करते हैं। फिर मतलब के लिए उसके बेटे को संरक्षण देने का नाटक भी करते हैं। न ही अपने साले आसिफ को समाप्त करने में अब्बाजी को ज्यादा सोच-विचार करना पड़ता है। इनका धर्म बस खुद को बचाना और विपक्षी को रास्ते से हटाना है। इसीलिए मकबूल जिसे उन्होंने बचपन से पाला है वह उनका स्थान लेने के लिए उनकी हत्या करने से परहेज करता है। वैसे शुरू में मकबूल इस बात के लिए राजी नहीं है न ही अब्बाजी का स्थान लेने की भविष्यवाणी पर विश्वास करता है। वह अब्बाजी को बहुत मानता था, एक तरह से उनका गुलाम था। वह अब्बाजी का अहसानमंद है, कभी उनका स्थान लेने की बात नहीं सोचता है। फिर एक वक्त आता है जब वह निम्मी के उकसाने पर खुद डॉन बनने की महत्वाकांक्षा पालने लगता है। निम्मी बड़ी चालाकी से काम लेती है वह मकबूल को सीधे अब्बाजी के खिलाफ नहीं करती है। वह गुड्डू की बढ़ती पोजीशन का हवाला देकर मकबूल को समझाती है कि यदि अब्बाजी जीवित रहे तो सबको जल्द ही गुड्डू की गुलामी करनी होगी, उसके आदेशों का पालन करना होगा।

रोमन पोलांस्की को भी एक कल्पना करनी पड़ी, यह उन्हें मजबूरी में करनी पड़ी। शायद मजबूरी न लगी हो, कल्पना ही जो ऐसी करनी थी। उन्होंने 1971 में जब फिल्म बनाई समय बदल चुका था। शैक्सपीयर कमर्शियल फिल्मों का हिस्सा बन चुका था। फिल्म तकनीकि काफी विकसित हो चुकी थी। फिल्मों का खर्च बहुत ज्यादा होने लगा था। पोलांस्की एक भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। वे विभिन्न लोगों के पास गए। इसी बीच वे प्लेबॉय के मालिक हग हैफ़्नर से मिले। हग हैफ़्नर भी विश्वस्तरीय फिल्म निर्देशक से जुड़ने को इच्छुक थे, उन्होंने तुरंत हाँ कर दी। उनकी इस शानदार फिल्म को बनाने का आर्थिक भार ‘प्लेबॉय’ मैगजीन के मालिक हग हैफ़्नर उठा रहे थे जाहिर है उनकी हार्दिक इच्छा थी कि लेडी मैकबेथ नींद में चलते समय वस्त्रविहीन हो। शर्त यह भी थी कि वह खूबसूरत होनी चाहिए। पोलांस्की ने ऐसा ही किया भी। 25 वर्ष की खूबसूरत फ्रांसिस्का एनिस ऐसा ही करती है। वह नग्न हालत में नींद में चलती है, रगड़-रगड़ कर अपने हाथ धोती है। उस वक्त कक्ष में दर्शकों के अलावा एक डॉक्टर और एक परिचारिका भी उपस्थित है। इस दृश्य के लालच में, लेडी मैकबेथ को देखने दर्शक अवश्य बार-बार सिनेमा हाल की ओर गए होंगे। मैंने वीसीडी पर यह फिल्म देखी। बड़े परदे पर लेडी मैकबेथ का आकर्षण वास्तव में खूब रहा होगा। निर्माता भले ही फिल्म का क ख ग न जानता हो मगर वह निर्देशक को आदेश दे सकता है। सिनेमा एक उद्योग है और उद्योग में जो पूँजी लगाता है सत्ता उसके हाथ होती है वह कलात्मकता से अधिक मुनाफे पर ध्यान देता है। वैसे पोलांस्की का यह दृश्य काफी कलात्मक बन पड़ा है। उनका 28 साल का मैकबेथ भी काफी सुंदर है। प्रेस को जब इसकी हवा लगी तो बात तुरंत फैल गई, इसे पहली शेक्सपीयर नग्न फिल्म के रूप में प्रचार मिला। वेल्स के 21 दिन के स्टूडियो शूट की बनिस्बत पोलांस्की के लैविश बजट ने उत्तरी इंग्लैंड और वेल्स लोकेशन पर छह महीने की फिल्मिंग की सुविधा दी। पोलांस्की ने मूल संवाद की प्रत्येक लाइन को काव्यात्मक संवाद के रूप में प्रस्तुत करके कमाल किया।

‘मैकबेथ’ फिल्म का अंतिम सीन बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें मैकबेथ का अंत होता है। यह दृश्य हर निर्देशक ने भिन्न तरीके से फिल्माया है। ओर्सन वेल्स ने यह प्रतीकात्मक रूप में दिखाया है। मैकबेथ का कटा सिर न दिखा कर एक गुड़िया का कटा सिर दिखाया गया है। दर्शक बिना देखे भी जान लेता है कि पात्र के साथ क्या हुआ है। भरत के नाट्यशास्त्र में भी कुछ दृश्य रंगमंच पर दिखाने का निषेध है। जबकि रोमन पोलांस्की बाकायदा तलवारबाजी दिखाते हैं। वे राजाओं के युग को दर्शा रहे हैं, उनके अपने अनुभव का प्रभाव भी यहाँ है। उनके यहाँ अंतिम दृश्य में मैकबेथ का सिर बाकायदा धड़ से अलग हो कर काफी दूर लुढ़कता है। वे यहीं नहीं रुकते हैं। सिर को बाँस पर उठा कर काफी देर तक घुमाया-नचाया जाता है, उसे बर्बर तरीके से झंडे की तरह बाँस के छोर पर लटकाया जाता है। पोलांस्की के जीवनानुभवों के कारण उनकी फिल्म में बर्बरता और निराशा का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। यहूदी होने के कारण द्वितीय विश्वयुद्ध में उनकी माँ गैस चेंबर में डाली गई थी, पिता भी यातना शिविर में थे। पोलांस्की का बचपन हिटलर की छाया में बीता था। “उनके माता-पिता को यातना शिविर में भेज दिया गया था हालाँकि वे अपने पिता के साथ मिल सके, उनकी माँ ऑस्कविट्ज़ में नष्ट हुई। आश्चर्य नहीं कि उनकी फिल्में निराशा और मानव क्रूरता की प्रखर जानकारी के लिए जानी जाती हैं।” बाद में उनकी गर्भवती पत्नी की भी हत्या हुई। इसका असर ‘मैकबेथ’ में देखा जा सकता है।

विशाल भारद्वाज के पास पिस्तौल थी जिसकी धाँय-धाँय में यह कलात्मकता कहाँ। पिस्तौल भी पीछे से चलाई जाती है गोली मैकबेथ की पीठ में लगती है। द्वंद्व युद्ध में जो शौर्य, शक्ति और कौशल है वह पिस्तौल में कहाँ। तलवारबाजी दर्शक के दिल में अलग अनुभूति पैदा करती है। हर बार जब तलवारें टकराती हैं तो दर्शक का दिल उछलता है। गोली मारने में यह अनुभव संप्रेषित नहीं हो सकता है। आज का युग एकतरफा लड़ाई का है। अब तो एक देश के सैन्य अधिकारी दूर बैठ कर रिमोट का बटन दबाते हैं और दुश्मन की सारी फौज और नागरिक धराशायी हो जाते हैं। वक्त के साथ बहुत कुछ बदलता है, बदल गया है। अंडरवर्ल्ड, माफिया में ऐसे ही मारा जाता है लोगों को। विशाल भारद्वाज मकबूल की हत्या के समय अस्पताल के बाहर का जनशून्य स्थान दिखाते हैं यह मकबूल के अकेलेपन, दुनिया से कटे होने का प्रतीक है। अस्पताल की बड़ी-ऊँची इमारत और जमीन पर पड़ा मकबूल का निर्जीव शरीर। मगर निर्देशक पहले के मकबूल और अब्बाजी का स्थान लेने वाले मकबूल में पोशाक (बाद में वह सूट पहनने लगता है) के अलावा कोई विशिष्ट बदलाव नहीं करवाता है। जबकि यहाँ बदलाव की संभावना बनती है।

काका के रूप में पीयुष मिश्रा का अभिनय भी लाजवाब है, खासकर जब उनके बेटे गुड्डू और समीरा की शादी की इजाजत अब्बाजी दे देते हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेज और चेहरे का हावभाव कमाल का है। इसी तरह उनका अभिनय देखने लायक है जब पंडित छह महीने के भीतर मकबूल के अब्बाजी का स्थान ले लेने की घोषणा करता है। तब जब अब्बाजी अपने साले आसिफ के मरने के बाद बॉलीवुड का सारा कारोबार मियाँ को सौंप देते हैं। जबकि काका आसरा लगाए बैठा था कि यह मालामाल करने वाला विभाग तो उनके बेटे गुड्डू की झोली में ही आएगा। अंकुर विशाल और अजय गेही ने भी बहुत प्रभावशाली अभिनय किया है। विशाल ने फिल्म में पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, इरफान खान, ओम पुरी, तब्बू, पीयुष मिश्रा जैसे बड़े-बड़े कलाकार लिए हैं।

‘मकबूल’ दर्शकों के बीच बहुत लोकप्रिय फिल्म न बन सकी पर आलोचकों ने इसकी खूब प्रशंसा की। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह, टोरेंटो में 2003 में इसका प्रीमियर हुआ। पंकज कपूर को फिल्मफेयर का सर्वोत्तम अभिनेता का क्रिटिक्स पुरस्कार मिला। उन्हें सर्वोतम सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला। हेमंत चतुर्वेदी की सिनेमैटोग्राफी फिल्म के बारीक पहलुओं को कुशलता से पकड़ती है। जब-जब मियाँ निम्मी को अपनी सोच में अब्बाजी के साथ देखता है फिल्मांकन सल्वाडोर डाली की चित्रकला की याद दिलाता है। गुलजार यूँ तो बहुत सुंदर गीत लिखते हैं जो सहज ही दर्शक-श्रोता के जीवन का हिस्सा बन जाते हैं मगर मकबूल का कोई भी गीत अपेक्षित लोकप्रियता प्राप्त न कर सका। जबकि सारे गीत बहुत लयात्मक और खूबसूरत हैं। चाहे वो दरगाह में दलेर मेंहदी की गाई कव्वाली ‘रू-ब-रू’ हो अथवा समीरा की सगाई के समय का नाच-गाने का ‘झिन मिन झीनी’ या फिर ‘जी भर के रोने दो’ हो सब बहुत अच्छे बन पड़े हैं।

गुड्डू शुरू से नरमदिल है। वह कभी हत्या नहीं कर पाता है शुरू में। गुड्डू समीरा को बहुत प्रेम करता है। अपने पिता का बदला लेने के लिए वह बोटी के साथ मिल जाता है। जब समीरा को लेने आता है तब चाहता तो निम्मी को मार सकता था मगर वह उसके गर्भ की चिंता करता है। मरते समय मकबूल को एक बात का संतोष है कि उसकी बच्ची को समीरा और गुड्डू ने प्रेमपूर्वक अपना लिया है। वह अस्पताल अपनी बच्ची को लेने आया था। जब वह वहाँ गुड्डू को देखता है तो उसे मारने को तत्पर हो जाता है तभी उसे दीखता है कि समीरा और गुड्डू बच्ची लेने आए हैं। मकबूल वहीं अपनी पिस्तौल छोड़ कर बाहर चल देता है। फिल्म इंगित करती है कि अब उसने क्राइम की दुनिया से तौबा कर ली है। फिल्म एक सकारात्मक प्रभाव छोड़ने का प्रयास करती है। लेकिन जिसने एक बार अपराध की दुनिया अपनाई हो वह उससे जीते-जी नहीं निकल सकता है। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए रियाज़ बोटी (मूल नाटक में मैक्डफ) मकबूल को मारता है। बोटी जो गुड्डू के साथ है। बोटी जो असल में किसी के साथ नहीं है। इरफान का सधा अभिनय और उनकी बोलती आँखें यहाँ अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ती हैं। पोलांस्की का मैकबेथ युवा और खूबसूरत है, वेल्स का मैकबेथ गुफानुमा किले में कैद होने के कारण दम घोटने वाला अनुभव है, महत्वाकांक्षी कम पाशविक अधिक है। भारद्वाज का मकबूल क्रूरता के कम और मानवीय के अधिक करीब है। मैकबेथ एक विशिष्ट पर सार्वभौमिक पात्र है, मानवता के भीतर अच्छाई और बुराई की विपरीत शक्तियों के द्वंद्व का प्रतीक है, जो हम सबके भीतर निरंतर चलता रहता है।

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