शहर के हो गए | रविशंकर पांडेय
शहर के हो गए | रविशंकर पांडेय
गाँव के होकर
शहर के
इस तरह से हो गए,
श्यामजीरी धान घर के
रेत में ज्यों बो गए।
गाँव की है नीम
कड़वी है, मगर है काम की
मुँह लगी है, सगी है
हर खास की हर आम की
जड़ से कटे हम
मरघटे के
ठूँठ खोखल हो गए।
गाँव का कोई अपरिचय
खून का अपना सगा है
शहर का हर एक परिचय
झूठ है,
धोखा, दगा है,
सगे पल –
फुटपाथ में अब
टाट ओढ़े सो गए।