शब्दों की कील ढूँढ़ता हूँ | रतीनाथ योगेश्वर
शब्दों की कील ढूँढ़ता हूँ | रतीनाथ योगेश्वर

शब्दों की कील ढूँढ़ता हूँ | रतीनाथ योगेश्वर

शब्दों की कील ढूँढ़ता हूँ | रतीनाथ योगेश्वर

अँधेरे की दीवार पर
उजाले के एक टुकड़े को
टाँगने के लिए
शब्दों की कील ढूँढ़ता हूँ –

”यह वर्ष मुबारक दोस्तों”

कितना कुछ जल गया एक साथ
न आग दिखी… न धुआँ
राख तक का
पता नहीं चलने दिया गया
और कोहरा था कि –
हटने का नाम ही नहीं लेता था…

दीवारें आती रहीं…
एक दूसरे के करीब
छतें होती रहीं गायब हमारे सिर से
बीच में पिस जाने का डर
सालता रहा
न जाने
कितने साल से

”यह वर्ष मुबारक दोस्तों”

भीतर-भीतर मरते रहे सपने
टूटती रहीं उम्मीदें
…पीछा करते रहे
विलाप के स्वर
दूर तक…
न सूर्य उगता
न साँझ ढलती
नहीं सीख पाए हम
”मरे हुए सपनों के साथ जीने की कला”
नहीं तो देने के लिए
”धन्यवाद” के सिवा भी
”कुछ” होता हमारे पास –

”यह वर्ष मुबारक दोस्तों”

‘स्याह’ रंग के आकाश में
‘काले’ बादलों को देखते हुए
इस स्मृतिविहीन वर्तमान से गुजरते रहे –
कई-कई ‘पीले’ तूफान
जिससे उखड़ गए वे सारे पेड़ भी
जिनके नींचे मिल सकता था हमें आश्रय

…फिर भी सहेजते है हम
विनाश के इस ठंडेपन में
ऊष्मा और तपिश की स्मृतियों को
कि कब यह त्रासदी,
एक वैयक्तिक अनुभव से
सामूहिक अनुभव में बदल जाय

फिलहाल –
इस अधूरेपन के आकर्षण से बिंधे हम
एक बार फिर से कहते हैं –

”यह वर्ष मुबारक दोस्तों”

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *