शाम जा रही है | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
शाम जा रही है | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

शाम जा रही है | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

शाम जा रही है | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मैं खेल रहा हूँ जंगल के कुछ बच्चों के साथ
जो शाम को चटाई की तरह लेकर भाग रहे हैं

पेड़ों की फुनगियों पर तिर रही है जंगल के गाँव की शाम
जैसे जिंदगी के फोटो को देख रहा हूँ मैं

सब कुछ किसी फिल्म की तरह गुजरता है
इस शाम में तुम भी हो
जिसे कायनात ने रोशनी की तरह लिखा है

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हमारा सब कुछ वक्त के मल्टीप्लेक्स में है
जहाँ पृथ्वी सीडी की तरह घूम रही है
मीलों लंबे दृश्यों में तुम भी हो और मैं भी हूँ
एक शाम जा रही है एक सुबह आ रही है

रात की लंबी नदी के किनारों पर
तुम भी गुजर रही हो मैं भी गुजर रहा हूँ

दुनिया की सच्चाइयाँ गुजर रही हैं हमारे बीच

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कितना कुछ रखा है समाने
पानी का गिलास चाय के खाली कप और
कुछ अस्त व्यस्त सामान
जीने की जरूरतों में शामिल कुछ कागज

अधखुली खिड़की से आती रोशनी और हवा
कागजों का उड़ना और आसमान का दिखना
सब कुछ तुम्हारे प्यार में खूबसूरती तलाश रहे हैं

हमारे बीच एक घंटा तीस मिनट का समय बिखरा है
जिस पर दुनिया सच्चाइयों के साथ गुजर रही है

टेबल पर विक्स की डिब्बी सा शहर रखा है
तुलसी की पत्तियों की तरह गाँव दिख रहा है

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एक छोटा सा पहाड़ हाथी के बच्चे की तरह
टीवी में से छिटक कर टी टेबल पर आ गया
कुछ समाचार और राजनीतिक परिवर्तन
यहाँ वहाँ आकर कागजों पर धूल की तरह जम गए

कई असंगत चीजें हमारे प्यार का हिस्सा हैं
लेकिन जो दुनिया को पसंद है – वह सब न तुममें है न मुझमें

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