सौ-सौ चीते | अजय पाठक
सौ-सौ चीते | अजय पाठक

सौ-सौ चीते | अजय पाठक

सौ-सौ चीते | अजय पाठक

बची हुई साँसों पर आगे
जाने क्या कुछ बीते
एक हिरण पर सौ-सौ चीते।

चलें कहाँ तक, राह रोकती
सर्वत्र नाकामी
कहर मचाती, यहाँ-वहाँ तक
फैली सुनामी
नीलकंठ हो गए जगत का
घूँट-हलाहल पीते।

सागर मंथन के अमृत पर
सबका दावा है
देव-दानवों के अंतर का
महज दिखावा है
सबको बाँट-बाँट संपतियाँ
हाथ हमारे रीते।

सूरज उगा, किरणों की
उनको सौगात मिली
चाँद सितारे उनके, हमको
काली रात मिली
जीते-जीते रोज मरे हम
मर-मर कर जीते।

चलता रहा अभाव निरंतर
अब तक यही सिला
है अपना प्रारब्ध यही तो
किससे करे गिला ?
अब तो जीवन बीत रहा है
फटे वसन को सीते।

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