सफर | विमल चंद्र पांडेय
सफर | विमल चंद्र पांडेय

सफर | विमल चंद्र पांडेय

सफर | विमल चंद्र पांडेय

शाम थी, धुँधलका था, शांति थी पर इन सबका कोई मतलब नहीं था। मन में कोई स्पष्ट विचार नहीं रुक पा रहा था, रुक रहे थे तो सिर्फ गुंजलके, आशंकाएँ और परेशानियाँ। बार-बार लगता था जैसे बारिश हो रही है पर ध्यान देने पर पता चलता कि कब की रुक चुकी है। बारिश से धुले घर और उनसे निकली अशोक की डालियाँ सुंदर लग रही थीं पर…। कष्टों की परतों की चिकनाई ऐसी हो जाती है कि हर सुखद दृश्य फिसल-फिसल जाता है। और वाकई ऐसे सुंदर दृश्य हैं भी…? बड़ी-बड़ी चमचमाती रोड लाइटें, बड़ी-बड़ी इमारतें और उन में चमकती रोशनियाँ। उनकी ऊँचाइयाँ सड़क पर चलते लोगों को कितना बौना बना देती हैं यह एहसास सबको होता है या सिर्फ उनको जो चलते वक्त ऊपर देखते हैं?

ऊँची-ऊँची रिहाइशी इमारतों में, माचिस के डिब्बों सी दीखती खिड़कियों में कितनी ही परेशानियाँ भेस बदल कर रहती हैं। होर्डिंग में दिखती खूबसूरत लड़कियों की मुस्कान के पीछे भी जरूर कोई अनाभिव्यक्त कष्ट होगा जो ये हमेशा मुस्कराती रहती हैं। हर खूबसूरत शै के पीछे अनेक दुख हैं। माँ भी तो कितनी खूबसूरत है पर उसके साथ चिपके हैं उसके आदि दुख जिसके बिना उसके चेहरे की कल्पना करने पर सिर्फ गोल खाली आकृतियाँ दिखती हैं।

‘अब मैं बचूँगी नहीं। ‘आगे के शब्द सुनने के लिए वह वहीं नहीं रुका रह पाया। संवाद वही थे पर न जाने क्यों अब इनमें सच्चाई की धमक सुनाई देने लगी थी, आज सबसे ज्यादा, सबसे खौफनाक। पहले हताशा हुआ करती थी अब मौत के सामने थक कर किया गया आत्मसमपर्ण…।

‘मुझे खोने से डर मत। जैसे मेरे होने की आदत पड़ी है वैसे मुझे खोने का भी अभ्यास हो जाएगा तुझे धीरे-धीरे। ‘वह यह सोच कर काँप उठता था कि क्या यह धीरे-धीरे उतना ही धीरे-धीरे होगा जितना उसके होने की आदत…? यदि ऐसा हुआ तो धीरे-धीरे मरता जाएगा वह जैसे उसके होने की आदत के साथ धीरे-धीरे जीता चला गया था।

कभी-कभी उसे लगता जैसे वह बचपन से ही दुखों और बीमारियों में रहने के लिए अभिशप्त है। अच्छे दुर्लभ दिन थोड़े से सपनों की तरह याद आते, जब वह माँ के बक्से में देखता। पुरानी चिट्ठियाँ, छोटे हो गए उसके कुछ कपड़े, कुछ पुरानी तस्वीरें जिसमें सब मुस्कराते दिखते, माँ की एक पुरानी लाल साड़ी, कुछ डॉक्टरी रिपोर्टें, एकाध डायरियाँ और न जाने क्या क्या तो भरा था माँ के उस अँधेरे कुएँनुमा बक्से में। जब वह उसमें झाँककर देखता तो देखते-देखते काफी दूर निकल आता… सालों पीछे तक। वह अपने खेतों में पहुँच जाता, जहाँ पिता अस्पष्ट आवाज में कोई गीत गाते हल चलाते रहते और माँ दूर से पोटली में खाना लेकर आती दिखती। पूरा दृश्य उसके बचपन की ड्राइंग की पुस्तिका के सुखी परिवार वाले दृश्य जैसा लगता। वहाँ से वापस आने में उसे बहुत देर लगती। कई बार रास्ता भटकने के बाद जब वह संदूक से सिर उठाता तो पाता कि उसके चेहरे पर अचानक काँटेदार झाड़ियों की तरह पिता की दाढ़ी उग आई है।

इस घर के सभी कोनों में माँ के बसने से पहले कहीं-कहीं पिता भी थे। एक दम तोड़ती चारपाई पर एक गुम होती सच्चाई की तरह जो शायद भीतर ही भीतर कहीं ये सोचते थे कि एक दिन ऊपर वाला उन्हें इस असाध्य बीमारी से छुटकारा दे देगा। उनकी बरसों की पूजा अर्चना और भक्ति से प्रसन्न होकर उनका जीवन बख्श देगा ताकि वह अपने छोटे से परिवार को सुखी रख सकें। फिर वह इसी शहर में, सारे खेत उनके इलाज में बिक जाने के विकल्प में, एक और साथ वाला कमरा किराए पर लेकर रह जाएँगे, उसके साथ सटे रसोईघर को मिलाकर। कुछ महीने स्वास्थ्य लाभ लेकर बगल वाली फैक्ट्री में मजदूरी कर लेंगे। धीरे-धीरे कुछ पैसे बचा कर एक छोटा सा घर खरीद लेने का नंगा स्वप्न एक भयावह परछाईं की तरह उनकी आँखों में तैरता रहता था। वह इस तरह के स्वप्नों से बहुत डरता था। जो स्वप्न आँखों में रहते हैं वे पूरे हो सकते हैं, जो चेहरे पर तैरने लगते हैं वे कभी पूरे नहीं होते। वे सुनहले होकर भी डरावने होते हैं। स्वप्न देखने वालों के काल होते हैं। उनकी छाया काली होती है।

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पिता के बचने का विश्वास तो था। पिता को विश्वास था अपनी कठोर पूजा पर, उसे विश्वास था खेत का आखिरी टुकड़ा बेच कर लाए गए उन नोटों पर, उन दवाइयों के ढेर पर, जिसकी गंध की वजह से उसे अपना घर किसी खैराती अस्पताल के अहाते सा लगता। यह विश्वास तब दरकने लगता जब पिता को खाँसी आने लगती। बोलते-बोलते आती और वह उसे दबाने की कोशिश करने लगते। इस कोशिश में उनकी आँखें बाहर निकल आतीं और माथे पर असंख्य रेखाएँ बन जातीं। चेहरा पीला हो जाता। वह शायद उसे हिम्मत दिलाने के लिए अपनी सिलसिलेवार खाँसी रोकते पर इस दयनीय प्रयास से वह डर जाता और सनसे कटा रहता ताकि उन्हें कम बोलना पड़े या वह खुलकर खाँस सकें।

पिता ने खामोश होने से पहले भी एक निष्फल पूजा की थी। अंत समय में किसी चमत्कार की उम्मीद में उन्होंने आँखें बंद कीं तो उनके चेहरे पर एक छोटे से घर का नक्शा झिलमिला रहा था। उसने महसूस किया कि यह उसका कोई जाना पहचाना घर है… बहुत करीब से देखा हुआ। उसने डरते-डरते भीतर झाँका। पिता बिल्कुल स्वस्थ बैठे माँ से बातें कर रहे थे, जोर-जोर से हँसकर, बिना खाँसी। उसे झाँकते देखकर उन्होंने उसे हँसते हुए अंदर बुलाया। उसके अंदर जाने पर हमेशा से विपरीत पिता ने गले लगाया और उसे कहा कि वह उससे बहुत प्रेम करते हैं। वह रोने लगा और उसने भी उन्हें बहुत सारा अनाभिव्यक्त प्रेम करने की हामी भरी। जब वह उस घर से बाहर निकला तो उसे लगा कि पिता एक कमजोर पीली सी मुस्कराहट मुस्कराएँ हों, उस घर को दिखाने की खुशी में। वह घर जो सिर्फ उनके चेहरे पर था और जिसमें उन पर पिता होने का कोई दबाव नहीं था। वह पिता के चेहरे से उस घर को साफ करने लगा जैसे किसी पुरानी आलमारी के जाले साफ कर रहा हो। चेहरे से वह तैरता घर साफ कर देने के बाद पिता का चेहरा बहुत विदारक हो गया था, खाँसी रोकने के प्रयास में बहुत विकृत।

माँ शायद इसलिए नहीं रोई थी कि सारे आँसू वही बहाता रहा था। कई दिनों तक। माँ में बहुत हिम्मत थी। वह हमेशा समझाती, ‘कमजोर मत बन। हिम्मत रख।’ वह माँ के चेहरे पर भी कुछ तैरता हुआ ढूँढ़ता था, घर या कोई सपना, पर वहाँ सिर्फ हिम्मत हुआ करती थी, अपार हिम्मत और एक छोटी सी आशा, बुझती हुई उम्मीद।

‘मुझे वह लड़की बहुत पसंद है। तू जल्दी से उससे शादी कर ले ताकि मेरी आँखों को बंद होने से पहले तृप्ति मिल जाए। ‘वह थोड़ा शरमा जाता। माँ के बक्से में चाँदी का एक कड़ा भी था जो सारी बिकती जाती चीजों के बीच भी अपना अस्तित्व कायम रखे था, माँ की जिजीविषा की तरह।

माँ ऐसी बातें करती तो कई भागों में बँट जाती थी, कई कोनों में। एक कोने में खाने की व्यवस्था के लिए पड़ोसियों के कपड़े सिलती हुई, कहीं उसकी पढ़ाई के लिए ढेर सारी साड़ियाँ बिखेरे उनमें फॉल लगाती हुई, कहीं थोक में ढेर सारे मोती लाकर बच्चों के लिए माला बनाती। उसके कई रूप थे। कहीं स्पष्ट, कहीं धुँधले। उन रूपों में सबसे स्पष्ट उसे पता नहीं बरसों पहले का वह रूप क्यों दिखता था जिसमें वह रंगीन साड़ी पहने ईश्वर की मूर्ति के आगे दिया जलाती छोटी सी घंटी बजाती और सुनाती हर बार की सुनाई गई ईश्वर की महिमा का बखान करती वही कहानियाँ जिनपर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ।

पूरी पूजा के दौरान वह हाथ जोड़े बैठे रहता। माँ आरती करती और वह माँ के चेहरे को निर्निमेष देखता रहता। उसे ईश्वर की सारी गढ़ी हुई कहानियों पर विश्वास होने लगता। माँ के चेहरे पर दिए की लौ का तेज उतर आता।

ऐसा ही तेज उस लड़की के चेहरे पर भी था जो उसके साथ पढ़ती थी। उसने गौर किया था कि मंदिर की मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ कर आँखें बंद करते समय उसके चेहरे पर माँ जैसा तेज उभर आता है। दोनों कॉलेज की छुट्टी के बाद साथ-साथ घूमते उस सुनसान रास्ते पर निकल जाते जहाँ कब्रिस्तान था और हवा चलने पर सर सर की आवाज आती थी। लड़की ने एक दिन चलते-चलते उसका हाथ पकड़ लिया था और उसके कंधे पर सिर रख दिया था। उसकी आँखों में पता नहीं क्यों नमी सी छा गई थी और लड़की का चेहरा पानी में देखे जा रहे दृश्य सा लगा था।

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‘तुम्हारे साथ मुझे बहुत अच्छा लगता है। ‘लड़की का सिर फिर से उसके कंधे पर टिक गया था।

‘तुम मेरी माँ जैसी लगती हो। ‘वह बोलते हुए समय के जालों में उलझ कर कहीं दूर चला गया था। लड़की ने इस भ्रम के निवारण के लिए कि यह बात उसने उसी से कही है या किसी और से, सिर उठाकर देखा और हँस कर कहा था, ‘तुम पागल हो।’ उस दिन वह बहुत खुश था।

लड़की हाथ देखना जानती थी। उसकी हथेलियों को जब वह अपनी हथेलियों में भर लेती तो उसकी आँखें बड़ी परेशान होतीं। वह कभी इधर उधर देखतीं, कभी लड़की की आँखों से मिल जातीं और कभी दूर कहीं क्षितिज पर टँग जातीं।

‘तुम किसी से बहुत प्यार करते हो।’ वह रेखाओं में देखती हुई बोली।

‘मैं… वो…।’ उसकी आँखें क्षितिज पर टँग गईं।

‘पर तुम्हारी रेखाएँ बता रही हैं कि तुमने उसे अभी बताया नहीं है। है न…?’

‘हाँ…।’

‘तो बता दो उसे। तुम्हार लकीरें बता रही हैं कि वह लड़की भी तुमसे प्यार करती है।’

वह पाता कि दूर क्षितिज पर जहाँ उसकी आँखें टँगी हैं, वहाँ डूबते सूरज की लालिमा लेकर एक चेहरा बन रहा है जो उसे देखकर मुस्करा रहा है। उस चेहरे पर ढेर सारी रेखाएँ हैं जो उसके हाथों की रेखाएँ हैं। वह कुछ पलों के लिए अपनी हथेलियों से अपने चेहरे को ढक लेता और पाता कि उसकी आँखें कुछ नम सी हो गई हैं।

‘मेरा बेटा बहुत भावुक है।’ माँ अक्सर आने जाने वालों और परिचितों, पड़ोसियों को बताती। वह सुनकर थोड़ा दुखी होता।

‘तुम बहुत भावुक हो। भावुक लोग कमजोर हो जाते हैं। तुम हिम्मती बनो।’ वह माँ की इच्छाओं के अनुरूप बनना चाहता था। वह माँ को बहुत प्रेम करता था।

वह उस लड़की से भी प्रेम करने लगा था। वह उसके साथ देर तक बैठा रहता और उसकी बातें सुनता। लड़की उन दिनों कुछ ज्यादा बातें करने लगी थी।

‘माँ की तबियत बिगड़ती ही जा रही है। सारी दवाइयाँ बेअसर हो रही हैं। मैं उसके बिना नहीं रह सकता।’

ऐसी बातें सुनकर लड़की बोलना बंद कर उसका सिर अपने कंधे पर टिका लेती और उसके घुँघराले बालों में उँगलियाँ फेरने लगती। एक पेड़ की डाल नीचे झुककर गुलाब के पौधे को सहलाने लगती जिसके आस-पास ढेर सारी तितलियाँ उड़ रही होतीं। वह लड़की के मौन में और अपने बालों में उड़ रही उँगलियों में सुनता, ‘तुम घबराओ मत। मैं हूँ न तुम्हारे साथ।’

‘मैंने नौकरी खोजने की कितनी कोशिशें कीं…। अब कुछ कमा कर माँ को कुछ सुख देना चाहता हूँ। उसने अपनी पूरी जिंदगी मेरे लिए होम कर दी पर मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की।’ वह अपने मौन के जरिए लड़की के मौन से संवाद करता।

‘तुम अपनी लड़ाई में हमेशा मुझे अपने साथ पाओगे।’ लड़की उसके मौन का जवाब अपनी आँखों से देती। वह भी एक गरीब परिवार से थी और कठिन हालात में अपनी पढ़ाई जारी रखे थी। उसे अपना और लड़की का दुख एक बिरादरी का लगता।

उस दिन उनके एक सहपाठी का राजस्व सेवा में चयन हो गया था और वह जाने से पहले सबको कुछ न कुछ उपहार दे रहा था। उसे एक क्रूर उपहार के रूप में चमड़े का एक सुंदर बटुआ मिला। लड़की के लिए सहपाठी ने जेब से सोने की एक शानदार चेन निकाली और उसके गले में पहनाते हुए कहा था, ‘इसे मंगलसूत्र मानना और मेरे लौटने तक मेरा प्रेम सँभाल कर रखना।’ लड़की ने एकबारगी उससे नजरें मिलाईं और फिर चेन की तरफ देखने लगी थी। सहपाठी ने भरपूर प्यार से उसके चेहरे पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘अपना ध्यान रखना।’

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‘और तुम भी अपना।’ लड़की बोली थी।

वह कुछ देर तक उस कब्रिस्तान में अकेला बैठा रहा था जहाँ हवा चलने पर सर-सर की आवाज आती थी। रोना नहीं चाहता था क्योंकि उसे हिम्मती बनना था। लड़की से उसने कुछ नहीं कहा क्योंकि वह मौन की भाषा का कायल था। शब्दों में उसे कभी कोई खास वजन महसूस नहीं होता था।

‘जाने दे। भूलने की कोशिश कर उसे। तुझे चाहने वाली बहुत लड़कियाँ आएँगी। तू हीरा है। उसे याद कर एक आँसू भी मत बहाना। तुझे कमजोर नहीं होना।’ माँ कितनी हिम्मती है, उसे आश्चर्य होता। वह कमजोर नहीं बनना चाहता था। उस लड़की के बारे में सोचकर वह एक बार भी नहीं रोया।

‘मेरे मर जाने पर घबराना मत, हिम्मत से काम लेना। बगल से पड़ोसियों को तुरंत बुलवा लेना। मुझे चारपाई से नीचे उतार कर तुरंत चारपाई उल्टी करके खड़ी कर देना। फिर सोचना कि किन-किन रिश्तेदारों को उसी समय बताना है और किसे बाद में। घबराना बिल्कुल नहीं। अब तू बच्चा नहीं है। रोना तो बिल्कुल मत।

‘वह यूँ ही निरुद्देश्य टहलते ऊँची-ऊँची इमारतों से अपने बौनेपन को नापता जब घर पहुँचा तो घर में घुप्प अँधेरा था। उसने माँ को आवाज दी, ‘माँ, मोमबत्ती बुझ गई क्या?’

जाहिर है मोमबत्ती बुझ चुकी थी पर कोई आवाज न पाकर उसने माचिस टटोलते हुए फिर पुकारा, ‘माँ…ये मोमबत्ती कैसे बुझ गई माँ?’

उसने दूसरी मोमबत्ती जलाई। पहली गल कर खत्म हो गई थी। शायद वह सड़कों पर देर तक घूमता रहा था।

‘माँ… माँ…। ‘उसने कई बार पुकारते चिल्लाते लगभग माँ को झिंझोड़ दिया पर पूरा कमरा निश्चल था सिर्फ मोमबत्ती की लौ को छोड़कर जो बाहर से आती हवा से हिल रही थी।

‘माँSSSSSSSSSS…।’ वह हताश सा जमीन पर ढेर हो चुका था। आँखों में नमी सी आ गई थी और सारे दृश्य पानी में डूब कर देखे जैसे लग रहे थे। एक झटके में सैकड़ों दृश्य आकर चले गए और आँखों के सामने अँधेरा छा गया। लगा जैसे पेट में कुछ खौलते-खौलते कलेजे तक आ गया है और यदि उसने मुँह खोला तो झटके से बाहर आ जाएगा। कुछ भी हो, उसे रोना नहीं था। उसे मजबूत बनना था। वह बच्चा नहीं था। धीरे से उठा और माँ के बक्से की टेक लगा कर खड़ा हो गया। माँ को कमजोरों से घृणा थी। उसे पड़ोसियों को बुलवाना था। माँ को नीचे उतरवाना था। चारपाई को उल्टा खड़ा करना था। रिश्तेदारों को सूचित करना था। उसे बहुत कुछ करना था पर उसे रोना नहीं था। उसे मजबूत बनना था। वह धीरे-धीरे अपने कमजोर मन पर काबू कर रहा था। उसने जबड़े भींच कर एक लंबी साँस ली और माँ की बात रखते हुए अपने आप को कुछ देर में संयत कर लिया। यह वाकई मुश्किल था पर उसने थोड़ी देर में खुद को बड़ा बना लिया।

‘सुन बेटा। जरा एक गिलास पानी दे देना।’ माँ के बोलने पर वह अचानक चिहुँक उठा था और बाहर से आती हवा से मोमबत्ती की लौ इतनी तेजी से काँपी थी मानो बुझ जाएगी।

‘माँ… तु… तुम… मैं… मुझे…।’ उसे पता नहीं चल पा रहा था कि वह भ्रम में है या यथार्थ में।

‘इस स्थिति में कभी-कभी ऐसा हो जाता है रे। ऐसी बेहोशी जैसी नींद आती है कि…। पानी दे और मेरी दवाइयाँ भी उठा देना।’

वह पानी और दवाइयाँ देकर खटिए के पास बैठ गया। उसकी आँखें तेजी से झपक रही थीं और जबड़े भिंचते जा रहे थे। होंठ तिरछे होने लगे थे और वह सीधे रखने की पुरजोर कोशिश कर रहा था। माँ ने थोड़ा पानी पहले पिया। दवाई खोलकर खाते हुए माँ ने ऐसे ही पूछ लिया, ‘क्या हुआ…? ऐसे क्या देख रहा है?’

बदले में वह खटिए की पाट से सिर टिकाकर छोटे बच्चे की तरह रोने लगा।

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