सपनों की भटकन | रति सक्सेना
सपनों की भटकन | रति सक्सेना
हर सुबह
शुरू हो जाती है, मेरे सपनों की
भटकन
वे जानते हैं, कि कहाँ जाना नहीं
गंतव्य
उनकी डायरी में दर्ज नहीं
वे परियों के पास नहीं जाते
तारों या खूबसूरती से उन्हें
लगाव नहीं
धरती के भीतर रहने वालों में से
पसंद है सिर्फ काले चीटे,
जिनका कद हाथी से कम नही
दरख्त और चिड़ियाँ भी
लुभाती नहीं
चलती गाड़ियों से पिछड़ना
प्रिय शगल है उनका
शहरों गाँवों से बचते हुए
वे पहुँच जाते हैं
उन ग्रहों पर,
जहाँ रहते हैं वे लोग,
जिन्हे हम अपनी भाषा में मरा हुआ कहते हैं
मरे हुए लोगो का किस्सा भी अजब है
वे पीछे छूटे रास्तों को बिल्कुल नहीं पहचानते
लेकिन सपनों से बतिया लेते हैं
रात होते होते सपने
अपने डेरे पर लौट आते हैं
पुटलिया मेरे दिमाग के बीचोंबीच गढ़ी
खूँटी पर बेताल सा टाँग
खुद ब खुद सो जाते हैं
पुटलिया में बँधी सौगातें
मेरी रातों में जगती हैं