संध्या | पंकज चतुर्वेदी
संध्या | पंकज चतुर्वेदी

संध्या | पंकज चतुर्वेदी

जीवन के बयालीसवें वसंत में 
निराला को लगा – 
अकेलापन है 
घेर रही है संध्या

बयालीसवें जन्मदिन पर 
पूछा एक स्त्री से 
कैसा लगता है 
महाकवि की बात क्या सही है ?

कहा उसने 
बढ़ी है निस्संगता 
और जैसे साँझ ही क्या 
रात्रि-वेला चल रही है

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बीच के इस फ़ासिले में 
और चाहे कुछ हुआ है 
कम हुई है रोशनी 
शाम का वह झुटपुटा 
अब और गहरा हो चला है 
कवि, जब से तुम गए हो

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