संपन्नता | राजेन्द्र दानी
संपन्नता | राजेन्द्र दानी

संपन्नता | राजेन्द्र दानी –Sampannata

संपन्नता | राजेन्द्र दानी

अब तो जवाहरलाल जी के बच्चों के बच्चे भी कहने लगे हैं कि ‘सब कुछ बदल रहा है’। वैसे वे स्वयं भी जानते रहे हैं कि ‘परिवर्तन ही जीवन है’ और यह उनके समय के पाठ्यक्रम में भी था। पर बच्चे क्यों उन्हें इस बात पर चिढ़ाते रहते हैं? क्या उनकी हरकतें ऐसी है कि वे बदलाव के खिलाफ हैं, और बच्चे बदल रहे हैं? एक बार इसी बात पर उन्होंने बेटे के बड़े बेटे आकाश से चिढ़ में पूछ लिया था – ”तुम लोग क्या बदलना-बदलना की रट लगाए रहते हो, मैं यह मानता हूँ कि तुम्हारा कंप्यूटर बदलकर लैपटाप हो गया था फिर लैपटाप से टेबलेट हो गया है, तुम्हारा मोबाइल फोन अब एंड्रायड और स्मार्ट फोन हो गया है लेकिन तुम्हारा बाप तो वही देवी प्रसाद है न मेरा बड़ा बेटा कि वह भी बदल गया?”

बेटे का बड़ा बेटा आकाश तब थोड़ी दर जवाब देने के लिए असमंजस में रहा पर आखिर में उसने लगभग हँसते हुए कहा – ”ध्यान से देखें और गौर करें तो वे भी तो बदल गए हैं।”

इतना बोलकर वह उनके सामने से खिसकने ही वाला था कि उन्होंने कई तरह के संशय में पड़कर फिर चिल्लाकर कहा – ”ऐ आकाश रुको, तुम कहना क्या चाहते हो?”

आकाश छोटा नहीं था कि डर जाता उनके रुख से, सत्ताईस साल से कम तो वह न था। वह रुक गया और थोड़ी देर सोचने के बाद पूर्ववत हँसते हुए ही कहा – ”आपके बनाए पुराने मकान में जब हम सब थे तो पापा क्या थे… कुछ नहीं, पर ये नया मकान उन्होंने बनाया है, जो कम से कम पाँच करोड़ का होगा, तो वे अब करोड़पति हुए कि नहीं… पहले कुछ नहीं थे अब करोड़पति हैं… बदले कि नहीं?”

आकाश इस तरह का जवाब देगा, उन्हें आशा नहीं थी। वे तो सोच रहे थे कि वह अपने बाप पर कोई तोहमत लगाने वाला है। उसके जवाब में छिपे इस सत्य से वे इनकार नहीं कर सकते थे कि आकाश के बाप यानी उनके बड़े बेटे देवी प्रसाद ने पिछले पंद्रह बीस वर्षों में बहुत तरक्की की और अब सब कुछ सुखद है। वे उसके रहते हुए कोई शिकायत नहीं कर सकते कि उसने उनकी फलाँ-फलाँ इच्छा पूरी नहीं की। हालाँकि वे यह भी जानते-समझते हैं कि उन्होंने उड़ने जैसी कोई इच्छा उसे नहीं जताई, तब भी वह सब कुछ करता है और यह भी कि उसे उनकी पेंशन से कोई सरोकार कभी नहीं रहा। वे स्वतःस्फूर्त होकर ही उसे घर की चीजों के लिए खर्च करते रहते हैं पर हमेशा बहुत सी बचत बैंक में ही रही आती है।

वे यह सब और उससे जुड़ी तमाम चीजों को सोचते रहे बड़ी देर तक और उनकी आँखें नम होती रहीं। पत्नी के निधन के बाद वे अक्सर खुद से बतियाते हुए यही सब हरदम सोचते रहते हैं। उनकी तंद्रा जब टूटी तो उन्होंने देखा कि आकाश जा चुका था। वे सोचने लगे, उसने वे दिन कभी नहीं देखे जो उन्होंने स्वयं देखे थे। उन दिनों को याद करना वे नहीं भूलते पर न जाने क्यों बच्चों को नहीं बताना चाहते। यहाँ तक कि उन्होंने देवी प्रसाद या उसके छोटे भाई को भी कभी नहीं बताया कि उनकी छोटी सी बाबूगिरी की नौकरी लगने के पहले वे अपनी टुटही साइकिल चलाते हुए अगरबत्ती बेचा करते थे। केवल रुपये दो रुपये की कमाई के लिए वह साइकिल दिन भर में पचास-साठ किलोमीटर तक का चक्कर लगाती थी और शाम होते-होते उनकी पिंडलियों में दम नहीं रह जाता थी। वे बेइंतहा दुखती थीं, जिसे दबाने की इल्तजा वे माता-पिता से नहीं कर सकते थे।

वे उन दिनों के करोड़पतियों के यहाँ भी अगरबत्तियाँ पहुँचाते थे। अगरबत्तियाँ पहले सजी-सजाई दुकानें में बहुत कम मिलती थीं। उनके जैसे बहुत सारे लोग ही यह काम करते थे। वे गरीबी के दिन थे। उससे निजात के लिए केवल जवाहरलाल जी ही नहीं छटपटाते थे बल्कि उनके साथ के सभी लोगों के अंदर यह छटपटाहट रही आती थी। जिन बड़े घरों में वे अगरबत्ती पहुँचाते थे वहाँ के वैभव को विस्मय से देखते। इस विस्मय के पीछे चाहतें और हसरतें आहों के नीचे दबी रह जाती थीं।

अगरबत्ती के कारखाने पर जवाहरलाल जी जैसे लगभग बीस-पच्चीस साइकिल सवार देर शाम कारखाने के मालिक के पास हिसाब-किताब के लिए इकट्ठे होते, जहाँ अपना कमीशन काटकर उन्हें भुगतान करना होता, अक्सर भुगतान के बाद निराशा घिर आती, क्योंकि जो कमीशन उन्हें मिलता वह उनकी जरूरतों से बहुत कम होता। वे मंत्रणा करते कमीशन बढ़वाने के लिए, कमीशन बढ़ाने की विनम्र माँग कारखाने का मालिक कभी नहीं सुनता। तभी उन लोगों में से एक ने भैरव सिंह से सबको मिलवाया था। भैरव सिंह लाल झंडे वाले थे। जब वे सब अपनी चाहतें और हसरतें भैरव सिंह को बताते और तदनंतर अपनी आहों को प्रकट करते तो वे अक्सर यही कहते कि – ”इन्हीं आहों के पीछे वास्तविक वर्ग संघर्ष छिपा है। उसे पहचानने और उसके अनुरूप सक्रियता की जरूरत है। एक तुम्हारा वर्ग है और एक कारखाने के मालिक का। इसमें जमीन आसमान का अंतर है। इस अंतर को तुम लोग ठीक से पहचान लोगे तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारी मेहनत से तुम्हारा मालिक बेइंतहा पैसे कमाता है। मेहनत तुम्हारी पैसे उसके। इसे कहते हैं शोषण।” अपनी जरूरत से ज्यादा कमाना तभी संभव होता है जब आप किसी का जायज हक छीनते हैं, उसका शोषण करते हैं।

शायद उन्हीं भैरव सिंह के नेतृत्व में एकाध बार के संघर्ष के बाद कारखाने के मालिक ने उनके कमीशन को बढ़ाया था।

न जाने क्यों? भैरव सिंह की बातों पर तब बाईस साल के नौजवान जवाहरलाल जी रोमांचित हो उठते थे। उन्हें लगता, उनकी रीढ़ में विद्युत तरंगें दौड़ रही हैं और शरीर में एक तेज उर्जा का संचार हो रहा है। वे ज्यादा से ज्यादा समय भैरव सिंह के साथ रहना चाहते पर अपनी मुफलिसी और उस पर बूढ़े माँ-बाप की देखभाल की वजह इस बात की छूट नहीं मिल पाती। अक्सर जिस वैचारिक सिद्धांत और अनुशासन की बात भैरव सिंह करते जवाहरलाल जी को हमेशा लगता कि वे भी तो इसी तरह सोचते रहे हैं। हालाँकि वे आश्चर्य में भी पड़े रहते कि यह सब उनके भीतर स्वाभाविक रूप से कैसे है।

पर जवाहरलाल जी की यह इच्छा, कि वे भैरव सिंह के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजारें, पूरी नहीं हो सकी। उनको एक स्थायी रोजगार दिलाने के लिए सक्रिय उनके आत्मीय लोग एक दिन सफल हो गए और एक सरकारी महकमे में उन्हें बाबूगिरी की नौकरी मिल ही गई। वह छोटा शहर छूटा और साथ में वहाँ के लोग भी। नौकरी लगने के डेढ़ वर्ष बाद जवाहरलाल जी का विवाह हो गया। फिर उनके पास सिर्फ गतिमान वर्तमान और स्मृतियाँ रह गईं। उसके बाद जीवन में एक तरह की आपा-धापी शुरू हो गई। वे फिर कभी समझ न सके कि समय दौड़ रहा है या वे खुद बदहवास से दौड़ रहे हैं।

शायद विवाह के बाद चार वर्ष गुजरे होंगे जब देवी प्रसाद का जन्म हुआ। उसके दो ही वर्ष बाद दूसरे बेटे ने जन्म लिया। अब परिवार का बोझ दुगना हो गया। जवाहरलाल जी ने इसे अपने मजबूत कंधों से उठा लिया और चल पड़े। विरासत में कुछ मिला नहीं था इसलिए सब कुछ खुद ही करना था। उन्होंने भरसक किया भी। यह उनकी बड़ी खुशनसीबी थी कि अभाव और असुविधाओं में भी उनके दोनों बेटे मेधावी निकले। जब तक वे बड़े नहीं हो गए तब तक जवाहरलाल जी ने अभावों में रहते हुए भी बड़ी मशक्कत की। लेकिन इस बीच देश की अर्थव्यवस्था कुछ करवटें ले रही थी इसलिए शायद यह मशक्कत संभव हो सकी। सरकार की ओर से शिक्षा के लिए कर्ज आदि मिलना शुरू हुए जिससे दोनों बेटों की उच्च शिक्षा और आधुनिक शिक्षा संभव हो सकी। इस शिक्षा के चूँकि वे पहले-पहले प्रवीण हुए थे इसलिए नौकरियाँ मिलने में ज्यादा कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा। तब जाकर जवाहरलाल जी निश्चित हुए। पर यह निश्चिंतता उनकी सेवानिवृत्ति आते-आते ही उन्हें मिल पाई और अब वे आयु के पचहत्तर वर्ष पार कर गए हैं। घर में सब कुछ है। एक उच्च मध्यम वर्ग का वैभव घर में चारों ओर दिखता है। हालाँकि यह वैभव उनका बनाया हुआ नहीं, यह सब बेटों की वजह से संभव हो पाया है। इन सब कारणों से जवाहरलाल जी पूरा वक्त अब खुद को परम सौभाग्यशाली मानते हैं।

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वे कभी-कभी सोचते हैं कि वे सौभाग्यशाली इसलिए भी हो गए कि उन्हेंने जीवन संघर्ष में कभी हताशा को अपने इर्द-गिर्द आने नहीं दिया, तभी तो जीवन की शुरुआत के असहनीय अभावों को वे झेलते चले गए। एक प्रश्न यह भी उनके मन में अक्सर उठता कि आज के ये बच्चे क्या इतने सक्षम हैं कि आज जरूरत पड़े तो उस तरह के कष्टों को झेल सकें। इसका जवाब अक्सर उन्हें ‘नहीं’ में मिलता। तब किंचित चिंता में डूबकर वे शुभ की कामना करने लगते हैं। बावजूद इसके विस्मृतियों की गर्द में इतने लंबे अरसे में भैरव सिंह कहाँ खो गए, उन्हें पता न चला। वे वर्तमान में जी रहे हैं, उनकी विचार सरणी उससे अनुकूलित है।

अब तो सारे करीबी रिश्तेदार उन्हीं की तरह संपन्न हैं या होते जा रहे हैं। अब ऐसे में भैरव सिंह याद आएँ भी तो कैसे? अब तो एकांत में बैठकर वे एक-एक के बारे में विचार करते हैं तो पाते हैं कि उनकी दोनों बहनों के बच्चे भी बेहद कर्मठ निकले। उनके पिताओं ने भी कष्ट झेले और जवाहरलाल जी की ही तरह बेहद संघर्ष किया। वह नैतिकताओं और संतोष के साथ चलने का वक्त था, शायद इसीलिए आज की तरह आर्थिक अराजकता उस दौर में नहीं थी। आज तो वे चीजें भी खरीदी बेची जा रही हैं जिनकी कोई आवश्यकता नहीं है। उन्हें यह खलता भी है तो वे किसी से कह नहीं पाते। पूरे समय तो वे अपने-आप को आज के समय में जी रहे लोगों से घिरा पाते हैं। चाहे वह बेटा देवी प्रसाद हो या उसके दो लड़के और दो ही लड़कियाँ, जो उनकी दृष्टि में सीमा से अधिक खर्च करते हैं। आश्चर्य उन्हें इस संबंध में बच्चों की खुशी देखकर नहीं अपने बेटे की खुशी देखकर होता है, जिसने अपने समय में कभी इस तरह खर्च नहीं किया और न ही अपने माता पिता पर कभी भार बना। वैसे अब तो घर के अधिकांश लोगों का अधिकांश वक्त खरीददारी करने में ही जाता है और सबके चेहरे खिले हुए दिखते हैं। जवाहरलाल जी इस बात को कभी नहीं समझ पाते कि खुशी और खरीददारी में कैसा रिश्ता है अबके दौर में?

यही सब और इसी तरह सोचते हुए वे एक रात एकांत में बैठे थे तो घर के मेन गेट के खुलने की आवाज आई। उन्होंने सामने की खिड़की से देखा तो देवी प्रसाद की कार को अंदर करने के लिए आकाश ने गेट खोला था। कार जब अंदर हुई तो खिलखिलाहटों के साथ देवी प्रसाद का पूरा परिवार उससे उतरा। उन्होंने देखा कार के अंदर हो जाने के बाद देवी प्रसाद का बड़ा बेटा आकाश सेल फोन पर खुशी-खुशी किसी से बात कर रहा था। वह बड़ी देर तक बात करता रहा। तब तक पूरा परिवार घर के भीतर प्रवेश कर चुका था। वे लगातार बाहर आकाश को देखते रहे। आकाश की बात जब समाप्त हुई तो वह लगभग दौड़ते हुए घर में घुसा और एक पल बाद वह उनके सामने हँसते हुए खड़ा था – ”दादाजी !… कल सुबह, इंदौर वाले दादा जी आ रहे हैं।” उसने जल्दी-जल्दी कहा।

”क्या कहा?” उनके चेहरे पर अकस्मात तेज खुशी की लहर दौड़ गई।

”वही जो आपने सुना।” आकाश का जवाब था। वह जवाहरलाल जी का लाड़ला था इसलिए इसी तरह उनसे बात करता था। वह जाने ही वाला था कि जवाहरलाल जी ने पूछा – ”यह किसने बताया तुम्हें?”

”अरे आपने सुना नहीं उन्हीं से तो अभी बात कर रहा था सेल पर।” उसने जवाब दिया और तेजी से कमरे से बाहर हो गया।

जवाहरलाल जी का रक्त संचार तेज हो गया खुशी से। वे आगे और कुछ पूछने के लिए आकाश को रोक न सके।

इंदौर वाले दादाजी यानी जवाहरलाल जी के चचेरे भाई कृष्ण कुमार दुबे जिन्हें सार्वजनकि रूप से के.के. के नाम से सादर बुलाया जाता है। वे उम्र में जवाहरलाल जी से दो-ढाई वर्ष बड़े हैं, पर पूरी तरह स्वस्थ हैं और पूरे वक्त व्यस्त रहने वाले हैं। उनकी सामाजिक राजनैतिक हैसियत बहुत बड़ी है। जवाहरलाल जी को याद है कि जब उन्होंने मैट्रिकुलेशन किया था तब कृष्ण कुमार सिविल इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे।

पहले तो नहीं पर बाद में इसी सिविल इंजीनियरिंग ने उन्हें आर्किटेक्ट बनाया और बाद में एक प्रख्यात बिल्डर भी। उनका यह काम अब प्रदेशव्यापी विस्तार में है। दरअसल के.के. अपने जीवन में यह सब नहीं करना चाहते थे। उनकी रूचि शोषितों के पक्ष में राजनीति करने की थी और वे करते चले आ रहे हैं। लेकिन सिविल इंजीनियरिंग ही उनकी रोजी रोटी का सहारा थी इसलिए एक सिविल ठेकेदार जैसा काम उन्हें शुरू करना पड़ा। लेकिन शोषितों के पक्ष में राजनीति वे आज भी करते हैं भले ही उनकी स्थिति अरबपति की है।

जवाहरलाल जी उनके आने की सूचना से ही बहुत खुश हुए, उनके आने के बाद खुशी कहाँ जाकर ठहरेगी यह कहना मुश्किल था। वे के.के. को उस वक्त ठीक उस तरह याद करने लगे जब भैरव सिंह के साथ रहते हुए याद किया करते थे। भैरव सिंह की बातें, हाव-भाव, उनका आक्रोश सब कुछ के.के. से एकदम मिलते-जुलते थे। के.के. दूर-दूर की रिश्तेदारियों में इसलिए भी याद किए जाते हैं कि उन्होंने लोगों की विपत्तियों में हरसंभव मदद की थी और आज भी करते रहते हैं। उनकी स्थिति हरदम देने वालों में रही, लेने वालों में नहीं। उदार, दयालु, विनम्र, मेहनतकश, जुझारू और न जाने कितनी अलंकृतियाँ उनके नाम के साथ जुड़ती रहती हैं।

कुल मिलाकर जवाहरलाल जी के.के. को अपना आदर्श मानते रहे हैं। वही आदर्श वर्षों बाद कल उनके साथ होगा, इस एहसास की सिहरन उनके अंदर रह-रह कर उठना तब से ही शुरू हो गई थी जब उनके आने की सूचना आकाश ने दी थी।

उस रात वे अनजान बेसब्री में रहे आए। स्मृतियों में अनगिनत गोता लगाती रात अनिद्रा सहित कट गई। पर अजीब थी यह बात कि उस अनिद्रा ने उन्हें थकाया नहीं।

वे सो तो नहीं पाए थे इसलिए और दिनों की अपेक्षा जल्दी ही उठे। हालाँकि उन्हें यह बात पता चल गई थी कि के.के. इंदौर से सुबह अपनी कार से छह के आसपास चलकर दस-साढ़े दस तक वहाँ पहुँचेंगे। पर वहाँ तक का समय गुजारना मुश्किल हो रहा था। मिलने की एक अजीब बेचैनी घर कर गई थी। इस बीच एक बार देवी प्रसाद से भी उन्होंने सारी पूछताछ कर ली थी। वैसे वह छुट्टी का दिन था इसलिए घर में काफी चहल-पहल थी और उसे के.के. के आगमन की सूचना ने और बढ़ा दिया था। के.के. अपने एक काम के सिलसिले में आ रहे थे पर दोपहर का भोजन वहीं करने वाले थे और दिन ढलने पर उनकी वापसी थी।

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साढ़े दस के पहले ही के.के. पहुँच गए। सेल फोन से उनके लोकेशन की जानकारी आकाश लेता रहा था। उसने जब आखरी बार फोन लगाया तो वे घर से एक फर्लांग की दूरी पर थे। इसकी सूचना जब उसने घर के लोगों को दी तो जवाहरलाल जी समेत सारा परिवार घर के मुख्य द्वार पर के.के. के स्वागत के लिए पहुँच गया।

कार से जब वे उतरे तो जवाहरलाल जी ने देखा, उनका पहनावा चिरपरिचित था, वही खादी का कुर्ता-पायजामा, जिसमें चरक किया गया था, मोटे लैंस वाला मोटे फ्रेम का चश्मा, तनी हुई रीढ़, सफेद हो चुके हुए पर घने बाल और चेहरे पर चिरस्थायी मुस्कराहट। देवी प्रसाद सहित घर के सारे बच्चों ने उनके चरण स्पर्श किए जिसके बदले में उन्होंने सबकी पीठ ठोक-ठोक कर आशीर्वाद दिया। घर के पोर्च की सीढ़ियों से सारे लोग उतरकर के.के. का स्वागत कर रहे थे पर जवाहरलाल जी मुस्कराते हुए नम आँखों सहित पहली सीढ़ी पर खड़े थे। सारे बच्चे जब सामने से हट गए तब जवाहरलाल जी ने भी बढ़कर के.के. के चरण स्पर्श करने का प्रयास किया पर के.के. ने उनके दोनों हाथों को रोक लिया और बेहद गर्मजोशी से जवाहरलाल जी को अपने गले से लगा लिया।

दो बुजुर्गों की ऐसी अभूतपूर्व मुलाकात बच्चे विस्मय सहित देख रहे थे। के.के. ने जवाहरलाल जी के कंधे पर मित्रवत हाथ रखा फिर सब लोग घर के भीतर आ गए।

घर का बड़ा ड्राइंगरूम खूबसूरत फर्नीचर से सुसज्जित था। थोड़ी देर बाद जवाहरलाल जी और के.के. ही उस कमरे में रह गए। वे दोनों अब आमने-सामने बैठे थे। बड़ी देर तक के.के. की निगाहें ड्राइंगरूम की सज्जा को निहारती रहीं और जवाहरलाल जी की निगाहें उनका अनुसरण करती रहीं। फिर किसी क्षण अचानक के.के. ने जवाहरलाल जी से पूछा – ”और जवाहरलाल तुम्हारा सेवानिवृत्त जीवन कैसे गुजर रहा है?” दोनों चूँकि हमउम्र जैसे थे, इसलिए उन लोगों के बीच मित्रों जैसी ही बातचीत होती थी।

कई क्षण तक जवाहरलाल जी सोचते रहे कि इस प्रश्न का क्या जवाब दें फिर हँसते हुए कहा – ”सब मजेदारी में कट रहा है, किसी बात की कोई तकलीफ नहीं है, कोई कमी नहीं है, सिर्फ एक अजीब सा अकेलापन कभी-कभी परेशान करता है।”

”मैं समझता हूँ जवाहर कि तुम्हें यह क्यों होता है। इस उम्र में पत्नी का साथ छूट जाए तो ये स्वाभाविक है… पर मुझे लगता है कि देवी प्रसाद तो तुम्हारा अच्छा ख्याल रखता है।”

”अरे-अरे के.के. उस जैसा बेटा तो कोई नहीं मिलेगा, इस मामले में मैं सौभाग्यशाली हूँ कि वह मुझे मिला… वह इतना ख्याल रखता है कि कभी-कभी मुझे संदेह होता है कि मैं क्या परजीवी होता जा रहा हूँ?” जवाहरलाल जी ने हँसते हुए जवाब दिया।

”बहुत अच्छी बात है इस तरह के बेटे नहीं हैं अब… तुम्हें मालूम है कि नहीं मेरा वह ममेरा भाई है न दीनदयाल…?” वे जवाहरलाल जी के चेहरे पर प्रकट होती अनभिज्ञता को देखकर रुक गए और याद दिलाने की कोशिश सहित आगे कहा – ”अरे यार वह देवास वाला दीनदयाल दीक्षित नहीं है… जो पुलिस में डी.वाए.एस.पी. था…।”

”अच्छा-अच्छा याद आ गया गुड्डू दीक्षित की बात कर रहे हो न तुम? जवाहरलाल जी याद करते हुए बोले – ”हाँ ऽऽऽऽऽ, यार गुड्डू की बहुत हालत खराब है।”

”क्यों क्या हुआ उसे, हम लोगों से उम्र में तो वह छोटा होगा, क्या बीमार है?”

”नहीं-नहीं, वह बात नहीं है।” के.के. ने जवाब में कहा फिर एक पल रुककर बोलते चले गए – ”उसके तीन बेटे हैं। दो छोटे वाले विदेशों में हैं और बड़ा वहीं देवास में और वही समस्या है गुड्डू की… गुड्डू ने, तुम तो जानते होगे, पुलिस में रहते हुए बेइंतहा कमाई की थी… और शायद वही कमाई इसकी जड़ में है। बड़े बेटे ने घर से निकाल दिया है… अब दोनों पति-पत्नी बेचारे एक किराए के छोटे से मकान में रहते हैं। बुढ़ापे में उन्हें दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं…।”

इतना कहकर के.के. रुके और जवाहरलालजी के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ते रहे। जवाहरलाल जी का चेहरा यह सब सुनकर उदास होता दिख रहा था। वे किसी गहरी सोच में डूब गए थे।

जब बड़ी देर तक वे मौन ही बने रहे तो के.के. ने कुछ सोचते हुए कहा – ”क्या सोचने लगे तुम?”

जवाहरलाल जी तंद्रा में थे इसलिए चौंकते हुए कहा – ‘तुमने कुछ इंटरफियर नहीं किया उन लोगों के बीच में, ताकि कोई समाधान निकल सके?’

”अरे यार ये तुम कौन सी बात कर रहे हो… किया क्यों नहीं… अवश्य किया… पर उसका बेटा करोड़ों में खेलता है आज। उसकी जबर्दस्त ऐंठ है। मुझसे वह अब पहले की तरह आदरपूर्वक बात नहीं करता। मैंने कोशिश की तो उसने इशारों-इशारों में मुझे समझा दिया कि मैं उन लोगों के बीच में न पड़ूँ। …मैं क्या करता अपनी इज्जत बचाई और चुप हो गया।” इतना कहकर के.के. ठहर गए और बड़ी देर तक शून्य में ताकते रहे, शायद कुछ सोचते हुए… फिर निर्णायक स्वर में कहा – ”…मैं जहाँ तक समझ पाया हूँ संपन्नता कोई अच्छी बात नहीं है। जहाँ जरूरत से ज्यादा पैसा होता है या आता है वहाँ यह सब होने लगता है। …क्या कहा जाए।” यह सब कहते हुए अंत में उन्होंने एक आह सी भरी।

लेकिन के.के. के अंतिम दो-तीन वाक्यों को सुनकर जवाहरलाल जी के अंदर एक अजीब सी बेचैनी घर करने लगी। वे चौंककर अवाक से हो गए। वे कुछ कह पाते कि उसी समय देवी प्रसाद ने कमरे में प्रवेश किया और के.के. से अचानक कहा – ”चाचा जी आइए आपको पूरा घर दिखा दूँ, आप पहली बार इस घर में आए हैं मेरे ख्याल से…?”

”हाँ-हाँ, पहली बार ही।” के.के. ने उठते हुए कहा। फिर एक पल बाद जवाहरलाल जी को संबोधित करते हुए कहा – ”मैं आया जवाहर, तुम बैठना।”

जवाहरलाल जी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, वे उस वक्त कहीं और थे। अतीत बहुत तेजी से उनके अंदर घुमड़ रहा था। वहाँ एक चलचित्र था, जीवन को परिभाषित करने का प्रयास करता हुआ, जहाँ एक जगह पर वह बार-बार अटक रहा था और जहाँ बहुत पहले विस्मृत भैरव सिंह खड़े थे। वे अपने विश्वास, अपनी विचारधारा, अपने सिद्धांतों को बुदबुदाते हुए लग रहे थे। जवाहरलाल उस बुदबुदाहट को सुनने में असमर्थ हो रहे थे। संभवतः भैरव सिंह वहीं थे जहाँ पहले थे लेकिन पता नहीं क्यों उनकी आवाज स्पष्ट नहीं आ रही थी। लगता था जैसे बहुत दूर से आ रही है। लेकिन उस चलचित्र से अलहदा जवाहरलाल जी की स्मृतियों का संसार उस तरह से ओझल नहीं हुआ था। अभी-अभी वह पहले से ज्यादा स्पष्ट हो रहा था। अपनी गरीबी के दिनों के रंग ज्यादा गाढ़े हुए लग रहे थे। वे चाहते थे कि अभी के रंगों से उसे मैच करें और पुराने रंगों के आज तक के रंगों के विस्तार की पड़ताल करें।

वे इस पड़ताल में बार-बार असफल हो रहे थे। ऐसा होना उन्हें संभव नहीं लग रहा था, पर वास्तव में हो तो गया ही था। इस हो गए को लगभग समझ लेने के बाद उनकी बेचैनी जैसे सौ गुना बढ़ गई। वे उठकर ड्राइंगरूम में टहलने लगे। वे अपने अतीत से जोड़कर के.के. के इस बयान को भी देखना चाह रहे थे कि ”संपन्नता कोई अच्छी बात नहीं है।” क्या गुड्डू दीक्षित के बेटे की संपन्नता हमारी संपन्नता से मिलती जुलती है? और क्या हमारे घर में देवी प्रसाद की वजह से आई संपन्नता और उसकी संपन्नता में फर्क नहीं है? उन्हें संदेह हुआ कि के.के. क्या शायद हम लोगों को भी इंगित कर रहे थे? अगर ऐसा है तो वे अपनी खुद की अथाह संपन्नता को क्या कहेंगे? अगर के.के. अपनी सोच में ऐसे नहीं तो क्या वे बहुत पीछे जाकर सोच रहे हैं, इतने पीछे कि जब उनकी कोई पहचान नहीं थी। उन्हें यदि वे छोड़ भी दें तो अपने बारे में क्या कहेंगे? क्या अभी रुककर ये सोचा जा सकता है कि जो बातें भैरव सिंह कहते थे कि – ”अपनी जरूरत से ज्यादा कमाना तभी संभव होता है जब आप किसी का जायज हक छीनते हैं।” …हम लोगों ने किसका हक छीना है? भैरव सिंह के शब्दों में यह शोषण है तो हमारे आसपास शोषित कहाँ हैं? हम कितने दिनों से बाहर नहीं निकले कि कु्रछ दिखे?

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इस प्रश्न पर उनके अंदर उस वक्त नकार की ”नहीं- नहीं” भले ही उठ रही थी पर वह बेहद कमजोर थी। देश की कई स्तरों की आर्थिक स्थितियाँ में निःसंदेह उनके अपने घर की स्थिति बेहद अच्छी थी इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता था।

इससे आगे उन्हें याद आया कि देवी प्रसाद को शाबासी देने पर वह अक्सर उनसे कहता रहता है कि – ”पिताजी देखना हमारे बच्चों को, बहुत आगे जाएँगे।” यह सुनकर वे बहुत खुश हो जाते थे पर आज वह सब अचानक याद करके वे खुद को किसी अवसाद की तरफ जाते हुए महसूस क्यों कर रहे हैं? उन्हें समझ नहीं आया। उससे मुक्ति के लिए उन्होंने अपने सिर को एक जोरदार झटका दिया, साथ ही सोफे पर निढाल से धँस गए।

और तभी के.के. सारा घर देखकर लौट आए और सोफे पर बैठते हुए विस्मय से जवाहरलाल जी की अेर देखा और कहा – ”क्या बात है जवाहर, तुम कुछ थके से लग रहे हो?”

एक अजीब सी निराशा से फूटती मुस्कान सहित जवाहरलाल जी ने मौन आह भरी और कहा – ”हाँ-हाँ अतीत की लंबी यात्रा से अभी-अभी लौटा जो हूँ?”

के.के. का विस्मय यह सुनकर और बढ़ गया। एक पल के लिए वे जवाहरलाल जी की बात समझ न सके और कहा – ”मैं समझा नहीं, तुम कहना क्या चाहते हो?”

”दरअसल मैं विपन्नता से संपन्नता की लंबी यात्रा पर था इसलिए जाहिर है थक तो गया ही हूँ।” जवाहरलाल जी की मुस्कान यथावत थी।

जवाहरलाल जी के इस कथन से,जो कि वास्तव में उनकी पूर्व में संपन्नता संबंधी धारणा की प्रतिक्रिया थी, के.के. सब कुछ समझ गए। पर बड़ी देर तक उन्हें अपनी प्रतिक्रिया के लिए कुछ सूझा नहीं। वे जटिलता में उलझना नहीं चाहते थे। इसलिए वे सहज होना चाह रहे थे पर वह उस वक्त बेहद कठिन था। वे किंचित शर्मिंदगी से फर्श की ओर देखने लगे। इस बीच कनखियों से उन्होंने कई बार जवाहरलाल जी की ओर भी देखा और अचानक बोल पड़े – ”अरे जवाहरलाल तुम कहाँ उलझ रहे हो, सहज हो जाओ, सच मानो मैंने संपन्नता के मामले में तुम्हारे लिए कुछ नहीं कहा था। …और फिर…।”

”मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ कि तुमने वह बात जनरलाइज करके कही थी, पर बात तो सही थी।” जवाहरलाल जी ने बीच में टोकते हुए कहा। वे तमतमा गए थे।

”तो फिर…।” के.के. के चेहरे पर प्रसन्नता लौटने लगी।

”तो फिर क्या… क्या मुझे इस बात को उसी परिप्रेक्ष्य में लेना चाहिए, जिसमें तुम लेकर सहज हो गए हो?”

”नहीं, मेरे कहने का मतलब यह था कि अब कुछ हो नहीं सकता, अपने और दूसरों के जिस समय में हम लोग फिलहाल हैं… वहाँ क्या संभावनाएँ हैं…? …मुझे तो कुछ सूझता नहीं…।” ”हम लोगों के पास वैचारिक तर्कों के साथ आगे बढ़ने का समय कहाँ बचा… तुम बताओ।” के.के. ने काफी विचार करने के बाद कहा और जवाहरलाल जी के चेहरे पर तेजी से आते-जाते भावों को एकटक देखने लगे।

के.के. के इस तरह पूछने पर जवाहरलाल जी की तमतमाहट बढ़ गई और उन्होंने तत्काल पूछा – ”तुम्हारे कहने का मतलब… आत्मसमर्पण के अलावा कोई चारा नहीं है अब?”

के.के. शायद कुछ जवाब देते इसके पहले ही अंदर के कमरों से तेज स्त्री स्वर सुनाई पड़ा – ”दो बज रहे हैं लंच के लिए बुलाओ दादा जी लोगों को।” यह देवीप्रसाद की बड़ी बेटी की आवाज थी। इसके बाद दूसरे ही पल देवीप्रसाद ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया और जवाहरलाल जी सहित के.के. से हाथ जोड़कर कहा – ”चलिए भोजन करें।”

देवीप्रसाद की इस विनती से के.के. प्रसन्न होकर तत्काल उठ खड़े हुए और जवाहरलाल जी के पास पहुँचकर उनके कंधे पर हाथ रखा – ”अच्छा अभी चलो जवाहर, भोजन करते हैं।”

जवाहरलाल जी बेमन से खड़े हो गए फिर के.के. के साथ डायनिंग रूम में आकर बैठ गए। परिवार के सारे सदस्य भोजन परोसने में व्यस्त थे।

बड़े से डाइनिंग रूम में स्प्रे की गई मंद खुशबू बिखरी थी साथ में ताजे भोजन की महक ने के.के. को तरोताजा कर दिया पर जवाहरलाल जी की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ा था। विचारों से प्रसूत उद्वेलन का शमन वे तब भी नहीं कर पाए थे।

प्लेटों के लगते ही के.के. ने तेजी से भोजन शुरू कर दिया। पर जवाहरलाल जी की गति बहुत मंद थी। इसे देखकर के.के. ने उनसे कहा – ”यार जवाहर अब तुम सोचना बंद करो और एकचित्त होकर भोजन करो।” ”…आखिर अब क्या सोच रहे हो तुम?”

एक कटोरे में परसी गई सब्जी में रोटी के टुकड़े से सब्जी पकड़कर निवाला मुँह में डालते हुए जवाहरलाल जी ने के.के. से कहा – ”मैं यह सोच रहा था कि जब से हम लोगों ने होश सँभाला है तब से हम एक बेईमान और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था में जी रहे हैं… क्या तुम इसे मानते हो?”

के.के. के भोजन करते हाथ एक घड़ी को थम गए फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने कहा – ”हाँ यह तो सभी मानते हैं।”

”नहीं-नहीं, तुम मानते हो कि नहीं?” जवाहरलाल जी ने टोकते हुए पूछा।

”हाँ-हाँ भाई मैं भी मानता हूँ।” के.के. ने बिना रुके जवाब दिया।

”तो यह जानते हुए भी इस व्यवस्था में हम लोग कैसे संपन्न हो गए…? क्या तुम इसका भी जवाब दे सकते हो?” जवाहरलाल जी ने के.के. की आँखों में आँखें डालते हुए पूछा।

यह सुनकर एक हाथ में पकड़ी चम्मच के.के. से छूट गई। थोड़ी देर उसके गिरने की टनटनाहट की आवाज कमरे में गूँजती रही। वे बिना कुछ बोले कुर्सी से उठ गए और वाश बेसिन में हाथ धोने लगे।

किसी तरह की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में जवाहरलाल जी बड़ी देर तक उनकी ओर देखते रहे। पर के.के. मौन रहे आए और मुँह पोंछते हुए फिर से कुर्सी पर आकर बैठ गए। पर तभी उन दोनों को भोजन से फुर्सत देखकर आकाश ने डायनिंग रूम में लगे होम थियेटर का स्विच रिमोट से ऑन कर दिया।

कमरे में तेज आवाज गूँजने लगी – ”पुराना जाएगा तभी तो नया आएगा…।” (और अंत में)… बेच दे।”

जवाहरलाल जी और के.के. इस अप्रत्याशित भीषण आवाज से बुरी तरह चौंक गए। उनकी छातियाँ काँपने लगीं। जवाहरलाल जी ने तब गुस्से में चिल्लाकर आकाश से कहा – ”बंद करो इसे…ऽऽऽ।”

आकाश ने बुरी तरह डरकर उन्हें देखा और स्विच ऑफ कर दिया। अब वहाँ केवल जवाहरलाल जी की चिल्लाहट गूँज रही थी।

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संपन्नता –Sampannata

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