‘आपको गायत्री का कोई मंत्र याद है?’

किसी महिला का स्‍वर सुन कर उसने तिरछे हो कर अपनी दाईं तरफ देखा। कई स्‍त्री-पुरुष मुँह लटकाए सामने की ओर देख रहे थे। उसने सिर हिला कर श्‍लोक याद न होने की विवशता जाहिर कर दी।

मंत्र की बात करनेवाली औरत ने एक लंबी साँस खींची और होंठों में ‘ओम् नमः शिवाय’ का पाठ आरंभ कर दिया। मरीज के दाएँ-बाएँ लोहे के दो स्‍टैंड खड़े थे। एक पर खून की बोलत उलटी करके टँगी थी और काँच की नली से बूँद-बूँद करके रक्‍त एक रबर की नली में गिर रहा था। दूसरी ओर से इसी प्रकार ग्‍लूकोज की बूँदें गिर रही थीं। मरीज की आँखें टँग गई थीं और नाक में ऑक्‍सीजन की नली होने के बावजूद कठिनाई से साँसें खिंच रही थी।

मरीज एक बुढ़िया थी। जिसे चारों ओर से उसके दो बेटों, पाँच बेटियों ओर दो-तीन दामादों ने घेर रखा था। बुढ़िया की बहुओं को भी इस भीड़ में शामिल कर लिया जाए, तो गरीब एक दर्जन मर्द-औरत वहाँ मौजूद थे। सभी के चेहरों पर मौत का भय उभर रहा था और लग रहा था कि दवाओं, इंजेक्शनों और खून-ग्‍लूकोज के बावजूद वृद्धा की मृत्‍यु हो जाएगी। एक महिला, बुढ़िया के मुँह से कभी-कभी निकलनेवाले अस्‍फुट शब्‍द सुन कर उसके चेहरे पर झुकती थी और उनका अर्थ जानने की चेष्‍टा करती थी, पर शब्‍द पकड़ में नहीं आते थे। कई डॉक्‍टर बारी-बारी से आते थे और बहुत तत्‍परता से बुढ़िया की नब्‍ज टटोलते थे। बीच-बीच में ब्‍लड प्रेशर भी जाँच लेते थे। यंत्र के गिरते हुए पारे को देख कर उनकी भौंहों में बल पड़ जाते थे। भाग-दौड़ करते डॉक्‍टरों-नर्सों को गंभीर देख कर बुढ़िया के संबंधियों के मुँह से बेसाख्‍ता लंबी और हताश साँसें छूटने लगती थीं।

इतने बड़े समूह के रूप में खड़े आदमियों के मुँह से कोई बात नहीं निकल रही थी। हाँ, एक बेटी ने अत्‍यंत कायरता से एक बार स्‍वगत भाषण के तौर पर यह अवश्‍य कहा, था, ‘इससे तो यही अच्‍छा है कि इसकी साँस घर में ही निकले। इसे और क्‍यों कटवाते हो! घर में होगी, तो बच्‍चे आखिरी बार शकल तो देख लेंगे।’ मगर उसके सुझाव पर किसी ने कोई खास तवज्‍जह नहीं दी। वे सब जड़ता और अवशता की उस स्थिति को पहुँच गए थे जहाँ कोई भी परिवर्तन सुविधाजनक दिखाई नहीं देता। ज्‍यादा से ज्‍यादा वे लोग यह करते थे कि चुपके से सबकी हाजिरी आखों-आँखों में ले लेते थे और पहले से भी ज्‍यादा गंभीर हो जाते थे।

गो कि वे लोग मृत्‍यु के विषय में कुछ न कुछ कहने को बेचैन थे, मगर उन्‍हें अपने उद्गार प्रकट करने का क्षण अभी कुछ दूर दीख पड़ता था। जो महिला मरीज के ऊपर झुक कर कुछ सुनने की कोशिश कर रही थी, अब एक स्‍टूल पर‍ टिक कर होंठों में कुछ बुदबुदा रही थी। शायद वह मंत्र वगैरह के चक्‍कर में न पड़ कर सीधे-सादे ढंग से ईश्‍वर का नाम ले रही थी।

तभी वार्ड में एक साथ तीन डॉक्‍टर दाखिल हुए और उनके पीछे हाथ में सिरींज पकड़े हुए एक छोटे कद की गुड़िया जैसी खूबसूरत नर्स भी आई। उसने आते ही वृद्धा की नाक में नली डाल कर उसमें सिरींज अटका कर पानी खींचना शुरू कर दिया। नर्स कुछ देर तक अपना कार्य बहुत तत्‍परता से करती रही। जब रक्‍त मिश्रित पानी से चिलमची भर गई, तो जमादार को उठाने के लिए पुकारती वह वार्ड के बाहर चली गई।

बुढ़िया दर्द से कराह उठी। उसके छटपटाने पर उसकी बेटियों ने अपनी प्रतिक्रिया आहें भरकर व्‍यक्‍त की। अब डॉक्‍टरों ने मरीज की जाँच आरंभ की। एक डॉक्‍टर ने, जो डॉक्‍टर से अधिक अभिनेता लगता था और जिसके सुनहरे रूखे बाल माथे पर छितराए हुए थे, खून की बोतल पर ढके कपड़े को हटा कर देखा और बोतल को यथावत ढक दिया। परीक्षण करके जब तीनों डॉक्‍टर मस्‍तक पर सलवटें डाल कर बाहर जाने लगे, तो उन्‍होंने बुढ़िया के बड़े बेटे छविनाथ को अपने साथ आने का संकेत किया। बड़े लड़के के साथ बुढ़िया का छोटा बेटा हरिनाथ और दामाद इस आशा में बाहर की ओर लपके कि शायद डॉक्‍टर मरीज के संबंध में कोई विशेष बात बतलाने जा रहे हैं।

दो डॉक्‍टर वार्ड के बाहर जा कर ड्यूटी-रूम में घुस गए और एक दुबला-सा डॉक्‍टर, जिसकी चुँधी आँखें चश्‍मे के मोटे लैंस से आवृ‍त्‍त, बड़ी भयंकर दिखलाई पड़‍ती थीं, अपने अधगंजे सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘…देखिए! ऐसा है कि एक बोतल खून का आप लोग फौरन इंतजाम कीजिए। जो खून बोतल में बाकी है ज्‍यादा से ज्‍यादा दो घंटे में पास हो जाएगा।’

सब लोग साँस रोक कर डॉक्‍टर की बात सुनते रहे। डॉक्‍टर ने गले में पड़े हुए स्‍टैथकोप को निकाल कर हाथ में ले‍ लिया और अपने सफेद लंबे कोट को हिलाता हुआ आगे बढ़ गया। सब लोगों को हतवाक्‍य देख कर वह एक पल रुका और आश्‍वासन-सा देते हुए बोला, ‘मैं लिख देता हूँ, आप फौरन ‘ब्‍लड बैंक’ जाइए और एक बोतल खून ले आइए। इस टाइम ‘वेन’ पकड़ में है, खून चढ़ाने में कतई दिक्‍कत नहीं होगी।’

डॉक्‍टर की यह तजवीज सुन कर बड़े बेटे छविनाथ के चेहरे पर दुविधा दिखाई दी। वह गला खँखार कर बोला, ‘डॉक्‍टर, क्‍या उनकी हालत बहुत नाजुक है?’

डॉक्‍टर ने छविनाथ के चेहरे पर आँखें केंद्रित करके कुछ तीखेपन से कहा, ‘यह कौन कहता है? वह निश्‍चय ही ठीक होने लगी है। हम बढ़िया इलाज कर रहे हैं उसका। पहले से वह काफी अच्‍छी है।’ और आशा की किरण चमका कर डॉक्‍टर चिक हटाते हुए ड्यूटी-रूम में घुस गया।

बाहर खड़े पाँचों आदमी कुछ देर तक चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। शायद वे लोग खून लाने की व्‍यवस्‍था पर विचार कर रहे थे। सब लोगों को सन्‍नाटे में देख कर छविनाथ बोला, ‘सुबह एक बोतल खून भी मुश्किल से मिला था। ऐसी आसानी से यहाँ खून मिलता कहाँ है? घंटों डॉक्‍टर खोसला के आगे-पीछे घूमा हूँ। तब कहीं यह इंतजाम हो पाया था।’

छविनाथ की आवाज में झींकने का भाव देख कर उसके बड़े बहनोई हीरालाल बोले, छवि, देर का काम नहीं है। जैसे भी हो, खून का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा।’

दूसरे बहनोई ने सुझाव दिया, ‘मेरे ख्‍याल से डॉक्‍टर की सिफारिश ले चलो।’

छविनाथ पर दोनों बहनोइयों के सुझावों का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। वह रोने के स्‍वर में बोला, ‘जीजा जी, आपको मालूम नहीं, मैं आज सुबह‍ पाँच बजे खोसला साहब के यहाँ गया था। तब जा कर कहीं बारह बजे खून का इंतजाम हो पाया था, और जानते हैं, उन्‍होंने क्‍या कहा था? वह कह रहे थे, ‘आप लोग खून ‘डोनेट’ क्‍यों नहीं करते; हमारे पास इतना खून कहाँ से आएगा?’

हीरालाल ने छविनाथ के टूटते धैर्य को सहारा देने की गरज से कहा, ‘चलो-चलो, दूसरी मंजिल पर चलते हैं। कोई न कोई रास्‍ता तो निकलेगा ही।’

ठीक इसी समय यूनिवर्सिटी में पढ़नेवाला एक स्‍टूडेंट आ गया जो हीरालाल की दो बेटियों को मुफ्त में ट्यूशन पढ़ाता था। वह समस्‍या का उत्‍साहवर्धक निदान देते हुए बोला, ‘मैं इंतजाम करा दूँगा। और अगर कुछ भी न हो सका, तो मैं अपना खून दे दूँगा। मेरा और नानी जी का ग्रुप एक ही है।’

कहा नहीं जा सकता कि उसकी बात में सच्‍चाई थी या वह महज हीरालाल की नजरों में चढ़ने के लिए यह दिलेरी दिखला रहा था। जब से सारा घर उठ कर अस्‍पताल में आ गया था, वही लड़का, घर की खोज-खबर रखता था। उसका आश्‍वासन सुन कर सबके चेहरे पर आशा दपदपा उठी। एक बाहरी आदमी, जिसका बुढ़िया से कोई खून का रिश्‍ता नहीं था, जब इतना कुछ करने को तैयार था, तो सब लोगों को लगा कि वह अपने कर्तव्‍य से मुँह मोड़ रहे हैं। लिहाजा उन्‍हें भी तो कुछ करना ही चाहिए। सब लोग सहसा कुछ न कुछ बोलने लगे।

वे सब दूसरी मंजिल पर रक्‍त-परीक्षण अधिकारी के कमरे में चले गए। जो युवक अपना खून देने का दिलासा दे कर सबको यहाँ लाया था, रक्‍त-परीक्षक से बोला, ‘मेरा खून ग्रुप ‘ए’ का है। मेरा खून ले लीजिए।’

रक्‍त-परीक्षक ने उस सूखे पतले लड़के का मुँह देखा और कहा, ‘ऐसे खून नहीं लिया जाता, जनाब। जब भी ब्‍लड लिया जाएगा, तभी नए सिरे से खून जाँचा जाएगा।’

रक्‍त-परीक्षक कुछ क्षण सोचता रहा और फिर सामने खड़ी भीड़ को संबोधित करते हुए बोला, ‘आपमें से कौन-कौन ब्‍लड देना चाहते हैं? मेहरबानी करके वे आगे आएँ।’

उसके शब्‍द सुन कर एक मिनट के लिए सन्‍नाटा छा गया और फिर धुकधुकी भरी आवाजें गूँज उठीं, ‘हमारा खून जाँच लीजिए। हमारा खून ले लीजिए।’

रक्‍त-परीक्षक ने काँच के टुकड़ों पर छह आदमियों का अलग-अलग खून लिया और कहा, ‘बराए-मेहरबानी, आप लोग बाहर बैठें। अभी कुछ वक्‍त बाद आप लोगों के ग्रुप बतला दिए जाएँगे।’

सारी भीड़ कमरे से बाहर निकल आई। वे सभी परस्‍पर वार्तालाप करने लगे। दो ने सिगरेट सुलगा ली और कक्ष के द्वार से सटी बेंच पर पसर गए। वे सब वास्‍तव में बहुत थके हुए और शिथिल थे। उनमें से शायद ही कोई अस्‍पताल छोड़ कर घर गया हो। वे सब पूरे हफ्ते से अस्‍पताल में थे और अपनी दैनिक क्रियाओं से भी जैसे-तैसे अस्‍पताल में ही फारिग हो लेते थे। घर से कोई लड़का या लड़कियों को ट्यूशन पढ़ानेवाला लड़का खाना ले आता था तो मरे मन से पेट में डाल लेते थे। वार्ड के बाहर बेंच पर दो या तीन कंबल-गद्दे पड़े थे जिन्‍हें वे लोग रात के समय वार्ड के बाहर गैलरी में डाल कर पड़े रहे थे।

हालाँकि वे लोग संख्‍या में इतने ज्‍यादा थे कि रात को बारी-बारी से सो या आराम कर सकते थे, मगर यह कभी संभव नहीं हो पाता था, क्‍योंकि हर आधे-पौने घंटे बाद कोई औरत वार्ड से बाहर निकलती थी और बुढ़िया के अंतिम साँस निकलने की विकट सूचना देती थी। इसपर वे सब झपट कर खाँसते हुए उठ पड़ते थे और अपनी नींद से बोझिल आँखें झपकाते हुए बुढ़िया के बिस्‍तर के पास जा खड़े होते थे। उनमें से कोई भी घर जाते हुए घबराता था कि कहीं इसे लापरवाही खयाल न किया जाए। लगभग हर समय मरीज के निकट बनी रहने वाली सात औरतें और पाँच-छह पुरुष रूग्‍ण हो चले थे। उनके चेहरों पर कष्‍ट, निराशा और थकान के स्‍थायी चिन्ह अंकित हो गए थे।

यों तो बुढ़िया की हालत कई दिनों से गंभीर थी, पर आज लग रहा था कि वह‍ कुछ ही क्षणों की ही मेहमान है। इसलिए उसके हाथों से ‘गोदान’ के नाम पर कुछ ‘पुन्‍न’ भी करा दिया गया था। यही नहीं, पिछले एक घंटे से डॉक्‍टरों की नजर बचा कर बीच-बीच में एक-दो बूँद गंगाजल उसके मुँह में छोड़ा जा रहा था। बुढ़िया को इतने लोगों से घिरा देख कर कोई-कोई डॉक्‍टर झुँझला भी उठता था। पर बुढ़िया की सेवा करनेवाले अपने कर्तव्‍य से विचलित नहीं होते थे।

एक मरीज के पास इतने अधिक तीमारदार देख कर वार्ड के मरीजों को हैरानी भी होती थी। किसी बीमार के पास रात को शायद ही कोई रिश्‍तेदार ठहरता हो।

खैर, आध घंटे के बाद रक्‍त-परीक्षक ने अपने कक्ष से निकल कर बेंच पर ऊँघते लोगों को बतलाया कि बुढ़िया के रक्‍त से सिर्फ छविनाथ और हरिनाथ का ही खून मिलता है। हीरालाल ने फैसलाकुन स्‍वर में कहा, ‘ठीक है, हरि खून दे देगा। छवि और उसकी बीवी रूक्‍मणी ने तो पिछले महीने अस्‍पताल जा कर खैरात में एक-एक बोतल खून दिया था। ऐसा पता होता, तो…।’ उन्‍होंने अपनी बात अधूरी छोड़ दी। उनका कहने का मतलब यह था कि अगर यह पता होता कि छविनाथ को किसी दिन घर में ही खून देना पड़ सकता है, तो वह व्‍यर्थ में अपना खून अस्‍पतालवालों को क्‍यों दे कर आता?

हालाँकि हीरालाल ने एक तरह से आखिरी फैसला दे दिया था, लेकिन फिर भी हर आदमी अपनी कैफियत सुनाने लगा। नंबर दो के दामाद ने कहा, ‘विद्या के तो पाँव भारी हैं।’ विद्या उनकी सहधर्मिणी थी। सबसे छोटे दामाद ने कहा, ‘प्रभा को तो आप सब जानते ही हैं, वह ‘एनेमिक’ है।’

अपनी-अपनी पत्नियों का सबने बचाव कर लिया।

हालाँकि रक्‍त-परीक्षक की रिपोर्ट से सबकी स्थिति पूर्ण सुरक्षित हो चुकी थी, मगर फिर भी, सब अपनी तत्‍परता और कर्तव्‍यपरायणता की दुहाई देने में लगे रहे।

अब वृद्धा के लिए खून देने वालों में सिर्फ दो पुत्र बाकी रह गए थे। हीरालाल की लड़कियों को पढ़ानेवाला लड़का रक्‍त-परीक्षक से दोस्‍ताना लहजे में बोला, ‘डॉक्‍टर साहब, कुछ इंतजाम तो होना ही चाहिए।’

उसने छविनाथ के लटके हुए चेहरे को लक्ष्‍य किया और चापलूसी दिखाने लगा, ‘मामा जी तो बेचारे इतने भले हैं कि पहले ही ब्‍लड बैंक को मुफ्त में खून दे चुके हैं। इनका खून इतनी जल्‍दी कैसे लिया जा सकता है?’

रक्‍त-परीक्षक इतने लोगों की झों-झों से तंग आ चुका था परंतु फिर भी सभ्‍यता से बोला, ‘हाँ, यह तो सही है। मगर अब तो अस्‍पताल में शायद ही कोई ‘डोनेटर’ मिल पाएगा।’ सहसा उसे अपने उस काम का ध्‍यान आ गया जो इन लोगों के कारण बीच में ही छूट गया था। वह किंचित झल्‍ला कर बोला, ‘जाइए, जाइए, आप फौरन ‘ब्‍लड बैंक’ जा कर कुछ कीजिए। यहाँ वक्‍त खराब करने से क्‍या हासिल?’

उन सबके चेहरे बुझ गए। रक्‍त-परीक्षक की झिड़की से वे दीन-हीन हो उठे। वे वहाँ से उठ-उठ कर चल पड़े और मन ही मन एक-दूसरे को तौलने लगे। शायद वह फिर भूल गए थे कि उनमें से खून किसी को नहीं देना है। सिवाय बुढ़िया के बेटों को छोड़ कर बाकी सबके ब्‍लड ग्रुप भिन्‍न हैं।

हीरालाल ने खून की बात शुरू की और छविनाथ के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘चलो अब इमरजेंसी में तो हम लोगों को कुछ करना ही पड़ेगा।’

एकाएक सबने इधर-उधर कुछ टटोला। उन लोगों के बीच में बुढ़िया का छोटा बेटा हरिनाथ नहीं था। हीरालाल ट्यूटर से बोले, ‘मास्‍साब! आप जरा हरि को तो बुलाइए। मेरा खयाल है, वह ऊपर वार्ड में ही बेंच पर रह गया है।’

मास्‍टर लपकते हुए ऊपर मंजिल में गया और वार्ड के दरवाजे पर अपनी पत्‍नी से खुसुर-पुसुर करते हरिनाथ को बुला कर नीचे ले गया। मास्‍टर के साथ हरिनाथ को आते देख हीरालाल बोले, ‘देखो, ऐसी बात है, भैया, कि ‘ब्‍लड’ तुम अपना ही दे दो। डॉक्‍टर कहता है कि छविनाथ का खून इतनी जल्‍दी नहीं लिया जा सकता। वह तो अभी पिछली बार खून दे भी चुका है।’

हरिनाथ के चेहरे पर भय का भाव उभर आया, लेकिन वह हौसला दिखलाते हुए बोला, ‘हाँ, हाँ, चलो, इसमें ऐसी क्‍या बात है? जब खून कहीं से मिल ही नहीं रहा तो हम ही दे देंगे। क्‍या महतारी के लिए इतना भी नहीं करेंगे?’

सब लोग हरिनाथ के कथन से आश्‍वस्‍त हो गए। हीरालाल छविनाथ और हरिनाथ को ले कर आगे बढ़ गए और बाकी लोग पीछे लौट कर बुढ़िया के पास वार्ड में चले गए।

कोई आधे घंटे बाद बुढ़िया के बड़े दामाद हीरालाल खून की बोतल हाथ में पकड़े हाँफते हुए वार्ड के द्वार पर पहुँचे। वे लिफ्ट से नहीं आए थे, इसलिए तीन मंजिल तक सीढ़ियाँ पार करने में उनकी हँफनी छूट रही थी। वार्ड के दरवाजे पर बैठे जो लोग इधर-उधर की चर्चा में मगन थे, उन्‍हें देखते ही एक साथ उठ कर खड़े हो गए और समवेत स्‍वर में बोले, ‘खून मिल गया?’

हीरालाल तैश में बोले, ‘मिल क्‍या ऐसे ही गया! खून आज फिर छविनाथ ने ही दिया। हरि का तो कहीं पता ही नहीं चला। गया तो हमारे साथ ही था पर बीच में कहाँ उड़ गया कुछ मालूम ही नहीं हो पाया। मैंने और छवि ने भीतर इंतजार करा, जब वह नहीं पहुँचा, तो बेचारे छवि को ही खून देना पड़ा।’ निष्‍कर्ष देते हुए वह अंत में बोले, ‘कुछ नहीं जी। धोखेबाजी कर गया।’

सबने छवि की ओर देखा। वह हीरालाल के पीछे आ कर खड़ा हो गया‍ था। हालाँकि वह शांत और संयत था, लेकिन सब उसके प्रति सहानुभूति व्‍यक्‍त करने लगे। दो-एक लोगों ने उसे पकड़ कर जबरदस्‍ती बेंच पर लिटा दिया।

उन सबको वहीं छोड़ कर हीरालाल खून की बोतल हाथ में लिए वार्ड में घुस गए। हालाँकि खून की बोतल ड्यूटी रूम में बैठे डॉक्‍टर को देनी थी, पर हीरालाल बुढ़िया के बेड के पास जा पहुँचे और औरतों की ओर मुँह करके हाँफते हुए बोले, ‘देखी कमीनी हरकत हरि की? जाने कहाँ भाग गया। खून बेचारे छवि को ही देना पड़ा।’

औरतें, जो बुढ़िया से सं‍बंधित कोई न कोई कार्य कर रही थीं, अपनी व्‍यस्‍तताओं से उबरकर एकदम सर्तक हो गईं। प्राय: सभी बहनें आश्‍चर्य के स्‍वर में बोलीं, ‘अयं! छवि भैया ने खून दिया? कहाँ है छवि?’

और सहसा उनकी अपने बड़े भ्राता के लिए ममता और सहानुभूति उमड़ पड़ी। हीरालाल ने उँगली से संकेत करके बतलाया, ‘होता कहाँ, बाहर बेंच पर पड़ा है।’

इसके बाद हीरालाल ने विस्‍तार से सारी बात‍ समझाते हुए कहा, ‘हम सबके साथ उसने अपने खून की जाँच तो करवा ली, मगर ऐन वक्‍त पर धोखा दे गया।’ बुढ़िया के छोटे बेटे की बहू नीचे झुक कर बेड के नीचे पड़े कपड़े उठा रही थी। उसके चेहरे पर हीरालाल की बात सुन कर ऐसा भाव आया मानो कोई बहुत अनहोनी घटना सहसा टल गई। छविनाथ की पत्‍नी रूक्‍मणी सास के मुँह पर भिनभिनाती मक्खियों को यकायक भूल गई। हीरालाल की बात सुन कर उसने सिर पर दोहत्‍थड़ मारा और चीत्‍कार के स्‍वर में बोली, ‘हाय, मर गई मैं तो, लोगों। देखूँ तो कहाँ पड़े हैं – होश भी है उन्‍हें?’

छवि की पत्‍नी के हाय खाने से सारी बहनें और हरिनाथ की पत्‍नी सहम गईं। उन सबने बुढ़िया की तरफ देखा। उसकी आँखें थोड़ी-‍थोड़ी देर बाद खुल रही थी। और पोपले मुँह से कभी-कभी ‘फुरर्र’ की ध्‍वनि भी निकल रही थी। यदा-कदा आँखें मुलमुला कर वह कुछ अस्‍फुट स्‍वरों में बड़बड़ाती भी थी लेकिन उसकी अस्‍पष्‍ट ध्‍वनि का अर्थ खोजने का उत्‍साह इस क्षण किसी में दिखाई नहीं पड़ रहा था।

बहनों में से किसी ने कहा, ‘छवि तो अपना सरवन कुमार निकला।’ कई कंठों ने इस संज्ञा को सही समझ कर ताईद की।

डॉक्‍टर ने जिस समय खून की बोतल बदली, तो कई मर्द-औरतों ने उस बोतल की ओर देखा जैसे इंतजार की घड़ियाँ इस बार अनिश्चित काल के लिए खिंच गई हो। माँ के सिरहाने बैठ कर मंत्र पढ़ने वाली बेटी माँ को भूल कर अपने बड़े भाई की हालत देखने वार्ड के बाहर चली गई।

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