समय कुछ कह रहा है | रविशंकर पांडेय
समय कुछ कह रहा है | रविशंकर पांडेय
आदमी –
अन्याय कब से
सह रहा है
कर गुजरने को
समय कुछ
कह रहा है।
बंद है वह
जंग खाई आलमारी
कैद होकर
रह गई किस्मत हमारी,
लग रहीं बेकार
अब सारी दलीलें
अब तो पानी
सर के ऊपर बह रहा है।
हो चुकी कितनी
कवायद कदमतालें
हो न पाईं
दिए की वारिस मशालें,
दुधमुहाँ बच्चा
पकड़ता पाँव बरबस
क्यों न उसकी बाँह
कोई गह रहा है।
धूप छनकर
सीकचों से आ रही है
जंगली चिड़िया
प्रभाती गा रही है,
झोपड़ों के बीच
जो तनकर खड़ा था
दुर्ग का वह
आज गुंबद ढह रहा है।