साधो ! प्रेम राग तू साध | बाबुषा कोहली
साधो ! प्रेम राग तू साध | बाबुषा कोहली

साधो ! प्रेम राग तू साध | बाबुषा कोहली

साधो ! प्रेम राग तू साध | बाबुषा कोहली

( प्रेम के सात सुर)

1 .

उनींदरे की सलवट

एक रोज भूगोल की किताब का बाँध तोड़ कर
नदी घर की बालकनी में बह चली
सीढ़ियाँ पीले पहाड़ों में बदलने लगीं
और पछुआ हवाएँ झरोखे पर ठहर सुस्ताने लगीं
सतपुड़ा के बाँस के जंगलों वाली रंग-बिरंगी चिड़िया
दरवाजे पर ठोंगा मारने लगी
लॉन में कायदे से कुतरी गई घास
हरे समंदर की तरह निगाहों के अंत तक फैल गई

मैंने करवट बदली ही थी उस रात
कि हवा का बिस्तर सलवटों से भर गया
उस वक्त चाँद संतूर बजा रहा था
जब बूढ़े मंत्रों के बीच सुनी मैंने कृष्ण की हँसी

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ये महज मौसम की अंगड़ाई नहीं थी
पूरी कायनात में हलचल हुई थी जब पहली बार तुमने मुझे देखा था

तुम मेरे उनींदरे से बनी सलवट हो

2 .

समानार्थी

पहले सात फेरे
तुम उपसर्ग सा चलना
दूसरे सात फेरे प्रत्यय सा चलना
किसी समानार्थी शब्द की तरह जीवन भर रहना

3 .

नृत्य

ज्ञान ने सभ्य बनाया था
प्रेम ने फिर से आदिम बना दिया
सभ्यता के दिनों में ईश्वर किताबों में मृत मिला
आदिम हृदय के भीतर वह नृत्य कर रहा था
बिना थके
निरंतर

4.

श्लेष

धरती के चप्पे-चप्पे तक फैली उजास तुम्हारे नाम का पर्याय
मेरी आत्मा की गहरी गुफा में ध्यानमग्न तुम
सूर्य मेरे !
प्रेम के अलंकारों में श्लेष हो

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5 .

नजर का टीका

हथेली में लगा दिया है मैंने काला टीका
तकिये के नीचे ताबीज रख दिया है
तुम्हारी पीड़ाएँ
तुम्हारा ज्वर
और तुम्हारे आँसू
मैं पानी में घोल कर पी जाऊँगी
मेरे नीले पड़ चुके कंठ को
मत देखो
देखो ! मेरी मुस्‍कान
जो आँख की पुतली और दृष्टि के अनंत तक फैली हुई है

6 .

हमसफर

तुम आठों दिशाओं को रस्सी से बाँध कर एक कोने में पटक देना

दुनिया के बीचोंबीच खिंची विषुवत रेखा को मैं रगड़-रगड़ कर मिटा दूँगी
तुम दिन को दो टुकड़ों में काट कर रख देने वाली निर्मम दोपहर पर
अपने भीतर की ठंडक का लेप कर देना

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नींद और जाग की ड्योढ़ी पर मैं दीये जलाऊँगी
जीवन के अंतिम छोर पर खड़ी मृत्यु की ऊँची दीवार को तुम कुदाल से ढहा देना
मैं ईंट के टूटे टुकड़ों को छोटी-छोटी पुड़िया में सहेज लूँगी
कच्चे चावल से भरे उस कलश को मैं दाएँ पाँव से स्पर्श करूँगी
तुम बिखरे हुए चावल के दाने आसमान में समेटना
हम एक-एक पुड़िया खोलेंगे और एक-एक टुकड़ा जोड़ेंगे

7 .

एक टुकड़ा प्रेम

मैंने तन पर केवल प्रेम पहना है
खुरदुरा फिर भी महीन
यह एक टुकड़ा प्रेम
कभी तो फैल कर आकाश ढँक लेता है
कभी इतना सिकुड़ जाता है
कि सरे-बाजार निर्वस्त्र कर देता है

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