रेत में दोपहर
रेत में दोपहर

रेत धीरे-धीरे गरम हो रही है
कूचियाँ धीरे-धीरे नरम हो रही है

तन चारों और से तप रहा है
मन है कि बार-बार तपती में भूँज रहा है

रेत व मन के बीच
उम्मीद का तनाव है
बार-बार भूजे जाने के बावजूद
मन भीतर रहने को बेताब है

मन के भीतर आकृतियाँ उभर रही हैं
सतह धीरे-धीरे हल्की हो रही है
और अनंत प्रकार की आकृतियाँ उठती चली आ रही हैं

यह रेत का रेत में बिस्तार है
नदी भाप बनकर उठ रही है|
और रेत को अनंत आकृतियों में छोप लेती है

यह दोपहर की रेत है
जहाँ रेत अपनी पूरी मादकता के साथ
शिशिर से खेल रही है
और जब पसीने की बूँदें गिरती हैं रेत में
खुद-ब-खुद एक आकृति उभर आती है

यह कलाकार के पसीने की आकृतियाँ हैं
जिसमें रेत ने अपने को खुला छोड़ रखा है
लगभग निर्वस्त्र होने की हद तक

यह रेत का आमंत्रण नहीं है
यह कूचियों का खेलना है
और रेत है कि अपने असीम आनंद के साथ लेटी है
उत्साही कलाकारों की थाप तले!

दोपहर की चढ़ती धूप तले
जहाँ देह थोड़ी हाँफने लगी है
और नेह के नाते डगमगाने लगे हैं

ये कलाकार हैं जो पिता की भूमिका में
नन्हे नन्हे हाथों को
थोड़ी-थोड़ी काया दे रहे हैं
और थोड़ी-थोड़ी छाया भी!
(‘रेत में आकृतियाँ’ संग्रह से)

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *