रेगिस्तान में झील | आनंद हर्षुल
रेगिस्तान में झील | आनंद हर्षुल

रेगिस्तान में झील | आनंद हर्षुल – Registan Mein Jheel

रेगिस्तान में झील | आनंद हर्षुल

रेत के टीले इसलिए सुनहरे दमकते होते है कि उनके भीतर सूर्य होते हैं। रेत के टीलों की खुदाई करो – वहाँ सैकड़ों सूर्य होंगे।

पत्नी खुश थी। मैं खुश था। बिटिया की ताली थी – नन्ही बिखेरती हुई। हम सूरज को रेत में डूबता देखना चाहते थे। अभी शाम नहीं हुई थी। हमने सूरज को डूबने से पहले पा लिया था। वह आकाश में था – बिटिया के फैले हुए हाथों के घेरे में।

ऊँट पर सवार उस लड़के ने मुझे सबसे पहले छुआ – ‘साहब मेरे ऊँट पर बैठना’…वह मुश्किल से दस या बारह साल का था और ऊँट की पीठ पर उसका बैठना कुछ अजीब-सा था। उसकी आवाज सुनकर मैं चौंका और मुझे हँसी आई। मैं इतने नन्हें ऊँटवाले पर भरोसा नहीं कर सकता था, इससे पहले मैं कभी ऊँट पर नहीं बैठा था।

ऊँट के पास सीधे-साधे आदमी की तरह का चेहरा था जो भय नहीं, जिज्ञासा जगा रहा था। इस दुनिया में सीधे-साधे आदमी से कोई नहीं डरता। अलबत्ता हँसता है, चाहे हँसने की कोई खास वजह न भी हो।

बिटिया की आँखें चमक रही थीं। उसने ऊँट पहली बार देखा था।

ये क्या है? उसने पूछा।

मैंने कहा, ‘ऊँट’…

पत्नी ने कहा ‘कैमल’…

बिटिया हर वस्तु दो नामों के साथ चल रही है। पिता का नाम पूछने पर वह कमल… लोटस तिवारी कहती है और मुस्कुराती है। बिटिया की उम्र दो साल पाँच माह है और वह इतनी समझदार है कि वह फूल को उसकी खुशबू से और चंद्रमा को उसकी रोशनी से पहचानती है। एक बच्चे से कुछ भी बचा पाना मुश्किल होता है। वह सारी चीजों को जानने की इच्छा के साथ होता है। वह हर बँधी हुई पोटली को खोलना चाहता है।

मैं घिर चुका था ऊँट और उन पर सवार शोर से। वे सब जैसे एक दौड़ में शामिल थे। सबसे तेज दौड़कर सबसे पहले मुझ तक पहुँचने की इच्छा उन सबके भीतर थी। यह पेट की दौड़ थी। एक दूसरे को धकलते वे मेरे सामने आ रहे थे। वे जोर-जोर से बोल रहे थे। हर आदमी, अपनी आवाज दूसरे से ऊपर उठा रहा था और इस तरह सारी आवाजें, ऊपर जाकर शोर में बदल रही थीं।

वह लड़का उस भीड़ में अचानक मुझे फिर दिखा। वह एक चोंगे के भीतर था। शायद उसने अपने पिता की कमीज पहन रखी थी जो मैली चीकट थी और उसके घुटने से नीचे तक झूल रही थी। ऊँट की गर्दन के नीचे उसकी आँखें चमक रही थीं।

‘मैंने आपको सबसे पहले कहा था, देखिए।’ उसने मुझे अपनी तरफ देखता पाकर कहा। मैंने चाहा कि मैं मुस्कुराऊँ, पर मैं मुस्कुरा नहीं पाया। मैं घिरा हुआ था। मैं शोर के घेरे को तोड़कर, एक कदम भी आगे भागता तो फिर घेर लिया जाता।

‘अभी नहीं… पहले चाय…’ मैंने कहा, इस उम्मीद के साथ कि अब मैं शोर से मुक्त रहूँगा – कम से कम चाय पीने तक।

‘वहाँ पी लीजिए।’ एक साथ कई आवाजें उठीं और धीरे-धीरे उनका घेरा बड़ा होता गया और फिर बिखरने लगा।

चाय की दुकान एक झोपड़ी थी – जिसकी छत इतनी नीची थी कि बहुत झुक कर, लगभग बैठकर ही भीतर जाना हो सकता था। बाहर शाम की ओर तेजी से सरकती दोपहर थी। झोपड़ी के भीतर, गहरी शाम थी। इतनी गहरी शाम कि थोड़ा-सा उसमें और नीला रंग मिलाओ तो वह रात हो जाए। चूल्हे पर चाय की केतली चढ़ी हुई थी और चूल्हे के सामने एक बूढ़ा बैठ हुआ था – चूल्हे से ताप लेता हुआ और चाय की भाँप लेता हुआ। बुढ़ापे की दमक थी। बूढ़े की बगल में काँच के चार गिलास रखे हुए थे। पाँचवाँ गिलास लुढ़का पड़ा था। बूढ़ा बार-बार लुढ़के पड़े गिलास को कनखियों से देख रहा था, पर उसे सीधा नहीं कर रहा था। बूढ़े ने चाय की केतली को चूल्हे से उठाया और उसे हिलाकर फिर चूल्हे में रख दिया।

‘साहब लोगों को चाय देना।’ मुझसे पहले किसी ने बूढ़े को आवाज दी। बूढ़े ने हमारी ओर सिर उठाकर नहीं देखा। वह उसी तरह बैठा रहा – चूल्हे के ताप और चाय की भाप में मगन। मुझे लगा कि उसने नहीं सुना है। हो सकता है कि बूढ़ा बहरा हो और आदमी के चेहरे से चाय की जरूरत पहचानता हो। मैंने उसे आवाज नहीं दी। मुझे लगा कि वह मुझे नहीं सुन पाएगा।

‘साहब कितने ऊँट चाहिए?’ किसी ने मेरी पीठ से पूछा।

‘परेशान मत करो… चाय के बाद…’ मैंने पीछे मुड़े बिना कहा।

‘दो… तीन… कितने?’

‘कहा न चाय के बाद…’ इस बार मैं पीछे पलटा। मेरी आवाज में चिढ़ और गुस्सा दोनों था। पीछे कई चेहरे थे – आधा भय और आधी उत्सुकता से पुते हुए। मैं नहीं पता लगा पाया कि किसने मुझे ऊँट के लिए पूछा था।

हम पेड़ की शाखा पर बैठे थे जो जमीन पर गड़ी दो लकड़ियों पर टिकी बेंच थी। बिटिया के लिए हम जगह छोड़कर बैठे थे – शाख के दो छोरों पर। वह हमारे बीच की जगह पर थी – हमारे कंधों को छूने का खेल खेलती हुई। वह मेरे कंधे पर अपनी नन्हीं हथेली मारती और पापा कहती और जब मैं उसे देखकर मुस्कुराता तो वह उस छोर पर दिखती जहाँ माँ बैठी है और माँ के कंधे पर हथेली मारकर मम्मा कहती। माँ मुस्कुराती तो वह मेरी ओर वापस आ जाती। अगर हम नहीं मुस्कुराएँगें तो वह उस समय तक अपनी हथेली से हमारे कंधों को थपथपाती रहेगी जब तक कि हम उसके लिए मुस्कुरा कर खुश न हो जाएँ। बिटिया हमें खुश रहना सिखा रही है।

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‘आप मुसलमान हैं?’ मैंने साफ-साफ सुना। वह ऊँटवाला लड़का मेरी पत्नी के पास खड़ा पूछ रहा था।

पत्नी ने मेरी तरफ देखा। मैं मुस्कुराया। पत्नी की आँखों में शरारत चमकी। शरारत ने कहा, ‘हाँ।’

‘तब तो आप मेरे ऊँट पर बैठना… हाँ मैं भी मुसलमान हूँ…’ लड़का पत्नी को समझा रहा था।

पत्नी के सिर पर सिंदूर की छोटी, पर गहरी रेखा चमक रही थी। लड़का शायद इसका अर्थ नहीं समझता था या वह उस रेखा को नहीं देखा पा रहा था। पत्नी मुस्कुरा रही थी और लड़का उस मुस्कुराहट के भीतर था।

‘और तुम्हारा ऊँट?’ अचानक मैंने लड़के से पूछा।

‘ऊँट क्या?’ लड़का चौंका।

‘मुसलमान है या हिंदू?’

लड़का सोच में पड़ गया। यह उसकी उम्र के हिसाब से कठिन सवाल था, पर लड़का इसे हल करना चाहता था। लड़के के आसपास से ऊँटवालों की हँसी उठी और लड़का उसमें डूब गया। लड़के को पता नहीं था कि वह हँसी में डूबा हुआ है। लड़का हँसी के भीतर सोच में डूबा हुआ था।

‘ऊँट… मुझे मालूम नहीं, पर वह हमारे साथ रहता है…’ लड़के ने कुछ देर सोचने के बाद कहा।

ऊँट का कोई धर्म नहीं था। वह जिस धर्म के मालिक के पास रहता, उस धर्म का हो जाता। ऊँट को धर्मग्रंथ नहीं पढ़ना पड़ता था। मालिक पढ़ता और वह सुन लेता। ऊँट के किसी भी मालिक ने, ऊँट के धर्म को लेकर चिंता नहीं की। उनकी चिंता सिर्फ इतनी रही कि ऊँट मजबूत कद-काठी का है या नहीं… कितनी लंबी यात्राएँ कर सकता है… कितना बोझ ढो सकता है? ऊँट के साथ यह अच्छी बात है कि वह चाहे हिंदू मालिक के पास रहे या मुसलमान मालिक के पास, वह ऊँट बचा रहता है। पर मनुष्य, मनुष्य नहीं बचा रह पाता। वह पैदा होता है और मुसलमान या हिंदू या ईसाई या सिख हो जाता है -लड़के के ऊँट ने इस तरह सोचा और उसे ऊँट होने पर संतोष हुआ।

‘सुनो। हम इसके ऊँट पर बैठेंगे,’ पत्नी ने इस आवाज में कहा कि सारे ऊँटवाले सुन लें। पत्नी का हाथ लड़के के कंधे पर था। पत्नी के हाथ के ठीक ऊपर लड़के का चमकता चेहरा था।

मुझे लगा पत्नी ने यह ठीक किया। क्योंकि अब हम शोर के घेरे से बाहर थे। अब हमारे हाथ में चाय थी और हमारे साथ वह ऊँट वाला लड़का था जो अब भी लगातार मुस्कुरा रहा था। वह खुश था।

‘तुमने इससे पैसों की बात की?’ मैं पत्नी के कान में फुसफुसाया। मैं नहीं चाहता था कि लड़का सुने। लड़का सुनता तो मैं छोटा हो जाता।

‘नहीं तो…’

‘तुम्हारी इसी तरह की बेवकूफियाँ मुझे नापसंद है… और यह बच्चा है… यह चला लेग ऊँट?’

‘वह कहता है चला लेगा…’

‘और नहीं चला पाया तो? मैं दुर्घटनाओं से डरता हूँ। मैं मरने से डरता हूँ। मुझे यह सोचकर अच्छा लगा कि रेत पर गिरने से शरीर इस तरह घायल नहीं होगा कि मैं मर जाऊँ।

‘कितना लोगे?’ मैंने लड़के से पूछा।

‘बीस।’

‘दस।’

‘ठीक है’ लड़के ने कहा। मुस्कुराहट उसके ओठों पर आते-आते रह गई थी। मुझे मजा नहीं आया। मैंने सोचा वह बीस पर अड़ा रहेगा और मैं दस पर। और फिर मैं उससे पंद्रह में मामला तय कर लूँगा।

हम जब यात्रा पर होते हैं – ऐसी यात्रा पर जो हमें अपरिचितों से अपरिचितों तक पहुँचाती है, इतनी जगह चालाकियों में फँस चुके होते हैं कि किसी एक जगह की सहजता हमें चौंकाती और डराती है।

ऊँट बैठा था – सजा धजा। ऊँट के स्वप्न में, मीठे पानी की झील थी। ऊँट हमेशा यात्रा के लिए तैयार रहता था। उसे लगता बस, इस यात्रा के बाद, वह मीठा पानी पी लेगा और सारी यात्राओं का अंत हो जाएगा। ऊँट का स्वप्न, रेगिस्तान में अचानक झील के प्रकट हो जाने का स्वप्न था। क्योंकि वर्षों से ऊँट, जिस दूरी तक यात्रा करता आ रहा था, वह अब तक नहीं बढ़ी थी। दूरी उससे आगे नहीं बढ़ सकती थी। एक कदम और आगे बढ़ाओं तो दूसरा देश लग जाता था – डर था और मौत थी। ऊँट को कभी-कभी यह लगता कि क्यों न वह दूसरे देश भाग जाए, शायद उस देश के रेगिस्तान में, मीठे पानी की झील हो। पर ऊँट यह भी सोचता कि आखिरकार वह दूसरा देश है। पता चला कि आपने मीठे पानी झील खोजी और आप ही उसका पानी न पी पाएँ… कि आप किसी और देश के हैं… कि इस देश में घुसपैठिए हैं। ऊँट को अपने ही देश में, मीठे पानी की झील खोजना ठीक लगता है।

लड़का ऊँट के पास गया और उसकी बगल को सहलाया। आइए बैठिए, वह ऊँट के पास से चिल्लाया। लड़का अभी ऊँट से बड़ा था। ऊँट को भी यह बात अजीब लगती कि लड़का जब चाहता अपनी उम्र को बड़ा कर लेता है और जब चाहता है एक बच्चे में बदल जाता है।

हम बैठे हुए ऊँट पर बैठ गए। बिटिया पत्नी की गोद में थी और ताली बजा रही थी। बिटिया की तालियों से खुशी झर रही थी।

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‘ठीक से पकड़कर बैठिए जोर से…’ लड़के ने कहा। उसने ऊँट को पता नहीं कहा छुआ कि वह अपने सामने के पैरों पर उठ खड़ा हुआ। मैंने काठी कस कर नहीं पकड़ रखी होती तो मैं गिर पड़ा होता। बस एक क्षण लगा और ऊँट चारों पैरों पर खड़ा था और हम पृथ्वी से ऊपर थे।

रेत के टीलों पर हवा की धारियाँ थीं – लहरदार। धारियाँ टीलों का सौन्दर्य थीं। लड़के के पैर रेत पर तेज थे – हवा की धारियों पर अपने निशान छोड़ते हुए। लड़के को मालूम था कि वह हवा के लिए काम बढ़ा रहा है। थोड़ी दूर जाने के बाद लड़के ने अपना बायाँ जूता उतारा और उसे उलट दिया – जूते से रेत झरने लगी। उसके बाएँ जूते में छोटा सा सुराख था, जिससे रेत जूते और पैर के बीच आकर ठहर रही थी। लड़का रेत का आदी था। रेत उसकी झोपड़ी की छत से झरती। लड़का रात बिना कुछ ओढ़े सोता तो सुबह रेत की चादर ओढ़ा हुआ होता। कभी-कभी तो किसी रात, बहुत तेजी से रेत दरवाजे को धकेलते भीतर आती। और घर के सारे लोग गहरी नींद से चौंककर उठ जाते और फड़फड़ाते कपड़ों के साथ जागते रहते। पर जूते के भीतर रेत… अजीब-सी गुदगुदी होती है… उड़ जाने की इच्छा होती है। अगर लड़का उड़ा सकता तो उसके पास रेगिस्तान में भटक जाने का भय नहीं होता। अगर ऊँट उड़ सकता तो भी लड़का उड़ सकता था।

‘तुम्हारा नाम?’ मैंने पूछा।

‘रशीद… रशीद खान।’ उसने जूता पहनते हुए कहा।

‘पढ़ते हो?’ पत्नी ने पूछा।

‘हाँ…’ वह हँसा।

‘स्कूल से आकर यह काम करते हो?’

‘रोज नहीं… अब्बा आते हैं।’

‘कितने भाई बहन हो?’ पत्नी को उससे बतियाना अच्छा लग रहा था।

‘पाँच।’

‘तुम सबसे बड़े हो?’

‘हाँ… धूप सरक रही है तेज चलना होगा।’ उसने कहा।

रशीद के पीछे-पीछे ऊँट, अब रेत के टीले पर चढ़ रहा था। आगे टीलों पार ऊँटों और लोगों की भीड़ थी। यह जगह बहुत दूर नहीं थी। पर रेत पर दौड़ना, बस रशीद और उसके ऊँट के लिए आसान था। जो रेगिस्तान को नहीं जानते, उनके लिए रेगिस्तान आसान नहीं होता है।

‘पापा, बहुत से ऊँट… कैमल…’ बिटिया ने कहा। वह अपनी माँ की बगल से झाँक रही थी। मैं मुस्कुराया। बिटिया ऊँट पर बैठी और इतने सारे ऊँटों को देखती हुई पहली बार थी। हो सकता है उसे यह सब याद रहे। मेरे बचपन में मेरे पिता बाहर की चीजें, कभी खाने नहीं दिया करते थे और जब एक यात्रा में रेलगाड़ी एक जगह रुकी तो वे उतरे और वापस आए तो उनके हाथ में बिस्किट था – गुलाबी रंग का गोल और खूबसूरत।

यह तीस साल पुरानी घटना है और मुझे वह वैसी ही याद है कि यह डोंगरगढ़ स्टेशन है… कि अभी उन्होंने बिस्किट मेरी और बढ़ाया है और मैंने उसे लिया है। मैं सोचता हूँ और उस बिस्किट का स्वाद मेरे मुँह में होता है। वह मेरे जीवन में दुनिया का सबसे स्वादिष्ट बिस्किट है। बिटिया के पास वह बिस्किट नहीं है। वह राजकुमारी है। ताली बजाती है तो इच्छाएँ हाजिर हो जाती हैं। पर ऊँट, ताली बजाने से घर में हाजिर नहीं किया जा सकता और इसलिए हो सकता है कि बिटिया को ऊँट याद रहे, जैसे मुझे पिता का दिया बिस्किट याद है।

‘वह देखो सूर्य… वह सरक रहा है…’ मैंने चौंकते हुए पत्नी से कहा। मैंने अचानक उसे देखा था। मैं ऊँट पर था और सूर्य वहाँ था, जहाँ आसमान रेत से मिला हुआ था।

‘हाँ… कितना सुंदर…’ पत्नी की आवाज में, सरकते सूर्य का जादू घुला हुआ था। थोड़ा और आगे चलते हैं। रशीद ने कहा और वह दौड़ने लगा। ऊँट भी दौड़ने लगा। वह खुश था कि हम खुश थे। सूर्य को डूबने से पहले, करीब से पकड़ना था।

‘यहाँ से ठीक रहेगा,’ रशीद ने कहा।

‘नहीं उधर चलो… थोड़ा और आगे…’ मैंने कहा।

रशीद फिर दौड़ने लगा… ऊँट फिर दौड़ने लगा।

‘हाँ यह जगह ठीक है,’ रशीद ने कहा।

ऊँट बैठ गया। बिटिया के हाथों में रेत थी। बिटिया को डूबते सूर्य से कुछ नहीं चाहिए था। वह हथेलियों में बहती रेत की गुदगुदी से खेलने लगी। पत्नी और मैं सूर्य को, रेत में डूबता देखते रहे। वह रेत के टीलों के बीच था – लाल जादू बिखेरता हुआ। कुछ क्षणों बाद मुझे लगा कि मैं बिटिया को भूल रहा हूँ और यह अच्छी बात नहीं है कि वह सूर्य का जादू देखने से चूक जाए। मैंने बिटिया को गोद में उठाया। रेत अब भी उसके हाथों में थी। अँगुली से मैंने डूबते सूर्य की ओर इशारा किया। वहाँ लाल रंग बिखरा पड़ा था। बिटिया के हाथ, सारा रंग समेटने को फैल गए। हाथों से रेत फिसलती गई। पत्नी मुग्ध थी। हम तीनों की हथेलियाँ सूर्य के लाल रंग में रँगी हुई थीं।

सूर्य रेत में डूब चुका था। हम गहरी शाम के भीतर थे। यहाँ सूर्य हमें छोड़ गया था – अकेला और बेहोश।

‘वह कहाँ गया।’ बिटिया ने पूछा, जैसे किसी ने उसका खिलौना छीन लिया हो।

‘वह अपने घर गया बेटे।’

‘अपनी मम्मी के पास…’

‘हाँ…’

‘वह फिर नहीं आएगा?’

‘सुबह आएगा।’

‘वह सोने गया है?’

‘हाँ…’ मैं बिटिया के सवालों से बचना चाहता था। उनका कोई अंत नहीं था। वे झरने की तरह लगातार गिरते थे और भिगा जाते थे। मैंने उसे अपनी गोद से उतार दिया। मैं जानता था कि नीचे रेत का समुद्र है और एक नन्ही चिड़िया उसमें तैर सकती है और रेत उसके पंखों पर उड़ सकती है।

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‘बशीर को सुनेंगे?’ मैं उस लड़के को भूल चुका था, जिसका नाम रशीद था और अब वह फिर मेरे सामने था, सूर्य के जादू को पूरी तरह खत्म करता हुआ’ …बहुत अच्छा गाते हैं… वे रहे… मैं अभी बुलाकर लाता हूँ…।’

उसने मेरी ‘हाँ’ का इंतजार नहीं किया। उससे पहले ही वह दौड़ चुका था। वह पहले फिसलते हुए नीचे उतरा और फिर रेत पर चढ़ने लगा। मैंने उस तरफ देखा – वे चार थे। बशीर पास आते ही मुस्कुराए। उनकी मुस्कुराहट में था कि वे बशीर हैं और अच्छा गाते हैं। चार बशीर।

कितना लेंगे? मेरे निम्न मध्यमवर्गीय भय ने पूछा।

‘दे दीजिएगा अपनी इच्छा से।’ बशीर फिर मुस्कुराए

वे बैठ गए – हवा से काँपती और सूर्यास्त के बाद नीली होती रेत पर। और फिर रेत का थरथराना नहीं थमा। वह बढ़ता ही गया। बशीर की आवाज के नीचे रेत सिहरती रही। नर्म धूप-सी उजली, पर खनकती हुई आवाज। बिटिया ठुमकने लगी। बशीर गाते-गाते मुस्कुराने लगे।

बशीर ने गाना बंद किया और सन्नाटा छा गया। यह दूसरा जादू था। आवाज का जादू। मैं उससे बाहर नहीं आ पाया था कि किसी ने पीछे से मेरे कंधे को छुआ, थोड़ा हटिएगा। आवाज में आग्रह उतना नहीं था, जितना आदेश था। मैं चौंककर पलटा, तो कोई साहब-आदमी था, जिसके कंधे पर वीडियो कैमरा और बगल में चुस्त जींस और टी शर्ट के साथ पत्नी थी।

‘थोड़ा गाओगे… मैं शूट करना चाहता हूँ…’ उस साहब-आदमी ने बशीर से कहा। बशीर फिर शुरू हुए। उन्होंने दो-तीन पंक्तियाँ गाईं। कहीं कोई थरथराहट नहीं उपजी। रेत मरी-सी पड़ी रही। बशीर जैसे, बस बटन दबाने के बाद बज रहे हो।

‘बस रहने दो।’ साहब ने कहा, ‘इतने से काम चल जाएगा।’

साहब की पत्नी के चेहरे पर मरी हुई रेत थी। वह बशीर के पास गई और सौ का एक नोट उसकी ओर बढ़ाया। नोट साहब की पत्नी के हाथ से फिसल गया। (मेरे ख्याल से उसने उसे फेंका नहीं था।) नोट उड़ कर रावण हत्थे के तार पर चिपक गया। साहब आदमी फड़फड़ाते नोट को शूट करने के लिए दौड़ा। पर नोट रावण हत्थे को छोड़कर रेत पर भागने लगा।

मैं बशीर के पास गया। मैंने झेंपते हुए, उनकी ओर कछ रुपये बढ़ाए जो सौ से बहुत कम थे। वे मुस्कुराए। मुझे लगा मैं बेवजह झेंप रहा था।

रेत के टीलों में अँधेरा उगने लगा था और ऊँट दौड़ने लगे थे। अब ऊँट पर बैठते हुए मैं भयभीत नहीं था। काली होती रेत में रशीद ने वापसी की यात्रा शुरू की। वह सारे लौटते हुए ऊँटों से आगे हो जाना चाहता था। वह दौड़ता और चलता… वह फिर दौड़ता और फिर चलता। जीवन अपने सबसे ताजेपन में बच्चों के पास होता है। वह मेरी गोद में भी था – खिलखिलाता हुआ और खनकती आवाज में मुझसे बतियाता हुआ।

ऊँट से उतरते ही, मुझे लगा कि मैं थका हुआ है। पत्नी की चेहरे में भी थकान थी। रशीद अपने पपड़ाए होंठों के बावजूद ताजा था। उसके पास खिलते फूल की मुस्कान थी। फूल जो धूल के बावजूद चमक रहा था। बिटिया मेरी गोद से उतरकर दौड़ने लगी। मैं उसे पकड़ने भागा।

पत्नी मेरे पास आई। उसने मुझसे कहा, ‘इसे कुछ ज्यादा दे दें। अच्छा लड़का है।’

मैं मुस्कुराया। हम रशीद के पास गए। वह ऊँट की काठी सहेज रहा था।

‘यह लो।’ पत्नी ने कहा।

रशीद ने नोटों को देखा फिर हमारी ओर देखा कि कहीं हम कोई भूल तो नहीं कर रहे हैं।

‘रख लो।’ पत्नी ने कहा।

‘अच्छा सलाम।’ रशीद खुश था, ‘फिर आइएगा। जब भी इधर आएँ जैसलमेर… मेरा नाम रशीद है… भूलिएगा नहीं…’

‘सुनो।’ पत्नी ने कुछ दूर तक चले आने के बाद अचानक रशीद को पुकारा। वह पास आया मुस्कुराता और खुश। पत्नी ने कहा, ‘एक बात कहूँ। हम मुसलमान नहीं हैं।’

‘मैंने समझा… आपने ही तो कहा था,’ रशीद झेंप गया। चेहरे से सारी खुशी फिसलकर गिर पड़ी।

‘वैसे ही… इससे क्या फर्क पड़ता है… है.. न… यह बड़ी बात है तुम एक अच्छे लड़के हो… मेहनती और ईमानदार…’ पत्नी ने उसे समझाया। शायद उसका चेहरा देखकर पत्नी को लगा होगा कि एक सही बात, गलत समय और गलत जगह पर बोली जा चुकी है, जैसा कि मुझे लग रहा था। कुछ सत्य न बोले जाने के लिए होते हैं, उन्हें वहीं पड़े रहने दिया जाना चाहिए जहाँ वे होते हैं – बिना छुए। वे ऐसे सत्य होते हैं कि सिर्फ दुखी करते हैं।

‘हाँ कोई फर्क नहीं…’ रशीद ने तुरंत अपने को सँभाल लिया।

वह फिर मुस्कुराने लगा। वह मेरे करीब आया – बिटिया के पास और उसके गालों को थपथपाया। बिटिया हँसती रही और रशीद हँसता रहा। रेत के टीलों के नीचे दबे हजारों सूर्य बाहर आने लगे। रेगिस्तान रोशनी से भर गया।

ऊँट चौंक कर खड़ा हो गया, ओफ! यह रोशनी! कहीं यही तो मीठे पानी की झील नहीं है!

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