राष्ट्र-द्रोही | बसंत त्रिपाठी
राष्ट्र-द्रोही | बसंत त्रिपाठी

राष्ट्र-द्रोही | बसंत त्रिपाठी

राष्ट्र-द्रोही | बसंत त्रिपाठी

सुकून की केवल इतनी जगह चाहिए
कि खड़ा हो सकूँ बेखौफ
डरूँ ना कि कोई निकल जाए कुचलकर

थोड़ी-सी छाया हरे दरख्त की
भले मुझ पर न पड़े
दिखे आस-पास
और गिलहरी गर दीख जाए
तो क्या कहने

See also  धन्यवाद चींटियों धन्यवाद!! | अभिज्ञात

बस इतनी-सी जगह कि
आसमान देखूँ पल भर तो
चौंका न दे कोई भागती मोटर

कोई ठंडा झोंका हवा का
सहलाए पुचकारे
इस शहर में
बस इतनी-सी ही जगह चाहिए

यह चाहना कोई गुनाह तो नहीं है
फिर क्यों मुझे
अपराधी की तरह देखते हो
और कानून की किताबों में ढूँढ़ने लगते हो
मेरे लायक कोई सजा

See also  एक स्‍वर | प्रेमशंकर मिश्र

2

मैं सड़क को
सड़क की तरह देखता हूँ
गड्ढों को गड्ढों की तरह

सब्जियों की बढ़ी कीमतों से
परेशान होता हूँ
और आत्महत्याओं से दुखी

मैं स्त्रियों को यौन-शुचिता के प्रतीक की तरह
नहीं देखता
और विनायक सेन, उसके बारे में तो कुछ नहीं कहता
माना कि भीतर ही भीतर कुढ़ता हूँ
आखिर सचिन तेंदुलकर के भारतरत्न मसले पर
मैं चुप हूँ
तो जाहिर है कि आपकी नजर में
राष्ट्र-द्रोही ही हूँ

See also  जन्मदिन की ड्रेस

क्या आपके सबसे बड़े लोकतंत्र की किताबों में
मेरे लायक कोई सजा है?

Leave a comment

Leave a Reply