रामकली | रमेश पोखरियाल
रामकली | रमेश पोखरियाल

रामकली | रमेश पोखरियाल – Ramkali

रामकली | रमेश पोखरियाल

बड़े अस्पताल में लगी लंबी सी लाइन देख रामकली ने गहरी साँस ली। इससे तो उसके गाँव का छोटा अस्पताल ही अच्छा। इतनी भीड़ तो नहीं होती है वहाँ। यह अलग बात है कि उस गाँव के अस्पताल में डॉक्टर के दर्शन कभी-कभार ही होते हैं। गाँव वालों की बीमारियों का इलाज तो वहाँ पर नियुक्त कंपाउंडर ही कर डालता है। डॉक्टर से ज्यादा तो उस कंपाउंडर को भगवान मानते थे गाँव के लोग।

लेकिन यही ईश्वर स्वरूप कंपाउंडर तब हाथ खड़े कर देता जब बीमारी उसकी पकड़ से बाहर हो जाती।

‘अब तो डॉक्टर साहब आएँगे वही बता पाएँगे कि क्या हुआ है तुम्हें।’ कंपाउंडर लाचारगी से कहता।

‘वह क्या आपसे बड़े डॉक्टर हैं? हमारे लिए तो तुम ही बड़े डॉक्टर हो।’ भोले-भाले गाँव वालों की समझ में नहीं आता कि वह ऐसा क्यों कह रहे हैं। जब बहुत दिनों तक डॉक्टर साहब के दर्शन नहीं होते कंपाउंडर उन्हें शहर के बड़े अस्पताल की राह दिखाता।

ऐसा ही किया उसने इस बार रामकली के साथ। रामकली की समझ में नहीं आया कि दो बच्चों को ठीक-ठाक जन्म दे चुकी रामकली में उसे ऐसी कौन सी गंभीर बीमारी नजर आई जो उसे शहर के अस्पताल भेज दिया।

‘ये परचा लिखे दे रहे हैं शहर के डॉक्टर बाबू के लिए। उन्हें दे देना वह तुम्हारी जाँच अच्छे से कर देंगे।’

रामकली अभिभूत हो उठी। डॉक्टर बाबू कितना खयाल रखते हैं उसका। कहाँ वह एक अदने से ट्रक ड्राइवर की पत्नी और कहाँ वह इतने बड़े डॉक्टर।

रामकली जब पाँच वर्ष की ही थी तो गाँव में फैली महामारी में माता-पिता दोनों चल बसे। रह गई नन्हीं रामकली और उसका छोटा भाई जो तब दो वर्ष का ही था।

दुनिया की शर्म की खातिर चाचा-चाची ने दोनों बच्चों को पाला लेकिन रामकली का भाई माता-पिता से बिछोह सहन नहीं कर पाया और एक वर्ष होते-होते वह भी चल बसा। इस भरे-पूरे संसार में रामकली का अपना कहने को कोई न था।

पंद्रह वर्ष की हुई तो उसका विवाह कर चाचा-चाची ने भी उससे पीछा छुड़ाया। पति सुमेरू ट्रक ड्राइवरी करता था। उसका भी इस दुनिया में कोई न था इसलिए तीस बरस की उम्र होने तक भी उसके लिए कोई रिश्ता न आया। ट्रक ड्राइवरी के चलते वह अक्सर घर से बाहर ही रहता। रामकली के चाचा को जब किसी ने सुमेरू के बारे मे बताया तो वह तुरंत उससे रिश्ता करने को तैयार हो गए।

अपनी गरीबी और रामकली को पालने के बहाने कुछ पैसे भी ऐंठ लिए उन्होंने सुमेरू से। घर बस जाने की फिक्र में सुमेरू ने उसकी हर शर्त मंजूर कर ली और रामकली सुमेरू की दुल्हन बन अपनी ससुराल आ गई।

पंद्रह वर्ष की रामकली न तो पति का मतलब समझती थी और न ससुराल का। लेकिन काम करने की खूब आदत थी उसे। यों तो सुमेरू ने पैसा खूब कमाया था लेकिन अकेला होने के कारण घर की ओर ध्यान न दिया। जो कमाया वह खाने-पीने में गँवाया। रामकली ने आते ही सुमेरू की टूटी-फूटी झोपड़ी को लीप-पोत कर साफ-सुथरा बना दिया। विवाह के बाद सुमेरू बस पंद्रह दिन घर पर रहा और बचपन से अपनों के प्यार को तरसती रामकली के जीवन में स्नेह का नवसंचार कर गया।

एक वर्ष बीता। रामकली ने सोलह वर्ष की कच्ची उम्र में एक बालक को जन्म दिया। सुमेरू खुश था, बहुत खुश। उसका जीवन व्यवस्थित हो चला था। अपना कहने को थे उसकी पत्नी और उसका बच्चा। ब्याह से पहले जहाँ सुमेरू अक्सर घर से बाहर ही रहता, ब्याह के बाद वह ज्यादा से ज्यादा घर रहने के बहाने ढूँढ़ता। ड्राइवरी का ये पेशा कभी-कभी उसे बेहद खलने लगता। एक शहर से दूसरे शहर ट्रक दौड़ाते-दौड़ाते कभी-कभी घर पहुँचे महीनों हो जाते। कभी कुछ ही दिनों बाद अपने ही गाँव के पास माल पहुँचाने का आदेश मिलता तो सुमेरू खुशी से फूल उठता।

कभी उसे लगता कि क्यों विवाह के बंधन में पड़ा। पहले का ही जीवन अच्छा था। जहाँ चाहे जाओ, जहाँ चाहे रहो। कोई कुछ कहने वाला नहीं, कोई सुनने वाला नहीं। न उसे किसी की प्रतीक्षा थी न कोई उसकी प्रतीक्षा करता। उसकी जैसी नौकरी वाले को तो ब्याह ही नहीं रचाना चाहिए।

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रामकली के गर्भवती होने का पता भी उसे छह माह बाद चला। इस बीच अकेली रामकली अपने अंदर आए परिवर्तनों को झेलती रही। कभी-कभी तो वह यों ही सुध-बुध खोकर पड़ी रहती। न कुछ खाने का मन करता न काम करने का। गाँव की ही बड़ी बूढ़ियों की निगाह उस पर गई तो उन्होंने उसे समझाया। रामकली को भी तभी पता चला कि उसे क्या हुआ है। वह उत्साह से भर उठी। पति का ध्यान आया। कैसे और कब दे पाएगी वह उसे ये खुशखबरी। जब तक रामकली के मन में इस बात को बताने का उत्साह रहा तब तक सुमेरू घर न आया और जब वह घर आया तब तक रामकली के मन का उत्साह फीका पड़ चुका था।

बच्चे के जन्म की तिथि समीप आई तो रामकली घबरा उठी।

‘तुम यहीं रुक जाते कुछ दिन।’ उसने डरते-डरते पति से कहा।

‘कुछ दिन, मतलब कितना दिन?’

‘जब तक बच्चा होगा, तब तक।’

‘उसमें तो देर है अभी। क्या बतलाया दाई ने?’

‘पंद्रह दिन बाद कभी भी।’

‘पंद्रह दिन! पागल है क्या तू? कैसे रह पाऊँगा मैं इतने दिन। मालिक ने कहा है दो दिन बाद ही कलकत्ता जाना है माल लेकर।’

सुमेरू चाह कर भी न रुक पाया और तब लौटा, जब उसका बच्चा एक माह का हो चुका था।

जैसे-जैसे समय बीतता गया रामकली को इसकी आदत सी पड़ने लगी। लेकिन घर गृहस्थी की आदत में आ चुके सुमेरू के लिए घर से अलग रहना दंडस्वरूप होता। और घर की, रामकली की यही यादें भटकाव बनकर उसे कभी न खत्म होने वाले लंबे-लंबे हाइवे पर बने ढाबे पर ले जाती। जहाँ खाने-पीने के अलावा और भी बहुत कुछ उपलब्ध था।

कुछ वर्ष और बीत गए लेकिन जीवन का ढर्रा न बदला। रामकली अब दो बच्चों की माँ थी और उसने अपने इस जीवन से सामंजस्य बिठा लिया था। लेकिन पिछले कुछ दिनों से रामकली महसूस कर रही थी कि सुमेरू का शरीर क्षीण होने लगा था।

लाल सुर्ख गबरू जवान सुमेरू का चेहरा पीला पड़ने लगा था तो काया की कांति भी कहीं विलीन हो रही थी। ट्रक ड्राइवरी की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी सदा मस्त रहने वाले सुमेरू ने अपने खाने-पीने का सदा ध्यान रखा था। इसलिए उसकी सेहत पर कभी कोई विपरीत असर न होने पाया, लेकिन अब क्या वह अपना ध्यान नहीं रख पा रहा था। क्या कमाई का एक बड़ा हिस्सा घर पर देने के कारण उसे अपने लिए खर्च की कमी पड़ रही थी। या फिर कोई और बात थी।

पिछली बार भी जब सुमेरू घर आया था तो घर आते ही बुखार ने उसे घेर लिया और गले की तीव्र पीड़ा ने उसे कुछ खाने भी न दिया। इस बुखार के चलते उसे लगभग दस दिन अपने काम का हर्जा करना पड़ा था। गाँव के कंपाउंडर की दवाई से वह ठीक तो हो गया लेकिन कमजोरी न गई।

इसी वक्त पर रामकली को अपने अंदर एक नवजीवन के आगमन का फिर से आभास हुआ। स्वास्थ्य योजनाओं के प्रचार-प्रसार के चलते ग्रामीण महिलाएँ गर्भावस्था के दौरान क्या सावधनियाँ अपनाएँ, इसका ध्यान रख ही लेती है। इसी जागरूकता के चलते रामकली भी दो तीन बार स्वास्थ्य केंद्र जाकर कैल्शियम, आयरन की गोलियाँ ले आई थी। वह तो पूरी तरह स्वस्थ थी लेकिन इस बाद सुमेरू आया तो उसकी हालत और भी बदतर थी। पिचके गाल, धँसी हुई आँखें, निरंतर रहने वाला हल्का-हल्का बुखार, गले में दर्द और इसके साथ कुछ ही दिनों में उसके शरीर पर चकत्ते से उभर आए थे। रामकली परेशान हो उठी। ये क्या हो गया उसके पति को? तुरंत उसको ले गाँव के अस्पताल पहुँची। कंपाउंडर ने सुमेरू को देखा तो एकबारगी तो उसे पहचान भी न पाया।

‘तुम तो बड़े अस्पताल जाओ सुमेरू। तुम्हारी खून जाँच करनी पड़ेगी। तभी पता चलेगा कि तुम्हें हुआ क्या है?’

‘लेकिन डॉक्टर साहब तनिक हाथ लगाकर तो देखो कितना बुखार है इसे। सारा बदन जल रहा है और देखो ये फफोले जैसे क्या बन गए हैं इसके शरीर पर?’

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लेकिन रामकली के कहने पर भी कंपाउंडर ने हाथ लगाकर नहीं देखा। उसकी निगाहों के भाव भी अच्छे नहीं लगे रामकली को।

कुछ रंगबिरंगी गोलियाँ और पीने की दवाई ले रामकली और सुमेरू वापस चले आए। जाते हुए भी कंपाउंडर बाबू सुमेरू को बड़े अस्पताल में दिखवाने की बात कहना न भूले।

तीन-चार दिन की दवाई खाने के बाद सुमेरू की हालत थोड़ी सी सुधर गई। रामकली ने उसे बड़े अस्पताल जाकर खून जाँच करने की बात याद दिलाई।

‘इस बार माल लेकर दिल्ली जाना है। वहीं बड़े अस्पताल मे दिखवा दूँगा।’ कहकर सुमेरू चला गया लेकिन महीने तक उसे फुरसत न मिली।

और इसी बीच रामकली अपनी दवाई के लिए अस्पताल गई तो कंपाउंडर ने उसे थोड़ी ही दूर कस्बे में स्थित बड़े अस्पताल दिखाने को कहा।

‘अपनी पुरानी सारी पर्ची ले जाना और मेरी चिट्ठी भी ले जाना। आसानी रहेगी।’

‘लेकिन ऐसी क्या बात है डॉक्टर बाबू जो मुझे बड़े अस्पताल जाना पड़ेगा। सब कुछ तो ठीक ही लग रहा है।’

‘तू डॉक्टर है या मैं? मुझे ठीक नहीं लग रहा इसलिए कह रहा हूँ। दिखा दे अपने आप को और जाँच भी करा ले। और हाँ सुमेरू की कोई खबर आई क्या? कैसा है वह अब?’

‘नहीं कोई खबर नहीं।’

और अपने डॉक्टर बाबू की सलाह मान रामकली बड़े अस्पताल चली आई। गाँव से लगभग पंद्रह कि.मी. दूर था ये कस्बा। धूल भरी सड़कों पर खटारा बसें चलती, जिसमें कुछ लोग तो दरवाजे और बस के पीछे की सीढ़ी पर लटके रहते। रामकली की हालत देखते हुए एक युवक ने उसके लिए सीट खाली कर दी। रामकली ने राहत की साँस ली। वैसे भी आठवाँ महीना चल रहा था उसे।

यहाँ आकर उसने अस्पताल में लगी भीड़ देखी तो घबरा गई। वह तो अच्छा हुआ कि साथ में वह गाँव की ही एक महिला को और ले आई थी जो पूर्व में भी इस अस्पताल में आ चुकी थी और वहाँ के तौर तरीकों से परिचित थी।

रामकली ने अपनी पर्ची बनवाई और डॉक्टर के कमरे में जमा करवा दी।

‘अंदर से तुम्हारा नाम पुकारेंगे तभी जाना तुम।’ साथ आई महिला ने समझाया।

डॉक्टर के कमरे के बाहर दो बेंच रखी थी लेकिन दोनों खचाखच भरी थी। कुछ मरीज खड़े थे, कुछ टहल रहे थे तो जो दोनों स्थिति में नहीं थे वह वहीं बरामदे में बैठे हुए थे। रामकली भी बरामदे के एक कोने में बैठ अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी।

कई लोग अंदर गए बाहर आए लेकिन रामकली का नंबर नहीं आया। उसे लगता जैसे कुछ लोग तो अभी आए और अभी वापस चले गए और कुछ ऐसे हैं जो उससे भी पहले से बैठे हैं लेकिन उनका नंबर नहीं आया। कभी-कभी इस बात को लेकर चिल्ल-पौं भी मचती। एक दूसरे पर आरोप लगते और फिर सब शांत हो जाता।

लगभग एक डेढ़ घंटे बाद रामकली का नंबर आया। रामकली ने जाते ही अपनी पुरानी पर्चियाँ उन्हें थमा दी।

‘क्या परेशानी है?’ डॉक्टर ने पूछा।

‘हमको तो कोई परेशानी नहीं, वो तो गाँव के डॉक्टर बाबू ने बोला कि शहर जाकर दिखा आओ। और हाँ चिट्ठी भी दिए हैं तुम्हारे नाम।’ और रामकली ने धोती के छोर की गाँठ खोलकर मुड़ा-तुड़ा कागज डॉक्टर के हवाले कर दिया। डॉक्टर ने उसे पढ़ा फिर रामकली की ओर देखा। चेहरे के भाव बदल रहे थे।

‘क्या करता है तुम्हारा घरवाला।’

‘जी ट्रक ड्राइवर है।’

‘बीमार रहता है क्या?’

और रामकली को जो मालूम था वह उसने बता दिया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जब वह अपने आप को दिखाने आई है तो ये डॉक्टर उसके घरवाले के बारे में क्यों पूछ रहा है।

‘तुम्हारे खून की जाँच करनी पड़ेगी। बड़े शहर भेजना पड़ेगा जाँच के लिए। पंद्रह-बीस दिन लग जाएँगे रिपोर्ट आने में। ये पर्चा लेकर भेज देना रिपोर्ट लेने के लिए किसी को।’

और अपने खून का सैंपल देकर रामकली वापस चली आई। हैरान थी कि ऐसी कौन सी बीमारी हो गयी उसे कि शहर में जाँच होगी।

घर पहुँची तो एक नई परेशानी रामकली की प्रतीक्षा कर रही थी। सुमेरू का दोस्त जो उसी की भाँति ट्रक ड्राइवर था, इधर से गुजर रहा था। उसके द्वारा रामकली को संदेश मिला कि सुमेरू गंभीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में भर्ती है और इस बात को लगभग पंद्रह दिन हो चुके हैं।

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‘क्या हुआ है उन्हें?’

‘कोई बुरी सी बीमारी बताई है डॉक्टर ने। मुझे तो नाम भी ढंग से याद नहीं।’ वो रुआँसा हो गया। अब क्या करे रामकली? बच्चों को सँभाले, खुद को सँभाले या पति की देखभाल करने शहर चली जाए। और शहर भी जाए तो कहाँ और किसके पास जाए। फिर ये बच्चे और उसकी स्वयं की हालत। मजबूरीवश उसकी आँखों में आँसू आ गए। सुमेरू जब घर आया था, तब डॉक्टर की कही बात याद आ गई। उसने तो तभी बड़े अस्पताल में दिखाने को कह दिया था।

‘भैया तुम ही ध्यान रखना उसका। तुम्हीं लोगों का सहारा है। एक बार ठीक होकर घर आ जाए तो फिर जाने न दूँगी।’ और रामकली ने धोती की छोर से आँसू पोंछ लिए।

लेकिन कहाँ आ पाया सुमेरू वापस। महीने भर बाद उसकी मौत की ही खबर आई। बहुत बुरी बीमारी थी उसे। गाँव में ये खबर पहुँची तो उसे लेकर कई बातें होने लगी।

‘सुना है छूत की बीमारी थी सुमेरू को।’

‘हाँ, और बीमारी भी ऐसी जो भले आदमियों को नहीं होती।’

‘मतलब! कैसे लोगों को होती है ये बीमारी।’

‘जो गंदी औरतों के पास जाते हैं।’

महिलाओं के बीच ऐसी ही कुछ बातचीत हो रही थी, कुएँ पर जो रामकली के पहुँचते ही बंद हो गई।

सबने अपनी-अपनी मटकी उठाई और रामकली की ओर हिकारत भरी नजरों से देखती वहाँ से चली गई।

रामकली की समझ में न आ रहा था कि आखिर सुमेरू को ऐसा क्या हुआ था जो लोग उससे इस तरह कट रहे हैं।

रामकली कुछ समझे न समझे लेकिन परिस्थितियाँ विषम होती जा रही थी।

सारे गाँव और आस-पास में खबर आग की तरह फैल रही थी कि सुमेरू की मौत एड्स नामक बीमारी से हुई है और ये बीमारी रामकली को भी हो सकती है।

अनपढ़, अशिक्षित ग्रामीणों ने रामकली से दूरी बना ली। इन परेशानियों में रामकली को याद भी न रहा कि उसने अस्पताल में खून की जाँच करवाई थी।

वह तो भूल गई, लेकिन अस्पताल के कंपाउंडर को सब याद आ गया। जिस दिन वह अपने किसी काम से कस्बे के बड़े अस्पताल गया, ठीक उसी दिन रामकली की हालत भी कुछ ठीक न रही।

जैसे-जैसे दिल ढल रहा था, वैसे-वैसे रामकली की प्रसव पीड़ा भी बढ़ती जाती। वेदना से कराहती रामकली अस्पताल की ओर चल दी।

इधर जैसे ही कंपाउंडर के हाथ में रामकली की रिपोर्ट आई वो चौंक उठा। ये क्या! इसका पति तो अपना रोग इसे भी दे गया। ये कमबख्त तो एच.आई.वी. पॉजिटिव है। अब न जाने इसका बच्चा कैसा हो?

कंपाउंडर ने अस्पताल के अंदर कदम रखा ही था कि दर्द से दोहरी हुई रामकली अस्पताल के बरामदे में आकर ढेर हो गई।

पीड़ा से उसका चेहरा पीला पड़ गया था। कंपाउंडर किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया। हाथ में रामकली की रिपोर्ट फड़फड़ा रही थी।

‘अरे बाहर करो कोई इसे। अपने पति का रोग लेकर घूम रही है ये।’ और उसकी आवाज सुन अस्पताल का बाकी स्टाफ भी वहाँ पहुँच गया। दर्द से दोहरी पड़ी रामकली को सबने मिलकर किसी तरह अस्पताल परिसर से बाहर कर दिया। हाँ इतना ध्यान सबने रखा कि कोई उसे छू न पाए।

रामकली सड़क पर आ गई। अँधेरा घिरने वाला था और उससे अधिक स्याह था रामकली का जीवन। उसी स्याह रात को रामकली ने सड़क पर ही एक मृत बच्चे को जन्म दिया। अस्पताल के बाहर स्वास्थ्य विभाग का बहुत बड़ा होर्डिंग मुँह चिढ़ा रहा था। जिसमें बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, ‘एड्स छूने से नहीं फैलता। एच.आई.वी. संक्रमित लोगों को आपके सहारे की जरूरत है।’

रामकली का अनपढ़ होना इस समय उसके लिए वरदान बन गया। पढ़ पाती तो यह पीड़ा प्रसव पीड़ा से कहीं अधिक होती। जब पढ़े-लिखे ही इसे पढ़कर समझ न पाए तो अनपढ़ रामकली की क्या समझ में आता।

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रामकली – Ramkali

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