पुतली में संसार | अरुण कमल
पुतली में संसार | अरुण कमल

पुतली में संसार | अरुण कमल

पुतली में संसार | अरुण कमल

और मैं देखता हूँ, तो मुझे केवल पुतली नहीं
पूरी आँख दिख रही है गुरुदेव
और मछली और वह खंभा
और आकाश और आप और ये सब जन धनुर्धर
इतनी भीड़ इतनी ध्‍वनियाँ
और मैं तो केवल नीचे ताक रहा हूँ, तेल के कुंड में
फिर भी पूरा आकाश घूमता लग रहा है
और मुझे मछली की पुतली में घूमती
एक और छवि दिख रही है देव
किसी छवि है यह
मछली किसे देख रही है
और कोई मुझे उसके भीतर से देख रहा है
मेरी पुतली पर इतनी छायाएँ
इतनी बरौनियों इतनी पलकों की अलग अलग छाया
मुझे मछली की नदी की गंध लग रही है देव
मेरी देह में इतनी गुदगुदी
इतने घट्ठों इतने ठेलों भरी देह में यह कैसा कंपन
मैं सारे मंत्र भूल रहा हूँ
सारी सिद्धि निष्‍काम हो रही है
ढीली पड़ रही हैं उँगलियाँ
पसीने से मुट्ठी का कसाव कम
मेरे पाँव हिल रहे हैं
कंठ सूख रहा है –
मुझे तो देखना था बस आँख का गोला
और मैं इतना अधिक सब कुछ क्‍यों देख रहा हूँ देव!

Leave a comment

Leave a Reply