प्रेतयोनि | चित्रा मुद्गल
प्रेतयोनि | चित्रा मुद्गल

प्रेतयोनि | चित्रा मुद्गल – Pretayoni

प्रेतयोनि | चित्रा मुद्गल

“दीदी, दीदी… उठो, उठो! बाबूजी बुला रहे हैं तुम्हे बालकनी में।” छोटी बहन चिंकी ने अधीर हो उसे बाँह पकड़कर झिंडोड़ने की कोशिश की। बड़ी मुश्किल से चिंकी की झिंझोड़न व उसके घर पहुँचने की पक्की तसल्ली और अपने आत्मसंघर्ष के बूते पर पाई मुक्ति की सुखानुभूति से उपजी गहरी झपकी में सेंध लगाने में सफल हुई। वह अकबकाई-सी बिस्तर पर उठकर बैठ गई। आँखें नहीं खुल पा रही थीं। आँखों की कोटरों में उलीची पड़ी हुई थी पोर-पोर टूटी अवमानित देह की कड़वाई किरकिरी। पलक चीर-भर भी उठे तो कैसे? ऊपर से देह बेपेंदी की-सी हठ ओढ़े उसके वश में नहीं सध रही। सिरहाने लुढ़कने को ही थी कि अम्मा के संयमित कर्कश स्वर ने उसकी लुढ़कती देह को तमाचा-सा जड़ चैतन्य कर दिया “नीतू! तेरे बाबूजी बुला रहे हैं बालकनी में तुझे… फिर सो लेना!”

नींद बड़ी मुश्किल से आई है। फिर आ पाएगी आसानी से? उसने मन में सोचा। पूछा इतना-भर ही “अभी ही चलूँ?”

“साइत विचरवाऊँ?”

विचित्र प्रतीत हुआ अम्मा का आचरण। बोल बोलने की उनकी पुरानी आदत है, किंतु समय-कुसमय का बोध भी विस्मृत कर बैठेंगी वे, यह अनुमान नहीं था। रात यही अम्मा उसे छाती से चिपकाए, बछिया से बिछुड़ी गाय-सी कैसे डकरा रही थीं। उसके लौट आने पर विह्वल-सी वे ईश्वर को लाखों-करोड़ों धन्यवाद देती नहीं अघा रही थीं। उसे लेकर नाउम्मीदी के अवसाद में आकंठ डूबा परिवार अचानक उसे सामने जीवित खड़ा पा, अविश्वास और प्रसन्नता के आवेग में संग छोड़ने आए हवलदार और महिला सिपाही को पानी-पत्ता तक पूछना भूल गया था। दादा (बड़ा भाई), बिन्नू (मँझला), चिंकी (छोटी बहन), बाबूजी – सभी तो बावले हो उठे थे। कितना विभोर हुआ था महत्व जीकर उसका निजत्व!

“चलो आती हूँ…” चोट खाए घुटने को धीरे से सहलाती हुई वह पलंग से नीचे उतरी। सीधे होने की कोशिश असह्य चिलकन से दहल उठी। विस्मित हुई। रात बेतहाशा भागते हुए किसी भी घुटने ने अपने आहत होने की उससे चूँ तक नहीं की। अब! कमरे की चौखट पर खड़ी रात वाली चिंकी एक दम बदली हुई थी दूर खड़ी उसके कष्ट को मूक दर्शक-सी टुकुर-टुकुर देखती हुई। इच्छा हुई, बेसिन पर जाकर नींद पर खुली धार के छींटे दे ले, लेकिन अम्मा के स्वर की आदेशात्मक कर्कशता गर्दन में पगहा कसे उसे सीधे बालकनी की ओर खींच ले गई। लंबी खिड़कियों से ढक दी गई बालकनी बाबूजी का शयनकक्ष है। घर में जब वे होते हैं, यहीं लेटे, बैठे, पढ़ या सो रहे होते हैं।

दीवार के सहारे पीठ टिकाए, दीवान पर बैठे बाबूजी सामने अखबार फैलाए उसे और चिंकी को छोड़, घर के सभी सदस्यों से घिरे बैठे थे। सुबह अपनी आपा-धापी से मुक्त हो सबका इस तरह से इकट्ठा बैठे होना उसे सनका गया। कहीं कुछ अघटित घटा है, जिसका सीधा या घुमा-फिराकर कोई संबंध उसके परिवार से जुड़ता अवश्य है। अम्मा और चिंकी को तो वह देख चुकी थी। बाबूजी के चढ़े हुए माथे की गुर्राहट उसकी ओर चील-सी झपटी “आ गई भवानी? लो, अखबार बाँच लो आज का।” अपनी आँखों के आगे फैलाया हुआ अखबार अपेक्षित पृष्ठ की ओर मुड़कर उसकी ओर बढ़ाते हुए पुनः बोले वे “ऊपर, दाहिनी तरफ वाला बॉक्स आइटम।”

शीर्षक पढ़कर सप्रश्न उसने बाबूजी की ओर देखा “एक बहादुर लड़की की शौर्यगाथा… यही न?”

बाबूजी ने उच्छ्वास भरा “वहीं!”

उसकी तीक्ष्ण हो आई दृष्टि शीर्षक छोड़ नीचे दी गई पंक्तियों पर दौड़ने लगी ’31 अगस्त मथुरा। कल अपराह ग्वालियर के निकट मुंबई से आ रही पंजाब मेल और मालगाड़ी के मध्य हुई भयानक भिडंत के परिणामस्वरूप सैकड़ों मृत और घायल यात्रियों में से, भोपाल से आ रही दिल्ली विश्वविद्यालय की बी.ए. (ऑनर्स) अंतिम वर्ष की छात्रा अनीता गुप्ता जो चिकित्सकों की मामूली मरहम-पट्टी के उपरांत जाने की अनुमति मिल जाने पर कुछेक अन्य यात्रियों के साथ साझे की टैक्सी से दिल्ली आ रही थी अन्य यात्रियों के अपने गंतव्यों पर उतर जाने के पश्चात् मथुरा के निकट शहर से दूर एक निर्जन स्थान पर कामुक टैक्सी-चालक की हवस का शिकार हुई। साहसी अनिता ने बड़ी बहादुरी से वहशी टैक्सी-चालक का सामना किया और किसी प्रकार उस दरिंदे के चंगुल से निकल भागने में सफल हुई। इतना ही नहीं, अस्त-व्यस्त अनिता ने निकट के पुलिस थाने में पहुँचकर उस टैक्सी-चालक के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज करवाई। पुलिस पूरी मुस्तैदी से उस टैक्सी-चालक की खोज रही है। अनिता को पुलिस सुरक्षा में सकुशल उसके अभिभावक के पास दिल्ली पहुँचा दिया गया। थाना प्रभारी के.सी. गोयल ने दिल्ली विश्वविद्यालय की इस बहादुर छात्रा के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और लड़कियों के लिए अनुकरणीय उदाहरण बताया है।”

बॉक्स आइटम खत्म होते ही संवाददाता की चुस्ती पर दंग रह गई। हृदय आत्मविश्वास और प्रसन्नता की मिली-जुली हिलोरों से उद्वेलित हो गया। रात थाना प्रभारी गोयल जी ने उसके सामने भी तो कितना कुछ कहा था प्रशंसा में। चलने के समय वे बोले थे “बहादुर लड़की! तुम अगर उस कामुक राक्षस से अकेले लड़ सकती हो तो क्या हम इतने लोग मिलकर उसे ढूँढ़ नहीं पाएँगे? उसे अपने कुकृत्य की सजा भोगनी ही होगी।”

वह बाबूजी को संबोधित कर उनसे बोलने ही जा रही थी कि “आप लोग इस बॉक्स आइटम को पढ़कर बजाय मुदित होने के तनावग्रस्त क्यों हो रहे हैं?” लेकिन उसके मुँह खोलने से पूर्व ही अचानक बैठक में रखे टेलीफोन की घंटी बज उठी “मुक्ता का होगा, भोपाल से…” आत्मालाप-सी करती अम्मा फोन उठाने बैठक की ओर दौड़ीं।

अम्मा के जाते ही सहसा बाबूजी को किसी बात का अंदेशा हुआ। चौकन्ने से उठकर वे अम्मा के पीछे लपके। अम्मा की ‘हैलो-हैलो’ भी अभी पूरी नहीं हो पाई थी कि फोन जबरन उन्होंने उनके हाथ से झपट लिए। बाबूजी के इस अप्रत्याशित व्यवहार से अम्मा अचंभित हो उठीं। उनके चेहरे पर एक दबा-दबा नाराजगी का भाव उभर आया। किंतु बाबूजी की ‘हैलो’ के अंदाज से उन पर यह तो स्पष्ट हो गया कि फोन पर न उनकी बड़ी बेटी मुक्ता है, न ही जमाई बाबू रवि।

“कौनऽऽ? डॉ. साहब! सुनाइए, डॉ. साहब… बॉक्स आइटम? हाँआँ हाँ… पढ़कर मैं भी आपकी भाँति चकित हूँ, दरअसल नीतू तो हमारी अभी मुक्ता बिटिया के पास भोपाल में ही है, नाती अंशुल का जन्मदिन है चार सितंबर को, उसका जन्मदिन मनाए बगैर वो लोग उसे आने नहीं दे रहे… न, न, यह अनिता हमारी नहीं है, विश्वविद्यालय में साहब पचासों अनिता गुप्ता होंगी जी… जमाना सचमुच बहुत खराब है! लाख पढ़ा-लिखा दो, मगर… हाँ ठीक कर रहे हैं, लड़की सचमुच बहुत बहादुर थी। और? सहमत हूँ मैं आपसे डेढ़ सौ सरकारी आँकड़े हैं, दुगुने ही मरे होंगे… नहीं, ग्यारह बजे के करीब ही निकलता हूँ घर से… अच्छा डॉ. साहब, शुभचिंतना के लिए धन्यवाद!”

फोन यथास्थान रखते हुए, बाबूजी का चेहरा और अधिक तनावपूर्ण हो उठा। लग रहा था, वे उधेड़बुन में डूबे हुए, किसी कूल-किनारे तक पहुँचने के लिए प्राणभय से हाथ-पाँव मार रहे हैं।

“सुनो!” बाबूजी का तात्पर्य अम्मा से था, लेकिन सभी को अपने निकट खड़े हुए पाकर वे क्षुब्ध स्वर में चेतावनी-सी हुए बोले “सुन लिए? घर-घर बाँची जा रही है, हमारी बहादुर बिटिया की शौर्यगाथा …अभी तो फकत डॉ. कामता बाबू का फोन आया है। देखते रहो, दिन-भर फोन की घंटी टुनटुनाती रहेगी! लोग बिटिया के कसीदे हमें सुनाते रहेंगे और अफसोस के बहाने घर पर आकर जले पर नमक भी छिड़केंगे… हम नाते-रिश्तेदारों में मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे…”

खाने की मेज से टिके हुए दादा ने आशंकित दृष्टि से बाबूजी की ओर देखा “अलीगढ़ वालों को भी खबर लग सकती है… और…”

दादा की आशंका बाबूजी को निर्मूल नहीं लगी “और चाहें तो अपनी लड़की का संबंध तुमसे अभी का अभी तोड़ सकते हैं… अखबार अलीगढ़ में नहीं बिकते?”

“कम प्रपंच होते हैं बनियों में!” अम्मा ने वितृष्णा से सिर झटककर अपनी बिरादरी को कोसा।

“अब जाति-बिरादरी को कोसना छोड़ो और कान खोलकर सुनो!” बाबूजी ने अत्यंत सतर्क लहजे में प्रत्येक के चेहरे को गौर से देखते हुए बोलना शुरू किया “अभी, इसी क्षण से चाहे किसी सगे-संबंधी का फोन आया या हितैषी-पड़ोसी का, या वे खुद घर आकर अफसोस प्रकट करें, अखबार में छपी खबर के विषय में उनसे साफ-साफ मुकर जाना… यूँ अटकलें लगाते रहें लोग, लगाते रहें?”

उसका सिर घूम रहा है। यह कौन-से बाबूजी हैं? इस अपरिचित व्यक्ति को तो उसने कभी देखा ही नहीं! उसके धर्मभीरु, असत्यभीरु बाबूजी की काया के किस कोने में दुबका बैठा रहा यह कायर व्यक्ति, जो निःसंकोच झूठ पर झूठ गढ़े जा रहा है मान-मर्यादा के रूढ़ मानदंडों की रक्षा के लिए? बाबूजी ही कहते थे न बेटियाँ ही मेरे बुढ़ापे की लकुटिया बनेंगी। अब वे लड़कियों के हाथों से स्वयं उनकी ही लकुटिया छीन, उन्हें अबला बनाने पर तुले हुए हैं, तो वे उनके बुढ़ापे का सहारा बन सकती हैं? यही व्यक्ति है, जो अम्मा से हमेशा इस बात के लिए लड़ता-भिड़ता रहा कि मैं अपनी लड़कियों को कुछ दहेज में दूँगा तो सिर्फ शिक्षा। शिक्षा ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाएगी। अपनी ऊँच-नीच स्वयं निबटेंगी। हम जीवन भर साथ बैठे रहेंगे ढाल लिए उनकी रक्षा को? अपना ऊँच-नीच निपटा नहीं उसने पूरी जीवटता के साथ? कहाँ से संचित किया था आत्मबल अपने रोम-रोम में? बाबूजी से ही पाया था न? इस तरह से कहीं सच्चाई पर पर्दा पड़ सकता है? क्यों नहीं बाबूजी छद्मखोल से बाहर आ, अपने भीतर के छटपटाते मनुष्य को मुखौटे की विवशता से मुक्त कर, साहस दिखाते कि अखबारों की सुर्खियों में कै़द अनिता गुप्ता कोई अन्य नहीं, उनकी अपनी बेटी नीतू ही हैं! बाबूजी अर्गला नहीं खोलेंगे तो सदैव-सदैव के लिए उनकी अपनी नीतू के हाथों से ही नहीं, सभी बेटियों के हाथों से अपनी ही लकुटिया सरक जाएगी और…

“मुन्ना…” बाबूजी किसी कुशल अहेरी की भाँति संकल्पबद्ध हो दादा से, मुखातिब हुए “भोपाल डिमांड काल से तुरंत बुक करो… रवि या मुक्ता जो भी मिले, मामला समझा दो… किसी को कानोंकान खबर न लगे कि नीतू उनके पास वहाँ नहीं है।”

दादा ने पहले अपने बॉस के घर फोन किया कि आज उनके पिता का अस्थमा अचानक उखड़ पड़ा है। वे उन्हें डॉक्टर के पास दिखाने के उपरांत ही कार्यालय पहुँचेंगे “यही करीब बारह तक… जी, लंच से पहले हर हालत में पहुँच जाऊँगा, सर!” चिंतित हो आए बॉस को दादा ने स्वर में संकटग्रस्त होने का नाटकीय पुट घोलते हुए आश्वस्त किया, फिर तत्परता से भोपाल का डिमांड नंबर डायल करने लगे।

उसे चोट-खाए घुटने की पीड़ा असह्य हो रही है। पूरे घर का कार्य-व्यापार उसे फन काढ़े फुँफकारते नाग-सा जड़ किए हुए हैं। प्रतिवाद आँतों में मरोड़े खा रहा है, कंठ से नहीं फूट पा रहा।

दीदी ही मिली फोन पर। बाबूजी संक्षेप में परिवार की प्रतिष्ठा पर टूटी विपदा का जिक्र कर, क्या करना है उन्हें क्या नहीं, हिदायत दे रहे हैं। किशोरी चिंकी को अम्मा एक कोने में ले जाकर फुसफुसाते हुए न जाने किस षड्यंत्र की भूमिका सौंप रही हैं। किंतु चिंकी के बचपन-घुले चेहरे पर परिपक्वता का भाव शाखाओं पर फुदक रही गिलहरी सदृश स्थिर नहीं हो पा रहा।

भौचक्के खड़े बिन्नू को दादा ने घुड़का, “मोहल्ले में तुम्हारा क्रिकेट खेलना बंद! आज से स्कूल से सीधा घर, समझे?”

“स्कूल! दो-चार रोज बिन्नू स्कूल नहीं जाएगा तो कौन कलेक्टरी छूट जाएगी हाथ से?” अम्मा दादा की नादानी पर भभकीं।

उसे लग रहा है, वह कमरे में जाकर सो रहे। सोना उसके लिए निहायत जरूरी है। वह अपनी जगह से हिली ही थी कि बाबूजी उसे संबोधित कर आदेशात्मक स्वर में बोले “नीतू! तुम मानकर चलो कि तुम इस घर में अभी पहुँची ही नहीं हो! अपने कमरे से बाहर आने की जरूरत नहीं न दरवाजा खोलने के लिए, न टेलीफोन उठाने के लिए! वक्त का सदुपयोग करो, अपने कमरे में बैठकर पढ़ो।”

“और क्या!” अम्मा ने सुर में सुर मिलाया “हमेशा यही शिकायत रहती है तेरी, इस घर की चैं-चैं में पढ़ने के लिए एकांत नहीं मिलता।”

चिंकी बोल पड़ी, “बाबूजी! आज हम स्कूल नहीं गए न, तो कल मेडिकल लेकर जाना पड़ेगा।”

“मेडिकल हफ्ते भर का दिलवा देंगे बेटी, तू घर पर ही बनी रह… कोई आया-गया तो घर का दरवाजा कौन खोलेगा? सौदे-सुल्फ की खातिर तुम्हारी अम्मा घर से निकलेगी कि नहीं?”

उसका चेहरा वितृष्णा से सिकुड़ आया। जो कुछ चिंकी को नहीं समझना चाहिए, वही समझाया जा रहा है उसे और वह विवश-सी खड़ी देख रही है। वह चिंकी के बदलते मनोभावों को स्पष्ट लक्षित कर रही है। चिंकी की फुदकन अनायास चौंकन्ने भेड़िए की चितवन में परिवर्तित हो रही है। पहली बार उसे सत्ता-सुख का अनुभव हो रहा है। भले दीदी की निगरानी के ही बहाने। कहाँ तो दीदी हर वक्त उस पर धौंस जमाए रहती थीं वह कब सोए, कब उठे, कब पढ़े, कब खेले, किसके साथ खेले, कैसे खाए, कितना खाए। बात-बात पर उनकी टोका-टाकी खोपड़ी पर सवार रहती थी। अब पासा पलटा हुआ है। चौधराहट दीदी के हाथ से सरक उसके हाथ आ लगी है।

वह बौराई-सी अपने कमरे में दाखिल हो, टपटपाते माथे को तकिये में गड़ाकर फूट पड़ी।

रात अपनी छाती में गड़े उसके चेहरे को सहलाते, छूते, प्रलाप-सी करती अम्मा बोली थीं, “हम तो उम्मीद छोड़ चुके थे मोरी चिरैया…!”

अम्मा बोले ही जा रही थीं, “तुझे गाड़ी पर बिठाते ही भोपाल से मुक्ता का फोन आ गया कि नीतू के डिब्बे का नंबर एस-नाइन है। सीट-बत्तीस। तेरे बेसब्र बाबूजी घंटे-भर पहले ही स्टेशन पहुँच गए। स्टेशन पहुँच कर पता चला कि गाड़ी घंटे-भर के करीब लेट है। घंटा बीतते न बीतते पुनः घोषणा हुई कि घंटा-भर और विलंब है। स्टेशन पर आत्मीयों को लेने पहुँचे लोग स्पष्ट सूचना के अभाव में परेशान हो उठे। जितने मुँह उतनी बातें। किसी ने गाड़ी में बम विस्फोट होने की आशंका व्यक्त की, किसी ने इंजन फेल होने की। डेढ़ घंटे बाद जाकर रेलवे अधिकारियों ने खेद-भरे स्वर में सूचना दी कि ग्वालियर के निकट गाड़ी के मालगाड़ी से टकरा जाने के परिणामस्वरूप भीषण दुर्घटना हो गई है। सैकड़ों यात्रियों के हताहत होने की आशंका है… स्टेशन पर हड़कंप मच गया। घबराए बाबूजी को न इस पल चैन, न उस पल। ग्वालियर पहुँचना किसी भी तरह मुमकिन नहीं था कि घटनास्थल पर पहुँच कर तेरी खोज-खबर लेते। स्टेशन के बाहर किसी दुकान से इन्होंने घर फोन कर तेरे दादा से परामर्श किया कि आखिर क्या करें। दादा ने सलाह दी, स्टेशन पर व्यर्थ पड़े रहने से कोई फायदा नहीं। स्टेशन अधीक्षक के पास नीतू का विवरण, घर का पता, टेलीफोन नंबर आदि दर्ज करवाकर चले आएँ… अनर्थ की आशंका में डूबा पूरा घर न कंठ से दो घूँट पानी उतार पाया, न मुँह में कौर। यही सोच-सोचकर कलेजा टूक-टूक होता रहा कि विधाता ने असमय मौत भी दी तो कैसी दर्दनाक! प्रेतयोनि में भटकेगी मेरी फूल-सी बच्ची…

सुबकती अम्मा के ठुड्डी से चूते आँसू उसके धूल-उलझे केशों को नहीं भिगो रहे थे, उनके क्षुब्ध स्वर को आश्वस्त कर रहे थे।

बाबूजी पुलिस वालों को विदा करके ऊपर लौटे, तक तब बेटी की संक्षिप्त आपबीती से अवगत हो चुके थे कि अपने ऊपर टूटी आकस्मिक विपदा से किस जीवट और धैर्य के साथ उनकी बेटी जूझी और पुलिस थाने पहुँच कर उस कामुक टैक्सी-चालक के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज कराई “आपकी बेटी दुर्गा है, साक्षात दुर्गा!” बेटी के प्रति महिला हवलदार की प्रशस्ति-उद्गारों ने कुछ पलों पूर्व उद्विग्न बाबूजी को गर्व से भाव-विभोर कर दिया…

“भूल जा बेटी, जो कुछ तुझ पर बीती, सोच ले, दुःस्वप्न था। हमारे लिए यही बहुत है कि तू जीवित है… हमारी आँखों के सामने है। तू एक नहीं, दो-दो यमराजों को पछाड़कर आ रही है।”

वही बाबूजी सुबह अखबार में उसकी संघर्ष-गाथा की चर्चा पढ़कर एकाएक संवेदनाशून्य कैसे हो उठे? क्या था जो सिर्फ अखबार में खबर बनते ही तिरोहित हो गया? संघर्ष-शक्ति, जीवन सब हाशिए के शब्द-भर होकर रह गए! लोकापवाद के भय से? लोकापवाद के विरुद्ध तब बाबूजी कैसे तनकर खड़े हो गए थे, जब मुक्ता दीदी के अकेले बंबई जाकर नौकरी करने के निश्चय की सगे-संबंधियों ने आलोचना की थी?

“मुक्ता कह रही थी, हफ्ते-भर घर बैठाने से बात नहीं सधेगी, सीधा प्राइवेट फॉर्म ही भरवाओ।” बाबूजी अम्मा से कह रहे थे।

“दूरंदेश है मुक्ता। जोश में आकर यह कभी किसी सहेली से सच्चाई बोल बैठी तो बिरादरी में कोई इसे अपनी देहरी लेने से रहा…”

उनकी परस्पर बातचीत बीच में ही टूट गई। बाबूजी किसी से फोन पर उलझे हुए हैं। शायद कोई अखबार का संवाददाता है और घटना के संबंध में सीधा उससे बात करने को इच्छुक है। वह तकिये से चेहरा उठा वहीं से चिल्लाकर बाबूजी से कहना चाह रही है कि वह उस संवाददाता से बात करना चाहती है। लेकिन उसे प्रतीत हो रहा है कि उसके भीतर की प्रतिवाद-शक्ति एकाएक क्षीण हो गई है या इर्द-गिर्द निरंतर सघन हो रहे षड्यंत्र के विष-बदबू से बेसुध!

बाबूजी उत्तेजित हो कह रहे हैं जिस किसी विद्यार्थिनी ने उन्हें उनके घर का टेलीफोन नंबर दिया है, द्वेष-भाव से ग्रस्त होकर दिया है, टैक्सी चालक की हवस का शिकार हुई लड़की मेरी बेटी अनिता नहीं है… मैं क्या कह सकता हूँ, कौन है वह लड़की? क्यूँ नहीं लग सकता पता, जरूर लगाइए पता… आपको तो अपने अखबार के लिए मिर्च-मसाले की जरूरत है, भई… अपनी बेटी से कैसे बात करवा दूँ, वो यहाँ हो भी तो। वह तो अपनी बड़ी बहन के पास भोपाल है… जी नहीं, मेरी बेटी के घर फोन नहीं है… इसमें छिपाने की क्या बात है? जब अखबारों में घटना का विवरण प्रकाशित हो ही गया है तो शेष क्या ढका रहा जाता है? देखिए! प्रगतिशीलता और जागरूकता का पाठ कृपया मुझे न पढ़ाएँ, मैं पूरी तरह से एक जागरूक बाप हूँ… बस, इससे ज्यादा मैं आपसे कोई बात नहीं करना चाहता।”

बाबूजी से फोन रखा नहीं, खीज और क्रोध से लगभग पटक दिया। मानो फोन का चोंगा नहीं, हथौड़ा हो उनके हाथ में और उसे उन्होंने पूरी ताकत से उस अजनबी संवाददाता की खोपड़ी पर दे मारा हो। अगले ही पल वे तमतमाए हुए-से चीखे, “चिंकी! फोन का प्लग अलग कर दे तो… सुना नहीं तूने?”

बाबूजी की आक्रामक मुद्रा देख सहमी हुई-सी चिंकी उनके आदेश का पालन करने दौड़ी। किंतु आगे बढ़कर अम्मा ने उसे बीच में ही बरज दिया “रहने दे! तेरे बाबूजी होश में नहीं हैं।” फिर बाबूजी की ओर मुड़कर मृदु, संयत स्वर में उन्हें धैर्य बँधाती हुई बोलीं “सिर पर टूटे पहाड़ को तुम खुरपी से उचकाने चले हो!” इतने नादान कब से हो गए? कोई अपना ही जरूरी फोन आ जाए तब?”

“हुँह, कैसे जरूरी फोन आ रहे हैं, देख रहीं?” अम्मा की सलाह पर बाबूजी कटाक्ष से गुर्राए “एफ.आई.आर. दर्ज कराते समय अगर यह पुलिस वालों से स्पष्ट कर देती कि देखिए, लड़की का मामला है, उसकी सुरक्षा और भविष्य का ख्याल कर वे मामले को गुप्त ही रखें तो आज इस नाककटाई से मुक्त नहीं हो जाते हम?”

“संकट के समय बड़ों-बड़ों का दिमाग कुंद हो जाता है, नहीं, चला होगा दिमाग इस ओर।”

“बाकी दिशाओं में दिमाग दौड़ रहा था, इस दिशा में भी दौड़ना चाहिए था झाँसी की रानी का?”

“अब जो नहीं हो पाया, उसे बिसूरने से फायदा? और धीरे बोलो तनिक, सोई नहीं है नीतू। सुन रही होगी अपने कमरे में पड़ी-पड़ी।”

“उसके डर से मुँह सी लूँ?” बाबूजी बजाय शांत होने के और उग्र हुए।

“हल्दी-चूना पक गया, अम्मा!” चिंकी ने रसोई के दरवाजे से ही सूचित किया अम्मा को “कहाँ रखूँ?”

“तश्तरी में रखकर दीदी के कमरे की मेज पर रख दे, वहीं आ रही हूँ मैं।”

“हल्दी-चूना किसलिए?” बाबूजी ने कौतूहल से उनकी ओर देखा।

“नीतू के जख्मी घुटने पर लेप लगाने के लिए। हथेली-भर नील पड़ा है, छूने-भर से टीसता है। हड्डी की चोट हुई तो किसी विशेषज्ञ डॉक्टर को दिखलाना होगा।” अम्मा का स्वर अनायास चिंतित हो आया।

“दिखा देंगे!” बाबूजी के स्वर में विरक्ति थी “हड्डी टूटी होती तो टाँग का हिलना-डुलना ही मुश्किल होता।”

दुश्चिंताओं से घिरे होने के बावजूद बाबूजी के स्वर की यह उदासीनता अम्मा को अरुचिकर प्रतीत हुई। वे दफ्तर में बिना कुछ बोले मुड़ने को ही थीं कि बाबूजी की ‘सुनो’ सुनकर उनकी ओर पलटीं।

“मैं कह रहा था कि तुमने चिंकी, बिन्नू, मुन्ना (दादा) और नीतू को सारी बातें ठीक से समझा दी हैं न!”

उनके एक ही बात को बार-बार दोहराने से अम्मा को अचानक चिढ़ छूटी “समझा तो दिया है तुमने, मेरे समझाने को कुछ शेष है?”

हल्दी-चूने का लेप मेज पर रखा निश्चय ही ठंडा हो गया होगा, सोचकर अम्मा बाबूजी की अगली ‘सुनो’ के घेराव से छूट भागने की खातिर तेजी से बैठक से बाहर हो गई। उनके पास पल-भर भी खड़े रहने का अर्थ होता श्रोता बने उनकी हाँ में हाँ मिलाते रहो। चिंताएँ बार-बार दोहराने से कहीं हल होती हैं!

मेज पर रखी कटोरी के लेप को उन्होंने उँगली से हल्के से छूकर उसकी तताहट भाँपने की कोशिश की। लेप अपेक्षा से काफी ठंडा हो गया था। खास गर्म लगाने से ही वह रक्त के जमाव को काटने में समर्थ होता, जितनी आँच सह ले। कटोरी समेत तश्तरी उठाए वे स्वयं रसोई में गईं और चिंकी को तवे पर कटोरी रखकर लेप को पुनः गर्म करने की हिदायत दे, बिना किसी आहट के उसके सिरहाने आकर बैठ गई। कुछेक पल स्नेहसिक्त-सी वे उसके धूसरित, उलझे बालों में अटकती उँगलियाँ फिराती रहीं, फिर चिंकी के मेज पर लेप की कटोरी लाकर रखते ही उसके कानों के पास मुँह ले जाकर फुसफुसाई, “चित तो हो ले जरा, नीतू! घुटने की चोट पर तनिक हल्दी-चूना मल दूँ।”

अम्मा के दुबारा आग्रह करते ही वह पलटकर चित हो आई। किंतु दाहिनी टाँग के हिलते ही असहनीय चिलकन देह को ठंडे पसीने से तर कर गई। मुँह से चीख निकलने-निकलते बची।

सलवार का पाँयचा सँकरा था। सावधानी से खींचने-खाँचने के बावजूद घुटने की चोट के पार नहीं हो पाया। कान के पास मुँह ले जाकर अम्मा मनुहार-भरे स्वर में पुनः फुसफुसाईं “सलवार उतार दे गुड़िया पेटीकोट लाए दे रही हूँ, वही पहन ले, कमीज के नीचे।” वे उठीं और अलमारी से तुरंत साफ, धुला पेटीकोट निकाल लाई।

कमर पर सलवार उसने लुंगी की भाँति गठियाई हुई थी। देखकर अम्मा का माथा ठनका। उनकी आशंकित चमकीली आँखों में प्रश्नों की तलवारें खिंच आर्इं ‘नाड़ा’।

“टूट गया।”

“टूट गया? कैसे?,”

“भाऽगते-भागते…”

“भाऽगते? गठियाया हुआ था?”

“नाऽऽ।”

“फिर?”

उसके सूखे ओंठ ‘चप-चप में काँपकर रह गए।

“उठ!” उसे पीठ के सहारे टेक देती हुई नहीं, बल्कि धकियाती अम्मा ने पेटीकोट गर्दन में बच्चे को पहनाए जाने वाले झबले की तरह डाला, फिर चारों ओर से उसे नीचे खींच दिया।

घुटने पर लेप मलते हुए हाथ रोककर सहसा उन्होंने पूछा, “महीने को कितने दिन शेष हैं?”

कुछ पलों पूर्व उस पर तारी छुअन के सम्मोहन की सुखानुभूति अचानक धागा-खिंची मोती की लड़-सी छितर गई।

वह कहना चाहती थी कि अम्मा, तुम जिस आशंका से पीड़ित होकर यह प्रश्न पूछ रही हो, वैसा कुछ उस कामुक राक्षस की पूरी कोशिश के बावजूद संभव नहीं हो पाया! मैं प्राण-पण से लड़ी हूँ… लेकिन घुटने की पीड़ा ने उसे बोलने की मोहलत नहीं दी। जोड़ों पर अम्मा की लेप मलती उँगलियाँ एकाएक सख्त हो आई थीं।

तीसरे दिन भी उसे अपने कमरे से बाहर नहीं निकलने दिया गया। बैठक में आकर बैठ सके, बंद खिड़कियों के भीतर – मुक्ति की खुली हवा में साँस ले सके, इसकी भी अनुमति नहीं थी। तर्क था आने-जाने वालों के समक्ष उसे नहीं पड़ना है। वैसे बाबूजी का अनुमान सही निकला। प्रत्येक दिन आने-जाने वालों का तांता लगा रहा।

कुछ ने अखबारों में स्वयं खबर पढ़ी। कुछ कानोंकान सुनकर सहानुभूति जताने और हौसला बढ़ाने आ गए। टैक्सी-चालक की हवस का शिकार हुई अनिता अपने सेवकराम गुप्ता की पुत्री अनिता नहीं है जानकर उनका उत्साह ‘धुप्प’, से बुझ गया। फिर भी बॉक्स आइटम पर उनकी सामान्य चर्चा घंटे-डेढ़ घंटे का सत्संग भाव ओढ़े जाने का नाम न लेती। सभी उस लड़की के माता-पिता को सलाह देने को उतावले हो रहे थे कि रिश्वत खा-खूकर पुलिस अगर मामला डकार जाना चाहे तो उन्हें चुप्पी मारकर नहीं बैठ जाना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट तक लड़ना चाहिए और उस कुत्ते टैक्सी-चालक को फाँसी पर लटकावाकर ही दम लेना चाहिए।

अम्मा और बाबूजी के अभिनय-कौशल पर वह चकित थी। कितने सहज भाव से दोनों हँस-हँसकर लोगों को बैठाते-उठाते। उन्हें पुनः कभी घर आने के लिए आमंत्रित करते। एकाध बार वह अम्मा की फुर्ती देख दंग रह गई। पाटिल आंटी और पेनकर आंटी के घर में दाखिल होते ही अम्मा उनके लिए पानी लाने के बहाने उसके कमरे में झाँककर उसे आगाह कर गई कि वह धीरे से कमरे की चिटखनी भीतर से चढ़ा ले। नंबरी चालू हैं दोनों। किसी बहाने कमरे का जायजा लेने पहुँच सकती हैं। वैसे कोई सवाल किया भी उन्होंने तो उससे निपटना आता है उन्हें। कह देंगी, आगरा से बड़ी भतीजी आई हुई है नौकरी का साक्षात्कार देने। तैयारी कर रही है कमरा बंद कर।

शायद सुशीला आंटी आई हुई हैं। उन्हीं की आवाज लग रही है। आंटी किसी अखबार में उसी के संदर्भ में प्रकाशित किसी समाचार की चर्चा कर रही हैं। वह दरवाजे़ की चिटखनी उतार, फुट भर दरवाजा खोलकर अपने कान बैठक की ओर लगा देती है।

आंटी बता रही हैं “आज दोपहर के ‘साध्य टाइम्स’ में बॉक्स आइटम समाचार छपा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा कुमारी अनिता गुप्ता के साथ 30 अगस्त की रात कथित दुर्व्यवहार करने वाले बलात्कारी टैक्सी-चालक को अब तक न पकड़ पाने की पुलिस की अकर्मण्यता के प्रतिवाद में दिल्ली विश्वविद्यालय के समस्त छात्र-छात्राओं ने कल दस बजे सुबह आई.टी.ओ. स्थित पुलिस मुख्यालय के समक्ष विरोध-प्रदर्शन करने का आह्वान किया है।”

“ठीक ही तो है, ठीक ही कर रहे हैं वे… आबरू की रक्षा के लिए अकेले लड़की के दुर्गा बनने से रक्षा नहीं हो सकेगी, पूरे समाज को उसके साथ खड़े रहना होगा।” अम्मा की प्रतिक्रिया थी।

उसके कानों को विश्वास नहीं हो रहा… छद्म का इतना अधम रूप!

उसने महसूस किया, ‘सांध्य टाइम्स’ में छपी खबर सुनकर सारे घर को साँप सूँघ गया। बाबूजी बौखलाए हुए-से बैठक से बालकनी, बालकनी से बैठक के बीच चक्कर मारने लगे। बाबूजी की उद्विग्नता भाँप अम्मा उनके रक्तचाप के विषय में चिंतित हो उठीं “जाओ, जाकर मंडी से साग-सब्जी ही ले आओ!” फिर बाबूजी के निकट पहुँचकर आग्रह करती-सी बोलीं, “बाहर निकलोगे तो तनिक जी बहलेगा।”

फिर बिन्नू को पुकारकर रसोई के दरवाजे के पीछे टँगे खाली थैलों में से खाकी रंग वाला थैला उठाकर ले आने के लिए कहा।

बाबूजी ने ठिठककर अनिच्छा से उनकी ओर देखा।

“और हाँ, देखना, पटरी पर किसी के पास ‘सांध्य टाइम्स’ की प्रति मिल जाए तो खरीद लाना।”

यह बात अम्मा ने लगभग फुसफुसाकर कही बाबूजी से।

“बिन्नू को दौड़ा के सुशीला के घर से भी मँगा सकती हूँ, पर कहीं वह यह न सोचे कि मैं इस खबर में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही हूँ… फिर बच्चे को फुसलाते देर लगती है!”

वह भी चाह रही है कि बाबूजी सब्जी मंडी तक घूम-फिर आएँ और रास्ते से ‘सांध्य टाइम्स’ खरीदकर ले आएँ। अम्मा-आग्रह न करतीं तो निश्चय ही संकोच त्यागकर वह बाबूजी से कहने ही जा रही थी। विरोध-प्रदर्शन की खबर वह अपनी आँखों से पढ़ना चाहती है। शब्द-शब्द जानना चाहती है कि ये कौन लोग हैं, जो उसके स्त्रीत्व के अपमान और तिरस्कार से स्वयं अपमानित और आहत हुए हैं। बेचैन हुए हैं। क्यों नहीं वे प्रतिक्रिया में खामोश बैठ गए उसके परिवार वालों की भाँति… जो घटा, मात्र उसके मूक दर्शक-से।

बिन्नू के हाथ से खाली थैला लेकर बाबूजी ने उसे खाने की मेज की कुर्सी की पीठ पर लटका दिया।

उसे लगा, बाबूजी घर से निकलकर नहीं जाना चाह रहे। उनके भीतर द्वंद्व के कई-कई मोर्चे खुल गए हैं। उसे महसूस हो रहा है कि हर मोर्चे पर बाबूजी की सिर्फ पीठ है।

अम्मा रसोई में शायद चूल्हे पर दूध गर्म करने के लिए चढ़ा रही हैं।

आगे बढ़कर वही आग्रह करे? पहले की तरह। पहले की ही तरह उन्हें हाथ में जबरन थैला पकड़ाकर पीठ से ठेले हुए दरवाजे से बाहर कर आएँ। हो सकता है, पहले ही की तरह पलटकर बाबूजी उसके दोनों हाथों को अपनी मुट्ठियों में जकड़ लें और ‘कैसी रही’ वाली नटखट मुस्कान मुस्कुराते हुए कहें, “अरे चुड़ैल! धक्का मारकर क्यों घर से बाहर कर रही है, जा रहा हूँ, जा रहा हूँ और अब तो तुझे भी संग घसीट लिए चलूँगा। चल, पकड़ थैला।”

वह अपने कमरे से निकलकर बैठक में टहल रहे बाबूजी की ओर दबे पाँव बढ़ी।

आहट सुनकर विचारमग्न बाबूजी उसकी ओर पलटे। उसे देखते ही आगबबूला हो एक दम से चीखे “बाहर क्यों आई अपने कमरे से निकलकर… कमरे में जाओ?”

वह बाबूजी के अप्रत्याशित रौद्र रूप के लिए प्रस्तुत नहीं थी। अवाक हो जड़ हो आई।

“सुना नहीं तुमने?”

उसने पहली बार प्रतिवाद में मुँह खोला “मुझे आज का ‘सांध्य टाइम्स’ चाहिए। बाबूजी, प्लीज।”

“तो धुआँ ऐसे ही नहीं उठ रहा। लगता है, तुमने अपने साथियों को कहीं से इशारा कर दिया है कि अब वे तुम्हारे आत्म-सम्मान की रक्षा का नाटक खेलें और हमारी इज्जत को सरेआम सड़कों पर नीलाम करें… तुम?” तमतमाए हुए बाबूजी आपा खो बैठे और उसकी चोट खाई टाँग की परवाह किए बिना उसे बाँह से दबोच कमरे की ओर घसीट ले गए “सारे किए-कराए पर पानी फेरकर धर दोगी तुम… पंक में स्वयं ही नहीं डूबी, हमें भी लिसेड़कर धर दिया!”

चूल्हा धीमा कर अम्मा घबराई हुई-सी उसके कमरे की ओर दौड़ी आई और बजाय बाबूजी के असंतुलित व्यवहार के प्रति आपत्ति प्रकट करने के उलटा उसे ही कोसती हुई बोलीं “यह क्या नौटंकी है, नीतू! मोहल्ले को घर में इकट्ठा करके ही मानेगी?”

तीन दिन के प्रशिक्षण में ही पक आई चिंकी अम्मा की सतर्क आँखों का संकेत पाते ही घर की एकाध खुली खिड़कियों को फुर्ती से बंद करने लगी, ताकि चीख-पुकार का कोई स्वर घर की देहरी न लाँघ सके।

उसे मालूम है कि खिड़कियाँ बंद करने के पश्चात चिंकी दौड़कर दादा का ट्रांजिस्टर उठा लाएगी और कहीं भी सुई फिट कर उसे पूरे वाल्यूम पर चला देगी।

फूटती रुलाई को कंठ में ही घोंट देने के लिए उसने औंधे हो, पूरी शक्ति बटोरकर तकिए में मुँह गड़ा लिए। नाक दबने से साँसें अवरुद्ध हो रही हैं। होती रहें। क्रूर संकल्प से दृढ़ हो आई। चेहरा नहीं उठाएगी तकिये से। अच्छा है। दम घुट जाए। इनके हाथों रिस-रिसकर मरने से अच्छा है आत्मघात।

उसने तकिए के दोनों सिरों को मुट्ठियों में भींच लिए।

आवाज़ों के मिले-जुले शोर ने बेहोशी को चिकोटी भरी तो उसने पाया कि कमरे की दीवारों से कोहरे घुला-सा अँधेरा चिपका हुआ है। पर्दे के पीछे से सहन की ट्यूब बत्ती की उजास पींग भरने को व्याकुल झूले के लंबे पटे-सी, पर्दे हिलते ही फर्श पर हिलकोरें लेने लगती है…

दूरदर्शन पर शायद कोई धारावाहिक चल रहा है। कोई हास्य-धारावाहिक। बीच- बीच में चिंकी और बिन्नू की उन्मुक्त खिलखिलाहट की खनक धारावाहिक की रिकॉर्डेड समवेत हँसी की ध्वनि के साथ घुलमिल रही है। उसे लग रहा है, घर के सारे सदस्य दूरदर्शन से जुड़े बैठे हुए हैं। रसोई की बत्ती बंद है। आसपास किसी के होने की चुटकी भर आहट सुनाई नहीं दे रही।

दस-पंद्रह मिनट और सुनाई नहीं देगी। सहन की दीवार से सटे रखे मेजनुमा शो-केश के ऊपर बाबूजी का कॉर्डलेस टेलीफोन रखा रहता है। पिछले जाड़ों में जीजाजी ने उन्हें सिंगापुर यात्रा से लौटकर विशेष प्रयोजन के साथ भेंट किया था कि वे घंटे-भर पाखाने में बैठे रहते हैं। अखबार वहीं पढ़ते हैं। एक फोन सुनने की ही असुविधा होती है उन्हें। यह यंत्र उन्हें इस असुविधा से मुक्ति दिलाएगा…

उसे अपनी कॉलेज की साथिन सहेली नम्रता के बात करनी है। उसके लिए नम्रता का कई बार फोन आ चुका है, हर बार वही झूठ उसे भी टिका दिया गया। लेकिन नम्रता जानती है कि वह तीस अगस्त को भोपाल से चलने वाली थी। खत लिखा था उसे उसने। वह नम्रता को अपनी घुटन के विषय में बताना चाह रही है।

वह उसे बताना चाह रही है कि वह अपनों द्वारा ही अपने घर में नजरबंद है और कामुक टैक्सी-चालक की हवस का शिकार अनिता गुप्ता कोई अन्य नहीं, तुम्हारी एकमात्र अपनी सहेली नीतू है, नीतू…

नम्रता से संपर्क करने के लिए पाखाने के भीतर कागज, पेंसिल, लिफाफा ले जाकर उसने कुछ पंक्तियाँ घसीटकर संकेत से बिन्नू को कमरे में बुला चिट्ठी उसकी निकर की जेब के हवाले कर चिरौरी की थी कि वह सावधानीपूर्वक नीचे जाकर चिट्ठी लेटर बॉक्स में डाल आए, मगर चिट्ठी लेटर बॉक्स में डालने की बजाय बिन्नू ने बाबूजी के हाथ में थमा दी थी वही बिन्नू जो राक्षस और राजकुमार की कहानी सुनने के बाद राक्षस से भयभीत हो उसकी टाँग पर टाँग चढ़ाए बिना न सोता…

वह बिल्ली की तरह दबे पाँव शो-केस के निकट पहुँचकर कॉर्डलेस फोन उठा लेती है और फुर्ती से उसका तार निकालकर, स्विच आन कर नम्रता के घर का नंबर घुमाने लगती है। नंबर लग गया है। आंटी ने उठाया है। वे ‘हैलो-हैलो’ कर रही हैं। वह उनसे नम्रता को बुला देने के लिए कहने जा रही थी कि बलात किसी ने उसके हाथों से फोन झटक लिए। उसकी अचंभित भयाक्रांत दृष्टि के समक्ष दादा खड़े हुए अगियाबेताल-से उसे घूर रहे थे।

“फोन किसे कर रही थी?”

‘मैं किसी को फोन नहीं कर सकती?’ उसने अपने भीतर प्रतिवाद किया “हिलने-डुलने साँस लेने के लिए तुझे तुम्हारी अनुमति चाहिए!”

मूक आक्रोश से उसकी पूरी देह थर्रा उठी, किंतु ओंठों पर सिवाय दयनीय फड़कन के कुछ नहीं फूट पाया। क्या हो गया है… उसे क्या हो रहा है? वह कुछ बोलती क्यों नहीं?

दादा ने बिन्नू को फोन उठाकर अपने कमरे में रख आने का आदेश किया, फिर निकट आ खड़े बाबूजी को फोन शो-केस पर रखा छोड़ देने की असावधानी पर डाँटा।

“आ चल, हम सबके साथ बैठक में चलकर अँग्रेजी समाचार सुन, तब तक चिंकी मेज पर खाना लगाएगी।” अम्मा मनोव्वल भाव प्रदर्शित करती उसे बैठक में ले चलने के लिए उद्यत हुई। अपनी ओर सप्रश्न देखते हुए बाबूजी का अभिप्राय ताड़कर वे उन्हें आवश्स्त करती हुई-सी बोलीं, “अब कोई आने से रहा, आया भी तो तुरंत अपने कमरे में भेज दूँगी।”

उसने घड़ियाली सहानुभूति से चटचटा रहे अम्मा के हाथ को अपने कंधे पर से झटका और बिना किसी की ओर देखे अपने अँधेरे कमरे की ओर मुड़ ली।

खिसियाया हुआ आक्रोश पिघलकर आँखों से बह रहा है धारोधार।

अम्मा उसके पीछे उसके बिस्तर तक चली आई और हमेशा की भाँति उसके बालों में उँगलियाँ फँसाकर चक्करघिन्नी हो रहे सिर को खुजलाती-सी सहलाने लगीं “धैर्य से काम ले, बेटा… कठिन समय में धैर्य से ही पार लगता है… जो कुछ हो रहा हे, तेरे भले के लिए ही न!”

सहन में खड़े हुए दादा उसकी मानसिक दशा पर बाबूजी से अँग्रेजी टिप्पणी कर रहे हैं “विक्षिप्त हो रही है एकदम!”

उसकी इच्छा हो रही है कि अपने बालों में फँसी अम्मा की उँगलियाँ को बालों से खींचकर पेंसिल की तराशी पैनी नोक की भाँति मोड़कर तोड़ दे… उनकी छुअन अब कपड़े उतार चुकी है। उनकी छुअन और उसकी देह के बीच अनकहे संवाद के समस्त सेतु चुक गए हैं। कभी ऐसा हो सकता था कि अम्मा उसे छू रही हों और वह निरी काठ की काठ बनी पड़ी उनकी गोद में अपना मुँह न छिपा सके!

“खाना लग गया, अम्मा! दादा और बाबूजी मेज पर बैठे हैं।” चिंकी ने कमरे में झाँककर सूचना दी।

“उन लोगों से कहो, खाना शुरू कर दें, और सुन…” अम्मा का स्वर अचानक रहस्यमय हो आया, “चूल्हे की बगल में छोटे स्टील के पतीले में काढ़ा बना रखा है, गिलास में डालकर दीदी के लिए ले आ फौरन… खाने से पहले देना है।”

‘लाई’ कहकर चिंकी रसोई की ओर लपकी। गिलास लिए कमरे में आने से पूर्व वह बाबूजी, दादा और बिन्नू को खाना शुरू कर देने को भी कह आई।

“ले, उठ नीतू! खाने से पहले तनिक ये काढ़ा तो पी ले।” अम्मा ने उसे उठाने के लिए उसकी गर्दन के नीचे हाथ फँसाया।

“काढ़ा? कैसा काढ़ा?” भूख कुलबुला रही है आँतों में।

‘चिंकी, तू जा!’ अम्मा ने गिलास चिंकी के हाथ से अपने हाथ में लेते हुए उसे कमरे से बाहर भेज दिया और अस्फुट स्वर में बोलीं “काढ़ा पी लेने से महीना किसी हालत में नहीं रुकेगा…पी ले चुपचाप!”

उसने विस्फारित नेत्रों से अम्मा की ओर देखा। कमरे में फैली पीली रोशनी उसके सूखे चेहरे पर जर्दी-सी गहरा आई।

“सोच क्या रही है? जहर नहीं पिला रही तुझे…” अम्मा के धैर्य का मुखौटा उनके चेहरे पर से सरकने लगा।

“जहर ही पिला दो सीधा… छुट्टी!”

“नीतूऽऽ…”

“तुमने पूछा मुझसे?”

“हाथ आई को मर्द छोड़ता है कहीं।”

“हाथ आती तब न! तुमसे झूठ बोला है कभी?”

“बोला हो, न बोला हो… काढ़ा पीने में हर्ज? उबाली जड़ी-बूटियाँ भर ही तो हैं।”

“हर्ज है… इसका मतलब है, तुम मुझ पर विश्वास नहीं कर रहीं।”

“ठीक है, नहीं कर रही… तू काढ़ा पी चुपचाप।”

“नहींऽऽहऽ!”

वह उठी हो आई।

“पीना पड़ेगा।” तैश में आई अम्मा ने उसके सिर के बालों को निर्ममता से मुट्ठी में दबोच लिए और दूसरे हाथ से जबरन गिलास उसके मुँह से लगाना चाहा।

उसने प्रतिकार में पूरी ताकत से अम्मा को परे ढकेल दिया। काढ़े का गिलास अम्मा के हाथ से छिटककर पायताने रखी किताबों-भरी अजमारी से जा टकराया। हरेरा के रंग-सा काढ़ा किताबों की जिल्दों से बहता हुआ फर्श पर चूने लगा।

क्रुद्ध शेरनी-सी अम्मा आपा खो बैठीं। वे उसकी अनपेक्षित उद्दंडता के लिए कतई प्रस्तुत नहीं थीं। लपककर झपाटे से उन्होंने पुनः उसके बालों को मुट्ठी में कस लिए और उसके छूटने को कसमसाते चेहरे पर तड़ा-तड़ चाँटें जड़ने शुरू कर दिए।

उसने हिंस्र हो आई अम्मा के चाँटे जड़ते हाथ को दोनों हाथों से पकड़ने की कोशिश की, लेकिन अम्मा के सिर पर तो जैसे भूत सवार हो गया था। उनका हाथ पकड़ने की अनधिकार चेष्टा ने आग में घी का काम किया। अम्मा ने उसे बालों समेत पलंग पर से फर्श पर खींच लिए और शक्ति-भर उस पर लातें बरसाने लगीं। वे शायद उसे लात-घूँसों से अचेत होने की सीमा तक रौंदतीं, अगर दादा और बिन्नू ने उन्हें पीछे से जकड़कर अलग न कर दिया होता।

“अच्छा होता… तू उन्हीं डेढ़ सौ परलोक सिधार गए सवारियों में से एक होती कुलच्छिन!” जाते-जाते अम्मा सराप रही थीं उसे।

प्रेम, वात्सल्य, शुभेच्छा – सब झूठे शब्द हैं। अपनी-अपनी कुंठाओं का पर्याय। वे जो जीवन के नाम पर जीना उसे सौंपना चाहते हैं, वह पग-पग पर उनकी शर्तों के तैयारशुदा फंदों में स्वयं को कसना नहीं होगा? यह नजरबंदी मात्र हफ्ते-भर के लिए नहीं है। एक लंबा गिरवी जीवन ऐसी ही नजरबंदी की चींथती सँकरी सुरंग में बंदी होकर बिताना होगा उसे। बिता सकेगी वह?

कितनी कुशलता से अम्मा, बाबूजी ने अपने भीतर के अविवेकी शोषक को रोप दिया बिन्नू और चिंकी के कच्चे मन-मस्तिष्क में कि उन्हें अपनी दीदी से अलग होते समय नहीं लगा। उनकी दृष्टि जब भी उसकी ओर उठती है, संशय, हिकारत से भरी किसी अपराधी की ओर तनी उँगली हो उठती है।

बुआ के गाँव बिरहुन के चमरा टोले में देखा वह दृश्य अट्टहास भरने लगा उसकी चेतना पर, जिसमें छह-सात लोग बल्लम, भाला ताने अपने ही हाथों सेये गए सुअर का वध करने को उसे घेरे रहे थे और सुअर दारुण चीत्कार करता हुआ अपने प्राणों की रक्षा के लिए शक्ति-भर भाग रहा था… भाग रहा था…

नहीं… इनके सामने आत्म-समर्पण से अच्छा है आत्मघात!

पूरा घर बेसुध नींद में चियाया पड़ा हुआ है। सावधानीपूर्वक उठकर उसने अपने कमरे की चटखनी भीतर से चढ़ा ली और पेटी के ऊपर तहाए रखे कपड़ों में से अम्मा की एक नायलोन की साड़ी खींचकर, उसे बटकर मजबूत फंदा तैयार किया। साड़ी का एक सिरा बिस्तर पर मोढ़ा रखकर, छत के पंखे से बाँध, उसे खींच-खींचकर परखा… मुक्ति का यही रास्ता शेष है… कारण वह कोई लिखकर नहीं मरेगी। दादा का हस्तलेख हू-ब-हू उससे मिलता है। जो भी कारण वे लोग अपनी प्रतिष्ठा और पसंद के अनुसार चुनना चाहें, उसके आत्मघात के संदर्भ में चुनने के लिए स्वतंत्र हैं।

वह मोढ़े पर चढ़कर खड़ी हो गई। फंदा पकड़कर अपने गले में डालने जा रही थी कि अचानक उसकी आँखों में सामने ‘सांध्य टाइम्स’ की वह अनदेखी प्रति घूम गर्इं, जिसमें बॉक्स आइटम में यह खबर प्रकाशित हुई थी कि दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र-छात्राएँ कल सुबह दस बजे पुलिस मुख्यालय के समक्ष, छात्रा अनिता गुप्ता के कथित बलात्कारी टैक्सी-चालक को पकड़ने में हो रहे विलंब के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन करेंगे…

कल वही छात्र-छात्राएँ जब बॉक्स आइटम में उसके आत्मघात की सूचना पढ़ेंगे तो वे स्वयं को अपमानित और ठगा हुआ नहीं महसूस करेंगे कि वे एक निहायत कमजोर और कायर लड़की के बहाने अपनी लड़ाई लड़ रहे थे, जो उन्हें लड़ने से पहले ही हार मानने को अभिशप्त कर गई!

वह पलों मोढ़े पर खड़ी ‘सांध्य टाइम्स’ की अनदेखी प्रति में प्रकाशित उस सूचना को बार-बार पढ़ती रही…

अनिश्चय के गर्भ में अंखुआता एक निश्चय अपना कद ग्रहण करने लगा वह एक से लड़ सकती है पाँच से क्यों नहीं लड़ सकती? अब वह अकेली भी तो नहीं!

गले से फंदा निकालकर वह उचक-उचककर खेल खेलती-सी पंखे से अम्मा की साड़ी की गाँठ खोलने लगी। जो सामान जहाँ जैसा था, उसने यथावत रख दिया। जाकर बोझमुक्त हो, निश्चिंत-सी पलंग पर लेट गई। नींद एक अजीब-सी खुमारी लिए उस पर तारी हो रही है… कल सुबह वह भी होगी आई.टी.ओ. स्थित पुलिस मुख्यालय के सामने विरोध-प्रदर्शन के लिए एकजुट होती अपनी पीढ़ी के साथ..

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प्रेतयोनि – Pretayoni

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चित्रा मुदगाली के बारे में जानें

चित्रा मुद्गल (फोटो- @sahityaakademi)
चित्रा मुद्गल (फोटो- @sahityaakademi)

चित्रा मुद्गल एक भारतीय लेखिका हैं और आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रमुख साहित्यिक हस्तियों में से एक हैं। वह अपने उपन्यास अवान के लिए प्रतिष्ठित व्यास सम्मान प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला हैं। 2019 में उन्हें उनके उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203, नालासोपारा के लिए भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार, साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।

पूरा नामचित्रा मुद्गल
जन्म10 सितम्बर, 1943
जन्म भूमिचेन्नई, तमिलनाडु
कर्म भूमिभारत
कर्म-क्षेत्रकथा साहित्य
शिक्षाहिंदी साहित्य में एमए
मुख्य रचनाएँ‘आवां’, ‘गिलिगडु’, ‘एक ज़मीन अपनी’, ‘जीवक’, ‘मणिमेख’, ‘दूर के ढोल’, ‘माधवी कन्नगी’ आदि।
भाषाहिन्दी
पुरस्कार-उपाधिसाहित्य अकादमी पुरस्कार
‘उदयराज सिंह स्मृति पुरस्कार’ (2010)
‘व्यास सम्मान’ (2003)
प्रसिद्धिलेखिका
नागरिकताभारतीय
अन्य जानकारीचित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘आवां’ आठ भाषाओं में अनुदित हो चुका है तथा यह देश के 6 प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत है।
अद्यतन‎12:31, 11 सितम्बर 2021 (IST)
इन्हें भी देखेंकवि सूची, साहित्यकार सूची
चित्रा मुद्गल

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