शहद के बारे में
मैं एक शब्‍द भी नहीं बोलूँगा

वह
जो बहुश्रुत संकलन था
सहस्‍त्र पुष्‍प कोषों में संचित रहस्‍य रस का

जो न पारदर्शी न ठोस न गाढ़ा न द्रव
न जाने कब
एक तर्जनी की पोर से
चखी थी उसकी श्‍यानता
गई नहीं अब भी वह
काकु से तालु से
जीभ के बींचों-बीच से
आँखों की शीतलता में भी वही

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मैं एक शब्‍द भी नहीं बोलूँगा