प्रतिध्वनि | अरुण देव
प्रतिध्वनि | अरुण देव

प्रतिध्वनि | अरुण देव

प्रतिध्वनि | अरुण देव

एक शाम
भीतर की उमस और बाहर के घुटन से घबराकर
निकल पड़ा नदी के साथ-साथ
नदी जो नगर के बाहर
धीरे-धीरे बहे जा रही है

अब यह जो बह रहा है वह कितना पानी है
कितना समय कहना मुश्किल है ?

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बहरहाल शहर के चमक और शोर के बीच
उसका एकाकी बहे जाना
मुझे अचरज में डाल रहा था
जैसे यह नदी इतिहास से सीधे निकल कर
यहाँ आ गई हो
अपनी निर्मलता में प्रार्थना की तरह

कोई अदृश्य पुल था जो जोड़ता था
बाहर के पानी को भीतर के जल से

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कि जब पुकारता था बाहर का प्रवाह
टूट कर गिरता था अंदर का बाँध।

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