पिता के लिए | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
पिता के लिए | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

यहीं कहीं बिखरी है
राख तुम्हारी
यहीं कहीं से
वह चिनगारी
मेरे भीतर
समा गई
है

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