पिता | धीरेंद्र अस्थाना
पिता | धीरेंद्र अस्थाना

पिता | धीरेंद्र अस्थाना – Pita

पिता | धीरेंद्र अस्थाना

‘अपन का क्या है/अपन तो उड़ जाएँगे अर्चना/धरती को धता बताकर/अपन तो राह लेंगे अपनी/पीछे छूट जाएगी/घृणा से भरी और संवेदना से खाली/इस संसार की कहानी’ – एयर इंडिया के सभागार में पिन ड्रॉप साइलेंस के बीच राहुल बजाज की कविता की पंक्तियाँ एक ऐंद्रजालिक सम्मोहन उपस्थित किए दे रही थीं। अब किसी सभागार में राहुल बजाज की कविता का पाठ शहर के लिए एक दुर्लभ घटना जैसा होता था। प्रबुद्ध जन दूर दूर के उपनगरों से लोकल, ऑटो, बस, टैक्सी या अपनी निजी कार से इस क्षण का गवाह बनने के लिए सहर्ष उपस्थित होते थे। राहुल शहर का मान था। साहित्य के जितने भी भारतीय अवार्ड थे वे सब के सब राहुल के घर में एक गर्वीले ठाठ के साथ शोभायमान थे। दुनिया भर की प्रसिद्ध किताबों से उसकी स्टडी अँटी पड़ी थी। अखबार, पत्रिकाओं और टीवी चैनलवाले जब तब उसका इंटरव्यू लेने के लिए उसके घर की सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते रहते थे। उसके मोबाइल फोन में प्रदेश के सीएम, होम मिनिस्टर, गवर्नर, कल्चरल सेक्रेटरी, पुलिस कमिश्नर, पेज थ्री की सेलिब्रिटिज और बड़े पत्रकारों के पर्सनल नंबर सेव थे।

वह युनिवर्सिटियों में पढ़ाया जा रहा था। असम, दार्जिलिंग, शिमला, नैनीताल, देहरादून, इलाहाबाद, लखनऊ, भोपाल, चंडीगढ़, जोधपुर, जयपुर, पटना और नागपुर में बुलवाया जा रहा था। मुंबई जैसे मायावी नगर में वह टू बेडरूम हॉल के एक सुविधा और सुरुचि संपन्न फ्लैट में जीवन बसर कर रहा था। वह मारुति जेन में चलता था। रेमंड तथा ब्लैक बेरी की पैंटें, पार्क एवेन्यू और वेनह्यूजन की शर्टें और रेड टेप के जूते पहनता था। विगत में घटा जो कुछ भी बुरा, बदरंग और कसैला था, उन सबको वह झाड़-पोंछकर नष्ट कर चुका था। लेकिन चीजें इस तरह नष्ट होती हैं क्या! ‘अतीत कभी दौड़ता है, हमसे आगे, भविष्य की तरह, कभी पीछे भूत की तरह लग जाता है। हम उल्टे लटके हैं आग के अलाव पर, आग ही आग है नसों के बिल्कुल करीब, और उनमें बारूद भरा है।’ यह उसके बचपन का एक बहुत खास दोस्त बंधु था जो कॉलेज पहुँचने तक कविताएँ लिखने लगा था और नक्सली गतिविधियों के मुहाने पर खड़ा रहता था। वह बारूद की तरह फटता इससे पहले ही देहरादून की वादियों में कुछ अज्ञात लोगों द्वारा निर्ममतापूर्वक मार दिया गया।

राहुल डर गया। इसलिए नहीं कि उसने पहली बार मौत को इतने करीब से देखा था। इसलिए कि चौबीस बरस का बंधु बीस साल के राहुल के जीवन की पाठशाला बना हुआ था। यह पाठशाला उजड़ गई थी। उसने गर्दन उठाकर देखा, शहर के तमाम रास्ते निर्जन और डरावने लग रहे थे। एक खूबसूरत शहर में कुछ अभिशप्त प्रेतों ने डेरा डाल दिया था। वह एकदम अकेला था और निहत्था भी। कुछ कच्ची अधपकी कविताएँ, थोड़े बहुत विद्रोही किस्म के विचार, कुछ मौलिक और पवित्र तरह के सपने, एक इंटरमीडिएट पास का सर्टिफिकेट, अहंकारी, तानाशाह, सर्वज्ञ और गीता इलेक्ट्रिकल्स के मालिक पिता के एकाधिकारवादी साए के नीचे बीत रहा था जीवन। यह सबकुछ इतना थोड़ा और आततायी किस्म का था कि राहुल डगमगा गया। उस रात वह देर तक पीता रहा और आधी रात को घर लौटा। पीता वह पहले भी था लेकिन तब वह बंधु के साथ उसके घर चला जाता था।

राहुल को याद है। एकदम साफ साफ। पिता ने उसे पर्दे की राड से मारा था। वह पिटते पिटते आँगन में आ गया था और हैंडपंप से टकराकर गिर पड़ा था। पंप और हत्थे को जोड़नेवाली मोटी-लंबी कील उसके पेट को चीरती गुजर गई थी। पेट पर दाईं ओर बना छह इंच का यह काला निशान रोज सुबह नहाते समय उसे पिता की याद दिलाता है। सिद्धार्थ अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर एक रात घर से गायब हुआ था और गौतम बुद्ध कहलाया था। राहुल अपने पिता, अपनी माँ और कमरे की खिड़की से झाँकते अपने तीन भाई-बहनों की भयाक्रांत आँखों को ताकते हुए, खून से लथपथ उसी हैंडपंप पर चढ़कर आँगन की छत के उस पार कूद गया था। उस पार एक आग की नदी थी और तैर के जाना था। पीछे शायद माँ पछाड़ खाकर गिरी थी।

मेरे पास गाड़ी है, बँगला है, नौकर हैं। तुम्हारे पास क्या है? अमिताभ बच्चन ने दर्प में ऐंठते हुए पूछा है। शशि कपूर शांत है। ममत्व की गर्माहट में सिंकता हुआ। उसने एक गहरे अभिमान में भरकर कहा – मेरे पास माँ है। अमिताभ का दर्प दरक रहा है।

राहुल को समझ नहीं आता। उसके पास माँ क्यों नहीं है? राहुल को यह भी समझ नहीं आता कि क्यों दुनिया का कोई बेटा घमंड से भरकर यह नहीं कहता कि मेरे पास बाप है। बाप और बेटे अक्सर द्वंद्व की एक अदृश्य डोर पर क्यों खड़े रहते हैं?

‘अब जबकि उँगलियों से फिसल रहा है जीवन/ और शरीर शिथिल पड़ रहा है/ आओ अपन प्रेम करें वैशाली।’ एस.एन.डी.टी. महिला विश्विविद्यालय के कॉन्फ्रेन्स रूम में राहुल बजाज की कविता गूँज रही है। कविता खत्म होते ही वह ऑटोग्राफ माँगती नवयौवनाओं से घिर गया है।

वह कुमाऊँ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का सभागार था। उसके एकल काव्यपाठ के बाद विभागाध्यक्ष ने अपनी सबसे मेधावी छात्रा को नैनीताल घुमाने के लिए उसके साथ कर दिया था। इस छात्रा के साथ राहुल का छोटा-मोटा भावत्मक और बौद्धिक पत्र-व्यहार पहले से था। वह पत्रिकाओं में राहुल की कविताएँ पढ़कर उसे खत लिखा करती थी। बीस साल पहले माल रोड की उस ठंडी सड़क पर केतकी बिष्ट नाम की उस एम.ए. हिंदी की छात्रा ने सहसा राहुल का हाथ पकड़कर पूछा था – ‘मुझसे शादी करोगे?’

राहुल अवाक। हलक भीतर तक सूखी हुई। अक्तूबर की उस पहाड़ी ठंड में माथे पर चली आई पसीने की चंद बूँदें। आँखों में अचरज का समंदर। एक युवा, प्रतिभाशाली, तेज-तर्रार कवि के रूप में राहुल को तब तक मान्यता मिल चुकी थी। वह दिल्ली के एक साप्ताहिक अखबार में नौकरी कर रहा था। लेकिन शादी के लिए इतना काफी था क्या? फिर वह लड़की के बारे में ज्यादा कुछ जानता नहीं था। सिवा इसके कि वह कुछ कुछ रिबेलियन किस्म के विचारों से खदबदाती रहती थी, कि जीवन की चुनौतियाँ उसे जीने की लालसा से भरती थीं। उसकी आँखें गजब के आत्मविश्वास से दमक रही थीं।

आत्मविश्वास की इस डगर पर चलता हुआ क्या मैं अपने स्वप्नों को पैरों पर खड़ा कर सकूँगा? राहुल ने सोचा और केतकी की आँखों में झाँका। ‘हाँ!’ राहुल ने कहा और केतकी का माथा चूम लिया। आसपास चलती भीड़ आश्चर्य से ठहरने लगी। बीस बरस पहले यह अचरज की ही बात थी। खासकर नैनीताल जैसे छोटे शहर में। बिष्ट साहब की बेटी… बिष्ट साहब की बेटी… हवाओं में हरकारे दौड़ पड़े।

लेकिन अगली सुबह नैनीताल कोर्ट में बिष्ट दंपति तथा विभागाध्यक्ष की गवाही में राहुल और केतकी पति-पत्नी बन गए। उसी शाम राहुल और केतकी दिल्ली लौट आए – सरोजिनी नगर के एक छोटे से किराए के कमरे में अपना जीवन शुरू करने। एस.एन.डी.टी. के सभागार में ऑटोग्राफ सेशन से निपटने के बाद एक कुर्सी पर बैठे राहुल को अपना विगत अपने से आगे दौड़ता नजर आता है।

राहुल अँधेरी स्टेशन की सीढ़ियाँ उतर रहा था। विकास सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। उसकी उँगलियों में सिगरेट दबी थी। राहुल ने विकास की कलाई थाम ली। सिगरेट जमीन पर गिर पड़ी। राहुल विकास को घसीटता हुआ स्टेशन के बाहर ले आया। एक सुरक्षित से लगते कोने पर पहुँचकर उसने विकास की कलाई छोड़ दी और हाँफते हुए बोला, ‘मैंने तुमसे कहा था, जीवन का पहला पैग और पहली सिगरेट तुम मेरे साथ पीना। कहा था ना?’ ‘ज्जी!’ विकास की घिघ्घी बँधी हुई थी। ‘तो फिर?’ राहुल ने पूछा। विकास ने गर्दन झुका ली और धीरे से कहा, ‘सॉरी पापा! अब ऐसा नहीं होगा।’ राहुल मुस्कुराया। बोला, ‘दोस्त जैसा बाप मिला है। कद्र करना सीखो।’ फिर दोनों अपने अपने रास्तों पर चले गए।

विकास मुंबई के जेजे कॉलेज ऑफ आर्ट्स में प्रथम वर्ष का छात्र था। केतकी उसे डॉक्टर बनाना चाहती थी लेकिन विकास के कलात्मक रूझान को देख राहुल ने उसे हाई स्कूल साइंस के बाद इंटर आर्ट्स से करने और उसके बाद जेजे में एडमिशन लेने की स्वीकृति दे दी थी। वह कमर्शियल आर्टिस्ट बनना चाहता था। राहुल उन दिनों एक दैनिक अखबार का न्यूज एडीटर था। आधी रात को आना और सुबह देर तक सोते रहना उसकी दिनचर्या थी।

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इतवार की एक सुबह उसने केतकी से पूछा, ‘विकास नहीं दिख रहा।’

‘बेटे की सुध आई?’ केतकी व्यंग्य की डोर थामे उस पार खड़ी थी।

‘लेकिन घर तो शुरू से ही तुम्हारा ही रहा है।’ राहुल ने सहजता से जवाब दिया।

‘यह घर नहीं है।’ केतकी तिक्त थी। उसे बहुत जमाने के बाद संवादों की दुनिया में उपस्थित होने का मौका मिला था, ‘गेस्ट हाउस है। और मैं हाउस कीपर हूँ। सिर्फ हाउस कीपर।’

राहुल उलझने के मूड में नहीं था। सीईओ ने उसे पुणे एडीशन की रूपरेखा बनाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। दोपहर के भोजन के बाद अपनी स्टडी में बंद होकर वह होमवर्क कर लेना चाहता था। उसने विकास का मोबाइल लगाया।

‘पापा…।’ उधर विकास था।

‘बेटे कहाँ हो तुम?’ राहुल थोड़ा तुर्श था।

‘पापा, बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है अगले मंडे। इसलिए एक हफ्ते से अपने दोस्त कपिल के घर पर हूँ। रिहर्सल चल रही है।’

‘रिहर्सल? कैसा शो?’

‘पापा आपको अपने सिवा कुछ याद भी रहता है, पिछले महीने मैंने आपको बताया नहीं था कि मैंने एक रॉक बैंड ज्वाइन किया है।’

‘रिहर्सल घर पर भी हो सकती है।’ राहुल उत्तेजित होने लगा था, टिपिकल पिताओं की तरह।

‘पापा, आप यह भी भूल गए?’

विकास की आवाज में भी व्यंग्य तैरने लगा था, ‘अभी कुछ दिन पहले जब मैं रात को प्रैक्टिस कर रहा था तब आपने घर आते ही मुझे कितनी बुरी तरह डाँट दिया था कि यह घर है नाचने गाने का अड्डा नहीं।’

‘शटअप’ राहुल ने मोबाइल ऑफ कर दिया। उसने देखा, केतकी उसे व्यंग्य से ताक रही थी। उसने सिर झुका लिया। वह धीमे कदमों से अपनी स्टडी में जा रहा था। पीछे पीछे केतकी भी आ रही थी।

‘क्या है?’ राहुल ने पूछा और पाया कि उसकी आवाज में एक अजीब किस्म की टूटन जैसी है। इस टूटन में किसी शोध में असफल हो जाने का दर्द समाया हुआ था।

‘तुम हार गए राहुल।’ केतकी की आँख में बरसों पुराना आत्मविश्वास था।

‘तुम भी ऐसा ही सोचती हो केतकी?’ राहुल ने अपनी कमीज और बनियान उलट दी। ‘क्या तुम चाहती थीं कि पेट पर पड़े ऐसे ही किसी निशान को देखकर विकास को अपने बाप की याद आया करती?’

‘नहीं।’

‘तो फिर?’ राहुल की आवाज में दर्द था। ‘मैंने विकास को एक लोकतांत्रिक माहौल देने का प्रयास किया था। मैं चाहता था कि वह मुझे अपना बाप नहीं, दोस्त समझे।’

‘बाप दोस्त नहीं हो सकता राहुल। वह दोस्तों की तरह बिहेव भले ही कर ले। लेकिन होता वह बाप ही है। और उसे बाप होना भी चाहिए।’ केतकी ने झटके से अपना वाक्य पूरा किया और स्टडी से बाहर चली गई।

राहुल आरामकुर्सी पर ढह गया। अगली सुबह जब वह बहुत देर तक नहीं उठा तो केतकी ने अपने फैमिली डॉक्टर को तलब किया। डॉक्टर ने बताया, ‘इनके जीवन में हाई ब्लड प्रेशर ने सेंध लगा दी है।’

राहुल की आँखें आश्चर्य से भारी हो गईं। वह सिगरेट नहीं पीता था। शराब कभी कभी छूता था। तला हुआ और तैलीय भोजन नहीं खाता था। घर से बाहर का पानी तक नहीं पीता था।

‘तो फिर?’ उसने केतकी से पूछा।

लेकिन तब तक डॉक्टर की बताई दवाइयाँ लेने के लिए केतकी बाजार जा चुकी थी।

ग्यारह सितंबर दो हजार एक को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए विनाशक हमले के ठीक एक हफ्ते बाद राहुल बजाज को रात ग्यारह बजे उसके बेटे विकास ने मोबाइल पर याद किया। राहुल उन दिनों एक टीवी चैनल में इनपुट एडीटर था और पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था। चैनल की नौकरी में विकास तो विकास, केतकी तक राहुल को कभी कभी किसी भूली हुई याद की तरह उभरती नजर आती थी। वह विकास को अपने मुंबई वाले बसे-बसाए घर में अकेला छोड़ आया था। विकास तब तक एक मल्टीनेशन कंपनी के मुंबई ऑफिस में विजुलाइजर के तौर पर नौकरी करने लगा था। आम तौर पर विकास का मोबाइल ‘नॉट रीचेबल’ ही होता था। पंद्रह बीस दिनों में कभी उसे माँ की याद आती तो वह दिल्ली के लैंडलाइन पर फोन कर माँ से बतियाता था। केतकी के जरिए ही राहुल को पता चला कि विकास मजे में है। उसकी नौकरी ठीक है और वह एक उभरता रॉक गायक भी बन गया है। वह माँ को बताता था कि मकान का मेंटेनेंस समय पर दिया जा रहा है, कि लैंड लाइन फोन का बिल और बिजली का बिल भी समय पर दिया जा रहा है। सोसायटी के लोग उन्हें याद करते हैं और उसने अपने एक दोस्त से किस्तों पर एक सेकिंड हैंड मोटर साइकिल खरीद ली है। वह बताता कि मुंबई की लोकल में भीड़ अब जानलेवा हो गई है। अब तो किसी भी समय चढ़ना-उतरना मुश्किल हो गया है। एक खाते-पीते मध्यवर्गीय परिवार के लक्षण यहाँ भी थे, वहाँ भी। राहुल की जिंदगी बीत रही थी। केतकी की भी। व्यस्त रहने के लिए केतकी दिल्ली में कुछ टयूशन करने लगी थी।

इसीलिए विकास के फोन ने राहुल को विचलित कर दिया।

‘बापू….’ विकास लाड़, शराब और स्वतंत्रता के नशे में था, ‘बापू, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की बिल्डिंग में हमारा भी हेड ऑफिस था। सब खल्लास हो गया। ऑफिस भी, मालिक भी। मालकिन ने ई-मेल भेजकर मुंबई ऑफिस को बंद कर दिया है।’

‘अब?’ राहुल ने संयत रहने की कोशिश की, ‘अब क्या करेगा?’

‘करेगा क्या स्ट्रगल करेगा। अभी तो एक महीने नोटिस की पगार है अपने पास। उसके बाद देखा जाएगा।’ विकास आश्वस्त लग रहा था।

‘ऐसा कर, तू घर में ताला लगाकर दिल्ली आ जा। मैं तुझे अपने चैनल में फिट करवा दूँगा।’ राहुल की हमेशा व्यस्त और व्यावसायिक आवाज में बहुत दिनों के बाद एक चिंतातुर पिता लौटा।

‘क्या पापा…।’ विकास शायद चिढ़ गया था, ‘आप भी कभी कभी कैसी बातें करते हैं। मेरा कैरियर, मेरे दोस्त, मेरा शौक, मेरा पैशन सब कुछ यहाँ है… यह सब छोड़कर मैं वहाँ आ जाऊँ, उस गाँव में जहाँ लोग रात को आठ बजे सो जाते हैं। जहाँ बिजली कभी कभी आती है। ओह शिट… आई हेट दैट सिटी।’ विकास बहकने लगा था, ‘मम्मी मुझे बताती रहती है वहाँ की मुसीबतों के बारे में। अपुन इधरीच रहेगा। आई लव मुंबई, यू नो। अगले महीने मैं अपना बैंड लेकर पूना जा रहा हूँ शो करने।’

‘जैसी तेरी मर्जी।’ राहुल ने समर्पण कर दिया, ‘कोई प्रॉब्लम आए तो बता जरूर देना।’

‘शाब्बाश। ये हुई न मर्दोंवाली बात।’ विकास ने ठहाका लगाया फिर बोला, ‘टेक केयर… बाय।’

राहुल का जी उचट गया। उसने खुद को सांत्वना देने की कोशिश की। आखिर सब कुछ तो है मुंबईवाले घर में। टीवी, फ्रिज, कंप्यूटर, वीसीडी प्लेयर, वाशिंग मशीन, गैस, डबल बेड, वार्डरोब, सोफा, बिस्तर। इतना सक्षम तो है ही अपना बेटा कि दो वक्त की रोटी जुटा ले। उसने निश्चिंत होने की कोशिश की लेकिन कुछ था जो उसके सुकून में सेंध लगा रहा था। थोड़ी देर बाद वह घर लौट आया। लौटते वक्त उसने मोबाइल पर अपनी सोसायटी के सेक्रेटरी से रिक्वेस्ट किया कि कभी मेंटेनेंस मिलने में देर हो जाए तो वह मिस कॉल दे दे। पैसा सोसायटी के अकाउंट में ट्रांस्फर हो जाएगा। फिर उसने सेक्रेटरी से आग्रह किया कि विकास का ध्यान रखना। सेक्रेटरी सिख था। खुशमिजाज था। बोला, ‘तुसी फिक्र न करो। असि हैं न। वैसे त्वाडा मुंडा बड़ा मस्त है। कदी-कदी दिखता है बाइक पर तो बाय अंकल बोलता है।’

राहुल को घर आया देख केतकी विस्मित रह गई। अभी तो सिर्फ पौने बारह बजे थे। राहुल कभी भी दो बजे से पहले नहीं आता था।

‘विकास का फोन था।’ राहुल ने बताया, ‘उसकी नौकरी चली गई है लेकिन यह कोई चिंता की बात नहीं है।’

‘तो?’ केतकी कुछ समझी नहीं।

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‘उसने शराब पी रखी थी।’ राहुल ने सिर झुका लिया। उसकी आवाज दूसरी शताब्दी के उस पार से आती हुई लग रही थी। राख में सनी, मटमैली और अशक्त। केतकी के भीतर बुझते अंगारों में से कोई एक अंगार सुलग उठा। राहुल की आवाज ने उसे हवा दी थी शायद।

‘जब हम दिल्ली आ रहे थे मैंने तभी कहा था कि विकास को मुंबई में अकेला मत छोड़ो।’

‘केतकी, मूर्खों जैसी बात मत करो। बच्चे जवान होकर लंदन, अमेरिका, जर्मनी और जापान तक जाते हैं। नौकरियाँ भी आती-जाती रहती हैं। फिर हम अभी जीवित हैं न!’ राहुल सोफे पर बैठ गया और जूते उतारने लगा, ‘उसका नशे में होना भी कोई धमाका नहीं है। ऑफ्टर ऑल बाइस साल का यंग चैप है।’

‘तो फिर?’ केतकी पूछ रही थी, ‘तुम परेशान किस बात को लेकर हो?’

‘परेशान कहाँ हूँ?’ राहुल झूठ बोल गया, ‘एक प्रतिकूल स्थिति है जो फिलहाल विकास को फेस करनी है। टेलेंटेड लड़का है। दूसरी नौकरी मिल जाएगी। इस उम्र में स्ट्रगल नहीं करेगा तो कब करेगा? उसे अपने खुद के अनुभवों और यथार्थ के साथ बड़ा होने दो।’

‘तुम जानो।’ केतकी ने गहरी निश्वास ली, ‘कहीं तुम्हारे विश्वास तुम्हें छल न लें।’

‘डोंट वरी। मैं हूँ न!’ राहुल मुस्कुराया। फिर वे सोने के लिए बेडरूम में चले गए। रात का खाना राहुल दफ्तर में ही खाया करता था। उस रात राहुल ने सिर्फ दो काम किए। दाएँ से बाएँ करवट ली और बाएँ से दाएँ।

सुबह हमेशा की तरह व्यस्तताओं भरी थी। अखबार, फोन, खबरें, न्यूज चैनल, इंटरव्यू, प्रशासनिक समस्याएं, कंट्रोवर्सी, मार्केटिंग स्ट्रेटेजी, ब्यूरो कोऑर्डिनेशन, आदेश, निर्देश, टार्गेट…। एक निरंतर हाहाकार था जो चौबीस घंटे, अनवरत उपस्थित था, इस हाहाकार में समय हवा की तरह उड़ता था और संवेदनाएँ मोम की तरह पिघलती थीं। इन्हीं व्यस्तताओं में दिल्ली का दिसंबर आया। ठंड, कोहरे और बारिश में ठिठुरता। विकास से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था। घर का फोन बजता रहता। दिल हूम हूम करता। पता नहीं विकास ने क्या खाया होगा? खाना हलक से नीचे उतरने से इंकार कर देता। केतकी कुमार गंधर्व और भीमसेन जोशी की शरण लेती। विकास का मोबाइल ट्राई करती। सोसायटी की सक्रेटरी की पत्नी से फोन पर पूछती, ‘विकास का क्या हाल है?’ एक ही जवाब मिलता, ‘दिखा नहीं जी बड्डे दिनों से। मैं इनसे पूछ के फोन कराँगी।’ पर उसका फोन नहीं आता। केतकी अपनी कातर निगाहें राहुल की तरफ उठाती तो वह गहरी निस्संगता से भर कर जवाब देता, ‘नो न्यूज इज गुड न्यूज।’

‘कैसे बाप हो?’ आखिर एक रात केतकी ढह गई, ‘तीन महीने से बेटे का अता-पता नहीं है और बाप मजे में है।’

‘केतकी?’ राहुल ने केतकी को उसके मर्मस्थल पर लपक लिया, ‘मैं बीस साल की उम्र में अपना घर छोड़ कर भागा था। देहरादून से। फिर तुमसे शादी की। स्ट्रगल किया, अपना एक मुकाम बनाया। बेशक तुम साथ साथ आ रही थीं। हम देहरादून से दिल्ली, दिल्ली से लखनऊ, लखनऊ से गुवाहाटी और गुवाहटी से मुंबई पहुँचे। और अब दिल्ली में हैं। क्या तुम्हें एक बार भी याद नहीं आया कि मेरा भी एक पिता था। मैं भी एक बेटा था?’

‘लेकिन इस मामले में मैं कहाँ से आती हूँ राहुल?’ केतकी ने प्रतिवाद किया। ‘वह तुम्हारा और तुम्हारे पिता का मामला था। लेकिन यहाँ मैं इन्वॉल्व हूँ। मैं विकास की माँ हूँ। मेरे दिल में हर समय साँय-साँय होती है। सोचती हूँ कि कुछ दिनों के लिए मुंबई हो आती हूँ।’

‘ठीक है।’ राहुल गंभीर हो गया, ‘मैं कुछ करता हूँ।’

नए वर्ष के पहले दिन दोपहर बारह पैंतीस की फ्लाइट से राहुल मुंबई के लिए उड़ गया। उसके ब्रीफकेस में घर की चाबियों और पर्स में तीन बैंकों के डेबिट तथा क्रेडिट कार्ड थे।

घर विस्मयकारी तरीके से बदरंग, उदास, अराजक और उजाड़ था। राहुल का घर, जिसे वह बतौर अमानत विकास को सौंप गया था। दरवाजे के बाहर लगी नेमप्लेट जरूर राहुल के ही नाम की थी लेकिन भीतर मानों एक अपाहिज पहरेदार की छायाएँ डोल रही थीं।

धीरे-धीरे राहुल को डर लगना शुरू हुआ। ‘मैं उधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ।’ राहुल ने सोचा। इक्कीसवीं सदी का अँधेरा उसके जिस्म में भविष्य की तरह ठहर जाने पर आमादा था। उसके विश्वास, उसके मूल्य, उसकी समझ जिस पर देश का पढ़ा-लिखा तबका यकीन करता था, उसके अपने घर में विकास के मैले-कुचैले कपड़ों की तरह जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े थे। हॉल में बने बुक शेल्फ में मकड़ी के जाले लगे हुए थे और उनमें छिपकलियाँ आराम कर रही थीं। उसने फोन का रिसीवर उठाकर देखा – वह मृतकों की दुनिया में शामिल था। यानी घंटी एक्सचेंज में बजा करती होगी। नागार्जुन, निराला और मुक्तिबोध की रचनावलियों के साथ कालिदास ग्रंथावली जैसी दुर्लभ और बेशकीमती पुस्तकें सदियों पुरानी धूल के नीचे हाँफ रही थीं। सोफे के ऊपर एक इलेक्ट्रोनिक गिटार औंधा पड़ा था। टीवी के ऊपर एक नहीं तीन-तीन ऐश-ट्रे थीं, जिनमें चुटकी भर राख झाड़ने की भी जगह नहीं थी। शोकेस के किनारे कोने में सिगरेट के खाली पैकेट पड़े थे। फर्श पर चलते हुए धूल पर जूतों के निशान छप रहे थे।

राहुल भीतर घुसा – एक साबुत आशंका के साथ। किचन के प्लेटफार्म पर बिसलरी के बीस लीटरवाले कई कैन कतार से लगे थे – खाली, बिना ढक्कन। वाशिंग मशीन का मुँह खुला था और उसमें गरदन तक विकास के गंदे कपड़े ठुँसे हुए थे। पर्दों पर तेल और मसालों के दाग थे। बाथरूम और लैटरीन के दरवाजों पर कुछ विदेशी गायकों के अहमकों जैसी मुद्रावाले पोस्टर चिपके थे। राहुल का स्टडी रूम बंद था। बैडरूम में रखा कंप्यूटर और प्रिंटर नदारद था। राहुल ने चाबी से स्टडी का दरवाजा खोला- वहाँ धूल, उमस और सीलन जरूर थी लेकिन बंद होने की वजह से बाकी कमरा जस का तस था – जैसा राहुल उसे छोड़ गया था। थका हुआ, प्रतीक्षातुर और उदास। यह कमरा मानों राहुल को यह सांत्वना दे रहा था कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। अपनी राइटिंग टेबल के सामने पड़ी रिवॉल्विंग चेयर पर बैठकर राहुल ने विकास का मोबाइल लगाने की एक व्यर्थ सी कोशिश की लेकिन आश्चर्य कि घंटी बज गई।

‘हैलो…’ यह विकास था हूबहू राहुल जैसी आवाज में। तीन महीने से अदृश्य।

‘कहाँ है?’ राहुल ने पूछा।

‘पापा…!’ विकास चीखा, ‘कैसे हो, मॉम कैसी है?’

‘तुझसे मतलब?’ राहुल चिढ़ गया।

‘पापा, मेरा मोबाइल बंद था, परसों ही चालू हुआ है। मैं आपको बताने ही वाला था। गुड न्यूज। परसों ही मेरी नौकरी लगी है- रिलायंस इन्फोकॉम में। पगार है पंद्रह हजार रुपए। तीन महीने से खाली भटकते-भटकते मैं पागल हो गया था। बीच में मेरा एक्सीडेंट भी हो गया था। मैं पंद्रह दिन अस्पताल में पड़ा रहा। बाइक भी टूट गई। भंगार में बेच दी।’ विकास बताता जा रहा था। बिना रुके, बिना किसी दुख, तकलीफ या पछतावे के। खालिस खबरों की तरह।

‘तूने एक्सीडेंट की भी सूचना नहीं दी?’ राहुल को सहसा एक अनाम दुख ने पकड़ लिया।

‘उससे क्या होता?’ विकास तर्क दे रहा था, ‘आपका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता। आप लोग भागे-भागे यहाँ आते। ठीक तो मुझे दवाइयाँ ही करतीं न? फिर दोस्त लोग थे न। किस काम आते साले हरामखोर। आप देखते तो डर जाते पापा। बाईं आँख की तो वाट लग गई थी। पूरी बाहर ही आ गई थी। माथे पर सात टाँके आए। होंठ कट गया था। अब सब ठीक है।’

‘पैसा कहाँ से आया?’ राहुल ने पूछा।

‘दोस्त ने दिया। कंप्यूटर बेचना पड़ा। अब धीरे धीरे सब चुका दूँगा।’

‘और घर कबसे नहीं गया?’

‘शायद आठ-दस दिन हो गए।’ विकास ने आराम से बताया।

‘और घर का फोन?’

‘वो डैड है।’ विकास ने बताया, ‘मैं भाड़ा कहाँ से देता? खाने के ही वांदे पड़े हुए थे।’

‘मेंटिनेंस भी नहीं दिया होगा?’

‘हाँ।’ विकास बोला।

‘तुझे यह सब बताना नहीं चाहिए था?’ राहुल झुँझला गया, ‘इस तरह बर्ताव करती है तुम लोगों की पीढ़ी अपने माँ-बाप के साथ?’

‘पापा आप तो लेक्चर देने लगते हो।’ विकास भी चिढ़ गया, ‘मकान कोई छीन थोड़े ही रहा है? अब नौकरी लग गई है, सब कुछ दे दूँगा। अच्छा सुनो, मम्मी से बात कराओ न!’

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‘मम्मी दिल्ली में है।’

‘दिल्ली में? तो आप कहाँ हैं?’ विकास थोड़ा विस्मित हुआ।

‘मुंबई में। अपने घर में।’ राहुल ने बताया।

‘ओके बाय, मैं शाम तक आता हूँ।’ विकास ने फोन काट दिया। उसकी आवाज में पहली बार कोई लहर उठी थी। क्या फर्क है? राहुल खुद से पूछ रहा था। सिर्फ इतना ही न कि मैं घर से भाग गया था और विकास घर से दूर है – अपनी तरह से जीता-मरता हुआ। अपनी एक समानांतर दुनिया में। वह एक अदृश्य सी डोर से अपने मम्मी-पापा के साथ बँधा हुआ है और राहुल की दुनिया में यह डोर भी नहीं थी। घर से भागने के पूरे सात वर्ष बाद जब जोधपुर में पिता का ब्रेन कैंसर से देहांत हो गया, तब माँ का मौन टूटा था। और माँ की आज्ञा से छोटे भाई ने उसका पता खोज कर उसे टेलीग्राम दिया था -‘पिता नहीं रहे। अगर आना चाहो तो आ सकते हो।’

वह नहीं गया था। अगर पिता उसके जीवन से निकल गए थे, अगर माँ, माँ नहीं बनी रह सकी थी, अगर भाई-बहन उसे ठुकरा चुके थे तो राहुल ही क्यों एक बंद दुनिया का दरवाजा खोलने जाता? जब अपने लहुलुहान शरीर को लिए वह घर के बाहर कूद रहा था तब दरवाजा खोलकर माँ बाहर आकर उसके कदमों की जंजीर नहीं बन सकती थी? पिता को एक बार भी ख्याल नहीं आया कि बीस साल का एक इंटर पास लड़का इतनी बड़ी दुनिया में कहाँ मर-खप रहा है?

राहुल बजाज ने पाया कि उसकी बाईं आँख से एक आँसू ढुलककर गाल पर उतर आया है। शायद बाईं आँख दिल से और दाईं आँख दिमाग से जुड़ी है। राहुल ने सोचा और अपनी खोज पर मुस्कुरा दिया।

दो बाइयों की मदद से घर शाम तक सामान्य स्थिति में आ गया। सोसायटी का सेक्रेटरी बदल गया था। नोटिस बोर्ड पर मेंटेनेंस न देनेवालों में राहुल बजाज का नाम भी शोभायमान था। राहुल ने पूरे हिसाब चुकता किए और बारह महीने के पोस्ट डेटेड चेक सेक्रेटरी को सौंप दिए। बिजली के बिल के खाते में भी उसने पुराने चौदह सौ और अग्रिम सोलह सौ मिलाकर तीन हजार का चेक जमा करवा दिया। टेलीफोन सरेंडर करने की अप्लीकेशन भी उसने सेक्रेटरी को दे दी – साइन किए हुए क्रॉस्ड चेक के साथ। विकास के सारे गंदे कपड़े धोबी के यहाँ भिजवा दिए। टीवी, फ्रिज और वाशिंग मशीन उसने दस हजार रुपए में केतकी के एक दोस्त को बेच दिए। इसी दोस्त रेवती के पति ललित तिवारी के घर वह रात के खाने पर आमंत्रित था।

रात आठ बजे विकास आया। वह अपने साथ बैगपाइपर की बॉटल लाया था।

‘आपने कहा था न, पहला पैग मेरे साथ पीना।’ विकास बोला, ‘वह तो नहीं हो सका लेकिन मेरी नई नौकरी की खुशी में हम एक साथ चियर्स करेंगे।’

‘मंजूर है।’ राहुल निर्विकार था, ‘मैं घर में ताला लगाकर जा रहा हूँ।’

‘चलेगा।’ विकास तनिक भी परेशान नहीं हुआ, ‘मेरा दफ्तर मरोल में है। अँधेरी से मीरा रोड की ट्रेन में चढ़ना अब पॉसिबल नहीं रहा। मैं दफ्तर के पास ही कहीं पेइंग गेस्ट होने की सोच रहा हूँ।’

विकास रेवती और ललित के घर खाने पर नहीं गया। उसने पुष्पक होटल से अपने लिए चिकन बिरियानी मँगवा ली।

अगली सुबह इतवार था। राहुल सोकर उठा तब तक विकास तैयार था। उसने पापा के लिए दो अंडों का ऑमलेट बना दिया था।

‘कहाँ?’ राहुल ने पूछा।

‘मेरी रिहर्सल है।’ विकास ने कहा, ‘आज शाम सात बजे बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है।’

‘क्या उस शो में मैं नहीं आ सकता?’ राहुल ने पूछा।

‘क्या?’ विकास अचरज के हवाले था। ‘आप मेरा शो देखने आएँगे? लेकिन आप और मम्मी तो कुमार गंधर्व भीमसेन जोशी टाइप के लोगों…।’

‘ऑफ्टर ऑल, जो तू गाता है वह भी तो संगीत ही है न?’ राहुल ने विकास की बात काट दी।

‘येस्स’ विकास ने दोनों हाथों की मुट्ठियाँ हवा में उछालीं, ‘मैं इंतजार करूँगा।’ फिर वह अपना गिटार लेकर सीढ़ियाँ उतर गया। देर तक राहुल की आँख में विकास के कानों में लटकी बालियाँ और छोटे छोटे कलर किए गए खड़े बाल उलझन की तरह डूबते-उतराते रहे। जब केतकी का फोन आया तो राहुल ठीक ठीक बता नहीं पाया कि वह किसके साथ है – विकास के या अपने? केतकी जरूर विकास के साथ थी, ‘जब उसके लिए तुमने घर ही बंद कर दिया है तो उसका अंतिम संस्कार भी हाथोंहाथ क्यों नहीं कर आते?’ वह रो रही थी। वह माँ थी और स्वभावतः अपने बेटे के साथ थी। राहुल माँ को नहीं जानता। वह केतकी के रुदन से तनिक भी विचलित नहीं हुआ।

रासबेरी। नई उम्र के लड़के-लड़कियों का डिस्कोथेक। बाहर पोस्टर लगे थे – न्यू सेंसेशन ऑफ इंडियन रॉक सिंगर विकास बजाज। राहुल तीन सौ रुपए का टिकट लेकर भीतर चला गया। वहाँ अजीबोगरीब लड़के-लड़कियों की भीड़ थी। हवाओं में चरस की गंध थी। बीयर का सुरूर था। यौवन की मस्ती थी। क्षण में जी लेने का उन्माद था। लड़कियों की जीन्स से उनके नितंबों के कटाव झाँक रहे थे। लड़कों ने टाइट टी शर्ट पहनी हुई थी। उनके बाल चोटियों की तरह बँधे थे। स्लीवलेस टी शर्ट्स से उनके मसल्स छलके पड़ रहे थे। ब्रा की कैद से आजाद लड़कियों के स्तन शर्ट्स के भीतर टेनिस की गेंद की तरह उछल रहे थे। राहुल वहाँ शायद एकमात्र अधेड़ था जिसे रासबेरी का समाज कभी कभी कौतुक भरी निगाह से निहार लेता था।

एक संक्षिप्त से अनाउंसमेंट के बाद विकास मंच पर था – अपने गिटार के साथ। उसने कान-फाड़ू शोर के साथ गर्दन को घुटनों के पास तक झुकाते हुए पता नहीं क्या गीत गाया कि हॉल तालियों से गड़गड़ाने लगा, लड़कियाँ झूमने लगीं और लड़के उन्मत्त होकर नाचने लगे।

इस लड़के की रचना हुई है उससे? राहुल ने सोचा और युवक-युवतियों द्वारा धकेला जाकर एक कोने में सिमट गया। भीड़ पागल हो गई थी और विकास के लिए ‘वन्स मोर’ का नारा लगा रही थी। राहुल का दिल दो-फाँक हो गया। उसने केतकी को फोन लगाया और धीरे से बोला, ‘शोर सुन रही हो? यह विकास की कामयाबी का शोर है। मैं नहीं जानता कि मैं सुखी हूँ या दुखी। पहली बार एक पिता बहुत असमंजस में है केतकी।’ राहुल ने फोन काट दिया और मंच पर उछलते-कूदते विकास को देखने लगा।

ब्रेक के बाद वह बाहर आ गया। ‘हाय गाइज, हैलो गर्ल्स’ करता हुआ विकास भी बाहर निकला। उसके मुँह में सिगरेट दबी थी। उसने राहुल के पाँव छू लिए और बोला, मैं बहुत खुश हूँ कि मेरा बाप मेरी खुशी को शेयर कर रहा है।’

‘मेरे बच्चे’ राहुल ने विकास को गले लगा लिया, ‘जहाँ भी रहे, खुश रहे। मुझे अब जाना होगा। मेरी दस पैंतीस की फ्लाइट है। अपने सारे प्रेस किए हुए कपड़े तुझे रेवती आंटी के घर से मिल जाएँगे।’ राहुल बजाज का गला रुँध गया था, ‘कल से तू कहाँ रहेगा? क्या मैं घर की चाबियाँ?’

राहुल बजाज के भीतर एक पिता पिघलता, तब तक विकास का बुलावा आ गया। उसने वापस राहुल के पाँव छुए और बोला, ‘मेरी चिंता मत करो पापा। मैं ऐसा ही हूँ। आप जाओ। बेस्ट ऑफ जर्नी। सॉरी।’ विकास ने हाथ नचाए, ‘मैं एयरपोर्ट नहीं आ सकता। माँ को प्यार बोलना।’ विकास भीतर चला गया। भीड़ और शोर और उन्माद के बीच।

बाहर अँधेरा उतर आया था। इस अँधेरे में राहुल बजाज बहुत अकेला, अशक्त और दुविधाग्रस्त था। वह सबके साथ होना चाहता था लेकिन किसी के साथ नहीं था। उसके पास न पिता था, न माँ। उसके पास बेटा भी नहीं था। और दिल्ली पहुँचने के बाद उसके पास केतकी भी नहीं रहने वाली थी। राहुल ने हाथ दिखाकर टैक्सी रोकी, उसमें बैठा और बोला, ‘सांताक्रूज एयरपोर्ट।’

टैक्सी में गाना बज रहा था – ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।’

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पिता – Pita

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