फोटो एलबम
फोटो एलबम

उसमें थोड़ा सा परिवारिक इतिहास था
कुछ निजी और सार्वजनिक अनुभव थे
स्त्रियाँ भी थीं, ज्यादातर शादी के कपड़ों में,
मूँछ उमेठे पतियों, बच्चों के साथ

कई तस्वीरें थीं जिनके साथ वाकये जुड़े होंगे,
माँ ने कभी जिक्र नहीं किया,

क्या पता सुनाती और कोई सवाल उठा देता तो क्या जवाब देती
एक फोटो है, कांग्रेस-अधिवेशन में
स्वयंसेवक के रूप में दिखती वह स्त्री माँ की शायद करीबी है
एक और तस्वीर है
राजधानी की सड़कों पर कार चलाने वाली वह पहली महिला
शायद माँ की कोई दूर की रिश्तेदार है
जिससे वह चिट्ठियों में ही मिली है कुछेक बार

एक फोटो ग्रामोफोन का भी है
हालाँकि माँ शायद ही गई हो किसी संगीत-सम्मेलन में,
बड़े से रेडियो पर हाथ धरे खड़ी लड़की का फोटो देखकर
कहना कठिन है, फोटो लड़की का है या रेडियो का

दोनों चोटियों में रिबन के फूल बाँधे
चेन से बचाने के लिए सलवार के पाँयचे मोड़े
साइकिल चलाती माँ फोटो में अद्भुत दिख रही है
एक और फोटो में माँ चमक रही है
और उसकी बिंदी फैशन-स्टेटमेंट की तरह दिख रही है
उसके ब्लाउज का छींट आजकल का लेटेस्ट है
जिसे जरी-कढ़ाई के साथ पेश करने वाले हैं
भारतीय डिजाइनर अगले बसंत में यूरोप में

कुछ ग्रुप-फोटो हैं
उनमें कौन कहाँ खड़ा बैठा है, किसने क्या पहन रखा है
फोटो में किस-किस को शामिल किया गया है
इनसे उस इतिहास के कई पहलू पता चलते हैं
स्त्रियों में दिखने लायक होने का अभिमान नहीं है

एलबम में कई चीजें नहीं हैं मसलन जन्मदिन मनाती
घुड़सवारी का आनंद लेती, तैरती
स्कीइंग, डाइविंग और बंजी जंपिग करती,
स्नातक होने पर दीक्षांत समारोह में जाती
किसी लड़की का कोई फोटो नहीं है उसमें

कुछ फोटो स्टूडियो में खींचे हुए हैं
पृष्ठभूमि में बने पहाड़ और नदी, सूर्य-चंद्र, नावें और झरने
जीवन भर शायद दृश्य ही बने रहें
सपनों के साथ छुपा-छुपी खेलते

उन फोटो में ब्लैक एंड व्हाइट, लाइट एंड डार्क
रोशनी और अँधेरे का अजब था संयोजन
जैसे फोटो नहीं, इन सबसे बुनी जिंदगी ही हो जिसमें
हल्की सी नमी और किसी असली कहानी जैसी दीप्ति भी हो

एलबम में मुस्कराता हुआ एक फोटो दूसरे के पीछे छिपाया हुआ
जिसकी पीठ पर कलात्मक ढंग से लिखा हुआ है एक अक्षर
अपनी इस दुनिया में माँ ने कभी किसी को शामिल नहीं किया
उसे कहाँ किस तरह मिले होंगे ये फोटो,
कैसे बचाए रही एक एलबम, स्मृतियाँ और प्रेम
और इस सबको बचाए रखने का साहस

एक उपनिवेश की मुख्तसर सी तस्वीर से ज्यादा
एलबम शायद इस बात का भी दस्तावेज था
कि माँ अपने आप को किस तरह देखती थी
और कहाँ जाना चाहती थी।
आलमारी 
उसके ढहाए जाने की पूर्वसंध्या पर एक बार फिर सब इकट्ठा थे
यह कोई पवित्र ढाँचा नहीं घर था जहाँ हमारा बचपन बीता
दीवार में बनी उस आलमारी में मैं जैसे तैसे खड़ी हो पाई
याद आया जब मैं छोटी थी उसके दरवाजे हमेशा खुले रखे जाते
छिपने की कोशिश में कहीं उसी में बंद न रह जाऊँ
और तमाम चीजों के साथ मेरा दम घुट जाए
‘हम कैसे रह लेते थे इसमें’
जो मेरी स्मृति में था उससे कितना अलग था घर!
किसी चीज को पाने खरीदने को स्थगित करते रहना
कम पैसों, कम जगह, किसी और वजह से
कोई नई चीज खरीदने से पहले चिंता होती रखेंगे कहाँ
अब हमें सुविधा थी
रोमांटिक हुआ जा सकता था उन पुराने अभावों की याद में
‘आलमारियों में बंद पड़े कपड़े किसी और के शरीर पर होने चाहिए’
जब मैंने पढ़ा तो मुझे अपना खयाल आ गया
किसी और के शरीर पर होना चाहिए ?
बँट जाना चाहिए ?
जो लोग मुझे ले आए हैं उनकी आदत होगी
इस्तेमाल के बाद गैरजरूरी हो जाने वाली चीजों को भी
जमा करते जाने की
तमाम दुछत्तियों तहखानों के भर जाने के बाद बचे सामानों को
कहीं भी डाल देना और नई चीजों के लिए जगह बनाना
वे नई से नई चीजें मुझे हर दिन धकेलती रहती हैं बाहर की ओर
बंद खिड़कियों दरवाजों के पीछे सामानों के ढेर में मैं भी
कभी कभी सोचती हूँ माथे पर एक चिप्पी चिपका लूँ
‘मुझे खेद है मैं आपके रास्ते में रुकावट डाल रही हूँ’
आलमारियाँ हर देशकाल में फैली हैं
लोगों को लगता है आलमारियाँ होती ही हैं ठसाठस भरी जाने के लिए
बड़े हो चुके बच्चों के कपड़ों खिलौनों
पुरानी डायरियों खानदानी स्मृतिचिह्नों से भरी आलमारियों
कोठरियों घरों से वे मुझे मुक्त भी नहीं करते
मैं किस आलमारी में बंद पड़ी हूँ सामानों के साथ
मुझे किसने बंद किया हुआ है ?
क्या मैंने खुद ने ?

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *