पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे | नीला प्रसाद
पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे | नीला प्रसाद

पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे | नीला प्रसाद – Paudhe Se Kaho,Mere Janmadin Par Phool De

पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे | नीला प्रसाद

वह सुबह से अपने कमरे में लैपटॉप पर व्यस्त है। मुझसे बात करने भी नहीं आ रही। कोई उदास करने वाली बेचैनी मुझे अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है। हर मदर्स डे पर मुझसे आकर लिपट जाने और जेब-खर्च के नाममात्र पैसों से मुझे कुछ-न-कुछ खरीद कर देने वाली मेरी बेटी आज तो मुझे कोई भाव ही नहीं दे रही, मानो उसे याद तक न हो कि आज मदर्स डे है।

‘ओ बित्ती, ता तलती तू!।’, मैंने रोज की तरह दुलार में पुकार कर बात शुरू की। ‘कुत नईं…’ वह भी इतराकर बोली। ‘आज मदर्स डे है’, मैंने याद दिलाया। ‘तो क्या… तुम तो कहती हो, हमें मदर्स डे से क्या! यह तो विदेशियों का तरीका है कि साल भर माँ को भुलाए रखो, फिर साल में एक दिन कुछ गिफ्ट-शिफ्ट दे दो…’। उसने मेरी नकल करते हुए कहा।

‘तो अबकी मुझे कुछ नहीं दोगी?’ मैंने उदास होने की ऐक्टिंग की।

‘नहीं’ वह दृड़ स्वर में बोली। ‘मैं टीनएज हो चुकी, तब भी तुम मुझे मारती हो। मुझसे अच्छा व्यवहार नहीं करती। अपनी एक्सपेक्टेशन्स मुझ पर लादे रहती हो – तो क्यों दूँ कोई गिफ्ट?’

‘अब तुम मुझे प्यार नहीं करती?’ मैंने आशंकाओं से भरकर पूछा और अपनी आवाज में अनचाहे घुस आई कंपन को महसूसा।

‘नहीं, बिल्कुल नहीं। आज मैंने सोचा तो लगा कि मुझ पर चिल्लाने, मुझे मारने, मुझसे जबर्दस्ती करने, और बाई हुक ऑर क्रुक अपनी बात मनवा लेने के अलावा तुमने किया ही क्या है? तुम एक डिक्टेटर की तरह बर्ताव करती हो और घर में भी अफसर बनी जीती हो।’

‘तुम्हें लगता है मैंने तुम्हें कभी प्यार किया ही नहीं?’ मैंने बेचैन होकर हल्के काँपते स्वर में पूछा।

‘हाँ मम्मा, मुझे तो ऐसा ही लगता है। अभी मैं बिजी हूँ, मुझे डिस्टर्ब मत करो।’ वह बिना किसी इमोशन के बोली और अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया।

लकड़ी के उस बंद दरवाजे के पीछे, मेरे और उसके दिल के और भी बहुत से दरवाजे बंद थे। उन सब को एक-एक कर खोलना जरूरी था। खोलकर बेटी को जताना, दिखाना जरूरी था कि उन बंद दरवाजों के भीतर बेटी को लेकर माँ हर दिन कितना तड़पती है। कितनी-कितनी बार टूटती, जुड़ती, फिर बिखरती जीती है। माँ अपनी बेटी को दिल में छुपाकर सात परतों के भीतर रखना चाहती है कि वह हमेशा सुरक्षित रहे। पहले इस दुनिया में रहने के काबिल बन जाए फिर निकले बाहर ताकि इस निर्मम, जालिम दुनिया के थपेड़ों से चोट न खाए… नहीं, माँ तो उसे सारी दुनिया को दिखाना चाहती है कि देखो, यह मेरी बेटी है – सुंदर, गुणी और संभावनाशील… माँ तो अपनी बेटी को इस दुनिया के रीतिरिवाजों के अनुरूप भी बनाना चाहती है और इतनी अनूठी भी कि वह इस दुनिया को ही अपने अनुसार ढाल ले।

पर दरवाजे बंद थे, तो बंद थे। कभी कोशिश करके एक दरवाजा खोला जाता तो उसके अंदर के किसी और बंद दरवाजे से सामना हो जाता और माँ थक जाती – कोशिश करते, समझाते-बुझाते, डाँटते… पर काश कि अंदर के सारे दरवाजे खुल पाते और मेरे अंदर की असली माँ से, दिल के सभी खुले दरवाजों वाली असली बेटी का सामना हो पाता! फिर, माँ की अपनी बिटिया से मुलाकात तो हो जाती! विद्रोह और शिकायतों की भरमार के भीतर से बाहर आ, हुलसकर माँ से लिपट जाने, अपने अंदर बसे सपनों और आशंकाओं की झलक कभी-कभार दिखा जाने वाली बेटी के दिल से, माँ के दिल की बात तो हो जाती!

अभी तो हम रोज परतों में लिपटे मिलते हैं। परतें, परतों से टकराती हैं। अपेक्षाओं से अपेक्षाएँ, सपनों से सपने, बोली की तीखी धार से जवाबी धार, हाथों की मार से प्रतिरोध में उठे हाथों की मार। हाँ, हम लगभग रोज ही तो लड़ते हैं – ज्यादातर बातों से, कभी- कभी हाथों से। पर तुरंत ही हममें फिर से दोस्ती हो जाती है। हमारी लड़ाई की उम्र इतनी छोटी होती है कि भावनाओं में उसकी मौत कुछ पलों में ही हो जाती है। कोई गीलापन हम दोनों को घेरता है और हम हँसकर लिपट जाते हैं – एक दूसरे को गुदगुदा कर हँसाते, दुलराते, मान जाते। आखिर घर में हम दो ही तो हैं – घर में रहते हुए भी अनुपस्थित उसके पिता के अलावा!

मैं जाकर लेट गई। शायद दरवाजों को खोलने की कोशिश ही अधूरी और गलत तरीके की थी – तभी दरवाजे खोलते मैं थक जाती और थककर, हार मानकर चुप बैठ जाती रही थी। अब लगा कि उन दरवाजों को तुरंत खोलना जरूरी था, नहीं तो बहुत देर हो जा सकती थी। हो सकता था कि वह मेरी पहुँच से बहुत दूर चली जाए और मुझे पता ही नहीं चले। तेजी से अलग होती जा रही उसकी और मेरी दुनिया के बीच उग आए बहुत से जंगलों को काटना, पाटना और उस पर सड़क बना लेना निहायत जरूरी था।

शायद मेरा और उसका रिश्ता, बीच में निरंतर बंद होते जाते दिल के दरवाजों की कथा था।

यह बंद दरवाजों की कथा बनकर न रह जाए, इसीलिए जरूरी था कि दरवाजों के बंद होने को फिर से समझा जाए।

मैंने हिम्मत करके अतीत के एक दरवाजे से भीतर झाँका।

अंदर साढ़े तीन साल की नर्सरी में पढ़ने वाली एक नन्हीं गुड़िया दिखी। वह बाहर से लौटी अपनी माँ से कह रही थी – ‘मम्मा मेरे कमरे में मत जाना। वहाँ मैंने आसमान बिछा रखा है। तुम्हारे पाँव बादलों में धँस सकते हैं। आसमान से तोड़कर जमीन पर बिछा रखे तारे टिमटिमा रहे हैं।’ मैं चौंकी। ‘अच्छा, झाँककर देखो न!’। वह अपनी नन्हीं हथेली से मेरी कलाई पकड़ ले चली। उसके कमरे में रुई बिखरी पड़ी थी और कागज के सुनहरे सितारे यहाँ-वहाँ बिखरे थे… ‘यहाँ सावधानी से बैठो। तुम आसमान की रानी परी और मैं राजकुमारी परी – ‘वह लाड़ में बोली। मैंने उसे गले लगा लिया। मेरी गोदी में लदे, मेरे कंधे पर सर टिकाए, उसने अपनी ड्रेस के अंदर छुपाया एक कार्ड निकाल कर मुझे थमा दिया और गाती हुई बोली ‘हैप्पी मदर्स डे। आई लव यू मम्मा।’ कार्ड क्लास टीचर की मदद से बनाया गया था। उस पर आसमान था, सितारे थे और उनके बीच एक लाल रंग का दिल। वह मेरी बेटी का दिल था कि उसकी मम्मा का? दिल लहक रहा था, पिघलकर टपक रहा था… कार्ड में आड़ी-तिरछी रेखाओं में मेरी बेटी की कलाकारी, उसकी भावनाएँ बिखरी हुई थीं, जो पीटने, पर बाद में पछताने, प्यार कर लेने वाली माँ को समर्पित थीं। उस माँ को – जो बेटी को दिल का टुकड़ा कहती, पर जमीन पर पटक- पटक कर मारती थी। मेरी आँखें तब भी भीग आई थीं, आज भी भीग आईं। दिल तब भी पिघला था, आज भी पिघला। मैं यही डिजर्व करती हूँ – उसकी घृणा। मैंने खुद से कहा और घबराकर दरवाजा फिर से बंद कर दिया।

जब वह छोटी थी, तब ऐसी नहीं थी। हमेशा तनी हुई और माँ को चोट पहुँचाने को आतुर… मैंने अपने सुन्न हो गए दिमाग में भरी कालिमा पर अतीत की यादों से कुछ रंग बिखेरने की कोशिश की।

मेरे कमरे में रिमझिम बरसात हो रही है – वह मुझे बता जाती। गरमी से परेशान अपने कमरे में ए.सी. चलाकर लेटी मैं क्षण भर को चौंक जाती, फिर बिटिया के स्वभाव से परिचित मुस्कुरा देती। ‘अच्छा, फिर तो तू भीग गई होगी?’। ‘हाँ, पूरी-की-पूरी भीग गई हूँ… और तो और, सूरज की गरमी लिए-लिए फिरने वाली मेरी मम्मा भी भीगकर ठंडी हो गई।’ वह भोलेपन और मासूमियत से कहती। मैं दुबारा मुस्कुरा देती, पर मन-ही-मन अपनी गुड़िया के लिए चिंतित हो जाती…

वह आसमान होती जा रही थी – तो माँ उस तक पहुँचती कैसे! कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि उसकी कातर पुकार के स्वर सुन दौड़ी गई माँ से वह कहती – ‘मम्मा, रोहित बहुत गंदा बच्चा है। अब मैं कभी उसके साथ नहीं खेलूँगी।’ माँ का मन आशंकाओं से भर उठता। ग्यारह बरस के रोहित ने क्या किया आखिर मेरी छह साला बेटी के साथ!। ‘शानू को उठाकर उछाल दिया और उसके लिए जो सूप मैंने बनाया था, पी गया। वह मेरे बच्चे को चोट पहुँचाता है, मेरा घर बरबाद कर रहा है। मैं भी उसके बच्चे को मारूँगी, उसका घर तोड़ दूँगी।’ ओह! तो यह गुड्डे-गुड़िया का खेल था – मैं चैन की साँस लेती। पर उसके बहते आँसुओं का खयाल करके कहती। ‘ला तेरे बच्चे को मैं प्यार कर लूँ। उसे चोट तो नहीं लगी ज्यादा?’। रोती बिट्टी कमरे के फर्श पर पड़े गुड्डे की ओर इशारा करके कहती – ‘देखो, कैसे रो रहा है बेचारा। सोचता होगा कि उसकी माँ उसकी रक्षा भी नहीं कर सकती!’।

फिर पाँच की उमर में अपनी बेटी को माँ बनने के अहसास से गुजरते देखा। मैं ऑफिस से आई तो वह कमरे में पड़ी रो-कराह रही थी – दिल को हिला देने वाला रोना। यत्न से पाली जा रही, दुनियावी दुखों से भरसक दूर रखी जाती हुई गुड़िया ने घोषणा की कि वह माँ बनने जा रही है। सृजन का यह दर्द तो शायद उसके अहसासों में उसके जन्म के दिन ही लिख दिया गया था। वह उस दर्द से कराह रही थी और इंतजार कर रही थी कि जल्दी से माँ बन जाए… क्या उसे पता था कि वह एक गुनाह करने जा रही थी – सुख-दुख के चक्र में एक और प्राणी को बाँधने जा रही थी। वह उस ममत्व में बँधने जा रही थी जो स्त्री को एक जगह खड़ा कर देता है और वह कहीं की नहीं रहती! उसके पाँव धरती में धँस जाते हैं और वह एक जगह खड़ी-खड़ी ही पेड़ बनती, सूखती और झर कर मिट जाती है… ‘ओ मम्मा, मैं इतनी देर से चिल्ला रही हूँ, फिर भी तुम मेरे बच्चे को जनमाती क्यों नहीं! कैसी डॉक्टर हो तुम? क्या मेरे जन्म के समय तुम्हें भी ऐसे ही रोने- कराहने को छोड़, डॉक्टर खड़ी देखती रही थी? जल्दी से मेरा डॉक्टर सेट लाओ न…’ उसकी डाँट सुन मैं यथार्थ में लौटी थी। डॉक्टर सेट की मदद से सिजेरियन करके बिटिया को माँ बनने की बधाई दी थी। उसके नवजात को साफ करके उसकी बगल में लिटा दिया तो अगले ही क्षण वह मारे खुशी के बिस्तर पर कूद- कूद कर तालियाँ पीटने लगी। मैंने याद दिलाया कि अभी पाँच मिनट पहले तो माँ बनी हो – ऐसे कूदो मत। वह तुरंत लेट गई और बेटी को दूध पिलाने लगी। फिर आगे के उस रोल के बारे में जानकारी लेने लगी जो टीवी ने नहीं दी थी। आकर सट गई मम्मा से और बोली – मैंने इतना दर्द सहा है और बेटी पैदा की है। हम दोनों को प्यार करो…’

और अगले ही दिन वह आसमान की परी बनी हुई थी एस्ट्रोनॉट के वेष में।

घूमने वाली कुरसी पर बैठी, तेज-तेज कमरे का चक्कर लगा रही थी। बंद आँखें, हवा में लहराते ऊपर उठते हाथ, बंद होती फिर जमीन की ओर खुल जाती मुट्ठी। तेज और तेज होते चक्कर। घबराती मैं, कि एक दिन ऐसे ही घूमती गिरी थी, सर फटा था और पड़ोसी टाँके लगवाने गए थे। खबर पाकर ऑफिस से भागती आई थी मैं! ‘बिट्टी रुक जाओ।’ उस याद से आतंकित मैंने कहा। वह नहीं रुकी। रुको – अबकी मैं जोर से बोली। वह फिर भी घूमती रही तो मैंने जाकर झटके से रोक दिया। वह आग हो गई। ‘क्यों रोका मुझे?’ ‘गिर गई थी न एक दिन, सर फट गया था न…’ मैंने गुस्सा दबाते हुए कहा। ‘पर आज नहीं फटता।’ ‘कैसे? … आज फिर तुम इतनी तेजी से घूम रही थी।’ ‘नहीं, आज चोट नहीं लगती क्योंकि आज मैं कुरसी घुमा नहीं, तैरा रही थी…’ ‘अच्छा-अच्छा चल दूध पी, पढ़ने बैठ…’ ‘नहीं मम्मा, मैं तैरा रही थी, इसीलिए चोट नहीं लगती।’ ‘कहाँ तैरा रही थी – आसमान में?’ – मैंने व्यंग्य किया। ‘हाँ,’ वह समझ लिए जाने की आश्वस्ति से भरकर मुस्कुराई। ‘आज ये कुरसी, कुरसी नहीं, यान थी जो अंतरिक्ष तक चली गई थी। देखा नहीं तुमने कि पहले मैंने आसमान से तारे तोड़े, उन्हें एक-एक कर नीचे तुम्हारी गोदी मे गिराया… जब तुम्हारी गोदी भर गई तो बाकी बचे को तोड़कर यान में रखती गई… मैं ऐस्ट्रोनॉट हूँ – मेरे कपड़े देखो। चाँद पर खड़े होकर मैंने तारे तोड़े। छूने में वे ठंडे थे। फिर मैंने यान उड़ाया और तुम्हारी ओर चली। सोचा तुम्हें भी करा दूँ ऐसी मजेदार सैर… पर तुमने मुझे बीच में ही रोक दिया।’ वह रुआँसी हो रही थी। मैंने उसे सॉरी बोला और दुलार से खुद से सटा लिया। वह दो बरस की थी तब भी एक दिन उसने कहा था कि वह एक दिन आसमान से सारे तारे तोड़-तोड़कर जमीन पर गिरा देगी ताकी धरती ही झिलमिल-झिलमिल हो जाए…

मुझे रोना आ गया। उसके कोमल मन को अपनी कर्कशता से काटती रही थी मैं। आखिर जरूरी नहीं था कि वह रोज होमवर्क करे ही। जरूरी नहीं था कि स्कूल से शिकायत आए तो मैं नाराज ही होऊँ… उससे जबर्दस्ती पढ़ाई करवाऊँ और उसे बँधे- बँधाए नियमों में, चली-चलाई लीक पर ले आने की कोशिश में अंदर से मार दूँ… मैं रिस्क ले सकती थी कि उसे उसकी तरह ही रहने दूँ… और फिर इंतजार करूँ, पहचानूँ कि उसके अंदर कैसी कोंपलें फूटती हैं। वह लेखिका बनती है कि कलाकार… अच्छी-अच्छी ड्राइंग और मीठी-मीठी कल्पनाएँ करने वाली बेटी से, रिश्ते अच्छे बनाए रखने पर ज्यादा जोर दूँ… पर मैं दुनियावी लिहाज से उसे ढालना चाहती रही।

किसी कसक ने अंदर उमड़कर खुलते दरवाजे को कसकर बंद कर दिया।

उस बंद हुए दरवाजे ने अंदर के बहुत कुछ को मूँद कर ढक दिया। सिर्फ यादें नहीं, हमारे अलग-अलग वैल्यू सिस्टम, अलग चाहतें, अलग सपनें, दिल की अलग गाँठें… अब दरवाजे के इस पार मैं, उस पार वह। बीच में अनसमझी भावनाएँ और जेनरेशन गैप। अनकहे से इतने कुछ को कहे जाने से रोकते दरवाजों की कतारें… माँ को बेटी से अलग करते, माँ और बेटी के बीच में बाधा बनते दरवाजे… मैं दरवाजे के उस पार जा सकती थी। अपने और उसके बीच की दूरी को पाट सकती थी… दरवाजा खटखटाकर मन की कहकर उसके दिल पर दस्तक दे सकती थी। पर एक-एक दरवाजा जैसे एक-एक दीवार था।

गिफ्ट की तो कोई बात नहीं थी। नहीं दिया, तो नहीं दिया, पर उसके बयान मेरे लिए एक ऐसी सच्चाई थे जिन्हें मैं न नकार सकती थी, न स्वीकार। सच है कि मैं चाहती रही हूँ कि वह मेरी बात माने, मन लगाकर पढ़े, कुछ बनकर दिखाए… मेरा सीना गर्व से चौड़ा कर दे। उसे सीने से लगाकर माँ होने की खुशी से मेरी आँखें गीली हो जाएँ। पर मेरे प्रति उसकी भावनाएँ अगर ऐसी हो गई हैं तो मैं एक हारी हुई, विफल माँ हूँ। उसे मैं अपना बाहर ही दिखा सकी, दिल के अंदर का कुछ भी दिखा नहीं पाई… बोली की कठोरता तो सतह पर आ गई, उसके लिए दिल का दर्द सतह पर नहीं आ पाया।

माँ-बेटी के रिश्ते में जो प्रगाढ़ता दिनों-दिन गहरी होती जानी थी, उसे खत्म करने की जिम्मेदार, इस अनूठे रिश्ते की आत्मा के कत्ल की गुनहगार थी मैं!! मैं उदास हो गई। ये दास्तान कुछ अलग तरह से लिखी जा सकती थी। ऐसा बिल्कुल संभव था कि बेटी जैसे-जैसे बड़ी हो, मेरा-उसका दोस्ताना बढ़ता जाय। मैं और बेटी एक दूसरे के ज्यादा करीब होते जाएँ। मेरा उससे तेरह साल, सवा आठ महीनों का नाता था – यानी जबसे वह मेरे पेट में आई, तबसे। जाने कितने तो सपने बुने, कितनी कविताएँ लिखी, उसके लिए लोरियाँ बनाईं, …पर बाहर एक दुनिया थी जो मेरे उसके बीच में थी। वो निरंतर पसरती दुनिया मुझे उससे एकाकार बने रहने में बाधा थी। वो दुनिया उसे और मुझे याद दिला देती थी कि वह एक बिटिया है और उसे बेटी होने के नाते एक तय ढर्रे पर जीना है…

मैंने आँखें मूँदे सब कुछ याद करने की कोशिश की। सही है, मैं मारती रही हूँ। यह जानते हुए भी कि यह हिंसा है – दंडनीय अपराध। मैं अब भी उसे जबरन खींचती हूँ, कभी गुस्से में सिर और शरीर झकझोर देती हूँ जोर से… वह जिद्दी होती जा रही है। पढ़ाई में गैर जिम्मेदारी दिखाती है और मेरे पास वक्त नहीं होता कि उसके नखरे सहूँ, उसे मनाऊँ… और साथ ही नहीं होता है धीरज। पर फिर पछताती, गले भी तो लगाती हूँ। उसे गुदगुदाकर, हँसा कर उसका मूड ठीक भी तो कर देती हूँ। शायद खुद को सुधारने के लिए अब बहुत देर हो चुकी है। अब पानी सर से गुजर चुका है… अब मेरे उसके रिश्ते का एक पैटर्न तय हो चुका है… जिसमें उसके दिल से मेरे लिए प्यार गायब है?।

अब वह किशोरी हो गई है… उसकी दुनिया बदलती जा रही है। अब सिर्फ और सिर्फ माँ उसकी दुनिया नहीं रही। उसमें इंटरनेट की दुनिया, टी.वी., दोस्त लड़के-लड़कियाँ, मोबाइल, जाने कितनी तो विदेशी अंग्रेजी किताबें, विदेशी सीरियल, विदेशी हीरो-हिरोइन्स, गायक… सोशल साइट्स, अलग तरह की क्रिएटिविटी घुस आई है – मुझे बुरा नहीं लगता। बस पढ़ाई को लेकर सीरियस बने रहने को झिकझिक चलती रहती है। धीरे-धीरे उसके जीवन में बहुत कुछ या फिर सब कुछ बदल रहा है। नहीं बदले हैं तो हमारे रिश्ते, जो अब भी पहले जैसे ही है। वही गाहे बगाहे तुतलाकर एक दूसरे से बोलना, लड़ना, डाँटना, चिढ़ाना-खिजाना… और मेरा गुस्से में उसे थप्पड़ दिखाना, झकझोर देना, बाँहें दबा देना, फिर तुरंत पछताना… कभी-कभी सॉरी बोल देना। उसका आँसू टपकाना, नाराज होना, धमकियाँ देना, हाथ पकड़कर खींचना, चिल्लाना, फिर तुरंत हँस देना और गले लग जाना। अभी एक दूसरे को आँखें दिखाना, अभी खिलखिलाकर हँस देना। वह मेरी इकलौती है, मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ। वह मेरी इकलौती है, मेरी अपेक्षाओं पर खरी न उतरे तो तुरंत नाराज हो जाती हूँ। अब अचानक लगने लगा कि जिसे सब ठीक-सा ही समझती जीती रही, उसमें कहीं कोई पेंच था। वह अपनी जिंदगी की स्क्रिप्ट मेरे द्वारा लिखे जाने की कोशिश का अंदर-अंदर विरोध करती, बदल रही थी, विद्रोह में तन रही थी। ऊपर-ऊपर तो हर्ट होने के बाद मान जाने का नाटक कर लेती थी, हँस देती थी खिलखिलाकर, पर अंदर- अंदर लगातार चोट सेती जी रही थी।

अतीत में कुछ-कुछ तो बहुत ही कड़वा था।

मैंने हिम्मत करके एक दूसरे दरवाजे को सरकाकर अंदर झाँका।

दिन भर की चिकचिक के बाद लेट हो गई चार्टर्ड बस से उतरकर एक माँ को घर घुसते देखा। माँ को दरवाजे के पीछे छुपी बेटी ने कमरे के अंदर कदम रखते ही पीछे से लिपटकर बाँहों से घेर लिया। माँ के पेट को अपनी नन्हीं हथेलियों से कस अपना सर माँ की कमर पर लादकर बेटी ने दुलार से कहा – ‘मम्मा, मेली मम्मा…’ माँ ने उसे खींचकर सामने किया, खुद से सटाया पर उसके चेहरे, बालों, कपड़ों और पैरों की ओर नजर पड़ते ही झटका खा गई। दिल्ली की ठिठुरानेवाली मारक सर्दी में बेटी बिना स्वेटर, नंगे पाँव खड़ी है। सर पर उगे, छोटे-छोटे बिखरे-बिखरे से बाल और दोपहर में खाया खाना होठों के गिर्द चिपका। ‘यह क्या बिट्टी, फिर वही…’, माँ ने हताशा से कहा। ‘आओ, जल्दी से स्वेटर पहनो। खाना खाकर मुँह क्यों नहीं धोया?’। ‘मैं अंदर से स्ट्रांग हूँ – च्यवनप्राश खाती हूँ।’ दोनों पतले-पतले हाथों को हवा में लहराकर, नाक बहाती हुई बेटी बोली। ‘अच्छा, अच्छा… स्ट्रांग है तो स्वेटर नहीं पहनते ही नाक क्यों बह रही है तेरी?’ ‘मुझे तो सरदी में भी गरमी लग रही है। मैं स्वेटर नहीं पहनूँगी’। बेटी जिद पर अड़ गई। उसे ठंड लगने के अहसास से सराबोर होती माँ बोली – ‘जिद मत कर, जल्दी से पहन ले स्वेटर। बुखार आ जाएगा।’ ‘और नहीं पहनूँ तो?’ ‘वह चुनौती देती बोली। ‘तो, दूँगी दो थप्पड़ खींच के और उठा के बाहर फेंक दूँगी। फिर शुरू कर दिया तुमने वही सब – हर बात में ना बोलना, बात नहीं मानना, अपना ही अहित करना…’ । ‘मुझ पर चिल्लाओ मत।’ वह चीखकर बोली। ‘और अबकी मुझ पर हाथ उठा के दिखाना। देखना क्या गत बनाती हूँ -‘ उसकी बोली में हिंसा भर गई।

‘मम्मा से ऐसे बोलते हैं? चलो इधर आओ, तुरंत।’ माँ पर, जो उसकी चिंता से अंदर-ही-अंदर मर रही थी, वो कामकाजी महिला हावी हो गई, जिसकी छुट्टियाँ खत्म हो चुकी थीं और जो इस महानगर में सड़कों पर जिंदगी फेंकती, बेटी के फिर बीमार हो सकने की आशंका से आतंकित, ऑफिस की पॉलिटिक्स से बेजान, अंदर से दुखी-दुखी जीती थी। बिट्टी बॉल उठाकर डाइनिंग टेबल के चारों ओर घूमती खेलने लगी। माँ बेडरूम में इंतजार में खड़ी रही कि बेटी को स्वेटर पहना ले तो खुद कपड़े बदले, हाथ मुँह धोए और भूख से तड़पते पेट में अन्न डाले। फिर इंतजार करते चुक चुके धीरज और चिड़चिड़ाए स्वर से माँ बोली… ‘तुम आ रही हो या आऊँ मैं?’ – पीटने की धमकी बेटी ने समझ ली और बोली। ‘नहीं आ रही, बस।’ उसके इत्मीनान से माँ को गुस्सा आ ही गया। वह लपकी हुई गई और बेटी का हाथ झटके से अपनी ओर खींचा। गड़बड़ा गए संतुलन से बेटी आगबबूला हो गई। ‘कह दिया नहीं आ रही – ‘ वह चीखी। ‘मैं बता रही हूँ न, कैसे आते हैं।’ उसकी दोनों बाँहें कंधे के नीचे से पकड़ इतनी जोर से दबा दी गईं कि दोनों हाथों की पतली-पतली हड्डियाँ माँ को महसूस होने लगीं ‘नहीं आएगी तो हाथ तोड़ दूँगी -‘ माँ ने खुद को कहता पाया। यह तो सरासर गलत है – भाषा भी, व्यवहार भी – माँ के मन में आया। ‘भिंचे हुए दाँत, कर्कश आवाज, बढ़ी हुई धड़कन और बेटी को लगातार झकझोरते हाथ…’ चल तुझे घर से बाहर करती हूँ। आधी रात को पापा के साथ अंदर आना।’ बेटी अपमानित महसूस करती रोने लगी। ‘छोड़ो मुझे, छोड़ो मुझे…’ वह बोली। ‘तुम्हें हर समय बस माँगना आता है – ये ले दो, वो ले दो… पर न बात मानना, न पढ़ना… दूसरों के घर बरतन माँजेगी बड़ी होकर… कमरा बिखरा, खुद गंदी, पढ़ाई बरबाद… क्या करना चाहती है तू जिंदगी का आखिर…’ अधिकतम ताकत से झकझोरती माँ के दिमाग में अचानक कुछ कौंधा और दिमाग सुन्न हो गया।

अखबार में पढ़ी वो खबर याद आ गई कि निर्ममता से झकझोरे जाने से एक बच्चा ब्रेन फेल होने के कारण मर गया। माँ ने उसे झटके से छोड़ दिया। ‘क्या इसने दूध पी लिया है?’ ‘नहीं’। सजी-धजी, चाय पी चुकी नौकरानी हमेशा की तरह बेपरवाह बोली। ‘इसने कहा, मम्मा के आने पर पीऊँगी’। ‘दे दो जल्दी से-‘ घड़ी में साढ़े सात। ‘ओ बिट्टी, कब तू दूध पिएगी, कब होमवर्क करेगी, कब रात का खाना खाएगी, कब सोएगी?… जल्दी से पाँच मिनट में दूध खतम कर’। माँ के स्वर की नरमाई भाँप बेटी बोली। ‘क्यों, छह मिनट में क्यों नहीं पी सकती?’। ‘वैसे तो तेरी उमर के बच्चे दो मिनट में पीते हैं पर तू आलसी और बेवकूफ है तो छह मिनट ही सही’। गुस्सा दबाकर कपड़े बदलती माँ ने कहा। दस मिनट बाद तक दूध टेबल पर जस- का-तस रखा और सोफे पर पसरी जम्हाइयाँ लेती बेटी। ‘अब क्या हुआ महारानी?’ माँ फिर से गुस्सा। ‘पहले टी.वी. चलाने दो – फिर टी.वी. देखती हुई पीऊँगी।’ बेटी का जवाब ‘यानी आधे घंटे में। समय देखा है? आठ बज चुके हैं। फिर कब होमवर्क करेगी, कब खाना खाकर सोएगी – रात के बारह बजे?’ ‘हाँ, क्यों नहीं? मैं आधी रात तक जाग सकती हूँ।’ ‘पर फिर अगली सुबह जल्दी तो नहीं उठ सकती न। स्कूल नहीं जाना? बेकार की बहस कर रही है।’ ‘मैं अगली सुबह जल्दी भी उठ सकती हूँ। रात के दो बजे सोए, फिर छह बजे उठ गए – जैसे पापा करते हैं।’ पर पापा तो तुम्हें स्कूल पहुँचाकर, घर आते ही फिर से सो जाते है… सिर्फ चार घंटे नहीं सोते।’ ‘मैं तो चार घंटे ही सोऊँगी… और वैसे भी मैं बड़ी होकर तुम्हारी तरह अफसर नहीं बनूँगी। पापा की तरह जर्नलिस्ट बनूँगी।’ ‘जो चाहे सो बनना। अभी दूध खतम कर और जल्दी से पढ़ने बैठ। नहीं तो चपरासी भी नहीं बन पाएगी’। दूध का गिलास उसके होठों से लगा दिया गया। उसने घूँट नहीं लिया। थप्पड़। दूध फेंककर रोती बेटी। पीटती माँ। बेटी का ऊँचा होता सुर… फिर ठंडी जमीन पर लोट जाना-बिना स्वेटर। ‘तुम्हें मेरी बॉ़डी की कोई परवाह नहीं है। मेरे हाथ टेढ़े हो सकते हैं, मेरा शरीर टूट भी जा सकता है।’

अपनी हथेली ललाट पर दे मारती और रोती माँ ‘मैं पागल हो जाऊँगी, दिल का दौरा पड़ेगा मुझे। फिर मर जाऊँगी – तब करना अपने मन की। दिन भर टी.वी. से आँखें फोड़ना, खेलना, बीमार रहना… हॉस्टल में रहना… बल्कि अभी ही क्यों न हॉस्टल में फेंक आया जाय तुम्हें?’ हताश हो गई, भूख से तड़पती माँ ने कहा। ‘मुझे अपना चेहरा मत दिखा, मेरे पीछे मत आ।’ और बिस्तर पर भूखी ही जा गिरी। आँखें मूँद लीं और पछताई। गलती मेरी थी – पूरी तरह मेरी। अगर गुस्से पर काबू कर लिया होता तो… वह प्यार से जरूर मान जाती। डाँटने के बदले उसे गालों पर चुम्मी करके भी स्वेटर पहनने के लिए कह सकती थी… और इतनी डाँट के बाद उस भूखी को दूध पीने को नहीं कह के कोई पसंद की चीज खाने को दे देती… अब होम वर्क तो नहीं ही होगा, क्या पता खाना भी खाएगी या नहीं! यही है मैनेजमेंट में की गई मनोविज्ञान की पढ़ाई का नतीजा? घड़ी में पौने नौ। पूरी शाम बहसों, डाँट मार और रोने में समाप्त। बिटिया से फोन पर दोपहर में बात हुई तो उसने कहा था – तीन होमवर्क हैं। माँ स्वचालित ढंग से उठी। उसके स्वेटर, मोजे, स्कार्फ उठाए। सोफे पर गुस्साई बैठी, जम्हाइयाँ ले रही और बीच-बीच में सुबक रही बेटी को एक शब्द कहे बिना माँ ने स्वेटर पहनाना शुरू कर दिया। बेटी ने हाथ ऊपर करके स्वेटर पहन लिया। माँ ने पाँव में मोजे डाले तो उसने स्कार्फ खुद बाँधना शुरू किया।

चल गरम पानी से मुँह धो लें – माँ ने कहा तो वह आज्ञाकारी बच्ची की तरह उठ खड़ी हुई। ‘मैं तुम्हें बहुत दुख देती हूँ न। मारने वाली बुरी मम्मा हूँ मैं – ‘ गीली आँखों से माँ ने कहा। ‘पर तुम्हें भी तो मम्मा की बात माननी चाहिए न। मम्मा थककर घर आए तो उसे सताना नहीं चाहिए न’ उसे बिस्तर पर खड़ी करके गीले तौलिए से उसका मुँह पोंछती माँ बोली। बेटी ने एक क्षण माँ की गीली आँखों को देखा और झटके से लिपट गई। ‘ऐसा मत बोलो मम्मा कि तुम पागल हो जाओगी, मर जाओगी। फिर तो मैं भी मर जाऊँगी।’ वह सुबक-सुबक कर रोने लगी। ‘सॉरी मम्मा, सॉरी। रोओ मत मम्मा।’ उसने जोर से माँ को खुद से चिपका लिया। ‘मैं अच्छी बनना चाहती हूँ, पर बन नहीं पाती… तुम्हारे बिना तो मैं रह ही नहीं सकती। रात को सो नहीं सकती… तुम्हारे बिना रात को नींद कैसे आएगी। सिर्फ पापा के साथ मैं नहीं रह सकती। मैं मम्मा की हूँ और मम्मा मेरी है। और किसी की नहीं। मैं तुम्हारी हूँ मम्मा…’ उसकी हिचकियाँ तेज होने लगीं। माँ की बाँहों में एक झरना बहने लगा। उसकी फुहारें, उन फुहारों से उठती बूँदें, झरने का वेग, उसका उद्दाम सब उसे छूने, भिंगोने लगे – आहिस्ता, आहिस्ता… फिर यह आहिस्ता, आहिस्ता बहुत तेज हो गया और उसमे माँ-बेटी पूरी-की-पूरी समा गईं।

लगभग इसी तरह की घटना उन दिनों बार-बार हुई। मैं बार-बार रोई, वह बार-बार रोई। फिर हर रोज हममे दोस्ती हो जाती रही और मेरे जाने, उस पीटने-मनाने से परे हम दोस्त होते गए… पर मैं शायद गलत थी। हर एक घटना हममें अलगाव पनपा, बढ़ा रही थी।

पर वह जैसे-जैसे बड़ी हुई मुझे उससे डर लगने लगा। वह मेरी चालाकियाँ समझने, उघाड़ने और नाकामयाब करने लगी थी। कभी-कभी तो ऐसा लगता थी कि वह मेरी होते हुए भी मेरी थी ही नहीं। मैंने तो बस उसकी माँ होने के नाते मान लिया था कि वह मेरी है और मेरी ही रहेगी – वैसी ही, जैसा मैं चाहती रही हूँ। मैं उसकी दुनिया नियंत्रित करना चाहती थी, वह मेरी। हर माँ की आदिम इच्छा कि बेटी अपने वैल्यू सिस्टम की हो। हर बेटी की आदिम इच्छा कि उसे उसकी तरह होने दिया जाय।

एक और दरवाजा खुल गया।

मैं नम आँखों से और मैं पीछे चली गई। मेरी नरम दिल कल्पना की दुनिया में जीती बिट्टी के कमरे में आसमान छत से चिपक गया था। टिमटिमाते तारे, सूरज और चाँद एक साथ उसे नजर आ रहे थे … मम्मा के गुस्से से सूरज पिघलकर कमरे की हवा में मिल गया था और वह रो रही थी कि तुम्हारे गुस्से के कारण ही चंद्रमा गायब हुआ … अभी तक तो मुझसे बातें कर रहा था। पिछले दिन वह छत पर गई तो चाँद उसे खा गया था। वह बड़ी मुश्किल से उसके पेट से निकल कर आ पाई थी… पीटती माँ को अपनी मीठी आवाज में कह रही थी – ‘मम्मा तुम गंदी हो। क्या तुम्हें स्कूल में यही सिखाया गया था कि बच्चों को पीटो। मुझे पता है पीटोगी, फिर पछताओगी और रात को सो नहीं पाओगी।

तुम्हें सारी रात गंदे सपने आएँगे… और मै बड़ी होऊँगी तो तुम्हारे लिए कुछ नहीं खरीदूँगी… रोती रहना तब।’ मेरा हाथ रुक जाता। पूछती – ‘पढ़ोगी ही नहीं तो नौकरी कैसे पाओगी। कमाओगी नहीं, तो खरीदोगी कैसे?’ ‘क्यों नहीं पढ़ूँगी। तुम प्यार से कह कर तो देखो…’ दुबली-पतली वह रोती हुई कह रही थी। ‘अच्छा, चल शुरू करें -‘ मैं एकदम नरम पड़ गई। ‘पहले चुप कराओ। मैं चुप नहीं हो पा रही -‘ गालों पर बहती आँसुओं की धार अपनी छोटी सी हथेली मे समेटने की कोशिश करती वह जब भी ऐसा कहती, मेरा कलेजा उमड़ आता और अपनी सिसकी रोकती मैं बाँहें फैला देती – ‘आ जा मेरी जान। मैं तो तुम्हें मजबूरी में मारती हूँ – जब तुम पढ़ती ही नहीं। देखो तुम तो होमवर्क तक नहीं करती। फिर मम्मा को स्कूल में सुनना पड़ता है। चिंता होती है, बड़ी होकर क्या करेगी तू? तुम्हें पता है न, कि मम्मा तुम्हें बहुत प्यार करती है।’ वह मेरे सीने से लग जाती और गालों पर चुम्मी देती हुई कहती – ‘मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ मम्मा।’ हम दोनों के दिलों में चंद्रमा की शीतल रोशनी भर जाती। बिट्टी की आँखों में तारे झिलमिलाने लगते। मैं कहती तू तो मेरे ख्वाबों में लिखी जा रही कविता है बिट्टी, और बिट्टी बिना समझे हँस देती।

हाँ, वह एक कविता ही है जिसे उसके माता-पिता मिलकर लिख रहे है। धीरे-धीरे बड़ी हो रही है यह कविता… ज्यादा मीनिंगफुल होती जा रही है। बढ़ने, लंबे होने के क्रम में उसमें कुछ तीती-तीखी, धारदार पंक्तियाँ भी जु़ड़ती जा रही हैं… माँ की दिली इच्छा कि वह एक सुखांत कविता हो – प्यारी, सुंदर, विचारों में स्पष्ट, अर्थपूर्ण – जिसे दुनिया याद रखे… पर समझ की एक बड़ी गलती ये हो गई कि बिट्टी जैसी कविता को उसके माँ-पिता अकेले ही कैसे लिख सकते हैं! उसे तो एक पूरा समाज लिख रहा है। टी.वी., दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी, इंटरनेट, मोबाइल, किताबें… रोज-रोज के उसके अलग-अलग अनुभव… उसमें फूटती परिपक्वता… उसे वो भी लिख रहे हैं जो उसके रंग रूप, सौभाग्य से ईर्ष्या करते हैं और वो भी जो उस पर तरस खाते हैं कि उसे माता-पिता का साथ नाम-मात्र को मिलता है… जो उसे आशीषों से नहला देते हैं वो भी और जो उसका बुरा होने पर खुशी से छलक जाते हैं वो भी… और अफसोस कि परोक्ष रूप से मेरे ऑफिस के वे लोग भी जो मुझे सख्त नापसंद हैं, जो मेरे विरुद्ध साजिशें करते, अपनी कूटनीतिक चालों से मुझे परेशान करते हैं और मैं ऑफिस की अपनी हताशा बेटी को पीट कर निकालती हूँ… वो भी जो मेरी लिटिल वन को इतना प्यार करते हैं कि उसके बीमार होते ही मुझे जबरन जल्दी घर भेज देते हैं और बाहर जाने पर अपने बच्चों के साथ उसके लिए भी उपहार लाते हैं। वो कामवालियाँ जो बेटी के लिए रखा फल दूध खुद खा-पी लेती हैं, उसकी कतई देखभाल नहीं करतीं, और बदले में निरंतर तीती होती जा रही मैं चिल्लाती हूँ अपनी बिटिया पर। कामवाली भाग न जाए, इसीलिए उसके बदले बेटी को डाँटती हूँ… पति की वे उपेक्षाएँ और महीन प्रताड़नाएँ भी बेटी को लिख रही हैं, जिनका बदला अनचाहे बेटी पर निकलता है, यह जानते हुए भी कि ये अपराध है, हिंसा है, काली करतूत है यह, जिसकी कितनी भी सजा काफी नहीं… ये सब और जाने कौन-कौन मिलकर लिख रहे हैं ये कविता… शायद इसीलिए कविता की पंक्तियाँ बार-बार माँ द्वारा लिखी स्क्रिप्ट से भटक जाती हैं। खो जाते रहे हैं सही शब्द और माँ कविता की अगली पंक्ति को लेकर बिट्टी से जद्दोजहद करती, घबराती रह जाती हैं।

मैंने उसाँसें भरी। बिट्टी दूसरी मिट्टी की बनी है, मैं उसे जानी पहचानी मिट्टी में ढालने की कोशिश कर रही हूँ। वह विरोध में तनी हुई है, जीत-हार का खेल जारी है।

कितनी घटनाएँ, कितने पल… और आज कितने-कितने आँसू। कभी वह मेरे पास आकर उदास हो मेरे पेट में मुँह छुपाकर रोने लगती। ‘मेरी राजकुमारी को क्या हुआ। किसने उसका दिल दुखाया?’…मैं उसे छेड़ती और गुदगुदी करने लगती तो वह रोने लगती – ‘बेकार के हैं सारे खिलौने। या तो उनमें जान भरो या मेरे लिए सच का बच्चा लाओ। एक और बच्चा क्यों पैदा नहीं कर सकती तुम!’ मैं लाजवाब कि उसके इकलौती होने के पीछे के किन तर्कों से उसका सामना कराऊँ आखिर!

फिर कभी किसी और दिन कहती ‘आज सूरज भी गुस्सा है। वह मम्मा की तरह ही है। हर वक्त गरमाया रहता है। चाँद तो पापा की तरह है – उजला, ठंढा, हँसता- मुस्कुराता’। ‘पर चाँद को तो सूरज से रोशनी मिलती है’ मेरे कहने पर वह नाराज हो जाती।

तो यह तो होना ही था। मोम और गरम लोहे का साथ सधता है कहीं!।

बिटिया आशंका थी, बिटिया डर थी, बिटिया महत्वाकांक्षा थी… बिटिया तराशे जाने के इंतजार में मिट्टी का लोंदा थी… मैं अपनी असुरक्षा के तहत उसे पीटती थी और वह मुझसे घृणा करती थी… फिर मैं उसे और पीटती थी, फिर वह मुझसे और ज्यादा घृणा करती थी।

मेरे दिल में अचानक से दृश्य बदला।

वह ओवरऑल पर्सनालिटी अवार्ड के बैज से नवाजी जा रही थी… मैदान में स्कूल के हजारों बच्चे तालियाँ बजा रहे थे और मैं, बतौर उसकी माँ, मंच पर बैठी खुशी के आँसू रोक ही नहीं पा रही थी। यह तो हाल की घटना थी – याद करके मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर मैंने उसे एक छोटा-सा मेल भेजा था और गर्व का यह पल मुझे देने को धन्यवाद देते हुए उसे असीसा था।

एक और खुशी का पल मुझे याद आया। मुझसे कभी मदद न लेने वाली वह, जब एक बार मेरे साथ प्रैक्टिस करके रेसिटेशन में जीत गई थी और सर्टिफिकेट लिए घर घुसी थी तो उसकी चमकती आँखें मेरे दिल में कई दिनों तक खुदी रही थीं।

एक और खुशी का पल… एक और… फिर एक और… यादों का अंत नहीं था। बड़ी होती जा रही वह, अब कविता लिखती थी, घर की साज-सज्जा में राय देने लगी थी। मम्मा के लिए सूप बनाती थी, बीमार होने पर दवा दे देती थी, अकेली रहकर घर का खयाल रख लेती थी। ताला खोलकर घर घुसती और खाना खुद गरम करके खाने लगी थी। खुद पढ़ती थी… थोड़ा पढ़कर अपेक्षाकृत अच्छे नंबर ले आती थी पर मुझे शिकायत बनी रहती थी कि वह थोड़ा और क्यों नहीं पढ़ती… बहुत अच्छे नंबर क्यों नहीं लाती, अपना कमरा सँवारकर क्यों नहीं रखती, हर एक से बात क्यों नहीं करती, बड़ों का अभिवादन क्यों नहीं करती, लेटेस्ट कपड़ों, काजल, लिपस्टिक, आई शैडो से दूर क्यों नहीं रहती… माइली साइरस, जो जोनास, सेलिना गोमेज, डेमी लवातो और पित्जा, मैकरोनी से दूरी क्यों नहीं बनाती, पूरी तरह शरीर ढके कपड़े क्यों नहीं पहनती, छुट्टियों में सुबह वॉक पर क्यों नहीं जाती… कभी हिंदी गाने क्यों नहीं सुनती… क्लासिकल हिंदुस्तानी क्यों नहीं सीखती… सीधी बात यह कि वह कोई और क्यों नहीं हो जाती! तुम्हें तो पपेट चाहिए, बेटी नहीं – ऐसा कहना बंद क्यों नहीं करती, बात क्यों नहीं मानती… ओह नो! यह क्यों का चक्कर शायद बहुत ज्यादा खिंच गया था!

अतीत के दरवाजों से इतर, दिल की इन गाँठों के दरवाजे एक के अंदर दूसरे बसे थे और सारे बंद थे।

मैं रो रही थी। उपहार की तो खैर कोई बात नहीं थी। लगा ही नहीं कभी कि वह इतनी जल्दी मुझसे ऐसे विमुख हो जाएगी… मुझे इलाज की जरूरत थी। मैं एक मानसिक रूप से बीमार माँ थी… उससे एक ओर तो बहुत प्यार करती थी, दूसरी ओर उसके साथ हिंसा करती थी। मेरा उसका एक ही रिश्ता था – या तो बहुत प्यार या बहुत गुस्से का। मेरा दिमाग सुन्न हो गया। मैंने अपने शरीर से निकलकर खुद को और सारी घटनाओं को देखा। सब कुछ बहुत बुरा लगा और मैं अफसोस से भर उठी। क्या वह फिर से छोटी नहीं हो सकती… क्या जो हुआ, वह अनहुआ नहीं हो सकता!। क्या जिंदगी फिर से, रि-स्क्रिप्ट करके जी नहीं जा सकती? …मैं रो रही थी, खुद पर शर्मिंदा थी… अँधेरा मन को छा चुका था…और उस कालिमा में किसी भी तरह रंग भरना नामुमकिन लग रहा था।

किसी ने मुझ पर बहुत धीरे से हाथ रखा। पति होंगे – मैंने सोचा। अब इनसे क्या कहूँ, अपनी शर्मिंदगी की कथा… मैं निश्चल पड़ी रही। पर जैसे ही हाथ ने मेरा पूरा स्पर्श किया, मैं समझ गई कि ये हाथ किसी और का था।

‘मम्मा…’, मेरी बिट्टी ने कोमलता से कहा। ‘सॉरी बिट्टी। मैं तुम्हारी माँ होने के काबिल हूँ ही नहीं।’ मैंने तुरंत कह दिया। वह चौंकी। ‘वैसे तो मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ पर तुम्हारी चिंता के मारे तुम्हारे जीवन को एक ढर्रे, एक लीक पर लाने की कोशिश में हताश, तुम्हें दुख देती, मारती-पीटती रही हूँ। वो सारी हिंसा, सारी डाँट-मार बहुत शर्मनाक थी। अभी मैं तुम्हारा बचपन याद कर रही थी – कितनी प्यारी, मनोहारी, कोमल, कल्पनाशील, नाजुक बच्ची थी तुम और कितनी कठोर, कितनी हिंसक, कितनी क्रूर थी मैं… अगर तुम्हें लगता है कि मैंने तुम्हें कभी प्यार किया ही नहीं, तो शायद यही सच हो। अगर तुम्हें लगता है कि मै एक डिक्टेटर हूँ तो शायद यही सही है। प्यार का तो ऐसा है बिट्टी कि जिसे दिया, अगर उसने महसूस लिया तो प्यार, प्यार है, वरना नहीं है – अहसासों का मामला है न!’ उसके हाथ को मैंने अपने हाथों मे ले लिया। ‘तुम तो बचपन से एक प्यारी बच्ची थी बिट्टी। फूलों की नाजुक पंखुड़ी, बादल का टुकड़ा, कविता की पंक्ति, संवेदना की सियाही – और मैं? मैं ठहरी एक दुनियादार माँ, जो बेटी की संवेदना को कुछ ऐसे ढालना चाहती रही कि मेरी बेटी, मेरे मरने के बाद भी माँ के बिना कोई असहाय जीवन न जिए… भीड़ में अकेली ख़ड़ी रोती हो मेरी इकलौती और कोई आँसू पोंछने वाला न हो… तब माँ की आत्मा रोती हो कि एक नरम नाजुक रुई के फाहे को, पिघलती धूप को, गलती मोम को ठोस बनाए बिना ही कैसे छोड़ दी दुनिया मैंने। उसे ठोस बनाकर कुछ चोट खाने लायक बनाकर दुनिया की क्रूरता सहने लायक बना देती, तब छोड़ती न दुनिया… तो मैं लोहा समझकर मोम पर चोट करती रही… चादर समझकर फूल की पत्ती निचोड़ती रही…।’

‘ओह छोड़ो भी मम्मा… फिर भाषण देने लगीं। तुम कहीं प्रोफेसर होती, वही ठीक था। जब देखो तब शुरू कर दिया बोलना – ब्ला, ब्ला, ब्ला… ‘वह हँसने लगी। ‘मैं तो मजाक कर रही थी कि तुम मुझे प्यार नहीं करती। मैं जानती हूँ कि तुम करती हो और तुम भी जानती हो कि मैं तुम्हें कितना चाहती हूँ। तुम प्यार नहीं करती होती तो मुझे मारकर फिर रोने क्यों बैठ जाती। मुझे गालियाँ देकर तुम्हें नींद क्यों नहीं आती… अपनी कोई चिंता किए बिना, दिन-रात सिर्फ मेरे लिए ही चिंता… ये पका दूँ, ये खिला दूँ, ये सिखा दूँ, गलत खिला कर तेरा फिगर न बिगाड़ूँ… तू बड़ी हो जाए तो ये करूँ, वो करूँ… फिर हम दोनों मिल कर ये करें, वो करें… तुम्हारी पढ़ाई के लिए पैसे बचाएँ, तू बड़ी होकर ये नहीं, तो वो बन जाना… और अब तो सिर्फ मेरी नहीं, मेरे बच्चों की भी प्लानिंग होने लगी है तुम्हारे मन में…’, वह खिलखिलाती बोली ‘लगता है, अपनी बड़ाई सुनना चाहती हो कि मैं कितनी अच्छी मम्मा हूँ, तुम्हारी इतनी केयर की, इतना कुछ छोड़ा, सहा तुम्हारे कारण… बिना माँगे तुम्हारी जरूरतें पूरी कर दीं… इतने आँसू बहाए, जब जब तुम्हारा कुछ बुरा हुआ… सुनना चाहती हो बिट्टी से कि आई ऐम वंडरफुल मॉम… यही न?’ वह नाटकीय अंदाज पर उतर आई।

‘हैं?’ मैं उठ बैठी। ‘पर तुम्हे तो शिकायत है न कि मै तुम्हें पीटती हूँ – और मैं खुद भी महसूसती हूँ कि…’ ‘ओ.के. … ओ.के. मालूम है – क्या कहोगी। तुम्हारी चिंता है तो परेशान होती हूँ। इतना डूबी रहती हूँ तुममें कि तुम्हारे लिए कविता लिखती हूँ… तुम्हें तरह तरह से पैंपर करके बरबाद करती हूँ, फिर जब तुम पैंपर्ड चाइल्ड की तरह बिहेव करती हो तो चिल्ला-चिल्ली करती हूँ। तुम्हें सबसे अलग तरीके से, अलग विचारों के साथ पालती हूँ। एक ओर कहती हूँ कि ऐसी बनो कि धारा के विरुद्ध बह सको पर दूसरी ओर चाहती हूँ कि तुम एक आम लड़की की तरह आज्ञाकारी, पढ़ाकू, रन ऑव दि मिल बनो… दुनिया घुमाती रहती हूँ, दुनिया भर की चीजें ले देती हूँ पर इंडिकेशन ये देती हूँ कि लाइफ इज अ स्ट्रगल… सिर्फ एन्जॉय मत करो या कि एन्जॉय करो ही मत। कभी कहती हूँ कि तू तो मेरी इकलौती, लाडली है तो तू मजे नहीं करेगी, तो कौन करेगा… फिर अगले दिन ये कि दिन भर मस्ती करती है, पढ़ेगा कौन – तेरा भूत! फाइन। यू आर ग्रेट। अब आप उठ बैठेंगी प्लीज, अपना गिफ्ट ले लेंगी प्लीज!’ मैं मारे खुशी के सन्न रह गई। ‘अले, मम्मा तो उदाछ हो गई। लूथ गई। अब मम्मा को बित्ती कैते मनाएगी? तलो, उतो, नईं तो…’ वह मुझे गुदगुदी करने लगी। ‘जानती हो मम्मा, मेरे साथ के लड़के-लड़कियाँ भी पिटते रहे है। आज भी जब उन्हें गालियाँ पड़ी होती हैं पेरेंट्स से, तो स्कूल आकर कहते हैं – कल भी खूब बड़ाई हुई मेरी।

तो मेरी तो बचपन से हो रही है… बड़ाई…।’ वह मुझे छेड़ रही थी और मैं अंदर-अंदर कट रही थी। ‘और यह देखो, ये क्या बात हुई कि जो पौधा बचपन से मेरे जन्मदिन पर एक फूल के लिए मुझे तरसाता रहा, आज मदर्स डे पर उसने तुम्हारे लिए फूल दे दिया? यह रहा लाल गुलाब मेरी मम्मा के लिए… बोलो गलत बात है न! अब हर बार वादा करके भी फूल नहीं देने की क्या सजा दूँ पौधे को? बाई द वे, अपना लैपटॉप खोल कर मदर्स डे का वो स्पेशल म्यूजिकल कार्ड देख लेना, जिसे बनाने में मैं सुबह से बिजी थी…।’ मैं उठकर बिस्तर पर बैठ गई – खुशी और गम के घालमेल से गुजरती। पर मेरी आँखें रोई हुई आँखें थीं। उसने पकड़ लिया। ‘ओह मम्मा, तुम रोती बहुत हो। बचपन से लेकर आज तक जब भी मेरा दिल दुखाया, मुझे मारा, लगी रोने… जागी रही रात भर… मुझे पता है, मैं बुरी मम्मा हूँ। बहुत पीटती रही हूँ तुम्हें, पर अंदर से तो तुम्हें… इटीसी, इटीसी…’ मैं पिघल गई और फिर से रोने लगी। ‘तल, उत, खली हो दा औल हँस दे… बत हो गया गुत्ता खतम…’ वह मुझे दुलराने की खातिर तुतलाती हुई गा-गाकर बोलने लगी, जैसे मैं करती रही हूँ…

मैंने फूल ले लिया। सुर्ख लाल गुलाब – मेरी बेटी का दिल। ‘मम्मा, आई ऐम सीरियस। उस गुलाब के पौधे से कहो, उसे मेरे अगले बर्थडे पर फूल देना ही होगा। उसने मुझसे इतनी बार वादा किया पर कभी मेरे बर्थडे पर फूल नहीं दिया।’ वह ठुनकी।

‘बिट्टी, अगर तुम्हारे अगले जन्मदिन पर उस पौधे ने फूल नहीं दिया तो मैं उसे घर से फेंक दूँगी… यह क्या बात हुई कि मेरी जान, मेरी डियरेस्ट को तो हर बार धोखा दिया और फूल दिया मदर्स डे पर…’ मैंने अँसुआई आँखों से खुश होने की कोशिश करते कहा। ‘हाँ, मम्मा, पौधे से कह दो मेरे हर जन्मदिन पर फूल दे।’ मेरी तेरह साला इतराई हुई, मुँह फुला कर बोल रही थी। मेरी ओर पीठ करके छेड़ती हुई कह रही थी – ‘आई लव यू ऐंड हेट यू मम्मा…’ ‘क्या।?’ मैंने आँखें तरेरीं, तो वह खिलखिलाई और आकर मुझसे लिपट गई। ‘लव यू एंड ओनली लव यू… अब ठीक?’

हाँ, अब तो सचमुच सब कुछ ठीक लग रहा था।

गुलाब का पौधा उसके हर जन्मदिन पर फूल दे और आज मेरे अंदर जो एक नया पौधा उगा वो भी खिले, बढ़े, लहलहाए… और उसकी गोदी फूलों से भर दे। आमीन।

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पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे – Paudhe Se Kaho,Mere Janmadin Par Phool De

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