पत्तर अनारां दे | ए हमीद
पत्तर अनारां दे | ए हमीद

पत्तर अनारां दे | ए हमीद – Patar Aanara De

पत्तर अनारां दे | ए हमीद

अनार की टहनी पर एक लाल फूल मुस्करा रहा है। जब माघ की बर्फीली बारिश में भीगी हुई हवा चलेगी तो यह अपने घर के रेशमी दरवाजे और मखमली खिड़कियां बन्द कर लेगा और अपनी सुगन्धि से लिपटकर सो जाएगा। फिर वे यात्री जो रातों में यात्रा करते हैं और फिर वे परदेसी जिन्हें सफर करते रात आ जाती है, टपकते छप्परों के तले खड़े अजनबी दरवाजों पर दस्तक देंगे और फूंस के बिस्तरों में खुरैरे कम्बल ओढ़कर लेटे हुए गृहस्थ अपने अतिथियों के लिए ठंडे चूल्हों में आग जलाएंगे, ताक में बुझी हुई मोमबत्ती को फिर से जलाएंगे और बिस्तर का आधा फूस अपने मेहमान नीचे बिछाकर बडे प्यार से पूछेंगे, ‘बारिश में रात को सफर करने वाले मुसांफिर! तेरा घर कहां है?’

हमारा घर अनारों के बाग में था सहेली! या हमारे घर में अनार का बाग था, अनार का पेड़ था, जिसकी टहनियों पर गिलासनुमा लाल-लाल फूल लगा करते थे। मैं उन फूलों को अपने बालों में लगाकर स्कूल जाएा करती थी। ये फूल मेरे बालों में सजे सारे दिन मेरे साथ रहते। शाम को मैं उन्हें उर्दू की सातवीं किताब में रखकर प्रेस कर देती, कुछ दिन बाद उनकी खुशबू उड़ जाती, उनकी ताजगी और शोखी उनका साथ छोड़ जाती और वे सूखकर तितली के कोमल परों की तरह हो जाते। मैं उन्हें किताब में से निकालकर डिब्बे में संभालकर रख लेती। यह डिब्बा मुझे मेरे बड़े भाई ने दिया था। यह डिब्बा टीन का था और चौकोर बना हुआ था। उसके चारों ओर बसन्ती और गुलाबी रंग की सुन्दर बेलें बनी हुई थी और ढक्कन पर ताजमहल का रंगीन चित्र था। उस डिब्बे में मैंने कितने ही फूल इसी तरह सुखा-सुखा कर रखे हुए थे।

फूल मुरझाकर ज्यादा खूबसूरत क्यों हो जाता है, इस रहस्य को मैं नहीं जानती। कुछ ऐसा लगता है जैसे मुरझाने से पहले वह अन्धा होता है। उसकी पंखुडियां बहार के जोश में खुली होती हैं, लेकिन आंखें बन्द होती हैं और जब आंखें खुलती हैं तो हर पत्ती, हर पंखुड़ी अपनी महक को गोद में लेकर सिमट जाती है, सिकुड़ जाती है, बन्द हो जाती है; वह मुरझा जाता है। वह खिन्न और उदास हो जाता है लेकिन उसकी उदासी शाश्वत होती है। वह फिर कभी नहीं मुरझाता, फिर कभी अन्धा नहीं होता। फिर वह सब कुछ देखता है, सब कुछ सुनता है और खामोश रहता है। उसकी उदास और तिहारी सुलगती हुई दुखी शान्ति अनादि और अनन्त हो जाती है। पहले वह समुद्र की सतह पर चट्टानों के पत्थरों से टकराता हुआ तूफान था और अब समुद्र के अतल में डूबा हुआ पत्थर है जिसकी सतह पर मटमैली काई उगी है लेकिन जिसका सीना चमकीले हीरों और मोतियों से भरा हुआ है। पहले वह पगडंडियों पर से जाता हुआ नर्तकियों का जलूस था और अब सड़क के किनारे स्थापित किया हुआ सम्राट अशोक का शिलालेख है जिस पर साकिया मुनी के वैरागी राजकुमार के कोमल और मीठे बोल लिखे हैं।

हमारे आंगन में जब जनवरी की ठंडी हवाएं चलतीं तो अनार की टहनियां अपने सारे पत्ते झाड़ देती। झड़ने से पहले उन पत्तों का रंग पहले पीला फिर उषा के रंग का, फिर लाल,गहरा लाल और कत्थई हो जाता। यह पत्तों का अन्तिम रंग होता, अन्तिम सांस होती। फिर वे पतझड़ की हवा के जरा-से झोंके पर ही अपनी टहनियों से टूटकर जमीन पर गिरने लगते। आंखों से उमड़कर पलकों तक आया आंसू वापस जा सकता है लेकिन डाल से टूटा हुआ पत्ता वापस नहीं आ सकता। और फिर गिरते पत्ते को कौन रोकता है! वृक्षों के आंसू कौन पोंछता है?

ढोलक की लय को धीमी कर दो सहेली, और अपने गीत को और रुक-रुककर धीमे, गहरे, कोमल और नीचे सुरों में गाओ और जब मेरी पलकों से कोई आंसू गिरे, कोई पत्ता गिरे तो अपने संगीत का आंचल फैलाकर उसे अपनी झोली में ले लेना। गीत की नदी को धीरे-धीरे बहने दो! इस गीत से मेरे मन को शान्ति मिल रही है। यह बड़ा धुंधला-धुंधला गीत है और तुम्हारे होठों से अनार के मटियाले पत्तों की तरह झड़ रहा है। मुझे बताओ सहेली! कहीं वह उन केसरी दुपट्टों का मरसिया तो नहीं जिनसे दुलहनों के रेशमी गले घोंट दिये गये?

गीत के पत्तों को रुक-रुककर गिरने दो!

गीत की नदी को धीरे-धीरे बहने दो!

और वह पहले बोल फिर दुहराओ! वे ही जर्द और मुरझाये हुए बोल…

सादे पतर अनारां दे

सुक्के पतर अनारां दे

अज मेरे वीर आवनां

खिडे फ़ुल पहाड़ां दे

सादे पतर अनारां दे

अनारों के पत्ते पीले हो गये हैं, अनारों के पत्ते सूख गये हैं। आज मेरा भाई आ रहा है। आज पहाड़ों पर फूल खिलेंगेइस गीत के बोल किसने बनाये है? यह तो पीले पत्तों का गीत मालूम होता है। ऐसा ही एक मुरझाया हुआ पीला गीत मेरे दिल की टहनी पर से गिरने को है। और जब वह टूट-टूटकर गिर पड़े और हवा में झकोले खाता हुआ तुम्हारी ओर बढ़े तो मेरी प्यारी सहेली उसे अपनी हथेलियों के कमल में ले लेना और प्यार के उस अन्तिम श्वांस को, अन्तिम गीत को अपनी आत्मा के ताजमहल में दंफ्न कर देना।

आज शहर की रात कितनी खामोश है सहेली! इस खूबसूरत आसमान के भरे हुए कमरे में सिर्फ हम दोनों जाग रही हैं और गलियों की बोलती हुई चुप्पी सुन रही हैं और गीत की सरगोशियों में एक-दूसरे से बात कर रही हैं। गीत हमारे पास आकर धीमी-धीमी, प्यारी-प्यारी बातों में परिवर्तित हो जाते हैं और हमारी बातें इस कमरे के रोशनदानों से बाहर निकलकर गीत बन जाती हैं। बाहर दालान में आपू, कश्शो और नानी सैयदा नमकीन चाय से भरे पतीले के पास बैठी ऊंघ रही हैं और चूल्हे में आग मध्यम हो रही है। नीचे के दालान में बरात के लिए सालन, मेशी जरदा, फिरनी और चटनी तैयार हो रही है, मसाले कूटे जा रहे हैं और प्याज-अदरक और मूलियां काटी जा रही हैं। कल दुपहर के बाद जब बरात चली जाएगी तो इनमें से कुछ भी न बचेगा, न प्याज, न पुलाव, न अदरक और न दुलहन। सब कुछ हज्म हो चुका होगा, ंखत्म हो चुका होगा। सिर्फ यह ढोलक बाकी होगी, इसके गीत बाकी होंगे, अन्तत: मुर्दा फूल और पीले पत्ते बच रहेंगे।

तुम्हारी गर्म चादर कन्धों पर से फिसल रही है, इसे ऊपर कर लो और कांगड़ी जरा आगे कर लो! आज ठंड अधिक हैयह बड़ी सूखी सर्दी है। कहते हैं अगर एक हफ्ते तक बारिश न हुई तो अनाज बहुत महंगा हो जाएगा और अगर बारिश हो गयी तो अनाज फिर भी बहुत महंगा हो जाएगा। अब अनाज बहुत महंगा हुआ करेगा। अनाज अल्ला मियां की देन है। अल्ला मियां हमारी दुनिया से नाखुश हैं और एक-एक करके यह अपनी सारी नेमतें वापिस बुला रहे हैं, उन्हें हमसे छीन रहे हैं। पहले उन्होंने हमारे घर के आंगन वाला अनार का पेड़ और मेरा ताजमहल के चित्र वाला डिब्बा छीना और अब अनाज ले रहे हैं। मेरा भाई मेरा वीर कह रहा था, अभी देश से अनाज गायब हो रहा है, फिर पैसे गायब हो जाएंगे और फिर देश गायब हो जाएगा।

मेरी प्यारी सहेली! फिर तो बहुत बुरा होगा, हम लोग इन गलियों को छोड़कर कहां जाएंगे? और जहां भी जाएंगे क्या वहां अनारों का बाग और टाहिलियों के पेड़ होंगे? और क्या उन पेड़ों के नीचे कोमल-कोमल बच्चे हाथों में हाथ डाले गा-गाकर पेड़ बाबा को सलाम किया करेंगे?

साडा टाली नूं सलाम

बीबी टाली नूं सलाम

बन्दां वाली नूं सलाम

हमीलां वाली नूं सलाम!

अगर टाहिलियों की छांय में बच्चे खेलते हैं और अनारों के बागों में चिड़ियां चहचहाती हैं तो उन गलियों को मेरा सलाम! उन टाहिलियों को मेरा भी नमस्कार! हजारों बार, लाखों बार नमस्कार! फिर चाहे सारा शहर, सारे पैसे, सारा अनाज ही गायब हो जाए?

लेकिन यह सूखी सर्दी कब गायब होगी?

काँगड़ी को जरा हिलाओ, इसमें अभी आग बाकी है और तुम्हारी पशमीने की चादर तो बड़ी गरम होगी सहेली! मेरी पशमीने की सहेली! अनार के पेड़ वाले घर में ऐसी एक चादर मेरे पास भी थी। सर्दियों के दिनों में मैं उसे बुरके के नीचे ओढ़कर स्कूल में पढ़ने जाएा करती थी। फिर जब मेरे अब्बा कलकत्ते से आये तो मेरी दोनों छोटी बहनों के लिए भी एक-एक चादर लेते आये। मगर वे तुम्हारी तरह बढ़िया नहीं थीं। वे बिलकुल सादी थीं। मेरा बड़ा भाईहम तीनों बहनों का अकेला बड़ा भाईभी हमारे अब्बा के साथ कलकत्ते में धुलाई का काम किया करता था। मैट्रिक पास करने बाद अब्बा ने उसे अपने साथ लगा लिया था।

पशमीना बड़ा गर्म होता है, अगर मिल जाए तो और भी गरम होता है। मैं तो सर्दियों में कभी दुपट्टा न ओढ़ा करती थी। बस हल्के गुलाबी रंग की चादर पहने घर के काम-काज में लगी रहती थी, और घर का काम-काज कुछ अधिक न होता था। यही मुंह अंधेरे उठकर नमाज पढ़ना, नमाज से छुट्टी पाकर कुरान शरीफ पढ़ना, कुरान शरीफ पढ़ने के बाद घर के बड़े कमरे, छोटे कमरे, रसोई घर और दालान में झाडू लगाना, पानी का छिड़काव करना, बुझाकर रख लिए गये कोयलों को हमाम में दुबारा सुलागाकर हमाम को गर्म करना, और अगर गर्मियां हैं तो उसमें पानी की दस-ग्यारह बाल्टियां डाला कर उसे मुंह तक भर देना, रात के बचे हुए बासी चावल अनार के पेड़ पर चहचहाने वाली चिड़ियों के आगे डालना, चूल्हा गर्म करना, मां को सुबह-सुबह नमकीन चाय का एक प्याला बनाकर देना, अगर अब्बा कलकत्ते नहीं गये हों तो उनके लिए हुक्का ताजा करना, चिलम में तम्बाकू भरना, फिर सबको बारी-बारी जगाना और अन्त में नमकीन चाय में कुल्चा भिगोकर खाना और स्कूल की राह लेना और किसी समय अनार के लाल फूल को भी उसकी शाख से तोड़कर अपने साथ ले जाना।

इस बीच गुलाबी रंग की चादर मेरे ऊपर होती थी। उस चादर के तीन और बेल काढ़ी हुई थी और दो तरफ काम किया गया था। लेकिन वह तुम्हारी चादर से बहुत हल्की थी। तुम्हारी चादर कामदार है। इस पर तो कढ़ाई का इतना गुंजान काम किया गया है कि पशमीना नंजर ही नहीं आता। वैसे भी अब पशमीना कहीं नंजर नहीं आता। मेरा भाई कह रहा था कि पशमीना तो बांजार में बहुत है, सिर्फ हमारी नंजर कमंजोर हो गयी है। लेकिन यह कैसे हो सकता है सहेली? मेरी नंजर तो अच्छी-भली है। मुझे तो अपना सफेद दुपट्टा साफ दिखाई दे रहा है।

मुझे तो यहां से बहुत दूर अपना शहर, अपनी गलियां और अपना मकान भी साफ-साफ दिखाई दे रहा है। मैं तो आमों वाली नहर को जानी वाली सड़क और उसके दोनों ओर दूर तक जाती टाहिलियों की कतारें भी देख रही हूं। तुमने कोई ऐसी सड़क देखी है जिसके दोनों ओर टाहिली के पेड़ दूर तक झुके हुए चले गये हों? और फिर तुमने पूस-माघ की बारिश में भागे हुए भूरे-भूरे दिनों में टाहिलों को देखा है? उन दिनों हमारे शहर के गली-कूचों में मेह की फुहारों में भीगी हुई हवा के तेंज झोंके चला करते थे। पंजाबी में उन्हें पौह-माघ के ठक्के कहते हैं। जब ये ठिठुरती हुई हवाएं चलतीं तो खेतों, बागों, मकानों की छतों और रेल की पटरियों पर रातों में कुहरा जम जाता। दिन में आकाश भूरे-भूरे, फीके-फीके बादलों में छिपा रहता और आमोंवाली नहर को जाने वाली सड़क पर टाहिलियों के पेड़ अपने कत्थई रंग के पत्ते झाड़ते। सारी कच्ची सड़क टाहिलियों के गोल-गोल और कार्नफ्लेक जैसे पत्तों से भर जाती और नाशपातियां और अलूचे के बागों में पेड़-पौधों की लम्बी-लम्बी, ऊपर को उठी हुई टहनियां नंगी होकर तेंज सर्दी में काली पड़ जातीं और माली सारे दिन पौधों की कतर-ब्योंत और खाद डालने के काम में व्यस्त रहते।

क्यों कि हमारा मकान शहर के बाहर, रेलवे लाइन के पार नई बस्ती में था और यह नहर को जानेवाली कच्ची सड़क वहां से शुरू होती थी, इसलिए बचपन में मैं अपनी सहेलियों और समवयस्क लड़कियों के साथ इसी सड़क और सड़क के किनारे वाले बांगों में खेला करती थी। ये तो सैरगाहें और तंफरीगाहें हैं। जिन बागों की मैं बात कर रही हूं और जो हमारे शहर की रेलवे लाइन के पार थे, सिर्फ बाग थे। वहां केवल वृक्ष-ही-वृक्ष हुआ करते थे; पेड़-ही-पेड़ होते थे। यह अनारों का बांग है तो एक फर्लांग के बाद अमरूदों का बांग शुरू हो गया है और फिर नाशपातियों का बाग और लौकाटों का बांग और अलूचों का बांग और बांग ही बांग। अमरूदों का बांग साल में दो बार फल देता है। यह बांग सर्दियों में सिर्फ एक माह के लिए उजड़ता है। जिन दिनों यह बांग उजड़ जाता और रखवाले अपनी फूस की झोंपडियां खाली कर जाते तो हमारी टोलियां छोटी-सी नहर का पुल पार करके इन बांगों में धावा बोल देतीं।

उजड़ जाने के बाद भी पेड़ों पर कच्चे-पक्के अमरूद कहीं-कहीं होते थे। हमें बन्दरों की तरह पेड़ों पर चढ़ता देख तोते टीं-टीं-टीं कर शोर मचाते उड़ जाते। हम जोर-जोर से पेडों की टहनियां झाड़ते और झोलियां भर-भरकर अमरूद लाते और नहर के किनारे सिखों के वंक्त की बनी हुई एक छोटी-सी वीरान और टूटी-फूटी बारहदरी में बैठकर उन्हें मजे ले-लेकर खाना शुरू कर देते। हमारी टोली में हिन्दू-सिख लड़के और लड़कियां भी होती थीं। ये सब हमारे साथी थे और हम सब एक-दूसरे के पड़ोस में रहते थे। उनमें बसन्त थी, हरनामी थी, कमला थी, रुक्मिणी थी, पाली था, रजिया थी, सकीना थी, ऐमी था, सूदी थाऔर मैं भी थी; सभी थे। और अब सिर्फ मैं हूं और यह ढोलक है, और मेरी आंखों से गिरते हुए गीत के पीले पत्ते हैं और पलंग पर सोयी हुई दुलहन है; और बाकी कोई नहीं। सिर्फ साये हैं, साये ही साये; कोई हमसाया नहीं, कोई हमजोली नहीं,कोई बसन्त नहीं, कोई ऐमी, पाली और कमलानहीं…

मेरी पशमीने की सहेली!

मेरी गर्म सहेली! जरा कांगड़ी में कोयलों को छोड़ दो और ढोलक की लय को इतनी धीमी न करो कि मेरे गीत की नदी बहते-बहते रुक जाए। आज इस नदी को सारी रात बहने दो। आज इस रात के गीत को सुबह तक गाये जाओ! और जब सुबह हो जाए और दिन के उजाले का उबालता-खौलता सैलाब रात के अंधेरे खंडहरों को अपरिचित देश की ओर बहाकर ले जाएे तो हम दोनों खिड़क़ी खोलकर कहाँ जा खड़ी होंगी और सुबह के चमकते हुए मस्तक पर लिखे हुए प्रकाश के शब्द पढ़ेंगी और फिर सोयी हुई दुलहन के गले में सूरज की पहली किरण का हार पहनाते हुए उसे धीरे-से जगा देंगी।

तुम ठीक कहती हो। बाहर भी तो आग बुझ गयी होगी और फिर चाय के पतीले के पास बैठी हुई आपू अश्शू भी तो सो गयी है। वह जाग रही होती तो चाय में चमचा हिलाने और नानी सैयदा से अपने भानजे की रिश्तेदार पर बहन की जबरदस्त लड़ाई का हाल सुनाने की आवांज जरूर आ रही होती। आज किसी को न जगाओ! आज उन सबको सोने दो! नीले पानियों में बहनेवाले सुनहरी सफीने आकाश से कभी नहीं मिलते लेकिन ये नीले कुंडल तुम्हारे गोरे बदन के साथ खूब फब रहे हैं। ये तुमने कहां से खरीदे थे? ये तो बहुत ही सुन्दर हैं! ऐसा लगता है जैसे दो नीले सितारे तरल होकर टपकने लगे हों और फिर वहीं जमकर रह गये हों। ये नीले-नीले लम्बूतरे नग; ये नीले सितारे, ये नीले तालाब…

बचपन में मैंने भी नीले तालाब देखे थे; स्वप्न में नहीं बल्कि इस जीती-जागती, भागती-दौड़ती दुनिया में; लेकिन अब सोचती हूं तो वह सब एक सपना लगता है जैसे कि जागते हुए एक सपना देखा हो; जागृत अवस्था की नींदइस सपने का नाम ऐसा था। नीली-नीली आँखों वाली, एक भोली-भाली नन्हीं-मुन्नी-सी सूरत अब भी वह तीसरी मेंया शायद यह भी दूसरी कक्षा में ही पढ़ता था। हमारे मुहल्ले के सिरे पर एक छोटा-सा मन्दिर था। ऐमी उस मन्दिर के पुजारी का बेटा था। मेरी हिन्दू सहेलियां अपनी मांओं के साथ कांसी के छोटे-छोटे समरनों में आरती के फूल लिये पूजा करने मन्दिर में जाएा करती थीं। कभी मैं भी उनके साथ हो लेती। ऐमी अपने गोल-गोल तोंदवाले महन्त बाप की बगल में तिलक लगाए बैठा होता। उसके गले में ग्यान-ध्यान की छोटी-सी माला होती। कमर के चारों ओर धुली हुई सफेद धोती लिपटी होती।

वह आंखें बन्द किये, आसन जमाए, मौन साधे बैठा होता ऐसा लगता जैसे कैलाश पर्वत का कोई मुकुटधारी नन्हा देवता हो। ऐमी को इस बहुरूप में देखकर मुझे, कमला और बसन्त को बड़ी हंसी आया करती थी और हम अपनी हंसी को बड़ी मुश्किल से रोके रखा करती थीं। बड़े महन्त के चरण छूकर प्रत्येक स्त्री कुछ पैसे उनके चरणों में रखती और ऐमी भगवान के चरणों से रतनजो का एक फूल उठाकर उस स्त्री की झोली में डाल देता। कभी-कभी वह अपनी आंखें जरा-सी खोलकर हमें कनखियों से एक नंजर देखता और उसके चेहरे पर कुछ ऐसी शरारत-भरी चमक-सी आती जैसे वह भी अपनी हंसी को बड़ी मुश्किल से दबा रहा हो। ऐमी कानीली आंखोंवाले, भोले-भोले ऐमी कायह बहुरूप अब भी मेरी आंखों के सामने है, मेरी आंखों के अन्दर है।

तुम मेरी आंखें निकाल सकती हो लेकिन ऐमी को नहीं निकाल सकती; कमला, बसन्त और रतनजो के उन फूलों को नहीं निकाल सकती; जिन्हें नीली आंखोंवाला मुकुटधारी नन्हा देवता अपने पुजारियों की खाली झोली में डाला करता था। बचपन के उन मासूम हमजोलियों के तसवीरें यादों की तिलक बनकर मेरे दिल के मस्तक पर खुद गयी हैं। मैं कमला पाली और ऐमी को अपनी गली के सिरे वाले मन्दिर के सुनहरी कलश को, झुकी-झुकी टाहिलियों के बीच से होकर नहर को जाने वाली सड़क और नहर के साथ-साथ उगे हुए आम के पेड़ों और घर के आंगनवाले अनार के पेड़ को और पेड़ के लाल फूलों को कभी नहीं भूल सकती। चाहे कभी बारिश हो, चााहे आटा कितना ही महंगा हो जाए, चाहे बिलकुल ही गायब हो जाए, मैं उन तसवीरों को सदैव अपने दिल में सुरक्षित रखूंगी और जब भूख मौत बनकर मेरी पथरायी आंखों के अन्दर झांकेगी तो उसे कहीं टाहिलियों के छायादार रास्ते मिलेंगे और कहीं झोलियों में अमरूद लिए नहर के पुल पर से जाते, हंसते, खेलते, गाते, नाचते बच्चे मिलेंगे, कहीं वह मुझे ऐमी को छूने की कोशिश में खेतों, क्यारियों, बागों और रेलवे लाइन के साथ-साथ भागते हुए देखगीउसकी नीली आ/खें जरा-सी खुली होंगी और उसके चेहरे पर शरारत-भरी चमक होगी।

मैं दम तोड़ दूंगी लेकिन आम के पेड़, रतनजो के फूल और ऐमी की माला मेरे मुर्दा शरीर में इसी तरह सांस ले रही होगी। और जब मेरा ठंडा जिस्म जमीन के नीचे दंफ्न कर दिया जाएगा तो वहां गेहूं का एक गुच्छा उगेगा; ताजा और हरा-भरा गुच्छा जिसका चेहरा सूरज की तरफ होगा, पूर्व की ओर होगा, अनारोंवाले घर की तरफ होगा और जिसकी आंखों में दहकती भूख के अंगारे होंगे और जिसकी छांव में भूले इनसानों की लाशें होगी।

ऐमी की मां मुहल्ले-भर की मां थी। सारा मुहल्ला उससे प्यार करता था, वह भी सारे मुहल्ले से प्यार करती थी। ऐमी उसका इकलौता बेटा था। जो विवाह के बीस साल बाद उसके यहां पैदा हुआ था। उसके और कोई सन्तान न थी। वह ऐसी से बेहद प्यार करती थी। उसका प्यार, उसकी ममता एक बिन्दु पर इकट्ठी होकर सारे मुहल्ले, सारे शहर में फैल गयी थी। गली में जब भी कोई बीमार पड़ता ऐमी की मां खबर लेने सबसे पहले पहुँचती। उसने सिर-दर्द, बदहंजमी, और चोट वगैरा लग जाने की छोटी-मोटी दवाइयां अपने घर में ही रख छोड़ी थीं और जरूरतमन्दों को उन्हें मुंफ्त बांटा करती थी। एक बार छत की सीढ़ियों पर से गिरने पर मेरे पांव में मोच आ गयी।

ऐमी की मां को इसकी खबर लगी तो वह पोटली में तुलसी के पत्ते बांध फौरन हमारे यहां आ पहुंची। तुलसी के पत्तों को पानी में उबाल उसने अपने हाथों से मेरा पांव बार-बार धोया और गले हुए गरम-गरम पत्ते उसके चारों और लपेटकर पट्टी बांध दी। दूसरे दिन मुझे आराम आ गया और मैं फिर से अच्छी हो गयी। होली, दीवाली, बैसाखी और बसन्त के त्यौहारों पर वह हम सब बच्चों की जेबें बड़े-बड़े लड्डुओं से भर देती और खर्च करने के लिए एक-एक आना भी दिया करती। ये त्यौहार हम लगभग इकट्ठे ही मनाया करते थे। मुझे याद है, ऐमी की मां ईद के दिन सेवियां जरूर बनाया करती थी और दिवाली की रात को हमारे मकान की मुंडरे पर भी कड़ुवे तेल के दिये झिलमिलाया करते थे। यों तो हम हर त्यौहार पर धूम मचाया करते थे लेकिन लोढ़ी पर बड़ा मंजा रहता। हिन्दुओं में, बल्कि यों कहना चाहिए कि परंपरावादी हिन्दुओं में, यह रिवांज है कि लोढ़ी की रात से एक दिन पहले छोटी-छोटी बच्चियां अपने मुहल्लों के बुंजुर्गों और दुकानदारों के पास टोलियों में जाकर लोढ़ी मनाने के लिए पैसे (मो) मांगती हैं। कमला, ऐमी और बसन्त की टोली में मैं और सवरी भी शामिल होते। हम छोटा-सा जुलूस बनाकर किसी-न-किसी दुकान का घेरा डालकर खड़ी हो जातीं और ताली बजाते हुए गाना शुरू कर देतीं

हट्टी वालिया वीरा सिर सोने दा चेरा

तेरी हट्टी विच्च सलाइयां

इसी केड़े वेले व्यां आइयां

तेरी हट्टी विच मोर

सानू छेती-छेती टोर!

जब दुकानदार चारों ओर से घिर जाता तो वह मुसकराते हुए गल्ले में हाथ डालता और हमें पैसे (मो) देकर अपना पीछा छुड़ाता। इसके बाद हम किसी मोटी लालाइन को गली से जाता देखकर उसे पकड़ लेतीं

वे माई वे

सानूं मोह माई वे

या माई या

काले कुत्ते नूं वी पा

काला कुत्ते दिए दुहाई

तेरी जीवे मज्झी गाई

मानूं मोह माई दे…

लोढ़ी की रात को हम मन्दिर के सामने बूढ़े पीपल के नीचे अपना अलख सबसे अलग जलाते और मां के पैसों से खरीदा हुआ गन्नों को छोटा-सा गट्ठर अपने पास रख लेते। जब आग खूब तेज हो जाती तो हम सब दोस्त और सहेलियां अपना-अपना गन्ना निकालकर उसकी जड़वाला हिस्सा आग में खूब गर्म करते और जब उसका रस पकने लगता तो उसे बाहर निकाल, दोनों हाथों से ऊपर उठा जोर से जमीन पर पटक देते। इससे जो पटाखे की-सी आवांज होती उस पर हम खुशी से पागलों की तरह चीख-चीखकर नाचने लगते। यह खेल उस वक्त तक चलता रहता जब कि आग बुझ जाती और गन्नों का गट्ठर खत्म न हो जाता। अपना खेल खत्म करके हम दूसरों के खेल में जा शामिल होते। वह सारा जीवन छोटे-छोटे खेल ही तो थे जिनके बीच कोई दूरी न थी, कोई इंटरवल न था। बस एक खेल में शामिल हो जाते थे। अब वे सारे खेल जैसे खत्म हो गये हैं और हमलोग सीले कम्बल, अधूरे गीत और प्रतीक्षित आंखें लिये हॉल में बैठे है; और हॉल में एक शोर बरपा हैनान-कबाब बेचनेवालों का, फिल्मी प्लाट बेचनेवालों का, मूंगफली और बासी मछली बेचनेवालों का। जाने खेल कब शुरू हो!

लेकिन ये धीमी-धीमी सरगोशियां क्या हो रही हैं? यह हलका-हलका शोर-सा क्या है जैसे बन्द केतली में चाय का पानी जोश खा रहा है। कहीं गली में बारिश की फुहार तो शुरू नहीं हो गयी!

काश! बारिश जल्दी शुरू हो जाए। मैं तो बारिशसर्दियों की बारिशकी दीवानी हूं। मेरी मां कहा करती है जिस रात मैं पैदा हुई थी उस रात गजब की सर्दी थी और मूसलाधार बारिश हो रही थी। खुदा करे जिस दिन मैं मरूँ, उस दिन भी मेंह बरस रहा हो और मेरा जनांजा गिरती बारिश के लहरों में से होकर जाए।

उस रात भी बारिश हो रही थी . मूसलाधार बारिश हो रही थी और सारा शहर, शहर की गलियां, मकान, खेत, बाग, रेलवे-लाइन, नहरों को जानेवाली कच्ची सड़कें, सड़कों पर झुकी हुई टाहिलिया और उनके भीगे हुए पत्ते कुहरे की चादर में गुम थे और जमा देनेवाली बर्फीली हवाएं चारों ओर ठिठुर रही थीं और बसन्त के घर में उसकी बड़ी बहन की शादी थी और ढोलक की धीमी-धीमी थाप पर बन्द कमरे में लड़कियां गीत गा रही थीं। अनदेखे प्रेमी को सम्बोधन करके कह रही थीं

वगी वगी वे पुरे वी वा

आगे अन्धा चलाना नईं

नईं नईं अजे असां चलना बथेरा

पीछे असां मुड़ना नईं!

और उस ठिठुरती हुई सर्द रात में पुजारी का नीली आंखोंवाला इकलौता ऐमी पूरे की हवाओं के गीत सुनाता उनके साथ कैलाश पर्वत की ओर कूच कर गया। हिमालय की नीली बर्फों में रहनेवाले मुकुटधारी देवताओं ने उसे अपने पास बुला लिया। उस दिन मौसम सुबह से ही बादलों-भरा था और ठंडी हवा चल रही थी। ऐमी स्कूल से वापस आकर सारे दिन हमारे साथ खेलता रहा था। हम रेलवे लाइन के उस पार अमरूद के उजड़े हुए बांगों में आंख-मिचौनी खेल रहे थे। ऐमी की बारी अभी तक न आयी थी। उसे कोई न छू सकता था। जब मेरी बारी आयी तो मैंने दिल में ऐसी छूने का पक्का इरादा कर लिया। कमला ने मेरी आ/खों पर हथेली रख दूसरों को सावधान किया

लुक-छिप जाना

मकई दा दाना:

राजे दी बेटी आ गयी जे!

और जब राजे की बेटी अपने शाहजादे को छूने को आगे बढ़ी तो जमीन पर उसकी टूटी हुई कमान पड़ी थी और शाहजादे की आत्मा कैलाश पर्वत को जा चुकी थी। राजे की बेटी ने अपना सोने का मुकुट धरती पर फेंक दिया, अपनी चूड़ियां तोड़ दीं और काले बाल फैलाकर पेड़ों, नदियों और बादलों से रो-रोकर अपने नीली आंखों और सफेद घोड़ेवाले शाहंजादे का पता पूछने लगी।

आम की टहानियो! नदी की लहरो! रोनेवाले बादलो! तुमने उसे देखा है? उसके सफेद घोड़े की टाप सुनी है? वह इन्हीं जंगलों में हिरन की तालाश में निकला था। उसके आगे चौकड़ियां भरता हिरन उसे कौन-सी घाटियों में ले गया है? लेकिन राजे की बेटी को किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। आम की भीगी हुई टहनियों पर बारिश की रुकी हुई बूंदें चुपचाप गिरती रहीं। पेड़ों के साथ-साथ जाने वाली नदी की लहरें खामोशी से बहती रहीं। कैलाश पर्वत की बर्फधारी चोटियां सर्द अंधेरों में डूबती गयीं; गुम होती गयीं।

उसी रात ऐमी को निमोनिया हो गया और वह सुबह होने से पहले ही मर गया। दूसरे दिन बादलों-भरे मौसम में उसे जला दिया गया। उसके दुबले-पतले, कोमल शरीर के लिए लकड़ियों को घी और सन्दल में भिगोया गया और उस पर केसर और कपूर छिड़का गया और चिता के मन्दिर में से जर्द मौत का पहला अंगारा उभरा तो उसकी मां चीख मारकर बेहोश हो गयी। बादल धीरे-से गरजा और मेंह की हल्की-हल्की फुहार उड़ने लगी। दूसरे दिन उस नन्हीं बेल में फूल और नीली आंखों की राख पवित्र गंगा की लहरों में बहा दी गयी।

हम लोग अल्पवयस्क थे। कुछ दिनों तक ऐमी की कमी महसूस हुई और फिर जैसे उसे बिलकुल भूल गये और पहले की तरह अपने खेल-तमाशों में मग्न हो गये। लेकिन ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती गयी और वक्त घटता गया, ऐमी की राख के फूल गंगा की लहरों से उछलकर हर शाख, हर टहनी पर मुस्कराने लगे। केले के हरे पत्तों में छुपकर बैठे हुए हिरन के बच्चे की तरह ऐमी की याद वक्त के साथ-साथ जवान होती गयी। परछाईं की तरह उम्र के साथ-साथ बढ़ती गयी और जब मैं सोलह साल की हुई और घर से बिना परदे के निकलना बन्द हो गया तो मुझे लगा जैसे जिन खेतों, बांगों और गलियों से होती हुई मैं आ रही हूं वहां मेरी अनमोल चींजें खो गयी हैं। मेरे कानों के बुन्दे, पांवों की झांझरें और हाथों की चूड़ियां इन्हीं बक्करदार अंधेरी गलियों और उजड़े हुए सुनसान बागों में कहीं रह गयी हैं, गिर पड़ी हैं, गुम हो गयी हैं। सुबह-शाम की गरदिश के साथ-साथ मैं समय की सीढ़ियां चढ़ती गयी। मंजिलों पर मंजिलें गुजरती गयीं सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस, बीस .बीसवीं मंजिल आयी तो उस आलीशान इमारत में किसी ने मिट्टी का तेल और पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी।

यह आग देखते-देखते सारे मुहल्ले, सारे शहर और सारे देश में फैल गयी। इस आग की लपटें ऐमी की चिता से उठनेवाली लपटों से बहुत भिन्न थीं। ऐमी की चिता से उठनेवाली लपटों का रंग पीला और काला थागहरा कालाऔर इनमें गन्धक, मिट्टी के तेल और गन्धक-बिरोजे की दुर्गन्ध थी। इस आग, इस दुर्गन्ध, इस हवस में हमारे आंगन वाला अनार का पेड़ मुरझाने लगा। फूलों नेलाल-लाल गिलास नुमा फूलों ने अपनी मखमली खिड़कियां बन्द कर लीं और रेशमी बिस्तर में सोने के बजाय अन्दर-ही-अन्दर तहखानों में से होते हुए अनजान घाटियों की ओर निकल गये, और मैं, कमला, बसन्त, रुक्मिणी और पाली उन्हें आवांजें ही देते रह गये, पकड़ते ही रह गये, देखते ही रह गये और हमारे बीच एक जबर्दस्त हथगोला फटा और अनार का पेड़ जड़ से उखड़कर दूर जा गिरा। पेड़ के उखड़ते ही हम लोग भी अपनी जड़ों से उखड़ गये, सब लोग उखड़ गये, सब पेड़ उखड़ गये और देखते-ही-देखते वहां सिवाय उखड़ी हुई जड़ों के और कुछ दिखाई न देता था। हमारी गली के सब हिन्दू और सिख दूसरे मुहल्लों में जा चुके थे। मुझे अब मालूम हुआ था कि हमारी गली में हिन्दू और सिख भी थे। अब गली में कोई कमला, पाली और बसन्त न थी। कोई हिन्दू और सिख न था। सिर्फ मुसलमान-ही-मुसलमान थे। शहर के दूसरे मुहल्लों से भागकर आये हुए परेशानहाल लोग भाई, बहन, माएं, पत्नियां और बच्चे और लकड़ियां और सन्दूक और चारपाइयों के पाए और बान और बिस्तर, थाल, लोटे, हुक्के, मेजें, दरियां और कबूतरों के दरबे, मुर्गियां और बकरियां और बेटे और बूढे बाप छोड़कर भागे हुए मुसलमान, जो हमारी गली में बन्द पड़े थे और लाइन पारवाले शरणार्थी-शिविर में जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन सनसनाती गोलियों और फटते बमों की बौछार में गली से बाहर पांव रखने का साहस न करते थे। सारे शहर पर हिन्दू-सिख कौम का कब्जा हो चुका था। हमारा शहर हिन्दुस्तान का एक हिस्सा बन चुका था और हिन्दुस्तान के इस भाग में रहने वाले, इस भाग के भागीदार वहां से कूच कर रहे थे, रुखसत हो रहे थे।

सारा-सारा दिन और सारी-सारी रात उस मुहल्ले पर गोलियों और बमों की बारिश होती रहती। लोग बेहद घबराए हुए थे। चेहरे उतर गये थे। कुछ खाया-पीया न जाता था। मौत सामने खड़ी दिखाई देती थी। शहर-का-शहर जल रहा था। किसी ने कह दिया कि अटारी की ओर से सिख निहंगों का एक जबर्दस्त जत्था शहर में लूट-मार मचाने आ रहा है। बस फिर क्या थाएक कुहराम मच गया। औरतों और बच्चों की चींखो-पुकार से गली के दरो-दीवार काँप उठे। अब क्या होगा? अब क्या किया जाए। बुंजुर्गों ने बची-खुची बुध्दिमत्ता को एक जगह एकत्र कर सोचना शुरू कर दिया। उस मुहल्ले से शरणार्थी-शिविर आधी फर्लांग था। गली का लोहे का फाटक बन्द था और दरवांजे के बाहर एक फौजी सिख पहरा दे रहा था। लोगों का खयाल था कि वह बराए नाम पहरा दे रहा है। वह हमारी रक्षा नहीं कर रहा बल्कि अटारी से आनेवाले जत्थे की प्रतीक्षा कर रहा है। जब वह जत्था इस गली के बाहर पहुँचेगा तो यही सिख पहरेदार बम फेंककर लोहे के दरवांजे को भक् से उड़ा देगा। तो फिर इस गली से कैसे निकला जाए? अगर कोठे फलांगकर भागने की कोशिश की तो हवा में सनसनाती हुई गोलियों की बौछार एक पल में सबको भून देगी। और फिर बच्चे, औरतें और बूढ़े इतने सारे कोठे कहाँ फलांग सकेंगे!

तो क्या फिर इस पहरेदार सिख की मिन्नत की जाए कि हमें पार उतरना है, हमें शरणार्थी-शिविर तक जाना है?

लेकिन वह तो सिख है, वह तो निहंग है, अकाली है, रीछ है, खूंख्वार है, कातिल है। पहाड़ों से खिसककर खड्डों में गिरनेवाला पत्थर है और पत्थर में से फूटकर निकला हुआ तेज और नुकीला काँटा है। उसका भयानक चेहरा हब्शियों की तरह काले बालों में छिपा हुआ है। उसकी आंखें जंगली बिल्ले जैसी हैंलाल और भूखी आंखें और उसके हाथ में संगीन है,थ्री नॉट थ्री की राइफल है और थ्री नॉट थ्री की गोली पहले राइफल से निकलकर फटती है और फिर शरीर के अन्दर जाकर फटती है। वह जहां लगती है वहां मामूली घाव होता है और जहां से निकलती है वहां कोई घाव नहीं होता, कोई जख्म नहीं होता, सिर्फ एक छेद होता है ,गहरा, अंधेरा और असह्य छेदवह सिख है फिर फौंजी है। उससे जाकर कौन कहे?

वह मुसलमान की बात सुनेगा और फिर उसका जवाब संगीन की नोंक से देगा। उसके पास कौन जाए, संगीन के पास कौन जाए, मौत के पास कौन जाए। लेकिन अटारी से निहंगों का जत्था चल पड़ा था। संगीनों, कुल्हाड़ियों, कृपाणों और बल्लमों का जुलूस चल दिया था और पहाड़ की चोटियों पर से भयानक पत्थर लुढ़कने शुरू हो गये थे। अब उन्हें कोई नहीं रोक सकेगा और थ्री नॉट थ्री की गोली बड़ी भयानक होती है। पहले वह नली से निकलते हुए फटती है और फिर शरीर के अन्दर…

अब क्या होगा माए मेरी अच्छी मां?

अब क्या होगा मेरे वीर?

हम कहां जाएंगे और हमारे नेक बूढ़े बाप?

हमारे लाडले भाइयो! तुम्हारी बहनों की हथेलियां अभी फीकी हैं। वहां सुहाग की मेहंदी अभी नहीं रची। अभी उन्हें तुम्हारे विवाहों में केसरी जोड़े पहनने हैं और तुम्हारे घोड़े की बाग पकड़नी है और तुम्हारी आंखों में सुरमा लगाना है और तुम्हें दूल्हा बनाना है। और मुझे भाइयो! मांग-मांगकर लिए हुए भाइयो! अपनी जर्द चेहरोंवाली बहनों को भूलकर उनके प्यारे भाइयों को बचाओ!

जत्था शहर के और पास आ रहा था।

गली में कुहराम मचा धा। आखिर एक नौजवान ने तनकर नारा लगाया और मरने-मारने को तैयार होकर सिख पहरेदार की ओर चल पड़ा। सब लोग मकानों और दुकानों में छुप गये। वह नौजवान गली के छोर पर पहुंचकर रुक गया। जेब से चाबी निकालकर उसने लोहे के बड़े दरवांजे की खिड़की जरा-सी खोल दी। उसका दिल धड़कते-धड़कते उसके गले के पास तक आ गया था और वह बड़ी मुश्किल से अपने-आपको ंकाबू में किये हुए थे। उसने सहमी हुई, उखड़ी-उखड़ी आवांज से बाहर पहरा देनेवाले फौजी सिख से पूछा, ‘सरदारजी! हम सामने वाले, लाइन पारवाले कैम्प में चले जाएं?’

और उस रीछ, अकाली, निहंग और वहशी और खूंख्वार ने इधर-उधर लाइनों की ओर देखा और बोला, ‘रात को चले जाना!

उस नौजवान ने, उस आधुनिक तारकबिन ज्याद ने जल्दी से दरवाजा बन्द कर दिया और खुशी में उसके मुंह से एक चीख-सी निकल गयी। नहीं, नहीं! काफिर ऐसा नहीं कर सकता है। यह ंजरूर उसकी कोई चाल है। मुहल्ले में किसी को विश्वास न हुआ, किसी ने सिख की बात का यकीन न किया। कोई बाप अपने बच्चों को लेकर रात के अंधेरे में रेल की लाइन पार करने को तैयार न हुआ। वह सिख है, वह काफिर है, मुसलमानों का दुश्मन है। यह भी उसका एक धोखा है। वह हम सबको मरवाएगा। एक कठोर चेहरेवाला दुबला-सा नौजवान आगे बढ़ा, ‘मैंने कई हिन्दू औरतों को अपने मुहल्ले से निकालकर उनके घरों में पहुंचाया है। मैं हरनाम की बहन को उसके घर छोड़कर आया था और किरपाल की मां को मुसलमानों के घेरे से बचाकर…’ एक और नौजवान चीख उठा, ‘तुम गद्दार हो…काफिर हो…!’

‘लेकिन मैं तुमसे फतवे लेने नहीं आया। मैं यह कहना चाहता हूं कि उसकी अपनी बहनें हों वह दूसरे की बहन की इज्जत करेगा। हो सकता है वह सिख…’

‘बकबास बन्द करो!…

‘तुम भी बन्द करो…’

‘खामोश…खामोश…’

रात के अंधेरे में गली के बड़े-बड़े लौह-कपाट खोल दिये गये और मुसलमान एक सिख के संरक्षण में बाहर निकलते हुए हिचकिचाने लगे। सिख पहरेदार ने हाथ के इशारे से परेशान हाल, भूखे-नंगे मुसलमानों को बाहर निकालने को कहा और सहमते-सहमते, डरते-डरते पहला आदमी गली के कैदखाने से बाहर निकला। सिख फौंजी स्टेनगन जमीन पर गाड़कर लेट गया और उसके संरक्षण में मुसलमानों की भीड़ झुके-झुके लाइनों, खेतों और बागों में से होती हुई मुस्लिम शरणार्थी-शिविर की ओर चल पड़ी।

शहर में आग लग रही थी और गोलियों की लगातार आवांजें आ रही थीं। आसमान पर गहरा अंधेरा, गहरी तारीकी थी और दूर आग की लपटों में अंगारों के भूत नाच रहे थे और गली के बाहर रेलवे लाइन के पास जालन्धर की ओर, दिल्ली की ओर मशीनगन का मुंह किये वह सिख फौजी जमीन पर लेटा हुआ था।

इनसानों को काफिरों और मुसलमानों के पलड़ों में डालकर तोलनेवाले मुसलमानो! चुपचाप गुजरते जाओ! तुम्हारा वहशी और खूंख्वार रीछ और मनहूस काफिर तुम्हारे लिए अपनी जान की बाजी लगाए जमीन पर लेटा है। वह तुम्हारी गली और शरणार्थी-शिविर के बीच पुल बनकर बेटा है। इस पुल पर से गुजरते जाओ और गुजरते-गुजरते अपने हाथों में थामे हुए मोमिन और काफिर के तराजू, अपने मस्तकों के महराब और मन-मन्दिर में गढ़ी हुई मूर्तियां इस पुल के नीचे बहनेवाली गहरी और बड़ी नदी में फेंकते जाओ!! गुजरते जाओ! गुजरते जाओ!!

और तुम इसी तरह लेटे रहना गुरबचनसिंह, हवलदारसिंह, शेरसिंह ! तुम मशीनगन के साए में जमीन पर लेटे हो, लेकिन जब तुम उठोगे तो जमीन का हिस्सा जहां तुम लेटे थे आकाश-गंगा बनकर चमकता होगा और यह धरती की आकाश गंगा होगी और यह धरती का सबसे ऊंचा स्वर्ग होगा और धरती की स्वर्ग की सीढ़ी होगी। ऐ हिन्दुओं और सिखों को मुसलमानों के मुहल्ले से और मुसलमानों को हिन्दुओं के मुहल्ले से निकालने वाले हिन्दुओ ! सिखो ! और मुसलमानो ! तुम उन लोगों में से नहीं हो जो मुसलमानों को हिन्दुओं के मुहल्लों में और हिन्दुओं को मुसलमानों के मुहल्ले में कत्ल कर रहे हैं। तुम्हारा रास्ता उनसे अलग है और तुम्हारे प्रार्थना-स्थल उनसे अलग हैं। तुम्हारा कोई एक नाम नहीं और तुम हर दौर में आते रहोगे। तुम बहुत-से हो और तुम एक हो। यूरोशलम में तुम्हीं ईसा की जगह सूली पर चढ़े थे, एथेंस में तुम्हीं ने जहर का प्याला पिया था और साबरमती के जंगलों में तुम्ही ने अपने-आपको भूखी शेरनी के आगे डाल दिया था। तुम सूली चढ़ानेवालों में से नहीं, तुम विष-पान करनेवालों में से हो। विष पिलाने वालों से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं,कोई ताल्लुक नहीं और तुम उस वक्त तक जहर पीते रहोगे जब तक कि जहर की एक बूंद भी बाकी है और तुम उस वक्त तक सूली पर चढ़ते रहोगे जब तक कि एक भी सूली चढ़ानेवाला बाकी है…

लाहौर में मुसलमान हिन्दुओं और सिखों के घरों में आग लगा रहे थे और लाहौर में मुसलमान हिन्दू-सिख औरतों को बचा-बचाकर कैम्पों में लिये जा रहे थे। हिन्दुस्तान में सिख-हिन्दू मुसलमानों का कत्लेआम कर रहे थे और हिन्दुस्तान में हिन्दू-सिख मुसलमानों को अपने संरक्षण में गलियों, बांजारों और मकानों से निकाल रहे थे! दोनों तरफ आग थी। दोनों तरफ फूल थे। कोई सिख किसी मुसलमान को नहीं मार रहा था, कोई मुसलमानों किसी सिख को कत्ल नहीं कर रहा था, कोई दूसरा कत्ल कर रहा था, कोई अपना कत्ल हो रहा था। कोई आग लगा रहा था और कोई अपना इस आग में जल रहा था।

यह आग हमारी न थी, यह खिजां हमारी न थी, कमला, रजिया, बसन्त और ऐमी की न थी। हमारे तो अनारों के पेड़ थे, टाहिलियों के वृक्ष थे और तुलसी के पत्ते, रतनजो के फूल और आलूचों के बाग थे। हम तो शहर के किनारे आम की छांव तले आंख-मिचौनी खेला करती थे…

लुक-छिप जाना

मकई का दाना

राजे की बेटी

आ गयी जे

हम तो लुके हुए थे, छुपे हुए थे और राजे की बेटी कैदखाने में पड़ी थी और राजे की फौजें कैलास पर्वत से कन्याकुमारी और दार्जिलिंग से कराची तक आग और खून का खेल खेल रही थीं और किसी आंगन में कोई अनार का फूल न था, अनार का पेड़ न था और किसी राजे की बेटी के सिर पर सुहाग की चूनर न थी, मांग में सिन्दूर न था। भाई की राखी न थी, पति का तिलक न था और ब्याह की अफशां न थी। गर्द-ही-गर्द, खून-ही-खून, जंगल-ही-जंगलआक, नागफनी, अरंड और बबूल के जंगल और जंगलों में चीखते-चिल्लाते रीछ,रीछ और सिर्फ रीछ…

हम लोग भागते-दौड़ते, गिरते-पड़ते अपने देश से निकलकर एक और अपने देश में पहुँचे। जल्दी में हम लोग अपना सब-कुछ वहीं छोड़ आये थे। अपनी चादरें, कुरान शरीफ,मकान, गलियां, बांजार, बांजारों के मोड़, मोडों पर उगे हुए पेड़ और पेड़ों पर गानेवाले पक्षी, उन पक्षियों के गीत और वह डिब्बा भी जिस पर ताजमहल का चित्र था और जिसमें मैं अनार के सूखे फूल रखा करती थी। किसी वक्त लगता है जैसे मेरा सब-कुछ, उसी छोटे-से डिब्बे में रह गया है, उसी ताजमहल में रह गया है। हमारी दोस्तियां, मुहब्बतें, हमदर्दियां,सब-कुछ उसी ताजमहल में दफ्न हैं और हम उजड़े खण्डहरों में आधे चमगादड़ों की तरह फिजाओं में चीखते फिर रहे है। हम जल्दी-जल्दी अपने देश से निकल आये, अपने वतन से निकल आये।

और जब हम अपने देश के पहले स्टेशन पर पहुँचे तो मैंने एक काफिर को हाथ में सूटकेस लिए स्टेशन की डयोढ़ी में घुसते देखा। अभी वह अन्दर घुसा ही था कि पीछे से एक और रीछ ने उसपर हमला कर दिया, उसकी पीठ में चाकू घोंप दिया। वह लड़खड़ाकर गिरा और सूटकेस उसके हाथ से छुटकर दूर जा गिरा। दूसरा चाकू ठीक उसके दिल पर लगा और दूसरा रीछ गरम होकर पागलों की तरह नाचनेलगा

नारा-ए-तकबीरअल्लाहोअकबर।

पहले रीछ के सूटकेस में से चीजें उछल-उछलकर सड़क बिखरने लगीं .टाई, पतलून, किताबें, धोती, गुरुजी की बानी और कांच की चूड़ियां…लाल चूड़ियां…

क्या ये चूड़ियां वह अपनी होनेवाली पत्नी के लिए ले जा रहा था? वह कहां का रहनेवाला था? वह कहां जा रहा था? उसके मां-बाप कौन थे? बहन-भाई कहां थे? वह अकेला घर से क्या निकल आया?

इस बात को आज पांच साल हो रहे हैं। उसके घर अभी तक उसका इन्तजार हो रहा होगा। उसकी मां सोच रही होगी शायद मेरा बेटा आ जाए। किसी दिन अचानक किसी पगडंडी, किसी खेत के किनारे, किसी गली के मोड़ पर प्रकट हो और भागकर मेरे कदमों से लिपट जाए।

मैं आ गया मां मेरी माए।

क्या वह चूड़ियोंवाली अपनी नंगी बांहें फैलाए अब तक उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी? न जाने क्यों कभी-कभी मुझे उस फौंजी पहरेदार की सूरत अपनी आंखों के आगे घूमती मालूम होती है। उसने मशीनगन जमीन पर रख दी है और उसका चेहरा गमगीन है और वह हाथ जोड़े खड़ा है और कह रहा है

बहनजी! आपने मेरे भाई को तो नहीं देखा। मैने उसे नहीं देख सकी। मुझसे वह नहीं देखा गया। मैंने सिर्फ चूड़ियां देखी थींलाल चूड़ियां, शादी की चूड़ियां मैंने तुम्हारे भाई को कहीं नहीं देखा। अपने भाई की बहन से कहना कि उसकी कलाइयों में चूड़ियां पहनाने वाला भाई को कहीं नहीं देखा। अपने भाई की बहन से कहना कि उसकी कलाइयों में चूड़ियां पहनाने वाला भाई उसके लिए आसमानी ढंग के रंग लेने आकाश के बादलों में चला गया है, लेकिन उसकी मां से कुछ न कहना। उससे आकाश के बादलों का जिक्र न छेड़ना, नहीं तो वह खुद उसकी तलाश में बादलों में चली जाएगी। मेरे वीर! मैंने तुम्हारे भाई, तुम्हारे जवान भाई को कहीं नहीं देखा, कहीं नहीं देखा…

ठिप, ठिप ठिप

देशां वाले मान मरिन्दे

ऐसे परदेशी माएं

साडे फुल कुमलाए

प्यारी सहेली, यह गीत तुमने कहां से लिया है? यह तो किसी परदेसी का मरसिया है और तुम, तो अपने देश में हो, अपनी गलियों में हो, अपने घर में हो। हम लोग भी एक घर में रहते हैं। यह घर उन ब्याह-शदियों वाले घरों से बहुत भिन्न है। तुम्हारे घर में सिर्फ एक घर रहता है और हमारे घर में पूरे सात घराने आबाद हैं। यह सबका घर है और किसी का भी घर नहीं है। यह दो मंजिला है। इसमें सिर्फ एक नल है, दो गुसलखाने हैं और हर कमरे की छत टकपती है और घर कमरे का धुआं दूसरे कमरे में जाता है और यहां रोज लड़ाइयां होती हैं, झगड़े होते है और राजीनामे होते हैं। मैं, मेरी दोनों छोटी बहनें, मेरी बूढ़ी मां, मेरा बूढ़ा बाप, सबसे छोटा भाई और सबसे बड़ा भाईहम सब लोग एक ही कमरे में बैठते हैं। खाते हैं, सोते हैं और छोटे-छोटे लड़ाई-झगड़े करते हैं। मेरे अब्बा बहुत बूढ़े हो गये हैं। वे दहलीज में हुक्का लिए सारा दिन चुपचाप बैठे रहते हैं और किसी से कुछ नहीं कहते,लेकिन जब बोलते हैं तो इतना जला-भूना कि खामखां झगड़ा शुरू हो जाता है। हमारी मां बहरी हो गयी है। पहले तो वह कुछ सुनती ही नहीं, मगर जब सुन लेती है तो इस तरह चीखकर जवाब देती है कि मेरी बड़ा भाई चिढ़कर प्याली जमीन पर पटककर बाहर निकल जाता है। उसका स्वभाव भी चिड़चिड़ा हो गया है।

तुम सच कहती हो मेरी पशमीने की सहेली! ये लोग कभी ऐसे न थे। पता नहीं यहां आकर इन्हें क्या हो गया है। किसी की बात पर बहुत कम खुश होते हैं। हम तीनों बहनें जवान हैं। हममें से किसी की अभी तक शादी नहीं हुई। मेरी उम्र तीस के आसपास पहुंच चुकी है। अब्बा, अम्मा और मेरा बड़ा भाई मेरी शादी के लिए बड़े चिन्तित हैं, लेकिन शायद मेरी शादी कभी न हो, शायद ये लोग सदैव ही चिन्तत रहें। शादी के लिए दहेज की ंजरूरत है। मुझे तो यों लगता है जैसे लड़का न भी हो तो शादी हो सकती है, लेकिन अगर दहेज न हो तो शादी कभी नहीं हो सकती। दहेज के लिए रुपये-पैसे चाहिए। कुछ भी न हो तो एक हजार तो जरूर हों। जिनके आधे पांच सौ होते है और मेरे बड़े भाई की तनखा सिर्फ एक सौ दस रुपये है जो दो सो बीस का आधा है। वह बड़े डाकखाने में नोकर है। वह कोट और पतलून पहनता है। सिगरेट भी पीता है। दोस्तों के साथ चाय भी पीता है। कभी-कभी सिनेमा देखने भी चला जाता है। उसे सुरैया और दिलीप कुमार बहुत पसन्द हैं। वह उनकी कोई भी फिल्म नहीं छोड़ सकता। और जब दोस्तों के साथ चाय पीकर, सिनेमा देखकर घर वापस आता है तो अपनी कोनेवाले चारपाई पर लेटकर सिगरेटें पीते हुए हम तीनों बहनों की शादी की बात सोचने लगता है और अधिक-से-अधिक चिन्तित हो जाता हैं। उसकी अपनी शादी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यद्यपि उसकी उम्र इतनी हो गयी है कि इस बीच उसे दुबारा शादी करना चाहिए थी, लेकिन वह एक बार भी ऐसा नहीं कर सका। जिसके घर में तीन जवान बहनें हों वह कभी शादी कर सकता है!

इसके बावजूद हम सबकी शादियां हो चुकी हैं, हम सब ब्याहे जा चुके हैं और हम सब अपने घरों में रहते हैं। हममें से कोई एक-दूसरे से दहेज नहीं मांगता, कपड़े और गहने नहीं मांगता। मेरे बड़े भाई की दुलहन हमारे कमरे में अपने बहन-भाइयों के साथ रहती है। मेरा पति हमारे साथवाले कमरे में रहता है और उसकी बहन का पति उससे अगले कमरे में रहता है। ये तमाम शादियां धुंधली गलियों, अंधेरी सीढ़ियों और बन्द गुसलखानों में हुई हैं और कहीं बरात नहीं सजी, कहीं दुलहन की मांग में अफशां नहीं छिड़की गयी और कहीं शहनाइयों का शोर नहीं उठा। ये ब्याह खामोशी से रचाये गये हैंगरीब आदमियों की तरह…शरीफ आदमियों की तरह…

मेरी स्पष्टवादिता को निर्लज्जता की संज्ञा मत देना मेरी भली सहेली! नहीं तो मुझे और अधिक स्पष्टवादी होना पड़ेगा और मेरी गरीबी के कंटकाकीर्ण खण्डहरों में शालीनता को नंगे पांव मत भेजना! उसके पांव नर्म और कोमल कालीनों के अभ्यस्त हैं और मेरे कांटे बड़े नुकीले हैं, बड़े तेंज हैं। मेरे घर की ओर अपने किसी भौतिकता के राजदूत को मत भेजना! वहां सिर्फ टूटी-फूटी चारपाइयां और रेत मिला आटा है और कोई सोफा, कोई पलंग और कोई केक नहीं। वहां सिर्फ धुआं है, भूख है और सर्दी है। मुझे डर है कहीं तुम्हारा राजदूत हमारे यहां भूख से दम न तोड़ दे। सर्दी में ठिठुर न जाए और तुम जो रात को इस सुलगती हुई आग्रह-भरी चुप्पी में मेरे सामने बैठी हो और ढोलक की धीमी-धीमी थाप पर मेरे देश के गीत, मेरे वतन के गीत, मेरे अनारोंवाले आंगन और पीले फूलोंवाले ताजमहल और मन्दिरवाली पुरानी गली के गीत गा रही हो, मेरी बातों पर सिर क्यों झुका रही हो और अपनी पलकें बन्द क्यों कर रही हो? तुम ही कहो अगर मैं यह न कहूं तो और क्या कहूं ? मेरा चिन्ताकुल अकेला भाई क्या करे और वे लोग क्या करें जो इस दो-मंजिले मकान में रहते हैं, और ऐसे हर मकान में रहते हैं। और अगर इसपर भी तुम मुझे बुरी लड़की समझती हो और मुझसे घृणा करती हो तो फिर उस वक्त का इन्तजार करो जब मैं अचानक तुम्हारे कमरे लिहाफ छीनकर परे फेंक दूंगी और तुम्हारे कांगंजी फूलों को तुम्हारे मुँह के पास लाकर कहूंगी इनकी महक कहां गयी मेरी फूलों वाली बहन?

हम तो अनार की डालियों से झड़कर गिरे हुए पत्ते हैं सहेली! हमारा रंग अभी हरा है। अभी हममें बसन्त की प्रतीक्षा की आशा बाकी है। हम पीले होकर खुद नहीं गिरे, हमें झिंझोड़कर टहनियों पर से जबरदस्ती झाड़ दिया गया है। हमारे गीत डालियों पर ही रह गये हैं और आवांजें साथ आ गयी हैं। फूल वहीं रह गये हैं और आंसू, हमारे साथ जमीन पर गिर पड़े हैं। सूखे और उदास आंसू, पीले और गमगीन पत्ते…पत्ते-ही-पत्ते।

हमारी टहनियों पर फूल देखना चाहती हो तो हमें वह पेड़ वापस ला दो। हमारी आवांज की लहरों पर गीतों के कमल देखना चाहती हो तो हमारे वे इकतारे हमें लौटा दो, जो गुंजान टाहिलियों के छायादार रास्तों में से हमसे छीन लिये गये थे। और हमारी बरात पर शहनाइयों के नग्मे और विदाई के गीत सुनना चाहती हो तो हमें कहीं से हमारे दुपट्टे, हमारे आंचल और हमारी वे चादरें ला दो, जो हमारे सिराें पर से छीन ली गयी थीं, नोंच ली गयी थीं। मुझे वह डिब्बा दे दो जिसपर ताजमहल की तसवीर थी और जिसके अन्दर मेरे तितली के परों जैसे फूल थे और ऐमी दे दो जिसकी आंखें नीली थीं। कमला, पाली, बसन्त और हमारे बांग, हमारी टाहिलियां, हमारी गलियां, आंगन और अनारों के फूल, भाई और बहनें और वह सब कुछ जिसके होने से हमारे सिरों पर चादरे थीं और हथेलियों पर मेहंदी थी और जिसके कानों में बालियां थीं गेहूं की सुनहरी बालें जिनके न होने से कुछ भी नहीं है; न सिर के ऊपर कुछ है और न सिर के अन्दर कुछ है; न पेट के अन्दर कुछ है, न पेट के बाहर कुछ है। जब तक यह सब कुछ हमें वापस नहीं मिलेगा, ऐमी की आत्मा कैलास पर्वत से लौटकर नहीं आएगी और किसी घर में शादी नहीं होगी और कोई दुलहन नहीं सजेगी, कोई दहेज नहीं मिलेगा। कोई ढोलक नहीं बजेगी, कभी बारिश नहीं होगी और अनाज और महंगा हो जाएगा और लाल चूड़ियां स्टेशन की डयोढ़ी में इसी तरह बिखरी रहेंगी और वह सिख फौजी गमगीन आवांज में हरएक से पूछता फिरेगा

भाई जी! बहन जी! आपने मेरे भाई को तो नहीं देखा?

मेरी बहन को तो नहीं देखा?

तुम उसकी आवाज सुन रही हो ना? मेरी प्यारी सहेली, सुन रही हो ना?

लेकिन तुम तो सो गयी!

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पत्तर अनारां दे – Patar Aanara De

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