पानी | अरुण देव
पानी | अरुण देव

पानी | अरुण देव

पानी | अरुण देव

हिल रहा था पानी का आँचल
कीचड़ से सनी उसकी देह जैसे सभ्यता का शव हो

कभी गाये थे कलश ने उसकी गरिमा के गीत
अँजुरी में मंत्र की तरह भरती थी उसकी पवित्रता
सभ्यताओं ने सुनी
घने जंगलों और उदास पहाड़ों से होकर
समतल मैदानों में बहता उसका गीत

See also  किसकी आँखों से | अनूप अशेष

धरती देखती थी प्यासी आँखों से
चमकते, गरजते, बरसते पानी की धज को

भीगी रात में वनस्पतियों के तन पर
ओस की टप टप का संगीत भरता था जीवन

नदी किनारें जन्मी सभ्यताएँ
एक दिन बिन पानी इसी तरह
मछली की तरह रेत पर छटपटाएँगी
पत्थर की शय्या पर

Leave a comment

Leave a Reply