पण्डित और पण्डितानी | गिरिजादत्त वाजपेयी
पण्डित और पण्डितानी | गिरिजादत्त वाजपेयी

पण्डित और पण्डितानी | गिरिजादत्त वाजपेयी – Pandit Aur Panditani

पण्डित और पण्डितानी | गिरिजादत्त वाजपेयी

पंडित जी की अवस्‍था करीब पैंतालीस वर्ष की है और उनकी पत्‍नी की बीस वर्ष की। पंडित जी अँग्रेजी और संस्‍कृत दोनों में विद्वान हैं और कई पुस्‍तकें लिख चुके हैं। सप्‍ताह में दो-एक दिन उन्‍होंने समाचार पत्र और मासिक पुस्‍तकों के लिए लेख लिखने को नियत कर लिया है, विशेषकर इन्‍हीं दिनों में, अर्थात् जब वे कुछ लिखते होते हैं, तब उनकी युवा पत्‍नी उनको बातचीत में लगाना चाहती हैं। पंडितानी स्‍वरूपवती हैं और कुछ पढ़ी-लिखी भी हैं। उमर में बहुत कम हैं ही। इन सब कारणों से वाद-विवाद में पंडित जी उनसे हार मानना ही अकसर उचित समझते हैं। एक दिन का हाल सुनिए।

कमरे में एक कोने में, जहाँ मेज-कुर्सी लगी हुई थी, पण्डित जी बैठे हुए एक विश्‍व- विख्‍यात कवि के कविता चातुर्य पर कुछ लिख रहे थे। थोड़ी ही दूर पर पंडितानी भी बैठी हुई एक समाचार पत्र पढ़ रही थीं। कुछ देर सन्‍नाटे के बाद पंडितानी अपने पति का ध्‍यान अपनी ओर खींचने के लिए जरा खाँसीं। पण्डित जी ने इसकी कुछ परवाह न की और अपने काम में वे लगे रहे।

“सुना! सुना! ! “

पंडित जी ने पहिले ‘सुना !’ को तो टाल दिया, परंतु बहरे तो थे ही नही; दूसरे पर उन्‍हें बोलना ही पड़ा।

“हाँ! आज्ञा।”

“क्‍या कुछ बड़े जरूरी काम में हो?”

“नहीं-नहीं, कुछ नहीं” करते हुए पंडित जी ने कहा, “हमको केवल पचास पन्‍ने का एक लेख लिखकर आज ही रात को भेजना है, लेकिन हम यह कुछ बहुत नहीं समझते; कहो तुम्‍हें क्‍या कहना है।”

“इस पत्र में एक बड़े अच्‍छे तोते का विज्ञापन है। यह तुम्‍हे मालूम ही है कि तोता पालने की बहुत दिनों से मेरी इच्‍छा है। अगर मैं यह विज्ञापन काटकर तुम्‍हें दे दूँ, तो तुम कर्नेलगंज में, बोस कंपनी की दुकान पर उसे देख आओगे?” पंडित जी ने कलम तो रख दी और जरा जोर से साँस खींचकर बोले, “प्रिये ! क्‍या सचमुच ही तोता पालने का तुम्‍हारा इरादा है?”

“क्‍यों नहीं; और लोगों के पास भी तो तोते हैं। और यह तोता, जिसका मैं जि़कर करती हूँ, बोल सकता है। जब तुम बाहर होगे, वह मेरे लिए एक साथी होगा।”

“हाँ, यह तो ठीक है ! मुझे विश्‍वास है कि मेरे न होने पर तुम तोते के साथ जी बहला सकती हो, परंतु वह तोता मेरे लिए किस काम का होगा, यह भी तुमने सोचा?”

“वह तुम्‍हें भी प्रसन्‍न करेगा; नए-नए खयाल तुम उससे सीख सकोगे ! “

“जरूर ! मगर जब नए-नए खयाल मेरे ध्‍यान में न आवेंगे तब मैं उनके लिए बोलते हुए तोते के पास नहीं जाने का।”

इतना कहकर पंडित जी फिर लिखने में लग गए। भौंह चढ़ाकर उन्‍होंने अपने ध्‍यान को कालिदास की ओर खींचना चाहा। पंडित जी ने ‘कालिदास को काव्‍यरस का मानो’ – यह वाक्‍य लिखकर सन्‍नाटे में आगे लिखा – “तोता समझना चाहिए।” ध्‍यान तो प्रिया के तोते की ओर था। इस कारण पंडित जी ‘सोता’ की जगह ‘तोता’ लिख गए ! दुबारा पढ़ने पर यह गलती मालूम हुई; तब उन्‍होंने झुँझलाकर उसे काट दिया और पत्‍नी से आप बोले –

“जब मैं काम में हुआ करूँ तब तुम कृपा करके मुझसे मत बोला करो। तुमने मेरे विचारों का प्रवाह बंद कर दिया है।”

पंडितानी, “हाँ ! हम तुमसे कुछ भी बोलीं और तुम्‍हारे विचारों का प्रवाह बंद हुआ। मगर वह प्रवाह ही कैसा जिसे तोता बंद कर दे ! मैं तो उसे टपकना भी नहीं कहने की। मगर अब मैं तुमसे कभी न बोलूँगी; और अपनी शेष जिंदगी चुपचाप रहकर काटूँगी। अगर तुम ब्‍याह के समय यह मुझसे कह देते कि मैं तुमको केवल देख सकूँगी; मगर तुमसे बोल न सकूँगी; तो मुझको यह तो मालूम रहता कि किस बात की तुमसे आशा रख सकती हूँ और किसकी नहीं। ओह, मैं मानो किसी काठ के पुतले को ब्‍याही गई! “

यह सुनकर पंडित जी मुस्‍कुराए और बोले, “यह जवाब तो कुछ बुरा नहीं। इसमें तो तुमने खूब कविता छाँटी।”

“यदि तुम इतने चिरचिरे ने होते तो मैं तुम्‍हें ऐसी ही बातें सुनाया करती। उन्‍हें तुम अपने लेखों में शामिल कर लिया करते और वे तुम्‍हारे लेखों की शोभा बढ़ातीं। परंतु मुझे तो घण्‍टों चुपचाप बैठा रहना पड़ता है। जैसे मैं किसी काल कोठरी की कैदी हूँ, जिसे अपनी परछाँही से भी बातचीत करना मना हो।”

“प्राणाधिके ! मैं तुम्‍हें बोलने से केवल उस समय रोकता हूँ जब मैं किसी काम में लगा होता हूँ। भला तुम्‍हीं सोचो कि काम और बातचीत दोनों, साथ ही कैसे हो सकते हैं ?”

“वाह ! मैं तो उस समय भी काम कर सकती हूँ जब घर भर बातचीत करते हो; बीसियों आदमी बोलते हों। देखो न, मेरे साथ की सात-आठ सहेलियाँ बातचीत करती जाती थीं, जब मैंने तुम्‍हारे लिए वह मखमली जूती तैयार की। तुम्‍हीं कहो वह कैसी अच्‍छी है।”

पंडित जी हँसकर – “हम तुम्‍हारे ऐसे बुद्धिमान नहीं।”

“इसीलिए तो मैं तोता पालना चाहती हूँ कि जब तुम मुझसे न बोल सको और मुझसे भी चुपचाप बैठे न रहा जाय, तब मैं तोते से बोल सकूँ और तोता मुझसे बोल सके; और मुझे यह शंका न होने लगे कि मैं गूँगी या बहरी होती जाती हूँ, जैसा कि अब कभी-कभी होता है।” “मैं कहे देता हूँ” – पंडित जी ने कुछ क्रोधित होकर कहा, “कि अब मैं कदापि और जीव घर में न लाने दूँगा। तुम्‍हारे पास एक कुत्ता है, एक बिल्‍ली है, रंगीन मछलियाँ हैं, और कितने ही लाल हैं। इतने जानवर, किसी स्‍त्री के लिए जो नूह की नौका * में न पली हो, बस हैं।”

पंडितानी ने बड़े मधुर स्‍वर से कहा, “देखो, इस मामले में बाइबिल को न घसीटो।”

पंडितजी ने अपने लेख को निराशा की निगाह से देखा और पंडितानी की ओर प्‍यार से देखकर वे बोले, “प्रिये, तनिक तो बुद्धि से काम लो। यह कम्‍बख्‍़त तोता तुम्‍हारे सिर में कैसे घुसा?”

“मेरे घर में भी एक तोता था। फिर, जब मैं ऐसे घर से आयी, जहाँ सदा तोता रहा, तो बिना उसके मुझसे कैसे रहा जाय?”

“जिसका ब्‍याह हो गया हो, उसके लिए तोता अच्‍छा साथी नहीं।”

“क्‍या खूब! बापू तोते को बहुत प्‍यार करते थे।”

“तुम्‍हारे बापू को शाम को अखबारों के लिए लेख न लिखने पड़ते होंगे।”

“नहीं। वे अपना काम दिन ही को खतम कर डालते थे, और सायंकाल भले आदमियों की तरह अपने बाल-बच्‍चों के साथ बिताते थे। मुझे इस प्रकार, कुल रात बापू की ओर घूरते हुए न बैठे रहना पड़ता था। एक शब्‍द तक मुँह से निकलने का मुझे कष्‍ट न था। हम लोग बहुत मज़े में मिलजुल कर रहते थे – हम, और बापू और तोता।”

इतना कहकर पंडितानी ने अपनी सूरत रोती-सी बनाई, जिससे पंडित जी आतुर होकर बोले –

“देखो, आँसू न निकालो। तुम अच्‍छी तरह रहो कि जो तुम इस मकान के नींव की ईंटें तक माँगो तो वे भी मैं तुम्‍हें देने को तैयार हूँ।”

“मैं ईंटें नहीं माँगती; तोता माँगती हूँ।” पंडित जी को रोककर वह फिर बोली, “तुम मेरे लिए तोता जरूर ला दो ; मैं देखती रहूँगी कि वह तुम्‍हें दिक न करे।”

“परंतु वह दिक करेगा ही। देखो तुमने लाल पाले हैं; वे मुझे कितना दिक करते हैं।”

“वे बिचारे प्‍यारे-प्‍यारे लाल, कैसी मधुरी बानी बोलते हैं। क्‍या उनके गाने से तुम दिक होते हो?”

“प्रिये! उनके गाने से मेरा हर्ज नहीं। परंतु जब कभी पिंजड़े के किवाड़ खुले रह जाते हैं, तब मुझे रखवाली करनी पड़ती है कि कहीं तुम्‍हारी बिल्‍ली उनका नाश्‍ता न कर डाले। कल दो बार मैंने उधर जो देखा तो मालूम हुआ कि पुसी पिंजड़े के पास अपने होठ फड़का रही है। भला तुम्‍हीं कहो, कोई मनुष्‍य अपना ध्‍यान किसी बात में कैसे लगा सकता है यदि उसे एक बिल्‍ली की रखवाली करना पड़े, जो उसकी पत्‍नी के लालों की ताक में हो।”

“परंतु, तुम्‍हें तोते को न ताकना पड़ेगा। तुम जानते हो कि बिल्लियाँ तोते को नहीं खातीं। और जब तुम काम में न होगे, तब उसकी बोली सुनकर प्रसन्‍न होगे। मैं उसको बड़ी अच्‍छी-अच्‍छी बोलियाँ सिखाऊँगी।”

“जो कुछ तुम उसे सिखाओगी वह नहीं बोलेगा; बल्कि वह वही बोलेगा जो वह पहिले ही से जानता है।”

“नहीं! नहीं! मुझे विश्‍वास है कि इस तोते की शिक्षा बुरी नहीं हुई है। विज्ञापन में लिखा है कि वह बच्‍चों से मिल गया है। इसके यह मानी हैं, कि वह गाली गुफ्ता नहीं बकता। मेरे घर का तोता पूरा भला मानस था। उससे मेरे घर के आदमियों पर बड़ा अच्‍छा असर पड़ा। मेरा भाई तोते के आने से पहले तो कभी गाली, वगैरह तक भी देता था; परंतु जब से तोता आया, तब से उसने कभी वैसा नहीं किया। उसको भय था कि कहीं तोता भी न वही बोलने लगे। मुझे बहुधा खयाल हुआ है कि बोलने वाले तोते के होने से शायद तुम्‍हारी भी कुछ आदतें सुधर जाए !”

“अपना यह खयाल तो तुम एकदम दूर कर दो। घर में तोते की मौजूदगी मुझे आपे से बाहर कर देगी। जब वह चीखने लगेगा तब न जाने मैं क्‍या-क्‍या बक जाऊँगा। इसके सिवा मेरे इज्‍जतदार, भलेमानस, और सीधे-सादे पड़ोसियों को एक चीखते हुए तोते से बड़ी परेशानी होगी।”

“हाँ! हाँ! तुम पड़ोसियों का खयाल कर रहे हो? तुम्‍हें इस बात का खयाल नहीं कि मुझे कितना दु:ख है। तुम्‍हारा सब ध्‍यान गैरों की तरफ है ! अच्‍छा कल मैं अपने मकान के सामने वाली हवेली में कहला भेजूँगी कि वे कुत्ता न पालें क्‍योंकि वह घण्‍टों दरवाजे पर भौंका करता है। अगर मैं तोता न पाल सकूँगी तो वे कुत्ता भी न पाल सकेंगे। और, हाँ पड़ोस में अभी एक बच्‍चा हुआ है। वह करीब-करीब रात भर चिल्‍लाता रहता है। मैं उसके लिए भी वैसा ही कहला भेजूँगी। अगर मैं उनके कारण तोता न रख सकूँगी तो वे मेरे कारण बच्‍चा भी न रखने पावेंगे!” इतने पर पंडित जी ने कालिदास और उनके काव्‍य को हटाया और कुर्सी फेरकर वे अपनी अर्धांगिनी के सम्‍मुख हुए।

“प्रियतमे! यदि तुम बुद्धिमानी से बात करो तो मैं तुम्‍हारी बात सुनूँगा, वरना नहीं। भला पड़ोसी के बच्‍चे और तुम्‍हारे तोते से क्‍या संबंध?”

“संबंध क्‍यों नहीं ! खूब संबंध है। अगर मेरे कोई बच्‍चा हो, और वह रोए तो तुम कहोगे कि तुम्‍हारा ध्‍यान बँटता है। इसलिए दाई को उसे लेकर छत पर या बाहर बाजार में बैठना पड़ेगा, जिसमें उसका रोना तुम्‍हें न सुनाई दे। तुम्‍हारे लिए तो केवल एक स्‍थान अच्‍छा होगा। तुम एक कमरा किसी गूँगे-बहिरों के अस्‍पताल में ले लो, तो तुम बिना किसी विघ्‍न के लिख-पढ़ सकोगे। मैं कहती हूँ कि आखिर और लोग कैसे किताबें लिखते हैं? तुम्‍हें कालिदास के बारे में दो सतरें लिखना है; और उतने के लिए अपनी पत्‍नी को सभ्‍यतापूर्वक जवाब देना तुम्‍हें कठिन हो गया है!”

“प्रिये! जवाब तो मैं दे चुका। क्‍या मैंने यह नहीं कहा कि मैं तोता रखने के विरुद्ध हूँ?”

“हाँ! परंतु तुमने मुझे समझाने तो नहीं दिया। तुम्‍हारा जो खयाल तोतों के विषय में है, वह सर्वथा गलत है। तुमने जानवरों के अजायबघर के चीखते हुए तोते देखे हैं जो एक शब्‍द भी नहीं उच्‍चारण कर सकते। परंतु एक सिखाया हुआ तोता, एक शिक्षित तोता, एक पालतू तोता, जैसा विज्ञापन में लिखा है कुछ और ही चीज है। मेरे घर में जो तोता है, वह गा सकता है। लोग कोसों से उसके गीत सुनने आते हैं। उसके पिंजड़े के पास भीड़ लग जाती है।”

“अच्‍छा, वह क्‍या गाता है? ऋतुसंहार के श्‍लोक ?”

“देखो ऐसी बे-लगाव बातें मत करो ! ऋतुसंहार के श्‍लोक पढ़ेगा! वह काशी का कोई शास्‍त्री है न ! “

“अच्‍छा फिर, यह बताओ, वह गाता क्‍या है। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि तुम तोता जरूर पालोगी, चाहे हम मानें या न मानें। अब हमें इतना तो मालूम हो जाय कि क्‍या बक-बककर सुबह, दोपहर और शाम, हर समय वह, हमारे कान फोड़ेगा?”

“उसमें कान फोड़ने की कोई बात नहीं। तुम तो ऐसा कहते हो, गोया मेरे घर के आदमी सब जंगली हैं; गान-विद्या जानते ही नहीं। याद रखिए, उनमें बुद्धि और सभ्‍यता तुमसे कुछ कम नहीं।”

“अच्‍छा, यह सब हमने माना। जरा बताइए तो सही आपका वह सभ्‍य तोता कहता क्‍या है?”

“वह कई बड़े ही मनोहर पद कहता है। नीचे का पद तो वह बड़ी ही सफाई से गाता है, वह कहता है…

सत्त, गुरदत्त, शिवदत्त दाता।”

“आहा ! क्‍या कहना है !” पंडित जी ने कुछ क्रोध और कुछ कटाक्ष से कहा, “मैंने अपने जीवन में इससे अधिक अच्‍छा गाना कभी नहीं सुना। अगर यही गाना है तो मैं इस ‘दत्तदत्त’ पर ‘धत्त’ कहता हूँ ! “

“देखो मुझसे धत्त न कहना। कोई मैं कुँजड़िन-कबडि़न नहीं।”

“ख़फा मत हो। मैं तुम्‍हें धत्त नहीं कहता; तुम्‍हारे सभ्‍य तोते को धत्त कहता हूँ। तुमने पूरा एक घण्‍टा समय मेरा नष्‍ट किया। अब कृपा करके लिखने दो।”

किसी प्रकार पंडितजी ने अपना चित्त खींच कर फिर कालिदास पर उसे जमाया ! लेकिन पंडितानी जी से चुपचाप कब रहा जाता है ! थोड़ी ही देर में उस सन्‍नाटे ने उन्‍हें व्‍याकुल कर दिया। अपनी जगह से उठकर वे पंडित जी के पास आईं और अपना हाथ मेज पर कई बार मारकर उन्‍होंने उनका ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित किया। वे बोलीं, “अच्‍छा, तो पूछती हूँ कि, अगर मैं एक तोता न पालूँ तो तुम छ: कुत्ते कैसे पालोगे? छ: कुत्ते और उसमें से ऐसा काटनेवाला कि जिसके मारे धोबिन, नाइन, तेलिन-तमोलिन तक का आना मुश्किल ! अहीर जब दूध दुहने आता है तब दो नौकर उस कुत्ते को पकड़ने को चाहिए। यह सब तुम जानते हो ; तब भी उसे नहीं निकालते, अभी उस दिन तुम्‍हें मेहतर को दो रुपए देने पड़े। जिसमें वह उसके काटने की खबर पुलिस को न करे। जनकिया महरी को देख उस दिन वह ऐसा गुर्राया कि वह गिर ही पड़ी! तुम तो ऐसा कुत्ता रखो और यदि मैं छोटा-सा, मिष्‍टभाषी, खूबसूरत, निरुपम तोता पिंजड़े में पालना चाहूँ तो तुम मुझसे ऐसे लड़ो जैसे मैं कोई बाघ घर में लाना चाहती हूँ!!”

पंडित जी से अब आगे कुछ न बन पड़ी। उन्‍होंने पंडितानी के दोनों हाथ अपने हाथों में प्‍यार से लेकर दबाया और उनका मुख एक बार चुंबन करके कहा, “अच्‍छा तो हम तुम्‍हारे लिए एक नहीं, छ: तोते ला देंगे। अब तो प्रसन्‍न हो?”

इस पर पंडितानी जी प्रसन्‍नता से फूलकर चुपचाप बैठ गयीं और पंडितजी ने जल्‍दी-जल्‍दी अपना लेख समाप्‍त कर डाला।

ईसाइयों की धर्मपुस्तक बाइबिल में लिखा है कि जब संसारी जीवों के पातक के कापण आयी हुई भयंकर बाढ़ से बचने के लिए, नूह ने ईश्वर के आज्ञानुसार एक बड़ी किश्ती बनायी और उसमें शरण ली तब उन्होंने अपने बाल बच्चों के अतिरिक्त सब जंतुओं का एक-एक जोड़ा भी साथ लिया।

(पहली बार प्रकाशन : 1903)

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