चार-पाँच दिन से भिड़कर पूरण ने एक जोड़ी पनही तैयार की थी। उसके बाप-दादा भी पटेलों के लिए पनही और पटलनों के लिए बाणा गढ़ते-गढ़ते ही मरे-खपे थे। यह पूरण का खानदानी काम था। पनही में एक-एक टाँका बहुत मन से टाँकने के बाद पूरण उन्हें चमकाने में जुटा था।

पूरण की बाखल में पनही व बाणा और लोग भी गढ़ते थे। लेकिन पूरण के हाथों के हुनर की बात कु़छ अलग ही थी। गाँव वाले कहते, पनही ढोर की खाल से नहीं, बल्कि हिरदे की खाल से गढ़ता है। खासकर गाँव के खास पटेल यानी मुखिया के पैरों को केवल पूरण के हाथों गढ़ी पनही ही जँचती। किसी और के हाथों गढ़ी पनही पटेल को हड़की टेगड़ी (पागल कुतिया) – सी दूर से ही भमोड़ने (काटने) दौड़ती। पूरण के बाखल वाले भी पूरण जैसी पनही गढ़ने की कोशिश करते, पूरण से पूछते और उसकी पुरानी डिजाइन की देखा-देखी गढ़ते भी। लेकिन वे उसके काम के आस-पास भी नहीं पहुँच पाते। पूरण की पनही तारों भरे आसमान में शुक्र की तरह क्षण में चीन्ही जा सकती थी। उस दिन भी उसने पटेल के लिए नई डिजाइन की पनही गढ़ी थी। देने जाने से पहले उन्हें चमका रहा था।

पटेल शौकीन मिजाज था। उसे एक सरीखा स्वाद लगातार नहीं भाता। जायका बदलते रहना पटेल के स्वभाव का हिस्स था। वह खान-पान, रहन-सहन के तौर-तरीके ही नहीं, बल्कि खेती-बाड़ी में फसलों की किस्में उपजाने का ढंग, गाय-बैल व भैंस तक की नस्लें बदल-बदलकर खरीदता-बेचता। उसे नई-नई व खूबसूरत चीजें भातीं। उसे चीजों की परख भी थी। पूरण यह सब जानता था इसलिए जब भी पनही की नई जोड़ी गढ़ता, बिल्कुल नई किस्म की ही गढ़ता।

सबेरे से काम में भिड़े पूरण ने गरदन तक ऊँची नहीं की थी। एक जगह बैठे-बैठे कूल्हे जलने लगे थे। जब बीड़ी की तलब बेकाबू हो गई, तो उसने कान के पीछे खोंसा बीड़ी का अद्दा निकाला। अद्दे का मुँह हल्के से दबाया, फूँका और ओठों के बीच रखने से पहले अपनी बैराँ (पत्नी) पीराक से बस्ती (चिनगारी) माँगी।

पीराक चूल्हे पर रोटी सेंक रही थी। उसने बगैर कुछ बोले अग्गुन में धरी एक पतली लकड़ी से चूल्हे के भीतर से चिनगारी खींची और हाथ से पकड़कर पूरण की ओर उछाल झट से अँगुलियाँ पानी में डुबाईं और फिर से रोटी पलटने लगी।

पीराक आखिरी रोटी सेंकने के बाद टापरे से बाहर सेरी में जाकर एक टूटा टोपला नरेटी की रस्सी से बाँधकर ठीक करने लगी। पूरण बीड़ी पीकर फिर अपने काम में जुट गया।

पहले पूरण अपने लिए भी बढ़िया पनही गढ़ना और पहनना चाहता था। उसने अपने ब्याह की बखत एक जोड़ी पनही अपने लिए गढ़ी भी थी, जिसे कभी-कभार परगाँव या हाट बाजार जाते बखत गाँव से बाहर आड़े-छुपके पहनता और गाँव की सीमा लगते ही उतारकर थैली में रख लेता। इससे पनही पहनने की हरस भी पूरी हो जाती थी और गाँव के पटेलों के सामने नीची जाति के लोगों का पनही नहीं पहनने के रिवाज का मान भी रह जाता था।

लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि पूरण पीराक को पीहर से ला रहा था, गाँव की सीमा अभी काफी दूर थी कि रास्ते में अनायास ही पटेल के सामने पड़ गया। पूरण को पनही पहना देख पटेल फूँफाया और मुँह भर गालियाँ बकीं। तब पटेल का मन तो हुआ कि वहीं पनही से मार-मार कर पूरण का कचूमर बना दे, लेकिन पटेल जल्दी में था। ज्यादा कुछ न कर उस बखत पूरण को जाने दिया। साँझ को लौटते ही भरी पंचायत में पूरण को नाक रगड़कर माफी माँगने और पूरे गाँव में झाड़ू लगाने की सजा दी। उस दिन के बाद पूरण ने कभी पनही में पैर नहीं डाला।

पूरण का मन पटेल जैसे लत्ते-कपड़े पहनने का भी होता, पर उसके पास धोती के केवल दो टुकड़े थे, जिसे बदल-बदलकर पहनता। फतवी तो एक ही थी। फतवी में चिलड़े (कपड़ों में होने वाली जूँएँ) पड़ जाते। जब चिलड़े काँख में काटते वह मन लगाकर न काम कर पाता और न ही रात में चैन से सो पाता। इसलिए वह टापरे में रहते अक्सर फतवी नहीं पहनता था।

पूरण की बैराँ की दशा और भी खराब थी। उसके लुगड़े में कई जगह थेगली लगी थी और पोलका छन-छन कर फट रहा था। एक जोड़ी कपड़ों की वजह से वह नदी पर नहाने नहीं जाती थी। टापरे पिछवाड़े भी नहाती तो अँधेरे में नहाती, ताकि आते-जाते या पटेलों के खेतों में काम करते लोग उघड़ा बदन न देख सके। जब आठ-पंद्रह दिन में लुगड़ा-पोलका धोना होता, रात में ही धोती। जिस रात अपने कपड़े धो देती, उस रात पूरण की धोती का एक टुकड़ा लपेट कर सोती।

पूरण और पीराक का एक ही छोरा था – पाँच बरस के परबत के लिए हमेशा पीराक थेगलियाँ जोड़-जोड़कर कुछ न कुछ बना देती और यों पहनाती मानो एकदम नए कपड़े पहना रही हो। असल में उन्होंने परबत को कभी सपने में भी नए कपड़े नहीं पहनाए थे

पूरण को पनही गढ़ने के बदले पटेल लोग जो अनाज देते, उसमें कभी पूरा पेट ही नहीं भरता था, कपड़ों की तो सोचना भी दूर! जब पूरण व पीराक के कपड़े गलकर तार-तार हो जाते और बदन नहीं ढक पाते, तब कोई दया दिखाता और पनही के बदले अनाज के साथ-साथ उतरन-पुतरन के कपड़े भी दे दिया करता, जिन्हें सुई-धागे से वे अपने नाप का बना लेते।

उस दिन जब पूरण तैयारशुदा पनही लेकर बाहर निकला, पीराक की आँखें चौंधियाँ गईं। वह आँखों के आगे हाथ से छाँव करती बोली, “पनही असी चिलकी-री है कि पटेल अपनी मूँछ का काला-धौला बाल अलग-अलग गिन लेगो। आज बात करो जो, एक जोड़ी पनही का बदले एक सेर अनाज कम पड़े, थोड़ो-घणू बढ़यी दे तो नज, नी बढ़ावे तो अड़बी मत पड़जो। जसै-तसै घसरो (काम) चली रियो है।”

“घसरो तो कीड़ा-मकौड़ा, जन-जानवर को भी चले, पर…” पूरण ने पीराक से कहा नहीं, केवल सोचा, “मैंने पनही गढ़ने में जो माथा-पच्ची की, उसके बदले पटेल की पृ्री फसल भी कम है। वह पेट भरने पुरता दे दे, यही बहुत है।” पर प्रकट में पूरण बोला, “पहला पटेल को मन देखूँवाँ, नज रहा तो बात करूँवाँ।”

पूरण पनही की नई जोड़ी लेकर गाँव के नुक्कड़ पर चाय की गुमटी के सामने से गुजर रहा था। तभी देवा बा ने हाँक दी, “ऐ पूरण्या नीची घोग (गरदन) से कहाँ जा रहा है, याँ आ।”

गुमटी के पास बिछे तखत पर देवा बा और उनके सरीखे फुरसतिये ताश खेल रहे थे। उनाले (गर्मी) के दिनों में या घनघोर बरसाती झड़ी में (जब खेतों में काम नहीं होता या किया नहीं जा सकता) लोग ताश खेलते। जिन लोग की औलादों ने बड़े होकर खेती-बाड़ी का कामकाज सँभाल लिया था, वे देवा बा की तरह काम के झंझट से मुक्त हो चुके थे। हर मौसम में सबेरे से साँझ तक चौखड़ी, देहला पकड़ और छकड़ी जैसे ताश के खेल खेलते। एक-दूसरे को कोट देने पर चाय पीते-पिलाते, सेव-परमल खाते-खिलाते। ताश खेलने वालों के धूप व बरसात से बचाव के लिए तखत के ऊपर तुअर की साँटी, बाँस की चिपट, मोम पप्पड़ आदि से बनाया टटर तना रहता। तखत के ऊपर बैठे लोग, आते-जाते लोग को टोका-टोकी कर पूरे गाँव की रमूज (सूचना-जानकारी) लेते रहते। उस दिन भी देवा बा ने ऐसा ही कुछ सोच पूरण को हाँक दी थी और जब वह नजदीक आ गया, तब देवा बा ने पूछा, “पनही किसके लिए ले जा रहा है?”

“पटेल साब का वास्ते बणई है हुजूर।” पूरण गरदन झुकाए हुए ही बोला। देवा बा ताश फेंटते-फेंटते अपने सामने बैठे भिड़ू की ओर बाईं आँख झपकाते बोला, “पूरण्या, पनही तो घणी जोरदार दिखी री है। या जोड़ी म्हारे दी दे और अभी म्हारा बदन को यो कुर्तो तू ली ले, बोल मंजूर है।”

पूरण कुर्ते का सुन न चौंका, न ललचाया और न ही पलकें उठाईं। एक बार उसने नई डिजाइन की पनही गढ़कर पटेल के पड़ोसी छगन को दे दी थी। जब पटेल ने छगन के पाँव में नई डिजाइन की पनही देखी, वह छगन से कुछ नहीं बोला, लेकिन उसके बाल सुलग उठे थे। उसने पूरण को बुलवाया और पनही से मार-मारकर बाबरा (माथा) फोड़ दिया था।

उसी दिन पूरण ने अपनी धोती के पल्लू में गाँठ बाँध ली थी कि नई डिजाइन की पहली जोड़ी पटेल को ही देगा, लेकिन उस बात को याद कर लोग यदा-कदा छेड़ा करते और देवा बा ने भी शायद वही बात याद कर चुटकी ली थी। लेकिन पूरण गरदन ऊँची किए बगैर धीमे स्वर में बोला, “आप भी हुजूर मजाक उड़ाते हो, पूरा गाँव जानता है, नवी डिजाइन की पहली जोड़ी पटेल साब पहनते हैं।”

देवा बा ने ताश फेंटकर बाँट दी और वह तुरुप छापने की ताक में था, पूरण की ओर देखे बगैर कहा, “चल जा पटेल को हो पहना दे।”

पूरण फिर पटेल के घर की तरफ बढ़ा और चलते-चलते रास्ते में पीराक की अनाज बढ़ाने की बात याद कर सोचने लगा, पीराक से कह तो दिया कि बात करूँवाँ, लेकिन पटेल ने कभी किसी हाली (बंधुवा मजदूर) व दाड़क्या (छुट्टा मजदूर) तक का पयसा-अनाज नहीं बढ़ाया। बाप-दादों के जमाने से वही चला आ रहा है। बाकी के लोग भी पटेल की देखा-देखी ही देते हैं। पनही का अनाज बढ़ाने की बात सुन भड़क न उठे, वरना दूध के साथ में दोणी भी गई समझो।

पूरण इन्हीं खयालों में उलझता-सुलझता छगन के घर के करीब पहुँचा तो पटेल की सेरी में पटेल के सामने उसका हाली खड़ा दिखाई दिया, जिसे वह जाने किस वजह से या बेवजह गलियाँ बक रहा था।

पूरण को दूर से माजरा कुछ कम समझ में आ रहा था। वह थोड़ा और आगे बढ़कर छगन के घर के सामने इमली के झाड़ की ओट में बैठ गया, ताकि पटेल की नजर में आए बगैर उसकी बात सुन सके। पटेल व हाली के बीच एक खाट भी बिछी थी, पर पटेल खाट पर नहीं बैठ रहा था। वह गुस्से भरे कदमों से आठ-दस कदम आगे और इतना ही पीछे धम्म-धम्म चल रहा था। उसके पैरों में फूँदे डिजाइन की बोलने वाली पनहियाँ थीं। फूँदे पनहियों की नाथनों पर कभी दाएँ, कभी बाएँ दो चोटियों में गूँथे लाल रिबन के फूँदों की तरह झूलते। वह जब गालियाँ नहीं बकता, चुप रहता, उस क्षण पनहियों की आवाज पूरण तक भी आती।

यह बोलने वाली पनहियाँ भी पूरण ने ही गढ़ी थीं। पूरण ने इनके तलवों के बीच बबूल का एक-एक बीज ऐसा जमाया था कि इन्हें पहन जब पटेल चलता, तब इनसे फूटता स्वर कानों में मिठास घोलता था, लेकिन उस दिन पनहियों से किसी के दम घुटने का स्वर निकलता सुनाई पड़ रहा था। पूरण यह सब देख-सुन सोचने लगा, चौघड़िया खराब लगता है। पटेल खूब खीझा हुआ है। अभी पनही भी खराब बता सकता है, जाऊँ कि नहीं जाऊँ।

पूरण का डाँवाडोल मन एक जगह नहीं टिक रहा था। पनहियाँ गढ़ने में उसने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। देवा बा ने भी पनहियों को अच्छी बताया था, लेकिन उसने मन ही मन बुदबुदाया – भरोसा की भैंस पाड़ा भी जण सकती है। वो एक पनही हाथ में उठा देखने लगा – इस बार उसे पनही की नाथन पर टँके फूल पीराक की आँखें लगे। पनही का ऊपरी हिस्सा जिसके नीचे पाँव का पंजा रहता, वह पूड़ी-सा दिखा। पनही की कमर का कटाव देख, वह मुग्ध हो गया और पैर की एड़ी ढकने वाला भाग देख फिर पीराक आँखों में उतर आई। लेकिन पनही के तलवे में एँड़ी व पंजों के नीचे ठुकी नाल छूकर पूरण काँप उठा, पिछली बार नाल से फूटा बाबरा याद हो आया। फिर जैसे भीतर से ही किसी ने हिम्मत बँधाई – पनहियाँ खराब नहीं हैं, बल्कि जँचने पर पटेल अनाज भी बढ़ा सकता है।

उसने आखिरी बार पनहियाँ औंधी-चीती कर धैर्य से देखीं और हिम्मत भरे कदम पटेल के घर की ओर बढ़ाता खुद से बोला, “अब जो होगा, सो होगा।”

पटेल खाट पर बैठा चाय पी रहा था। पूरण उसके नजदीक पहुँचा और झुककर हाथ जोड़ता बोला, “पगे लागूँ हुजूर।”

“हूँ, बना लाया, देखता हूँ खड़ा रह जरा।” पटेल कप-बस्सी खाट के नीचे धरकर बोला। खाट पर बैठा पटेल चाय के बाद हथेली पर तमाखू-चूना रगड़ने लगा। अच्छी तरह रगड़कर ऊपर-ऊपर की बड़ी पत्तियाँ चिमटी में लीं और बारीक को हथेली से झटकारा। फिर बड़ी पत्तियों को बाएँ गलफे में दबाया और तमाखू वाली हथेली जाँघ पर पोंछी।

पटेल का मुँह जल्दी ही तमाखू के रस व थूक से भर गया। उसने दाँतों के बीच से पिचिर्रर्र कर थूका, कुछ छींटे पनही पर गिरे। पनही भी पटेल की और थूक भी पटेल का, लेकिन जब थूक पनही पर गिरा तो पटेल ने पहले पनही और फिर पूरण की ओर यूँ घूरा जैसे पूरण से कोई अपराध हो गया हो। पूरण ने घूरने का मतलब समझा और पनही पर पड़ा थूक झटपट फतवी से पोंछ दिया।

थूक पोंछना अनदेखा कर पटेल बोला, “ला, पनहियाँ दे, पैर डालकर देखूँ जरा।”

पटेल पैर डालने से पहले एक पनही हाथों में लेकर परखने लगा। उसे पनही की नाथन पर टँके फूल पटेलन के कानों के सुरल्ये लगे। एड़ी में ठुकी नाल छूकर बरबस ही मुँह से निकला, “खींचकर किसी को मार दो तो जीव निसरी जाए।”

पनही की सिलाई व तलवों के टाँके देख बुदबुदाया, “साले ने टाँके ऐसे गजब टाँके जैसे ज्वार के दाने चिपका दिए।” फिर पनही धीरे से धरती पर धर पहनी तो पटेल के चेहरे पर उभरे सुख से लगा, जैसे मखमल से गढ़ी पनही पहन ली है।

पूरण आशंका से भरा, पनही जाँचते-परखते पटेल के चेहरे पर बनती-बिगड़ती सिलवटों को समझने की कोशिश कर रहा था। वह कभी पटेल की मूँछ, कभी आँखें देखता और सोचता, पटेल क्या बोलेगा, कोई खामी न बता दे। लेकिन पटेल को कोई खामी नजर नहीं आई और वह गद्गद होता बोला, “छिनाल का पूरण्या, तू है तो कारीगर को मूत, इमे कोई दो राय नहीं।”

पटेल को खुश देख, पूरण के मन में पीराक की कही बात टाँगें पटकने लगी। उसने हिचकते-हिचकते अनाज बढ़ाने की बात कही, लेकिन अपनी बात कहते ही उसके मन में आया कि यूँ ही कहा, पटेल खुश है, वैसे भी कुछ न कुछ देगा ही। वह खुद पर खीझा, घड़ी भर सबर नहीं कर सका।

पटेल ने अनाज बढ़ाने का सुना तो उसकी लंबी नाक भट्टी में तपे हल का लाल कुश्या बन गई। आँखें फैलकर पाड़े की आँखों के बराबर हो गई। पनही से पैर ऐसे झटककर बाहर खींचे जैसे पैरों में बिच्छू ने डंक गचा दिया हो और तन्नाकर बोला, “बता दी अपनी जात। एक सेर अनाज कम पड़े, तो क्या एक जोड़ी पनही का मणभर लेगा? कुछ भी करो, तुम ढेड़ियों का पेट नहीं भरता। सालों की नेत (नियत) ही खराब है। हमारे ढोर मरने पर तुम्हें खाल मोफत में मिलती है। खाने को मांस मिलता है। ढोरों के हड्डे बेच पइसे झोड़ते हो, फिर भी एक सेर अनाज कम पड़ता है? ऐसी क्या सोना की पनही गढ़कर लाता है, और भोसड़ी सोना की भी गढ़ी होय तो उमे दियो बालाँगा? “

पटेल के जी में जो आया अंट-शंट बकता रहा। इतना गंदा-भद्दा कि पूरण के कान लाल हो गए। पूरण को उम्मीद न थी कि खुश दिखता पटेल अचानक भुर्राल्या (चक्रवात की तरह गुस्सा) हो जाएगा। पटेल के गुस्से से हड़बड़ाए पूरण ने सोचा, “अब क्या करूँ? कह दूँ, हुजूर आफत पड़ी री थी तो कह दिया। नहीं बढ़ाना चाहो तो मत बढ़ाओ। पर भुर्राल्या मत होओ, म्हारो छोटो-सो छोरो है, दया करो माई-बाप।”

जब यही सोचा हुआ कहने को पूरण ने मुँह खोला, तो मुँह से निकला, “ढोर घीसने के काम में इतरो ही तमारे नजर आवे तो तम करो, म्हारे नी करनू है।” और तेज-तेज कदमों से टापरे की ओर बढ़ चला।

पूरण की बात पटेल का कलेजा छेद गई। उसे उम्मीद न थी कि पनही गढ़ने वाला उसे ऐसा जवाब देगा। वह तत्काल कुछ करता, तब तक पूरण जा चुका था। पटेल के भीतर आग लगी थी, तभी सामने उसका ग्वाल आ गया। ग्वाल कस्बे से साइकिल पर रखकर खली का बोरा लाया था, उसने पूछा, “हुजूर यो थैलो काँ धरूँ?”

“थारी माई की उकपे धर दे, चोर का मूत ढेड़िया मालम नी है, हमेशा थैलो काँ धरे है।” पटेल बोला और ग्वाल की पीठ पर सड़-सड़ दो-तीन पनही जड़ दी।

पटेल जब अपनी सेरी में भुर्राल्या हो रहा था, छगन अपने घर में बैठा-बैठा खाना खा रहा था। उसके कानों को पटेल की आवाज अस्पष्ट-सी छू रही थी, जिससे छगन यह तो समझ गया था कि पटेल किसी पर भुर्राल्या हो रहा है, लेकिन किस पर और क्यों? यह उसे संपट नहीं पड़ी थी। वह खाने के बाद पटेल के ओसारे में आया, तब तक हाली, पूरण, ग्वाल जा चुके थे। पटेल अकेला खाट पर बैठा था। छगन माहौल में अजीब किस्म कि गर्माहट महसूसता दबे सुर में बोला, “राम-राम काका।”

पटेल ने झुलसाए शब्दों में जवाब दिया, “राम-राम, आ बैठ छगन।” छगन छः फुटे लंबे-चौड़े डील-डोल के अलावा गाँव में पटेल की बराबरी का किसान था। पटेल-सा रोबीला और मनमौजी नहीं, पर काले दिल का जरूर वो हरे-भरे झाड़ के गोड़ में छाँछ डाल कब सुखा दे, पता ही नहीं चलता। वो साँझ-सवेरे फुरसत मिलते ही पटेल के पास आकर बैठ जाता। वे एक-दूसरे के परिवार, ग्वाल और हाली तक की बातें आपस में करते। दोनों की उम्र में दस-बारह बरस के फर्क के बावजूद उनके बीच घी-गाकर-सा हेत (प्रेम) था। पूरण और बाखल के लोगों की नजर में वे बबूल के ऐसे काँटे थे, जिनके मुँह दो और कमर एक थी।

छगन अपने कुर्ते की जेब से जर्दे की डिबिया निकाल खाट पर बैठा और हथेली पर जर्दा मसलता पटेल की ओर देखने लगा। पटेल कहीं खोया हुआ लग रहा था। उसके भाल की कुछ ज्यादा ही सिकुड़ी रेखाओं के पीछे भी कुछ सुलगता-सा महसूस हो रहा था।

“कोई उलझन है काका?”, छगन ने पूछा।

“ढेड़िये ज्यादा मुँहजोर हो गए हैं छगन, आजकल आग मूत रहे हैं और अंगार खा रहे हैं, इनकी जल्दी ही कोई टाँणी करना पड़ेगी।” छगन की हथेली से चिमटी भर जर्दा लेकर अपने गाल और गलफे के बीच धरकर बोला।

“या बात तो साँची है काका, जिसे देखो वो अवँलाता (ऐंठता) है, टाँणी नहीं की तो वो दिन दूर नहीं, जब ढेड़िये हमारे माथे पे मूतेंगे।” छगन ने अपने निचले होंठ व दाँतों के बीच जर्दा दबाने के बाद, सहमति में मन भर का माथा हिलाते हुएा कहा।

“आज ही… तू जरा अपनी बलन के छोरों को बुला।” पटेल ने शब्दों को चबाया।

“जरा धीरपय से काम लो काका, काम असो करो कि खेत से डूंड खोदई जाए और न बख्खर की पाज टूटे न बोठी होये।” छगन ने कुछ सोचते हुए कहा।

पूरण ताव-ताव में पटेल से जो कह आया था, उससे खुद बहुत डरा हुआ था। वह न टापरे में बैठ पा रहा था, न दूसरी पनही गढ़ने को सोच पा रहा था। अपनी गलती और पटेल के खौफ के संबंध में सोचते-सोचते पसीने से भीग रहा था। ऐसी हालत में उसे कच्ची भीत पर माँडने माँडती पीराक के हाथ, गोबर की बजाय कीचड़ में सने नजर आए और उसे समझ ही नहीं आया कि पीराक कीचड़ से भीत पर क्या कर रही है?

पूरण को देख पीराक ने दुख व चिंता से उबराते हुए हाथ धोए, पानी का गिलास लाई। अपने सोच में गुम पूरण ने गिलास ठीक से पकड़ा नहीं और गिलास उसके हाथ से छूट पड़ा। आँगन में फैला पानी पूरण को खून दिखा और वह चीखने लगा।

पीराक ने धूजते हाथों से पूरण का माथा छुआ, वो तप रहा था। उसे बुखार आ गया था। पूरण को जब कभी बुखार आता, उसे बुरे-बुरे सपने आते। कुछ भी बड़बड़ाता। कभी पीराक के सीने में मुँह छुपाता, कभी हाथ में राँपी लेकर सोता। कभी भैंसे पर सवार यमराज को अपनी ओर आता देखता और पीराक से कहता, “यमराज के भैंसे को मार उसकी खाल (चमड़े) से पटेल के लिए पनहियाँ बनाऊँगा।” कभी उसे भैंसे पर यमराज की जगह पटेल ही नजर आता और वह डरकर बचाओ-बचाओ चिल्लाता और पीराक की छाती में मुँह गड़ाता। पूरण उस दिन भी ऐसी ही अजीबो-गरीब हरकतें कर रहा था।

पीराक के लिए यह सब नया नहीं था। वह इससे पहले भी पूरण को ऐसा करते देख चुकी थी, लेकिन उस दिन पूरण कुछ ज्यादा ही भयावह हरकतें कर रहा था। घबराकर वह पड़ोसियों के टापरों पर गई, लेकिन कोई नहीं था। सब दाड़की (मजदूरी) गए थे। सोयाबीन की कटाई का सीजन था। लोग ढूँढ़े नहीं मिल रहे थे। पूरण साँझ तक छादरी पर लेटा रहा और पीराक पानी गालने का गलना भिगा-भिगाकर पूरण के करम पर धरती रही।

रात पड़े पूरण को देखने व मिलने उसके दो-तीन पड़ोसी आए। पूरण की बात सुन-समझ उसे ढाँढ़स बँधाया कि अब जो कह दिया, सो कह दिया। आखिर कोई कब तक चुप रहे, एक न एक दिन तो बोलना ही पड़ता है, ज्यादा फिकर मत कर, पूरी बाखल वाले तेरे साथ हैं, आगे जो होगा, सब मिल कर निपटेंगे।

हालाँकि पूरण के भीतर की धुक-धुकी मिटी नहीं थी। वह भीत से टिका बैठा, पीराक और परबत की ओर टुकुर-टुकुर देख रहा था। कुछ महीने बीत गए थे। किसी हाली और दाड़क्या की पिटाई नहीं हुई। पूरण से भी किसी ने कुछ नही कहा। किसी का ढोर-डंगर नहीं मरा। किसी पर मूठ (एक तरह टोना-टोटका) मारने का आरोप नहीं लगा। एक तरह से सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा।

सुख पूजा का दिन नजदीक था। जब भी गाँव में सुख पूजा की जाती, तब गाँव भेरू को रँगा जाता, नारियल चढ़ाया जाता, अगरबत्ती लगाई जाती और उसके ऊपर दो खंभों में टाँणा (एक लंबी रस्सी में लाल कपड़े में नारियल आदि) बाँधा जाता। टाँणे के नीचे से सभी ढोर-डंगर निकाले जाते। सुख-पूजा ढोर-डंगरों की सलामती के लिए हर साल की जाती। जब तक टाँणे के नीचे से सभी के ढोर-डंगर न निकल जाते, तब तक गाँव में किसी के घर में चूल्हा नहीं जलता।

पूजा के बाद पहले पटेल के घर के ऊपर धुआँ उठता, फिर और लोगों के घरों में भी चूल्हे सुलगाए जाते। अगर किसी और के घर के ऊपर पटेल के घर से पहले धुआँ उठता नजर आता तो उसे दंडित किया जाता। हालाँकि जिन लोगों के यहाँ स्टोव थे और जिन्हें उठते ही चाय पीने की आदत थी, वे बड़ी फजर में दूध-दुहने के वक्त ही दूध-चाय उबालकर पी लेते थे।

देवा बा को उठते ही दो कप चाय लगती और नहीं मिलती तो उनका दिन आगे नहीं सरकता। वे घंटे-घंटे पर चाय पीने के आदी थे। गुमटी के तख्त पर ताश खेलते रहने और चाय पीते रहने से यह आदत पड़ गई थी।

सुख पूजा की सुबह देवा बा के चौथे छोरे की बैराँ ने स्टोव जलाने की खूब कोशिश की, लेकिन स्टोव नहीं जला, खराब हो गया था। बहू ने चूल्हे पर चाय उबाल दी और देवा बा ओसारी में खाट पर बैठा चाय पी रहा था।

छगन ने देवा बा के घर के ऊपर धुआँ उठता देख, झट से पटेल को भी बताया था। उसी बखत छगन सहित दो-तीन लोगों को साथ लेकर पटेल देवा बा से बोला, “आप बुजुर्ग ऐसा करेंगे, तो गाँव में कौन नियम-कायदे मानेगा। आपको पंचायत का दंड भरना पड़ेगा।”

देवा बा देव-दाड़म और पूजा-पाठ को अंधविश्वास और लोगों को ठगने के धंधे से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। वे न कभी मंदिर जाते और न ही गाँव में होने वाले भजनों, कथाओं, गरबों आदि में जाते। सुख पूजा के दिन टाँणे नीचे से अपने ढोर-डंगर भी नहीं निकलवाते। अब जो ये ढोंग-धतूरा नहीं मानता, उसके लिए कैसा नियम और कैसा कायदा?

देवा बा ने यही बात पटेल और उसके साथ आए लोगों को समझाने की कोशिश की, लेकिन पटेल मानने को तैयार नहीं था। उसका कहना था – आप नहीं मानते, न मानें, गाँव के और लोग तो मानते हैं। आपको गाँव के नियम-कायदों का खयाल रखना पडे़गा। और वह देवा बा से दंड भरवाने की ‘घई’ (जिद) पकड़ने लगा।

देवा बा को पटेल से कोई डर-धमक तो थी नहीं, न ही वह खेती-बाड़ी, पैसे-कौड़ी या जाति में पटेल से कम था। उसका परिवार भी काफी बड़ा था। वह अड़बी पड़ जाए तो पटेल से पटेली भी छीन सकता था। लेकिन उसे यह सब पसंद नहीं था। जब लाख समझाने पर भी पटेल नहीं मान रहा था, तब देवा बा खाट पर से उठा और अपनी धोती की एक काँछ ऊपर उठाकर बोला, “लो उखाड़ते बने तो उखाड़ लो।”

पटेल और उसके साथ आए लोगों को तूती-सा मुँह लेकर लौटना पड़ा था।

सुख पूजा के दिन पटेल और छगन टाँणे के नीचे खड़े होते। एक के पास दूध और दूसरे के पास गोमूत्र की बाल्टी होती। एक तरफ से ढोरों पर नीम की डाली से दूध और दूसरी ओर से गोमूत्र छींटते। सुख पूजा के तीन-चार दिन पहले गाँव में डोंडी फिरवा दी जाती, ताकि लोग पहले से तैयारी कर लें, क्योंकि पूजा के दिन धार नहीं चलाई जाती। ढोरों का निराव एक दिन पहले काटकर रखना पड़ता। घर में सब्जी-भाजी भी काटकर रखते या फिर उस दिन ओसरा बनाते। ओसरा यानी बेंगन, भिंडी आदि को सुखा कर रख लेते, और जब इनका सीजन नहीं होता। जब हरी साग पैदा नहीं होती, तब सूखी साग को पहले भीगा लेते, ताकि वह फिर से हरी हो जाए और फिर पका लेते। जिनको ओसरे नहीं बनाने होते, वे दाल-बाटी भी बनाते। कुछ भी ऐसा करते, जिससे धार न चलानी पड़े। सुख पूजा के दिन धार न चलाने का नियम था। इसलिए भूल से भी न तोड़ना होता था, यदि कोई तोड़ता तो फिर खामियाजा भी भोगता।

एक बरस पूरण से यह भूल हो गई। उसे याद नहीं रहा और सबेरे-सबेरे ही पनही गढ़ना शुरू कर दिया। जब पीराक ने टोका, “आज धार चलाना बंद है।” तो घबरा गया। वह दौड़कर पटेल के पास गया और सब कुछ सच-सच बता दिया। पटेल ने सारी बात सुन-समझ कहा, “पूरण्या तूने नियम तोड़ा, पाप किया, लेकिन अनजाने में किया और उसका पछतावा भी है तुझे। तू ऐसा करना कि दो बरस तक मेरी और गाम के महाराज की पनही मोफत में गढ़ना, ताकि तेरा पाप घट जाए और तुझे नरक का मुँह न देखना पड़े।”

जब भी सुख पूजा होती, ऐसे तमाम नियम-कायदे होते और उनका पालन करवाया जाता। लोग पालन करते भी। देवा बा सरीखा तो बिरला ही होता।

उस बरस सुख पूजा के तीन-चार दिन पहले गाँव में भयानक संकट आया हुआ था। पटेल ही नहीं, बल्कि हर किसान पर जैसे दुख के बादल फट पड़े थे। हरेक के कोठों में ढोर-डंगर महुए की भाँति टपटप टपक रहे थे और किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।

छगन ढोरों की बीमरियों के मामले में अच्छा-खासा जानकार था। वह गाभिन गाय-भैंस का बाखरु बैठालने, पेट में बछड़ा उलझ जाए तो सुलझाने और ढोरों को डाम देकर ठीक करने में माहिर था। यानी वह बगैर भणा-गुणा (पढ़ा-लिखा) ढोरों का डॉक्टर था। लेकिन जब गाँव के अच्छे-भले निराव खाते, चरते बागोलते ढोरों का गला सूजने, गले से घर्र-घर्र की आवाज आने लगी और अचानक गिरकर मरने लगे, तब छगन भी कुछ नहीं समझ पाया। कस्बे वाले डिग्रीधारी डॉक्टर ने कहा, “शायद गलघोंटू है” और वह एक तरफ से सभी ढोरों को सुई खोंसने भिड़ गया। फिर भी काबू पाते-पाते गाँव के लगभग आधे ढोर-डंगर लुढ़क गए।

पूरण उन दिनों भी बीमार था। जब से पटेल से कहा-सुनी हुई, वह कभी पूरी तरह ठीक नहीं रहा। जब ढोर-डंगर मर रहे थे, उसी दौरान एक दिन पूरण अपने टापरे पीछे बैठा बीड़ी पी रहा था। वह बरसात का दिन था। पीराक टापरे पीछे के खाळ (बरसाती नाला) किनारे मेहँदी गाड़ रही थी, ताकि बरसात के पानी से खाळ ज्यादा चौड़ा न हो। परबत भी वहीं गीली मिट्टी से पनहियाँ गढ़ने का खेल खेल रहा था। तभी टापरे के सामने किसी ने हाँक लगाई, “पूरण्या, जलूका काँ मरी गयो!”

पूरण ने पटाक से छगन की आवाज पहचान ली और दौड़ता, हकबकाता टापरे के सामने आ गया। पूरण को देख छगन अपनी आँखें छोटी-बड़ी करता बोला, “पूरण्या, तू घर में आराम से पड़ा-पड़ा पाद रहा है और उधर हमारे ढोर-डंगर लुढ़कते जा रहे हैं, डॉकटर का कहना है, अगर फटाफट मरे ढोर नहीं हटवाए तो कोई बड़ी बीमारी भी फैल सकती है। तू सीधा माजना से अपनी जात वालों को लेकर जल्दी आ, न आया तो फिर पटेल का सुभाव तो तू जाणे है।”

छगन को जो कहना था, वह कह गया। पूरण चिंता में पड़ गया। मौके पर मिले दो-तीन लोगों को बात बताई तो वे बिदक गए। उनमें से मंगू ने कहा, “पूरण दा, तू चौमासा की पनही-सा लचर-लचर मत करे। उनके ढोर उनको ही घीसने दे।”

पूरण समझ नहीं पा रहा था, लोगों को कैसे समझाए। उसी की वजह से लोगों ने पटेलों के ढोर न घीसने का तय किया था। वही टूटकर लोगों को ढोर घीसने का कहेगा, फिर कल उसकी किसी बात पर कैसे भरोसा करेंगे? लेकिन लोगों से बात तो करनी पड़ेगी। गाँव में देवा बा सरीखे लोग भी रहते हैं, जो सुख-दुख में मदद भी करते हैं। पटेल के कारण गाँव भर से दुश्मनी मोल नहीं ली जा सकती। छगन तो धमकाकर भी गया है और वह कोई कोरी धमकी नहीं है। अभी चार दिन पहले ही पड़ोसी गाम के पटेल ने एक जवान छोरे को झाड़ पर लटकावा दिया। कोई कहता है, पटेल के यहाँ ग्वाल था और उसके संबंध पटेल की राँडी छोरी से थे। कोई कहता है, पटेल के संबंध ग्वाल की कुँआरी बहन से थे और वह पेट से थी। उसने अनाज में रखने की गोली खाकर जान दे दी। इसी बात के पीछे पटेल व ग्वाल में खूब खरी-खोटी कहा-सुनी हुई और ग्वाल ने पटेल के ढोर चराने से मना कर दिया था।

सचाई क्या थी, ये तो मरने वाला या मरवाने वाला ही बता सकता है, लेकिन मरा तो ग्वाल ही है। अगर हम ढोर घीसने नहीं जाएँगे और पुरानी बात पर अड़े रहेंगे, तो यहाँ का पटेल क्या हमारी पूजा करेगा? ढोर तो घीसने पड़ेंगे। ठीक है, थोड़ी घणी कहा-सुनी हो गई, लेकिन हमेशा के लिए खानदानी काम से मुँह थोड़े फेरा जा सकता है। ऐसी बखत में अगर उनकी मदद नहीं करेंगे, तो वे गाँव में रहने देंगें? पूरण के मन में चलती यही सब बातें उसने अपने पड़ोसी और उस बखत बाखल में जो भी मिला, उसे समझाने और राजी करने की कोशिश की। थोड़ी माथा-पच्ची और चक-चक के बाद मंगू, गेंदा, गंगू सहित आठ-दस लोगों को राजी भी कर लिया और वे लोग ढोर घीसने की रस्सी, बाँस आदि सामान लेकर गाँव में पहुँचे।

पटेल के घर के सामने उन लोगों का हुजूम जमा था, जिनके कोठों में एक-एक दो-दो ढोर मरे पड़े थे। खुद पटेल की मुर्रा भैंसें, जर्सी गाय मरी थी, जिससे पटेल दुखी ही नहीं, बल्कि पृ्रण सहित बाखल वालों पर भयानक गुस्सा भी था, जो खबर देने के बावजूद काफी देर से पहुँचे थे।

पूरण को घूरते हुए पटेल छूट बोला, “आ गया तू, तेरी तो घणी लंबी नाक थी। मेरे आगे दाल न गली तो ढोरों पर टोने-टोटके शुरू कर दिए। अब ढोरों की खाल (चमड़े) से पनही का घाट पूरा करेगा?”

पटेल की बात सुन पूरण के साथी गंगू, मंगू, गेंदा आदि मन ही मन पटेल की माँ-बहन एक करने लगे और पृ्रण भय और आश्चर्य से गूँगा बना खड़ा था। कुछ देर बाद जब बोलने का सोचा तो लगा जैसे जबान काठ हो गई, फिर भी बहुत ही हिम्मत व मुश्किल से भर्राये सुर में बोला, “हम टोना-टोटका नहीं जानते, और जानते भी तो ढोरों पर क्यों करते? ढोरों ने हमारा क्या बिगाड़ा?”

पटेल बात पकड़ अपने ढंग से अर्थ गढ़ने में माहिर था। वह जमा हुए लोगों और जवान छोरों को उकसाने के अंदाज में बोला, “सुना, क्या बक रहा है, ढोरों पर टोना-टोटका क्यों करे? उन्होंने क्या बिगाड़ा? मतलब हम पर करेंगे? हमने एक जोड़ी पनही के बदले अपनी जायदाद इनके नाम नहीं लिखी, इसलिए अब हमारा मांस खाएँगे और हमारी खाल उधेड़ कर पनही बनाएँगे।”

“यानी महीने भर पहले देवा बा का छोरा…” छगन को जैसे किसी राज का पता चल गया। वह अचरज से आँखें फैलाता बोला, “वह जामण की डगाल फटने से गिरा था, डगाल को इन्होंने ही मूठ मारी होगी !”

“और क्या?” पटेल ने छगन के सुर में सुर मिलाया, लेकिन मन ही मन बुदबुदाया, किस करम खोड़ले का नाम ले लिया। वह वहीं खड़ा है, कहीं सफाई न देने लगे, और पटेल ने देवा बा की ओर झूठी मुस्कान से देखा, उसकी आँखों ने जैसे देवा बा से कहा – तुम हमसे मिलकर नहीं चलते, फिर भी हम कितना ध्यान रखते हैं।

देवा बा अभी थोड़ी देर पहले ही आकर भीड़ में खड़ा हुआ था। उसने वही बात सुनी-समझी थी, जो उसके पोते के संबंध में कही थी। उसने पटेल की झूठी मुस्कान को कोई तवज्जो नहीं दी और पटेल की आशंका के अनुरूप ही बोला, “जामण का झाड़ ही कच्चा होता है। उसकी डगाल भड़ से फट जाती है। फिर मेरा पोता भी कम नहीं था। वह अपनी गलती से ही गिरा और मरा। उसे किसी ने मूठ-ऊठ नहीं मारी।”

देवा बा की बातों से पूरण की हिम्मत बढ़ गई। वह पटेल को भरोसा बाँधने के लिए पीराक और परबत की सौगंध खाता बोला, “हुजूर हम काम के अलावा कुछ नहीं जानते” वह रस्सी और बाँस दिखाता बोला, “अब भी ये लेकर ढोर घीसने ही आए हैं।”

“खबर देने के कितनी देर बाद आया है तू?” पटेल ने देवा बा की बात व मौजूदगी को अनदेखा किया और पूरण को घूरता बोला, “तू क्या समझता है, तेरे बगैर हमारे ढोर कोठे में ही सड़ते रहेंगे?”

पटेल ने वहाँ खड़े नई उम्र के छोरों को भाँपने की नजर से देखा – उनका खून उबाल खा रहा था, छोरों ने बचपन से नीची जाति के लोगों को पटेलों के आगे झुकते देखा था, इसलिए उन्हें भी पूरण का बोलना हजम नहीं हो रहा था। पटेल ने गर्व से गरदन हिलाई और छोरों में जोश भरता बोला, “हमारे एक से एक कलदार छोरे हैं, मरे ढोरों को बैलगाड़ी में, टैक्टर में भरकर गाँव बाहर फेंक देंगे और जला भी देंगे, ताकि…” पटेल बाखल वालों पर हिकारत भरी नजर घुमाता बोला, “तुमको ढोरों की खाल, मांस और हड़के तक न मिल सकें।”

“तो फेंकने दो हम क्यों आधी रोटी पे दाल लाँ…” पूरण का पड़ोसी गंगू बेधड़क होता पूरण से बोला।

पूरण, देवा बा और पटेल की बातों से छगन को लगा, पटेलों के छोरों को ही ढोर घीसने पड़ेंगे और उसकी आँखों के सामने अपने छोरों का ढोर घीसने का दृ्श्य उभरा। उसने सोचा, ढोर घीसने की बात आस-पास के गाँवों में बसे पटेलों को मालूम होगी। गाँव भर की नामोसी होगी। इस गाँव में कोई पटेल अपनी छोरी नहीं ब्याहेगा। यहाँ की छोरी को अपनी बहू या बैराँ नहीं बनाएगा। गाँव की औड़क ही, ‘ढोर घीसने वाले पटेलों का गाँव’, पड़ जाएगी। छ्गन ने पटेल को हाथ पकड़ भीड़ से एक तरफ ले जाकर अपना सोचा बताया और कहा, “अपन ढोर-वोर नहीं घीसेंगे।”

“देख छगन, अगर अपनी जात वालों को ढोर घीसने की नौबत पड़ी भी तो, अपन थोड़ी घीसेंगे। अपनी जात में भी कई गरीब-गुरबे हैं। पइसा देंगे, तो वे घीसकर फेंक आएँगे।”

“गरीब हैं तो क्या वे ढेड़ियों का काम करेंगे?” छगन बोला।

“सब करेंगे छगन, जात पइसे से बड़ी थोड़ी है?” पटेल बोला।

“नहीं-नहीं, अपनी जात वालों का ढोर घीसना ठीक नहीं। अपन ऐसा कुछ करें कि ढोर ढेड़िये ही घीसें और माथा भी नहीं उठावें।” छगन बोला।

पटेल भी यही चाह रहा था, लेकिन उसके पाँसे उलटे पड़ रहे थे। वह झुँझलाया, “तू देख तो रहा है, ढेड़िये रत्तीभर झुकने को राजी नहीं। पूरण्या तो लेण पर आ गया है, पर उसके साथ आए लौंडे, उनकी कद से लंबी जबान है।”

“तो जबान के छोटी करने का बारा में सोचो, छोटी जात से जबान लड़ई के क्यों अपनो मान घटावाँ?” छगन बोला।

जब छगन और पटेल के बीच ये बातें हो रही थीं, तभी उधर देवा बा का बड़ा छोरा आया। उसने देवा बा को भीड़ से अलग ले जाकर कहा, “क्यों इनी टेगड़ा लड़ाई में टेम खराब करो, अपना घर चलो। यहाँ और किसी से कुछ खरा-खोटा बोलने में आ जाएगा। अपने ढोर तो हम चारों भाई खाळ में फेंक आए।” देवा बा अपने छोरे के साथ घर चले गए।

पृ्रण ने गेंदा, गंगू, मंगू आदि अपने साथियों को समझाना चाहा, “अड़बी मत पड़ो, अपना तो करम में ही ढोर घीसनो लिख्यो है।” लेकिन पूरण के साथी पटेलों के मन माफिफ झुकने को तैयार न थे, वह उन्हें न समझा सका।

“तो ढोर नहीं घीसोगे?” वापस भीड़ में लौटे पटेल ने उन्हें घूरते हुए पूछा।

“घीसेंगे, पर पहले अनाज या पइसा ठहरा लो, आप कहें तो ढोर की खाल और हड़के भी लौटा देंगे।” पूरण के मुँह खोलने से पहले उसके पीछे से मंगू की आवाज आई।

“मांस भी ले लेना!” गेंदा बोला।

पूरण के पीछे से आई मंगू व गेंदा की आवाजों ने पटेल के माथे पर पत्थर का-सा प्रहार किया। वह तिलमिला उठा। पटेल से इस तेवर में ढेड़ियों को बातें करते देख, वहाँ खड़े पटेलों के जवान छोरों की मुट्ठियाँ कसा गईं। छोरे दाँत पीसते, कचकची खाते अपने को जब्त किए पटेल की ओर देख रहे थे, लेकिन जब पटेल ने उनकी ओर देखा, तो यों देखा कि फिर उन्हें किसी आदेश या इशारे की दरकार न रही। उन्होंने पूरण और उसके साथियों की सूखी पसलियों पर घन सरीखे मुक्कों और लातों की झड़ी लगा दी।

पटेलों के तीन-चार छोरे, जिनके घर नजदीक थे, घर में से कुल्हाड़ी, फर्सी, बल्लम लेकर उन पर टटके, तो उन्होंने जान बचाकर अपनी बाखल की ओर दौड़ लगा दी। छोरे कुछ दूर तक पीछा कर रुक गए और गालियाँ बकने लगे।

बाखल में साँझ उतर रही थी, लोग दाड़की से लौट रहे थे। पूरण, गंगू, गेंदा और मंगू वगैरह आदि हाँफते, घबराते बाखल में आए तो आसपास के लोग इकट्ठा हो गए। पीराक भी परबत को गोदी में उठाकर टापरे से बाहर आ गई। उसने सबके चेहरों पर एक नजर डाली, तो भीतर आशंका भर गई।

“क्या हुआ?” उसने काँपते स्वर में गंगू से पूछा।

“मार खाकर भाग आए और क्या हुआ?” गंगू ने चिनगारी उगलते लहजे में जवाब दिया।

“क्यों, अपने हाथ पटेल के पास गिरवी रख दिए थे?” पीराक ने जैसे जले पर नमक मल दिया।

“वे हमें ढोर समझ पीट रहे थे और पूरण दा हमारे हाथ पकड़ कह रहा था – वे ऊँचे लोग हैं, उन पर हाथ मत उठाओ!” मार यादकर गंगू के गाल जल उठे, आँखें छलछला गईं।

“हम तो इसीलिए नहीं गए, अब क्या माजना रहा।” गेंदा का पड़ोसी बोला, जिसने पूरण के साथ जाने से मना कर दिया था।

“तुम क्यों जाओगे, पटेल के यहाँ हाली जो हो!” गेंदा ने कहा।

“गेंदा तू मेरे मुँह मत लाग, हाली हूँ तो क्या हुआ? और तुमने जाकर उनका क्या बिगाड़ लिया?” भीड़ में से गेंदा का पड़ोसी बोला।

“लड़ो, आपस में एक-दूसरे का माथा फोड़ दो, वहाँ पटेल के सामने जाते पाँव टूटते हैं।” पीराक ने कहा।

“तू चुप कर, आदमियों के बीच चपर-चपर मत कर!” पूरण झुँझलाया।

“कहाँ हैं आदमी, यहाँ तो सब कीड़े-मकौड़े हैं। इनकी औलादें भी ऐसी ही होंगी। कभी नहीं भणेंगे, कभी पनही नहीं पहनेंगे। जिनगीभर उबाणे पगे (नंगे पैर) पटेलों की जी हुजूरी करेंगे।” पीराक जलती चिता हो गई।

“तू चुप करती कि नहीं!” पूरण चीखा।

पूरण की चीख से पीराक समझ गई। पूरण को औलाद के नहीं भणने (पढ़ने) और पनही नहीं पहनने का ताना चुभ गया। पीराक झेंपकर चुप हो गई, लेकिन उसका बदन जलता रहा। उसका सीना इस कदर ऊपर-नीचे हो रहा था मानो भीतर अंधड़ घुस गया है और अभी सीना फाड़ डालेगा। उसकी बगल में गेंदा की माँ खड़ी थी। उम्रदराज औरत थी, वह बोली, “चुप तू कर पूरण, पीराक सची कहती है। तुम तो अपने बाप-दादाओं की तरह ढोर रहे। तुम्हारी औलादें भी ढोर रहेंगी। अरे तुम काहे के आदमी। ढंग से बैराँ का तन न ढाँक सको, पेट न भर सको, अपना हक तक न ले सको। अरे ऐसे दब्बू आदमी के साथ रहने से तो राँडी बैराँ भली।”

“तुम लोगों के माथे कटवाओगी।” पृ्रण बेबस होता चीखा।

“पटेल की पनही पर धरे माथे की क्या आरती उतारें, ऐसा माथा कट जाए तो भला”, पीराक भी अपने को और चुप न रख सकी।

पूरण को कुछ नहीं सुझ रहा था, वह चुप रहा। मंगू, गेंदा व गंगू भी उनकी बातों से सहमत होकर उनके सुर में सुर मिला रहे थे।

“अभी तो ढोर कोठों में ही पड़े हैं, वे फिर आ सकते हैं।” मंगू ने कहा।

“हम नहीं जाएँगे।” गेंदा बोला।

“वे आएँगे तो वापस न जा सकेंगे।” गंगू बोला और उसके सुर में भीड़ ने भी अपनी आवाज मिलाई।

“मत घीसो, मुझे क्या पड़ी है? जब बैराँ ही कहती है, पटेल की पनही पर धरा माथा कट जाए, तो भला, फिर मैं क्यों माथा झुकाऊँ?”

पूरण बड़बड़ाता टापरे में चला गया। सब पूरण के टापरे की ओर देखने लगे। वह थोड़ी देर बाद निकला। उसके पाँव में वही पनही थी, जो ब्याह में उसने गढ़ी थी, जिसे पहनने पर पंचायत के सामने नाक रगड़ने और गाँव में झाड़ू लगाने की सजा भोगी थी। उसके हाथ में मरे ढोरों की खाल उतारने वाली एक-सवा फीट की छुरी थी। उसने बैठकर धार करने वाला पत्थर दोनों पाँवों से पकड़ा और उस पर छुरी घीसकर धार करता बोला, “अब मेरा मुँह क्या देख रहे हो, जाओ टापरे में जो कुछ हो – लाठी, हँसिया लेकर तैयार रहो, पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हाँ, उबाणे पगे मत आजो कोई।”

साँझ का सूरज पूरण के काले मुँह पर दमक रहा था और पीराक के साँवले गालों पर सुनहरी किरणें मटकी नाच रही थीं।

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