पहरे पर पिता
पहरे पर पिता

पिता रात भर खांसते हैं

जगते हैं तो समय पूछते हैं

सोते हैं तो खर्राटे भरते हैं

कभी कभार

नहीं नहीं कभी कभी

जोर जोर से खांसते हैं

जैसे की बचपन में नई नवेली बहुओं के होने पर

ओसारे से ही खांसना शुरू करते थे

पिता बहुत आश्वस्त हैं

अभी भी खांस रहे हैं

लेकिन जब सुबह उठते हैं तो पूछते हैं

आज रात खांसी तो नहीं आई !

पिता हमारी नींद को लेकर

अपने खांसने में भी सजग हैं

लेकिन इतने नहीं की जब वह आ ही जाय

तो नए ज़माने की तरह “एक्स्कुज मी” कहना न भूलें !

अब जब कभी खांसते हैं तो मुह तोपकर खांसते हैं

और जब उनसे दवा लेने की बात कहता हूँ

तब फिर खांसते हैं

और धीरे से मुस्कुरा देते हैं

खांसना जैसे उनका पहरे पर होना है

और जिन्दा रहने का निशान छोड़ना है !

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