पहाड़ | आरसी चौहान
पहाड़ | आरसी चौहान

पहाड़ | आरसी चौहान

पहाड़ | आरसी चौहान

हम ऐसे ही थोड़े बने हैं पहाड़ 
हमने न जाने कितने हिमयुग देखे 
कितने ज्वालामुखी 
और कितने झेले भूकंप 
न जाने कितने-कितने 
युगों चरणों से 
गुजरे हैं हमारे पुरखे 
हमारे कई पुरखे 
अरावली की तरह 
पड़े हैं मरणासन्न तो 
उनकी संतानें 
हिमालय की तरह खड़ी हैं 
हाथ में विश्व की सबसे ऊँची 
चोटी का झंडा उठाए। 
बारिश के बाद 
नहाए हुए बच्चों की तरह 
लगने वाले पहाड़ 
खून पसीना एक कर 
बहाए हैं निर्मल पवित्र नदियाँ 
जिनकी कल-कल ध्वनि 
की सुर ताल से 
झंकृत है भू-लोक, स्वर्ग 
एक साथ। 
अब सोचता हूँ 
अपने पुरखों के अतीत 
व अपने वर्तमान की 
किसी छोटी चूक को कि 
कहाँ विला गए हैं 
सितारों की तरह दिखने वाले 
पहाड़ी गाँव 
जिनकी ढहती इमारतों व 
खंडहरों में बाजार 
अपना नुकीला पंजा धँसाए 
इतरा रहा है शहर में 
और इधर पहाड़ी गाँवों के 
खून की लकीर 
कोमल घास में 
फैल रही है लगातार।

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