जितनी पीड़ा पाए।
पगली लड़की अपनी मरजी में जीती।
किसी हानि-लाभ में नहीं होती
या किसी नाप-तौल के जीवन में
नहीं होती।
जहाज डूबा,
बेटा गया,
घर जला,
वह कुछ नहीं सोचती।
आँसू छुपा वह केवल
हँसती रहे।
पगली लड़की जानती है, वह पिंजरे में बंद
पंछी नहीं।
वह खेत में जाए या वन में जाए
घाट जाए या बाट जाए।
या कुछ खेलती रहे।
अधिक सुंदर दिखेगी अतः पेड़ पर लीचू की माल
बांध देती।
वह देवी बन जाती
सुबह से ही लग जाती।
पगली लड़की का न पीहर है
न ससुराल।
वह खुद एक झड़ है, तभी तो
टूट गए हैं दोनों पाँव।
पुराने दुख की गठरी बना फेंक दिया
जैसे पिछले साल का कैलेंडर।
उस आमोद में नहीं होती
कि आवरण में।
वह किसी चुनाव में नहीं होती कि
नहीं किसी व्यवस्था में।
जंगल, जनपथ लाँघ चाँद
डूबने तक
वह केवल चलती रहे ऊँची-नीची धरती पर।
कौन समझ पाता उसे
सहज ही ?
सारा विश्व नहीं कि देश नहीं।
सिर्फ एक की बात सोचती
मीत के लिए गीत रहे गाती।
एक तोफा क्षितिज की ओर चलती रहे
प्रेम की पताका लिए।