ओस की वह बूँद | राहुल देव
ओस की वह बूँद | राहुल देव

ओस की वह बूँद | राहुल देव

ओस की वह बूँद | राहुल देव

सहसा दृष्टि पड़ी उस पर 
वह ओस की बूँद ! 
सूक्ष्म क्षेत्र में सिमटी 
शून्य से अनंत की ओर 
अवगुंठन से विकल हो 
अश्रुओं के क्षेपण से मानो 
लाज के घूँघट में सिमटना चाहती हो; 
छिपाना चाहती हो 
अपना अव्यक्त स्वरूप 
रात्रि के अवसान पर 
प्रभातकरों के स्पर्श से 
हर्षातिरेक में झूमना चाहती हो, 
बजना चाहती हो वह 
घुँघुरुवों की तरह 
बूँद ! 
पूर्ण है स्वयं मैं 
समेट सकती है 
विश्व को स्वयं में 
स्रोत है भक्ति का – 
नवशक्ति का 
वह ओस की बूँद 
प्रतीक है जीवन का 
गति का !

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