पसीने से भीगी हथेली उसने मुट्ठी में भींच ली। पर पसीना था कि बस फूटा पड़ रहा था, माथे, कनपटी और उसकी भौंओं के कोर से। धड़कनें मंजिल तक पहुँचने को बेकरार तेज रफ्तार रेल सी बेकाबू हो रही थीं। उसने घबराई नजरों से चारों ओर देखा। कमरे में कई जोड़ी आँखें तैर रही थीं जो उचटती निगाह उस पर डालतीं, चौंकतीं, ठिठकतीं और सतर्क होकर प्रश्नों की कैंची से माहौल की कतरनें कौतूहल और उत्सुकता में कतर कर उसकी चारों ओर बिखेर देतीं। वह गर्म सवालों से तपती नजरों की सलाखें अपने संवेदनशील दिलोदिमाग के आर-पार होते हुए पूरी शिद्दत से महसूस रहे थे।

यूँ तो ॠषि मल्होत्रा ऐसी चुभती निगाहों के अभ्यस्त ही थे तो देखा जाए तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए था इन सवाल-बुझे नजरों के घातक तीरों से। पर यह क्या इतना आसान रहा था अब तक? नहीं, आसान तो कभी भी नहीं था! कोई ॠषि से पूछे तो वे एक वयस्क के तन में घबराए एक शिशु का मन खोल कर रख दें? पर कोई पूछे भी तो क्यों? और पूछ कर होगा भी क्या? कौन उनका दर्द बाँट लेगा? उन्हें बाँटना भी नहीं है। उन्हें उनके हाल पर छोड़ क्यों नहीं दिया जाता?

उस दिन ॠषि मल्होत्रा भी उस तीस बाई बीस के कमरे में इंतजार करते बारह अन्य चुनिंदा उम्मीदवारों में से एक थे। उन्हें भी एक अदद नौकरी की तलाश थी बिल्कुल वैसे ही जैसे उस कमरे में इंतजार करते अन्य उम्मीदवारों को थी। आखिर वो भी तो शरीर के उन जरूरी अंगों के साथ ही इस धरती पर पधारे थे जैसे दुनिया के बाकी सारे इनसान पैदा होते हैं। बाकी इनसानों की तरह उन्हें भी इन जरूरी अंगों की जरूरी जरूरतें पूरी करनी थी और इसीलिए उन्हें भी औरों की तरह एक अदद अच्छी नौकरी की तलाश थी। यही तलाश उन्हें इस मशहूर कंपनी के वेंटिंग रूम में खींच ले आई थी। उसके आगे का बंद दरवाजा उनकी किस्मत की चाभी छुपाए अकड़ कर बंद था।

ॠषि ने सामने बैठे उम्मीदवार की एक्सरे सी भेदती नजरों से खुद को सहज करने की कोशिश में कुर्सी पर बेचैनी से पहलू बदला और अपने सर्टीफिकेटस के फोल्डर पर अपनी साफ, शफ्फाक, सफेद अँगुलियों की पकड़ मजबूत कर दी। फोल्डर का मजबूत स्पर्श कमरे के जानलेवा माहौल से इतर उनके मन में एक गहरे आत्मविश्वास की लहर पैदा कर गया। आखिर यही तो है जो उन्हें इस वातानुकूलित, चमचम करते एक नामी कंपनी के दफ्तर में खींच लाया था और साथ ही एक गहरे विश्वास का भाव भी भर लाया था कि योग्यता की कसौटी पर वह बेशक इस पद के लिए एक उपयुक्त उम्मीदवार थे।

ये ख्याल जैसे ही मन में कौंधा, उन्हें कुछ याद आया और वे मुसकरा दिए। आत्मविश्वास से भरी एक मोहक मुसकान।

जब वह बच्चे थे और अपनी भोली आँखों और मासूम समझ की अँगुलियों से दुनिया का चेहरा टटोल रहे थे, गढ़ रहे थे, तब लोगों की जलती निगाहों, बेसिर-पैर के सवालों और संबोधनों से लहूलुहान घर के कोने में आकर छुप जाते थे। गहरे अँधेरे में सहमे हुए दुनिया के कठोर चेहरे के भीषण गड्ढों और दाग-धब्बों को महसूस कर काँप-काँप जाते। ऐसे में उनकी माँ उनके घावों पर मलहम रखतीं और जादुई आईने से दुनिया का कोई और ही रूप दिखातीं। ऐसी स्थिति में वो घबराए हुए ऋषि से अक्सर कहतीं,

‘जब कुछ न सूझे और सारा संसार अजनबी लगे तो मुसकराओ। ये तुम्हें खुशी, अपनेपन और एक नई खूबसूरती से सराबोर कर देगा। तब तुम्हें कोई भी कैस्पर, बेरंगा, सफेदा नहीं कह पाएगा। आत्मविश्वास से भीगी तुम्हारी मुसकराहट की चमक हर किसी को चकाचौंध कर चुप कर देगी।’

वह मूलमंत्र उन्होंने गाँठ बाँध कर मन के कोने में छुपा रखा था और अवसर मिलते ही अपनी यह दौलत खोलकर बिखेर देते थे।

माँ भी तो मुसकरा ही देतीं थीं जब उनके तीनों बच्चों में सबसे छोटे ॠषि पर नजर पड़ते ही कुछ लोग बड़ी निर्ममता से पूछ ही बैठते,

‘अरे! ये कैसा है? ये आप ही का बेटा है? इसे कोई बीमारी है? एकदम सफेद, बेचारा! इसकी आँखें कैसी लाल-गुलाबी हैं! ओहह्… कैसा अजीब है ये?’

वे भूल जाते कि उनका एक-एक सवाल पास ही खड़े ॠषि के कोमल मन को धारदार चाकुओं सा गोद देता था।

पर तब माँ की आत्मविश्वास से भीगी स्नेहिल आवाज उनके हर घाव पल में भर देती। वे कहतीं – ‘हाँ जी! हमारा ही बच्चा है। ऐसा ही है। कुदरत ने इसे ऐसा ही रचा है पर हम सब का भी रंग क्या एक जैसा है? हम भी तो एक-दूसरे से अलग ही हैं। हाँ, ॠषि थोड़ा अधिक सफेद दिखता है, बस्स…। ये इतनी बड़ी बात नहीं!’ लोगों को क्या समझ में आता था, यह तो पता नहीं पर वे यह कहकर मुसकरा देतीं और माहौल पल में बदल जाता।

दरअसल ये इतनी छोटी बात भी नहीं थी। जब ॠषि पैदा हुए तो एलबिनिजम नाम के लाइलाज आनुवांशिक दोष से पीड़ित थे। ‘एलबिनिजम’ जिसका मतलब भी ठीक से न उनका परिवार जानता था, न ही आस-पास के परिचित। इस तरह उनके जन्म के साथ कई सवाल भी जन्मे जो उनके साथ-साथ ही पलते-बढ़ते रहे। एलबिनिजम की वजह से उनका रंग झक सफेद था, सफेद के अलावा पूरे तन पर कोई और रंग ही नहीं था। सिर्फ त्वचा ही नहीं, बालों और आँखों की कार्निया भी रंगहीन। मैलेनिन का वो जादू उनके वजूद से नदारद था जो दुनिया को काले, साँवले, गेहुँए, पीले न जाने कितने रंगों में रँग देता है।

वही मैलेनिन, जो थोड़ा कम या ज्यादा हो तो आधी से अधिक आबादी पल में दुत्कार दी जाती है और बची-खुची गोरे होने के गुरूर में दुनिया पर धौंस जमाती फिरती है। यहाँ उसी की अनुपस्थिति ॠषि के लिए अभिशाप से कम नहीं थी। ये रंगहीनता सिर्फ लोगों की जलती निगाहों से ही नहीं, बल्कि सूरज के ताप से भी उन्हें झुलसा कर रख देती, तिस पर इसके असर से कमजोर आँखें ॠषि की जीने की राह और दुश्वार बनाए हुए थीं।

पर गनीमत ये थी कि रंगों के इस खेल का योग्यता से कोई सरोकार नहीं था जो कि सदा ही इस दुनिया का एक दबा-कुचला पर मजबूत सच है। इसलिए बुद्धिमान और योग्य ॠषि के लिए सफलता के दरवाजे खुले हुए थे। माँ-पिता और बड़े भाई-बहन का उन पर पूरा भरोसा, प्यार भरी देखभाल और निर्बाध सहयोग का नतीजा ये निकला कि वे एक के बाद एक सफलता के सोपान धड़ाधड़ चढ़ते गए।

एक मशहूर कॉलेज से इंजीनियरिंग और फिर एम.बी.ए. कर ॠषि नौकरी के लिए यहाँ अपना पहला इंटरव्यू देने के लिए इंटरव्यू बोर्ड के कमरे के बाहर उस दिन बेचैन बैठे हुए थे। पेट में रह-रहकर धुकधुकी उठती और अनजानी घबराहट से वे पसीना-पसीना हो जाते। उस पर लोगों की चुभती-छीलती नजरें कि तुम्हें ये नौकरी कैसे मिलेगी? अरे! कितने अजीब हो तुम?

पर ॠषि भी अब तक खुद को सहज बना चुके थे। उन्होंने रूमाल से माथे और चेहरे पर छलकता पसीना पोंछा और सुकून से तर एक गुनगुनी मुसकराहट बिखेर दी। कौतुक और उत्सुकता से भरी कई जोड़ी चुभती आँखों का अजनबीपन जैसे एकदम ही न जाने कहाँ गायब हो गया।

कुछ देर में उनकी बारी आई और वे इंटरव्यू बोर्ड के सामने थे। पेट में बेचैनी से फड़फड़ाती तितलियाँ बेकाबू हो रही थीं। इंटरव्यू बोर्ड की भी वही उत्सुक और सवाल पूछती नजरों से वे फिर थोड़े असहज हो चले थे पर उनके सर्टीफिकेटस पर नजर फेरती उन पाँच जोड़ी आँखों में रह-रहकर कौंधते प्रशंसा के अबोले बोलों ने ॠषि की सारी घबराहट सोख ली। साफ था कि वे भी उनकी उपलब्धियों के जादू में डूब गए थे।

‘हूँ… वेरी ब्रिलिंएट मिस्टर ॠषि, यू आर ऐन एचीवर!’

बोर्ड के चेयरमैन ने राहत भरी टिप्पणी की तो ॠषि की जान में जान आई। उन्होंने कनखियों से देखा, बाकी सदस्यों के चेहरे पर सहमति के भाव थे।

प्रश्नों के दौर चल पड़े जिनके उत्तर पूरे आत्मविश्वास से वे देते गए, बिना रुके, लगातार…।

कोई सवाल जिसका जवाब ॠषि न जानते हों? हाँ, एक सवाल! वही एक गूढ़ सवाल अब भी शेष था, जिसका जवाब ॠषि जानकर भी नहीं जान पाए थे अब तक… और फिर वही सवाल जो बचपन से उनका किसी न किसी रूप में पीछा करता रहा था, आज फिर अड़ ही गया।

‘ॠषि! इस जॉब में आपको पब्लिक डीलिंग करनी पड़ेगी…’ मुख्य सदस्य ये कहते हुए थोड़ा ठिठके जैसे उपयुक्त शब्द के लिए भटक रहे हों… फिर थोड़ा झिझकते हुए बोले,

‘आप थोड़े अलग हैं… तो शायद… इस पद से जुड़े दायित्व… निभा न पाएँ।’

ॠषि के तन पर ही नहीं, मन पर भी सफेद बेजान बादल तैर गए।

‘सर हम सब ही तो किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से अलग ही हैं… ये अलगाव जब और किसी के लिए बाधक नहीं तो फिर एक एलबीनो होने से हमारे लिए बाधक कैसे है, सर?’

ॠषि ने साहस जुटाकर विनम्रता से कहा।

बोर्ड के सदस्यों में उनके सामने ही दबी जुबान में कुछ विचार-विमर्श चलने लगा और ॠषि की हथेलियाँ फिर पसीने से भीगने लगीं। जाहिर है, यह नौकरी हाथ से फिसल रही थी। पर फिर उन्हें कुछ याद आया और वह मुसकरा दिए, एक आत्मविश्वास से भरी मुसकान। बोर्ड मेंबर्स में दाएँ कोने में अब तक चुपचाप बैठे मिस्टर वर्मा ने तब पहली बार बड़े प्यार से कुछ कहा,

‘यू हैव ए वेरी ब्यूटीफुल स्माइल, ॠषि! प्लीज कीप इट अप, सन!’ ॠषि को उनकी आँखों में एक अजब अपनापन महसूस हुआ और पल भर में उनका मन हल्का हो गया।

ॠषि ने इस नौकरी की उम्मीद छोड़कर नए सिरे से कई आवेदन भर डाले और उनकी तैयारी में लग गए।

वह इस इंटरव्यू को लगभग भूल ही चुके थे कि एक दिन मिस्टर वर्मा का एक ईमेल आया। ॠषि हैरान थे उनका ईमेल देखकर, बेचैन मन से मेल खोला और एक साँस में ही पढ़ गए।

उस अबोले अपनेपन के धागे अब खुलकर बिखर चुके थे और ॠषि गहरे अवसाद में डूब-उतरा रहे थे।

ईमेल में मिस्टर वर्मा ने अपने मन के बंद किवाड़ ॠषि के लिए खोल दिए थे। उनका इकलौता जहीन एलबीनो बेटा कुछ साल पहले एक एन.जी.ओ. की ओर से तंजानिया में अपने जैसे लोगों की सहायता के लिए गया था पर वापस नहीं आया था। एलबीनो लोगों के प्रति अंधविश्वास और घृणा के चलते हुए एक हिंसक हमले में कुछ लोकल एलबीनो को बचाते हुए वह अपनी जान गँवा बैठा था। उन्होंने बहुत भावुक कर देने वाले शब्दों में लिखा था कि उस दिन इंटरव्यू के दौरान ॠषि में उन्हें अपना खोया बेटा और उसके अधूरे सपने दिखे रहे थे।

ॠषि मेल पढ़कर सन्नाटे में थे। दुख, बेचैनी, कृतज्ञता, उम्मीद जैसे कई मिले-जुले भाव उनके जेहन में तैर रहे थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि वह मिस्टर वर्मा से क्या कहें। उनकी आँखों की नींद उड़ चुकी थी। उस पूरी रात वह बेचैनी से करवटें बदलते रहे।

अगले दिन ॠषि को हैरान करता हुआ उसी कंपनी का ईमेल मिला। धड़कते दिल से मेल पढ़ते ही ॠषि की आँखों में किसी का अधूरा सपना पूरी शिद्दत से कौंध गया और होठों पर एक संतोष भरी मुसकान बिखर गई। ये शायद महज इत्तेफाक ही था कि उस दिन 13 जून थी ‘वर्ल्ड एलबिनिजम डे’।

रूई से हल्का मन लिए छलकती मुसकान के साथ वह अपने फ्लैट की बालकनी पर चले आए। सामने पार्क में फुटबॉल खेलते बच्चों का शोर माहौल में तारी था। सहसा उनकी नजर सामने खड़े अपने अतीत पर ठिठक गई, घबराया, सहमा। कल भी यहीं खड़ा था पार्क के कोने में, लगता है यहाँ नया आया है। उन्हीं की तरह दुनिया के लिए एक और कैस्पर। ॠषि की आँखों में कुछ गीला-गीला तैर गया और वह पल भर में पार्क में थे।

‘खेलना है?’

इस सवाल और उससे ज्यादा सवाल पूछने वाले को देखकर वह सात-आठ साल का एलबीनो बच्चा बेतरह चौंक गया। पर सँभल कर बोला।

‘मुझे कौन खेलने देगा?’

‘क्यों, तुम्हें क्यों नहीं?’

‘आपको कोई खेलने देता था?’ बच्चे ने सहज ही मर्म पर निशाना साधा।

पर ॠषि बिंधे नहीं।

‘अगर नहीं तो भी मैं हार नहीं मानता था।’

यह कहते हुए उन्होंने अपना हाथ बच्चे की ओर बढ़ा दिया। बच्चे ने उन्हें हैरानी से ताका, फिर न जाने क्या सोचकर उनका बढ़ा हाथ कुछ झिझक के साथ मजबूती से थाम लिया। तब दो अद्भुत उजले वजूद पार्क में खेलते बच्चों की ओर बढ़ चले। दूर कहीं से छन-छन कर एक गीत की आवाज आ रही थी, ‘ओ रे रंगरेज…’

ॠषि के होठों पर अर्थपूर्ण मुसकान बिखर गई और वे भी गुनगुनाने लगे किसी और ही अर्थ में, ‘ओ रे रंगरेज…!’

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