निरंतर | प्रतिभा चौहान
निरंतर | प्रतिभा चौहान

निरंतर | प्रतिभा चौहान

निरंतर | प्रतिभा चौहान

भरी दोपहरी में 
भूखे पेट का पहला निवाला है – 
तुम्हारा जोश –

ताकत भरता हुआ 
अदम्य साहस भरा 
धागे पर चलता नट का खेल है 
समु्द्र की नीली गहराई में सिकुड़न भरा ठंडा लेप है 
धूल की ढेरी में 
दुबका पड़ा अनाज का बीज है

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अब वक्त है 
तुम्हारे समुद्र से खामोश सीपियों को चुराने का 
हे आकाश ! चुप ना रहो 
हे धरती ! मत सहो 
हजार हजार अपराधों का बोझ

हे नदी ! 
मत बहो सीमाओं में 
तोड़ दो सारी चुप्पियाँ 
वक्त के खिलाफ, 
दो सजा इतिहास के अपराधियों को 
निरंतर, आजीवन 
जव तक धरा का बोझ हल्का न हो जाए 
जब तक हमारी बगिया के फूलों का रंग श्वेत ना हो जाए।

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