..आधी रात को अचानक एक तेज चीख गली के बाहर दौड़ी गई…।

‘मिल गई आजादी…’

मैं हैरान, स्तब्ध अपने आप को सँभालती हुई बिस्तर से उठ खड़ी हुई।

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ और मैं दरवाजे तक दौड़ आई।

”मिल गई आजादी…, हाँ, हाँ मिल गई आजादी…।”

आवाजों का जुलूस चीखता हुआ गली पार कर गया। शोर में ही कहीं इन्कलाब के कराहने की आवाज गुम हो गई।

मेरे चेहरे पर खुशी के गुलाब उभर आए। गुलाबों से सराबोर मैं सीधी आईने के सामने जा खड़ी हुई। दरवाजे मैंने यूँ ही खुले छोड़ दिए। उनके आने का इंतजार था… और उन्होंने कहा भी था कि ”आजादी के बाद किसी घर के दरवाजे डर से बंद नहीं होंगे।”

आईने के भीतर झाँकते हुए मैंने अपने माथे पर उभर आई पसीने की ओस पोंछी और आहिस्ता-आहिस्ता अपने उलझे बालों को सहलाने लगी।

जाने कब से यह बाल उलझे पड़े हैं।

तुम जो कहकर गए थे, ”अभी मुझे काम बहुत है, फुर्सत मिली तो तेरी जुल्फ भी सुलझा दूँगा।”

मैं भी ढीठ तब से ऐसे ही केश फैलाए बैठी हूँ। अब तो तुम्हें फुर्सत ही फुर्सत होगी। अब न चलेगा कोई बहाना। अबकी बार मैं सिर्फ उलझाऊँगी और तुम्हें तमाम लटें सुलझानी होंगी।

प्रेम विभोर इंतजार में भीगी नजरें चेहरे से फिसलते हुए धीरे-धीरे मेरे पेट तक सरक आईं। देखा कैसा हौले-हौले बढ़ने लगा है मुझमें तुम्हारा प्रेम।

ह्ह्म्म्… क्या कहा था तुमने? क्या नाम रखेंगे? स्वतंत्र भारत? इतना सा मेरा बच्चा और इतना लंबा नाम!

तुम्हारा है जो चाहे रखो। मैं कौन होती हूँ बीच में बोलने वाली। तुम्हारी मेहनत, तुम्हारे बलिदान, तुम्हारे संघर्ष, जब उसमें फलीभूत होंगे, मेरे लिए तो वही सबसे बड़ी खुशी होगी।

तुम्हारी इच्छाओं और आज्ञाओं में ही तो तलाशे हैं मैंने अब तक सारे सुख। तुम्हारी आभा ही तो हूँ मैं, तुमसे अलग होकर भला जाऊँगी कहाँ? जाऊँगी भी तो कैसे?

…तब तो मैं कुँआरी थी। जब अवध के उन बागों में छुप-छुपकर मिला करते थे हम। वो शीश महल, वो गुलाबी शामें, वो आबशार सब खिल-खिल उठते थे हमारी मुलाकातों के साथ।

***

फिर न जाने किसकी नजर लग गई।

उस रोज भी अचानक ऐसी ही चीख दौड़ी थी। चीख के पीछे-पीछे तुम खून में लथपथ, हाथ में तलवार लिए भागते हुए आए थे। तुम्हारी खूबसूरत देह के परदे को चिरते उस दिन मैंने पहली बार देखा था। भीतर तक काँप गई थी मैं और डर के मारे शीश महल की सारी खिड़कियाँ, सारे दरवाजे बंद कर लिए थे। एक गिलास पानी भी नहीं पी पाए थे तुम और ताँगा दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया था। न अपने जख्मों का दर्द सुनाया न मेरी प्रीत के मोती चुने। बस यादों का संदूक थमाया और ताँगे में बिठाकर रवाना कर दिया।

ताँगा भी कमबख्त दौड़ता ही गया।

तुम्हारे अहसासों को चूमने को व्याकुल मेरी आँखे तुम्हारी तसवीर से ज्यादा कुछ न ले पाईं। कहकर गए थे, ”जिंदगी रही तो चाँदनी चौक में मिलेंगे।”

***

पहुँच गई दिल्ली के दिल चाँदनी चौक। इतना बड़ा शीश महल छोड़कर चाँदनी चौक में किराए के मकान में दिन गुजारने पड़े। बस इस इंतजार में कि तुम आओगे और मुझे ब्याहोगे। घर में अकेली बैठी-बैठी उकताने लगी थी। सोचा कुछ करूँ। तुम होते तो तुम्हारे सहारे ही दिन कट जाते। इंतजार सिर्फ बेचैनी ही देता है, काम तो नहीं दे सकता।

यूँ ही उकताई दोपहरों में एक दिन धूप में बैठी तुम्हारा दिया यादों वाला संदूक खोला। खोलते ही शीश महल के वो काँच के टुकड़े जगमगाने लगे। हर टुकड़े पर धूप की चंचल किरणें अठखेलियाँ कर रहीं थीं।, उन आबशारों की बची हुई बूँदें गुलाबी कपड़े की तह में बंद मिली। और तुम्हारी नंगी तलवार अब भी वैसे ही चमचमा रही थी जैसे अवध में चमचमाया करती थी। मिट्टी की एक छोटी सी हाँडी में गुलाबी शाम झिलमिला रही थी। मैंने नजदीक लाकर उसे सूँघा तो उसमें से बनारस के घाट की खुशबू आने लगी।

मैंने झट से हाँडी का मुँह बंद कर दिया!, कहीं बदले मौसम की गर्म लू में यह खुशबू भी न उड़ जाए। मैं हैरान थी कि बरसों की सीलन भी इनकी ताजगी नहीं मार पाई।

संदूक में सबसे नीचे रखा था शंखे का चूड़ा और सुनहरी मलमल। जो तुम एक बार ढाका से लेकर आए थे। आहिस्ता से मलमल की चुनरिया उठाई और उसका एक कोना पकड़ कर सर्र… से अँगूठी के छल्ले में से पूरी चुनरिया निकाल दी…।

तुम्हारी याद फिर ताजा हो आई।

बहुत मन किया कि शंखे का चूड़ा पहनूँ, मलमल की चुनरियाँ ओढ़ूँ और पूरी माँग सिंदूर से सजा लूँ…

धूप की तपिश में सारी इच्छाएँ बल खा गईं।

और उसी रोज शाम ढलने के बाद तुम्हारा संदेशा आया। आस की फिर एक किरण मेरे आँगन में बिखर गई। तुमने कहलवाया था,

”तैयार रहना मिलने का वक्त आ गया है।”

मेरे भगवान ने मेरी सुन ली। सारे आँगन में महावर पोती, देहरी पर रँगोली बनाई और मुंडेर पर दीपावली सजाई। सुनहरी मलमल ओढ़ी। फिर हाथों में मेहँदी लगाई ही थी कि तुम आ गए।

…कैसी शादी थी वो!

बिना पंडित के इतने सारे बाराती। मेरे घर में तो उन्हें ठहराने का इंतजाम भी नहीं था। अवध वाली हवेली में लाते इतने बाराती, तो मैं भी दिखाती अपनी शान। एक-एक को स्वर्ण मुद्राओं में तुलवा देती।

तुमने कहा संघर्ष का दौर है और मैं मान गई। सत्तू, चना खिलाकर बारातियों की आवभगत की। फिर तुम्हीं ने मेरे हाथों में शंखे का चूड़ा पहनाया और पूरी माँग सिंदूर से लाल कर दी। तुम्हारे मिलन और सुहाग के बोझ से लदी मैं हौले-हौले तुम्हारे पीछे हो ली। कभी मेरठ, कभी गुजरात, कभी बंगाल और कभी मराठवाड़ा कितने लंबे-लंबे फेरे दिलवाए तुमने मुझे। हर फेरे पर सौ-सौ आहुतियाँ, सौ-सौ वचन और सौ-सौ बलिदान। क्या ऐसे करता है कोई प्रीत?

कहते हो तुम्हीं हो मेरी सबकुछ। देखो न, मेरी सुनहरी मलमल भी तार-तार होने लगी।

फिर तुम्हारे अग्रजों ने कह दिया खादी पहन लो। अभी तो मैं नई-नवेली थी। नववधु कोई सफेद, खुरदरे वस्त्र पहनती है? और जब मैंने शादी की सौगात माँगी तो उठा लाए चरखा।

”खूब कातना सूत

खुद भी पहनना

मेरे लिए भी बुनना

गरीब भाइयों को रोटी मिलेगी।”

तुम्हारे भाइयों का ख्याल भला मैं कैसे न रखती? पिया मिलन की खुशी थी और तुम्हारी सौगात का सम्मान। इसलिए मैंने खूब सूत काता। इतना काता, इतना बुना कि सारी मिलें बंद हो गईं। और उस दिन होली वाले दिन तुम कितना नाचे थे मेरे सूत कातने के जश्न पर। विदेशी सामान की होली में मैं भी गौरान्वित सी चमकने लगी थी। सचमुच वही तो थी हमारे मिलन की रात। मन की सारी गाँठें खुल गईं थीं। इंतजार का सारा दुख मैंने तुम्हारी गोद में डाल दिया। और तुम उन्हें पीछे दरिया में बहा आए थे।

अपने प्रेम के अंकुर पर तुम भी फूले नहीं समा रहे थे, कहा था ”आजादी मिली, तो इसका नाम स्वतंत्र भारत रखेंगे। तब तक तुम आराम करो। मैं अकेले ही निपट लूँगा। तुम बस मेरे सपने को अपने गर्भ में पालो। अच्छे संस्कारों को बचाकर रखो। मैं जल्दी ही लौटूँगा।”

***

…तभी से मैं तुम्हारे सपने को पाल रही हूँ। इस इंतजार में कि एक दिन यह भी जन्म लेगा और तुम भी आओगे।

आधी रात का वह शोर कह रहा था कि आजादी मिल गई है, अब तो तुम आओगे न?

हाँ, हाँ क्यों नहीं आओगे।

सुबह उठते ही देखा लालकिले पर वंदे मातरम लहरा रहा था। प्रांगण में इकट्ठा हुई भीड़ में ढूँढ़ती रही, पर इन्कलाब कहीं नहीं मिला। कल रात को तो मेरी खिड़की के पास ही था। अब क्यों नहीं नजर आ रहा? वो क्यों नहीं है आजादी के जश्न में शामिल? आजादी की खुशी में मैंने भी हाथ उठाकर पूरे जोश से दो बार कहा,

”वंदे मातरम, वंदे मातरम।”

शाम होते-होते घर लौट आई। जश्न की खुशी ने खूब थकाया था आज। बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ गई।

किसी की कराहटों ने नींद के ताले तोड़े तो मैं हक्की-बक्की से रह गई। कोई खिड़की के पीछे करहा रहा था…।

”इ..न्क..ला..ब.. जिंदा..बाद.., इ..न्क..ला..ब.. जिंदा..बाद..”

”अरे तुम? यहाँ क्या कर रहे हो?

अब क्यों इन्कलाब, इन्कलाब की रट लगाए हो? मिल तो गई आजादी।

और सुबह लालकिले पर क्यों नहीं आए? देखा कैसा शानदार मना था आजादी का जश्न। कहाँ थे तुम सुबह से?”

”कैसी आजादी, कैसा जश्न, अभी वक्त मुनासिब नहीं है, ये लो सँभालो…”, मेरे हाथ में कागज का टुकड़ा पकड़ाकर वो भाग गया।

सोचने लगी कि क्या इन्कलाब को हमेशा नेपथ्य में ही रहना होगा।

‘इन्कलाब भी नेपथ्य में,

तुम भी नेपथ्य में

और मैं…?

मैं भी नेपथ्य में!”

कागज का टुकड़ा तुम्हारा खत था।

लिखा था, ”ये आजादी नहीं, बेसब्रे हैं ये लोग। जश्न मना बैठे, अधूरी आमद का। मुज्जफराबाद में मिलना। अभी वहाँ बहुत काम है।”

पर तुम तो मुझे आराम करने को कहकर गए थे। कभी कहीं बुलाते हो, कभी कहीं आ जाते हो। इस भागदौड़ में कैसे पालूँगी मैं तुम्हारा सपना। देखो न वक्त भी पूरा होने को है।

***

बड़ी मुश्किल से सफर तय किया और तुम्हारे बताए ठिकाने पर पहुँच गई।

…ये भी कोई ठिकाना है। न ढंग का कमरा, न सिर छुपाने को छत। रैनबसेरा भी इससे अच्छा होता है।

यादों का संदूक फिर एक कोने में रख दिया और रहने लायक थोड़ा सा माहौल बनाया।

उकताई दोपहरों ने, बलखाई शामों ने फिर सोच की खाइयों में धकेल दिया। अब तो अपने आप से ही ऊब होने लगी है।

यहाँ की हवा भी कभी-कभी बहुत सर्द हो जाती है। मेरी देखभाल करने वाला भी तो कोई नहीं है यहाँ पर। मैं भी तुम्हारी, तुम्हारा सपना भी तुम्हारा और इंतजार, वो तो है ही तुम्हारा।

आए दिन तुम कोई न कोई खबर भेज देते हो। एक भी अच्छी नहीं लगती। कभी 62, कभी 65। कभी 71 और कभी…।

और अब तो रोज कोई न कोई बुरी खबर आ रही है। एक जैसे लोगों के कितने नाम हैं। एक हैरान है, दूसरा परेशान। मरे जा रहे हैं लड़-लड़कर। मन करता है मस्तिष्क उखाड़ फेंकूँ सबके, फिर पहचाने कौन सा धड़ है किसका।

ये बस्ती भी तो अच्छी नहीं है। जिनका सामान यहाँ है, वो लोग यहाँ नहीं है और जो लोग यहाँ हैं, उनका सामान यहाँ नहीं है। कहते हो जन्नत है ये। मुझे नहीं रहना ऐसी किसी जन्नत में। खुद वहाँ हो और मुझे अकेले यहाँ छोड़ दिया। थक गई हूँ मैं तुम्हारा इंतजार करते-करते।

और ये स्वतंत्र भारत, तुम्हारा सपना। जन्म ही नहीं ले रहा। आकार बढ़ता जा रहा है। जानता नहीं है आकार ज्यादा बढ़ा हो गया तो प्रसव में मुश्किल होगी। नन्हा सा-कोमल सा था, जब तुमने मुझे थमाया था। अब तो बोझ बनने लगा है। अब तो आ जाओ, पीड़ा से मेरा गर्भ कराहने लगा है। मेरी शक्ल भी बदल गई है और तुम्हारी आस्था के केंद्र भी। पता नहीं पहचान भी पाओगे मुझे या नहीं।

बस अब और बर्दाश्त नहीं होता। कहीं और बुलाओगे तो अब न उठा पाऊँगी तुम्हारी यादों का संदूक। कोई सहारा देने वाला भी तो नहीं है। पीड़ा से मेरा गर्भाशय फटने लगा है… ये सपना जन्म ही नहीं ले रहा… मेरी मुश्किलें बढ़ने लगी हैं… गला सूखने लगा है… बस अब आ जाओ… अब तो आ जाओ… और इंतजार नहीं होता। नहीं होता। नहीं होता।

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