नींद के बाहर | धीरेंद्र अस्थाना
नींद के बाहर | धीरेंद्र अस्थाना

नींद के बाहर | धीरेंद्र अस्थाना – Neend Ke Baahar

नींद के बाहर | धीरेंद्र अस्थाना

छह दिसंबर के आठ साल बाद, छह दिसंबर को ही, धनराज चौधरी की बाबरी मस्जिद भी ढह गई, लेकिन इस बार न कहीं दंगा हुआ न ही बम-विस्फोट। सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर धनराज चौधरी, जो लकदक दोस्तों की चकमक दुनिया में धनराज के नाम से मशहूर था, ने जेब से रूमाल निकाल कर अपना चश्मा साफ किया, वापस आँखों पर चढ़ाया और खड़ा हो गया। ऑफिस से मिली हुई कार की चाबी और मोबाइल उसने पर्सोनेल डायरेक्टर को पकड़ाए और जाने के लिए मुड़ा।

‘जस्ट ए मिनट।’ पर्सोनेल डायरेक्टर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और फीकी मुस्कान के साथ बोला, ‘आल द बेस्ट। यू नो वी ऑल आर इन द सेम बोट। जाना सभी को है। किसी को पहले, किसी को बाद में। मार्केट में सम्राट समूह का खाता बंद हो रहा है।’

‘जी!’ धनराज ने अस्फुट स्वरों में कहा और पर्सोनेल डायरेक्टर के केबिन से बाहर आ गया।

यह तो बहुत भीषण चूतियापा हो गया गुरु। धनराज ने सोचा, अभी तो रिटायर होने में पूरे पंद्रह बरस बाकी हैं। वह सुस्त कदमों के साथ अपने केबिन में घुसा तो वहाँ सहायक कैशियर उसके इंतजार में था।

‘सर, यह रहा आपके वीआरएस का चेक।’ सहायक कैशियर ने धनराज को उसका हिसाब समझाया, ‘दस वर्ष की नौकरी का कंपनसेशन बीस महीने की सैलरी चार लाख रुपए। पाँच महीने की ग्रेच्युटी एक लाख रुपए। इनकम टैक्स एक लाख रुपए। यह रहा आपका चेक चार लाख रुपए। ओ.के. सर?’

‘कितने लोग इस स्कीम के तहत निकाले गए हैं मिस्टर सिन्हा?’ धनराज ने पूछा।

‘फिलहाल चालीस।’ सहायक कैशियर ने बताया, ‘लेकिन मार्च तक साठ और जाएँगे।’

‘ओ. के., आल द बेस्ट।’ धनराज हँसा। लेकिन सिन्हा के जाते ही उसे लगा उसके भीतर कहीं जोरदार दंगा हो गया है।

चेक को लिफाफे में रख उसने ब्रीफकेस में डाला, दराजों से अपना छोटा-मोटा निजी सामान उठाया। ब्रीफकेस बंद कर बड़ी हसरत से अपने केबिन का मुआयना किया और बुझे मन से बाहर आ गया।

ये ग्लोबलाइजेशन के उत्थान पर पहुँच रहे दिन थे। कंप्यूटर क्रांति घर कर चुकी थी। पूरी दुनिया एक गाँव में बदल रही थी। गली-गली में साइबर कैफे खुल गए थे। जवान लड़के-लड़कियाँ नेट सर्फिंग के जरिए अपने जीवन−साथी तलाश रहे थे। सौंदर्य प्रतियोगिताएँ बाजार तय कर रहा था। विश्व सुंदरी का ताज हर वर्ष भारतीय लड़की के माथे पर दमकने पर मजबूर था, क्योंकि पूरी दुनिया की निगाहें अब भारतीय बाजार पर थीं। लगभग हर कंपनी में वीआरएस लागू कर कर्मचारियों को घर बिठाया जा रहा था। तमाम सरकारी उपक्रम निजी हाथों में जा रहे थे या जानेवाले थे। कोकाकोला और पेप्सी में जंग जारी थी। अपने जमाने के सुपरस्टार ने पूरे देश को विशाल जुआघर में बदल डाला था और तमाम टीवी चैनलों के दर्शक छीन लिए थे। वह देश के आम लोगों को करोड़पति बनाने पर तुला था और उस गेम शो से प्राप्त पारिश्रमिक से अपने सिर पर चढ़ा करोड़ों का कर्जा उतार रहा था। रितिक रोशन का खुशनुमा जमाना था।

इन्हीं खुशनुमा दिनों में धनराज चौधरी पूरे पैंतालीस बरस की उम्र में सड़क पर आ गया था और टैक्सी के इंतजार में था।

बाहर सब कुछ पूर्ववत था। लोग-बाग सड़क पार कर रहे थे। डोसा-इडली, बड़ा-पाव खा रहे थे। बसें पकड़ रहे थे और घर जा रहे थे। नरीमन पॉइंट के समुद्र में रात चमक रही थी। ओबेराय होटल के टैरेस पर मखमली अँधेरा उतर रहा था। नरीमन पॉइंट की बिल्डिंगें सिर ताने खड़ी थीं। उसी नरीमन पॉइंट की अटलांटा बिल्डिंग के भीतर कुछ ही देर पहले धनराज की दुनिया ढहा दी गई थी और सब चुप थे – निर्वाक।

चमकती हुई रात के उस नाचते हुए अँधेरे में धनराज की रीढ़ की हड्डी में एक तेज सिहरन-सी उठी। उसने टैक्सी की खिड़की का शीशा आधा गिरा दिया। समुद्री हवा का एक ठंडा टुकड़ा टैक्सी के भीतर आ कर सिर उठाने लगा। धनराज मलेरिया जैसी कँपकँपी अपने बदन पर रेंगती अनुभव हुई। यह कैसी कँपकँपी है, धनराज ने सोचा और ठंडी हवाओं को भीतर आने दिया। बाहर कई लड़कियाँ कम वस्त्रों में जॉगिंग कर रही थीं।

माना कि वह दिसंबर की रात थी लेकिन वह मुंबई का दिसंबर था, जो दिल्ली की तरह कटखना नहीं होता। टैक्सी के बाहर मायावी और दिलकश मरीन ड्राइव पर वैभव की एक चमकदार धूल धारासार बरस रही थी। धनराज ने टैक्सी को ”लोटस” की तरफ मुड़वा दिया।

”लोटस” में हमेशा की तरह शहर की सबसे सुंदर, सबसे जवान और सबसे उत्तेजक लड़कियाँ नाच रही थीं, अंडरवर्ल्ड के सबसे बड़े डॉन के सबसे खतरनाक गुंडे उन लड़कियों की हिफाजत में चाकुओं की तरह तने थे। अपनी पसंदीदा मेज पर बैठते ही धनराज को याद आया कि अब वह सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर नहीं है और किसी बड़े अखबार के बड़े पत्रकार को कंपनी के हित में पटाने यहाँ नहीं आया है। अपनी पसंदीदा मेज और पसंदीदा लड़की को छूटी हुई जगह की तरह ताकते हुए वह ”लोटस” से बाहर आ गया। एक समय था, जब महीने की बीस रातें धनराज ”लोटस” में ही बिताता था – नींद के बावजूद।

लेकिन आज धनराज अकेला था और नींद के बाहर था। पूरे दस वर्ष से धनराज नींद के एक तिलिस्मी बाजार में बैठा जाग रहा था। नींद के भीतर इस तिलिस्मी दुनिया में बड़े लोग, बड़े व्यापार, बड़ी पार्टियाँ, बड़ी सुंदरता और बड़ी मारकाट थी। इस दुनिया में बड़ी सफलता के साथ धनराज ने अपना होना सिद्ध किया हुआ था। इसीलिए वह समझ नहीं पा रहा था कि नींद के बाहर की जिस लगभग अजनबी हो चुकी दुनिया में उसे अचानक उठा कर फेंक दिया गया है, वहाँ वह खुद को कैसे साबित करेगा?

”लोटस” के बाहर बारिश हो रही थी, बेमौसम बरसात? धनराज ने सोचा और सिहर गया। उसने उस बारिश में विपत्तियों को बरसते देख लिया था।

पैडर रोड की वाइन शॉप के किनारे टैक्सी रुकवा कर धनराज ने ड्राइवर को सौ का नोट पकड़ाते हुए कहा, ‘एक ओल्ड मौंक का क्वार्टर और बिसलरी की बॉटल पकड़ लो तो।’ ड्राइवर ने बड़े अचरज के साथ धनराज को ताका तो धनराज के मुँह से ‘सॉरी’ निकल गया। असल में वह फिर भूल गया था कि वह कंपनी की गाड़ी में, कंपनी के ड्राइवर के साथ नहीं, टैक्सी में बैठा है। खुद बाहर जा कर उसने अपना सामान लिया और वापस टैक्सी में आ बैठा। बिसलरी का थोड़ा पानी पी कर उसने रम का क्वार्टर बचे हुए पानी में मिला दिया और एक चुस्की ले कर सिगरेट जला ली।

सिद्धि विनायक मंदिर जा रहा था। धनराज ने गर्दन झुका दी। उसने तो गर्दन झुकाए-झुकाए ही काम किया था, तो फिर वीआरएस की गाज उसके सिर पर क्यों गिरी? बहुत मेहनत की थी धनराज ने सम्राट समूह में। सुबह आठ बजे तैयार हो कर वह अपनी कार में बैठ जाता था और पौने दस तक दफ्तर ‘टच’ कर लेता था। शाम सात बजे तक दफ्तर में रहने के बाद वह जन संपर्क अभियान पर निकलता था। रात दस-साढ़े दस पर घर के लिए रवाना हो कर बारह-सवा बारह तक घर पहुँचता था। घर पर जाते ही वह खाना खाता था और सो जाता था। सुबह छह बजे उठ कर फिर तैयार होने लगता था। घर, बाजार, कॉलोनी, बच्चा सब कुछ उसकी पत्नी सरिता ने सँभाला हुआ था।

तो फिर? धनराज ने सोचा और एक लंबा घूँट भरा, अब इसका वह क्या कर सकता था कि सम्राट समूह का एक महत्वाकांक्षी प्रोडक्ट ‘सम्राट नमक’ बाजार में पिट गया। बाजार देखना तो मार्केटिंग का काम है। वह जो कर सकता था, उसने किया। पत्रकारों के एक दल को ले कर वह नमक का प्लांट दिखाने पालघर ले गया था। कई अखबारों ने उस नमक की तारीफ में लेख भी छापे थे। एक अखबार के पत्रकार को तो उसने पालघर के एक होटल में कॉल गर्ल भी मुहैया करवाई थी।

‘रीजेंसी’ जा रहा था। इस होटल से वह सरिता के लिए पहाड़ी कबाब और बेटे के लिए ड्राई चिली पनीर पार्सल कराता था। जाने दो। धनराज ने सोचा और ‘रीजेंसी’ को टैक्सी के भीतर से ही हाथ हिला दिया।

मीरा-भायंदर रोड की एक सुनसान जगह पर टैक्सी रुकवा कर उसने पेशाब किया और खाली बोतलें झाड़ियों में फेंक दीं। दस मिनट के बाद टैक्सी उसके घर के नीचे थी। टैक्सीवाले को चार सौ रुपए दे कर उसने सिगरेट सुलगा ली और घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। उसका फ्लैट पहले माले पर था। गेट के बाहर उसकी नेम प्लेट चमक रही थी। धनराज ने घंटी बजा दी, अपने विशेष अंदाज में। रात के दस बज रहे थे।

‘इतनी जल्दी,’ सरिता ने दरवाजा खोलते ही पूछा।

धनराज ने ब्रीफकेस मेज पर रखा और सोफे पर बैठ कर सिगरेट एश ट्रे में मसल दी।

फिर उसने चश्मा उतारा और तिपाई पर रख दिया। फिर वह घड़ी उतारने लगा।

‘अरे? आज ड्राइवर ऊपर तक नहीं आया?’ सरिता चौंक गई, ‘और मोबाइल किधर है, खो दिया क्या?’

धनराज दो-तीन मोबाइल खो चुका था और उसका ड्राइवर ब्रीफकेस उठा कर कमरे के भीतर तक आता था। एक गिलास पानी पी कर वह सुबह आने का समय पूछ कर तब जाता था।

‘गाड़ी खराब है और मोबाइल दफ्तर में छूट गया।’ धनराज झूठ बोल गया, ‘रोहित कहाँ है?’ उसने बेटे की जानकारी ली।

‘रोहित इस समय तक कहाँ आता है? अभी तो ट्रेन में होगा। तुम आज जल्दी आ गए हो। सब ठीक तो है न?’ सरिता आशंकित-सी हो गई।

‘हाँ।’ धनराज संक्षिप्त हो गया, ‘कुछ सलाद वगैरह मिलेगा?’

सरिता किचन में चली गई। धनराज ने अपनी बहुत बड़ी वॉल यूनिट में बने छोटे-से बार को खोल अपने लिए रम का एक पैग बनाया और फ्रिज में से पानी निकाल कर गिलास में मिला दिया। गिलास को तिपाई पर रख कर वह मुँह-हाथ धोने चला गया। तब तक सरिता एक प्लेट में चिकन के दो टुकड़े रख गई।

धनराज ने गिलास हाथ में लिया और घूम कर पूरे घर का मुआयना-सा करने लगा।

घर में टीवी था, वीसीआर था, फ्रिज था, म्यूजिक सिस्टम था, वाशिंग मंशीन थी, एसी था, सोफा था, वॉल यूनिट थी, डबल बेड था, डाइनिंग टेबल थी, ड्रेसिंग टेबल थी, सेंटर टेबल थी, वार्डरोब था, फोन था, कंप्यूटर था, इंटरनेट कनेक्शन था, प्रिंटर था, स्कैनर था, फैक्स मशीन थी, बर्तन थे, बिस्तर थे, कपड़े थे, बीवी थी, बेटा था और बीते दिनों की यादें थीं।

और? और तुम्हें क्या चाहिए धनराज? धनराज ने सोचा और रम का बड़ा घूँट लिया।

सरिता सलाद ले कर आई तो धनराज की आँखें नम थीं। तभी घंटी बजी, रोहित था। धनराज ने ध्यान से देखा, रोहित मूँछवाला होने के पायदान पर था। सुबह वह जा रहा होता था तो रोहित सोता होता था। रात को जब लौटता था तो रोहित सो चुका होता था। उसका वीकली ऑफ संडे होता था और रोहित शनिवार रात अपने दोस्तों के साथ वीकएंड की पार्टियों में चला जाता था। रोहित इतवार की रात दस-ग्यारह बजे खाना खा कर लौटता था, तब तक धनराज सो चुका होता था। इतवार को धनराज पूरे हफ्ते की नींद चुरा लेता था।

‘पापाऽऽ’, रोहित धनराज से चिपट गया।

‘बेटाऽऽ’, धनराज ने प्रश्न किया, ‘हमारा नमक क्यों पिट गया?’

‘पिट गया?’ रोहित ने लापरवाही से कहा, फिर लापरवाही में थोड़ा-सा व्यंग्य मिला कर बोला, ‘पिटना ही था। अपना सब कुछ पिटने हीवाला है।’

अरे बाप रे! धनराज चकित रह गया। ये स्साला तो खासा बड़ा और समझदार हो गया है।

‘तेरे वेब मीडिया के क्या हाल हैं?’ धनराज ने पिताओं जैसी उत्सुकता जताने की कोशिश की।

अपने कमर्शियल आर्ट का डिप्लोमा करने के बाद रोहित वेब मीडिया नाम की कंपनी में ट्रेनी ग्राफिक डिजाइनर हो गया था।

‘उसको छोड़े तो तीन महीने हो गए पापा, आपको कुछ पता भी रहता है।’ रोहित ने तनिक गर्व से बताया, ‘इन दिनों मैं एक अमेरिकी कंपनी में प्रोबेशन पर चल रहा हूँ।’

‘अरे वाह!’ धनराज थोड़ा मुदित हुआ, ‘पैसे?’

‘मिलते हैं न। प्रोबेशन तक छह हजार, उसके बाद आठ हजार लेकिन मैं चक्कर में हूँ कि कहीं और निकल जाऊँ।’ रोहित मुस्कराया।

‘लेकिन इतनी जल्दी-जल्दी नौकरी बदलना क्यों?’ धनराज चिंतित-सा हुआ।

‘नौकरी नहीं पापा, जॉब…जॉब।’ रोहित खिलखिलाने लगा, ‘हमारी जेनरेशन एक जगह बँध कर नहीं रहती आप लोगों की तरह…जहाँ ज्यादा पगार वहीं पर काम। हम प्रोफेशनल लोग हैं। हमें आपकी तरह थोड़े ही रहना है, साल में ढाई−तीन सौ रुपए का एक इनक्रीमेंट…हमें एक साल में तीन हजार का इनक्रीमेंट चाहिए वरना तो अपने को परवड़ेगा नहीं।’ रोहित तेजी से हिंदी, मराठी, अँग्रेजी में बोल कर बेडरूम में चला गया।

बहुत दिनों या शायद महीनों या फिर सालों बाद तीनों एक साथ खाना खाने बैठे। रोहित अपनी कंपनी, अपने जॉब, अपने नाम आनेवाली ई-मेल और अपनी गर्ल फ्रेंड्स की दुनिया में मगन था। जब वह चुप होता तो सरिता कॉलोनी में गुजरती अपनी दिनचर्या की गठरी खोल देती थी। धनराज को लगा, अपनी जा चुकी नौकरी की सूचना इस समय देना परिवार की खुशियों के ऊपर बम विस्फोट करने जैसा हो जाएगा। वह चुपचाप माँ-बेटे के उल्लास के बीच भीगता रहा।

फिर हमेशा की तरह सुबह छह बजे का अलार्म लगा कर वह सोने चला गया।

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धनराज सोता ही रह जाता और चीखते हुए चारों तरफ के शोर में, अपनी नींद में ही बेआवाज मर जाता, अगर सम्राट समूह में मीडिया डायरेक्टरवाली उसकी नौकरी बनी रहती।

बहुत-बहुत बुरे दिनों की बहुत बदहाल और कमजोर सीढ़ियों पर कदम जमा-जमा कर ऊपर चढ़ा था धनराज। उम्र के पैंतीस वर्ष उसने हालात से पिटते और सपना देखते हुए काटे थे। मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की, देहरादून और फिर एकदम जोधपुर में उसका जीवन कटा था। और फिर एकाएक वह मुंबई आ गया था – सम्राट समूह में मीडिया मैनेजर हो कर। दो साल के भीतर वह समूह का मीडिया डायरेक्टर हो गया था। एक सुखी जीवन उसका अंतिम सपना था। इस सुखी जीवन की गोद में पहुँचते ही वह प्राणपण से उसे सँवारने और बटोरने में लग गया।

सम्राट समूह ने उसे निचोड़ा भी बहुत, लेकिन इसका उसे कोई गिला नहीं रहा। वह अपनी नींद में यह सोचते हुए जीता रहा कि उसके सुख शाश्वत हैं। नींद से बाहर की एक बड़ी दुनिया से असंपृक्त वह घर से दफ्तर और दफ्तर से घर की यात्रा में मुसलसल मुब्तिला रहा। वह यह याद ही नहीं रख पाया कि उसका एक अतीत भी है, जिसमें बहुत बुरे दिन रहते हैं।

इसीलिए नौकरी चले जाने के बाद जब नींद से बाहर की दुनिया से उसकी मुठभेड़ हुई तो वह हक्का-बक्का रह गया। वह सोचता था कि जिस कठिन जीवन को वह बहुत पीछे छोड़ आया है, उस जीवन से अब कम से कम उसका कोई लेन-देन बाकी नहीं रहा है। लेकिन यह लेन-देन न सिर्फ बाकी था, बल्कि चक्रवृद्धि ब्याज सहित उसके सिर पर सवार हो गया था।

इस ज्ञान ने धनराज की नींद उड़ा दी।

सिलसिला यूँ शुरू हुआ।

नौकरी जाने के अगले रोज धनराज रोज की तरह दफ्तर जाने के लिए तैयार हुआ और मीरा रोड स्टेशन पहुँचा। सुबह के साढ़े आठ बजे थे। टिकट खिड़की पर खड़ी लंबी कतारों को देख धनराज के पसीने छूट गए। आधा घंटा कतार में खड़े रहने के बाद उसने चर्च गेट का द्वितीय श्रेणी का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर आ गया। उसका कलेजा थरथरा रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि प्लेटफार्म पर जो भीड़ है, वह उसे मधुमक्खियों के छत्ते सरीखी क्यों लग रही है? इस छत्ते में धनराज ने सिर्फ दो काम किए। चर्च गेट ले जानेवाली ट्रेन के करीब पहुँचा और धक्के मार-मार कर दूर धकेल दिया गया। लोग दरवाजों पर ही नहीं, खिड़कियों पर भी लटके हुए थे। एक घंटे के भीतर सात ट्रेनें निकल गईं और धनराज किसी भी ट्रेन में नहीं चढ़ पाया। असल में धनराज को लोकल ट्रेन का अभ्यास ही नहीं था। आखिरकार जब ट्रेन पकड़ने के चक्कर में वह पिट-पिट कर अधमरा हो गया तो मुचड़े हुए कपड़ों, टूटे हुए जिस्म और गिर चुके महँगे चश्मे का गम सँभाले खराम-खरामा चलता हुआ अपने घर लौट आया।

घर पर रोहित अपने दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा था। सरिता रोहित का टिफिन तैयार कर रही थी।

धनराज को वापस घर आया देख दोनों ने एक साथ पूछा, ‘क्या हुआ?’

धनराज खिसिया गया। फिर उसने लगभग रुआँसे स्वर में बताया कि लोकल में तो वह चढ़ ही नहीं पाया, उसने अपना गोल्डन फ्रेम का चश्मा भी गँवा दिया है।

रोहित हा…हा… कर हँसने लगा, ‘मीरा रोड से कैसे चढ़ोगे पापा? मीरा रोड से विरार जाने का, फिर वहाँ से बननेवाली ट्रेन में चढ़ कर आने का। क्या समझे?’

धनराज कुछ नहीं समझा।

फिर सरिता ने चकित हो कर पूछा, ‘मगर गाड़ी खराब होने पर तो तुम टैक्सी से जाते हो…आज लोकल की सनक किसलिए?’ इसके बाद उसने धनराज को याद दिलाया कि उसके चश्मे का फ्रेम दो हजार का था।

इस बीच रोहित ‘बाय’ बोल कर निकलने लगा तो धनराज ने पीछे से पुकार कर पूछा, ‘अरे, तू कैसे जाएगा?’

‘पापा, मैं रोज ट्रेन में ही जाता हूँ।’ रोहित फर्राटे से निकल गया।

अरे? धनराज विस्मित रह गया।

‘अब बताओ, चक्कर क्या है?’ सरिता उसके लिए एक कप चाय ले आई और उसके सामने हेडमास्टर की-सी मुद्रा में खड़ी हो गई।

‘मेरी नौकरी चली गई।’ धनराज ने आत्मसमर्पण कर दिया।

‘तो इसमें शहीद होने की क्या बात? क्या यह पहली बार हुआ है? सम्राट समूह से पहले भी तुम्हारी नौकरियाँ आती-जाती रही हैं। तब तो हम इतने अच्छे दिनों में भी नहीं रहते थे।’ सरिता ने उसे ढाँढ़स बँधाया तो धनराज विस्मित रह गया।

फिर कई दिनों तक धनराज विस्मित ही होता रहा।

उसने पाया कि हर समय व्यस्त रहनेवाला उसका फोन मृतकों की तरह दुनिया से बाहर चला गया है। वह रिसीवर उठा कर देखता तो डायल टोन मौजूद मिलती। एक बार उसने अपने एक खास दोस्त अश्विनी पाराशर को फोन किया। अश्विनी की सेक्रेटरी ने पूछा कि वह कौन बोल रहा है, कहाँ से बोल रहा है और उसे किस बारे में बात करनी है? धनराज ने चिढ़ कर कहा कि वह अश्विनी का दोस्त है तो सेक्रेटरी ने विनम्रता के साथ बताया कि साहब मीटिंग में हैं, वह अपना फोन नंबर बता दे, धनराज ने नंबर बता कर फोन रख दिया और अश्विनी के फोन का इंतजार करने लगा। मगर अश्विनी का फोन नहीं आया।

उसने एक और दोस्त को फोन किया। वह भी मीटिंग में था। तीसरे दोस्त की आन्सरिंग मशीन पर उसने मैसेज रिकॉर्ड कराया, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया।

‘बिल और ब्लड प्रेशर मत बढ़ाओ।’ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘सम्राट समूह के दिनों में तुम भी या तो मीटिंग में होते थे या टॉयलेट में।’

‘पापा, जो सामने है, उसे एक्सेप्ट करो।’ रोहित ने सलाह दी, ‘आप ही तो बताते थे कि आपने बहुत बुरे दिन देखे हैं। ये तो अच्छे दिन हैं, एनज्वॉय करो।’

‘एनज्वॉय? अच्छे दिन? लेकिन कितने दिन? पाँच-सात लाख रुपयों के सहारे कितने दिन टिकेंगे अच्छे दिन? धनराज ने सोचा और चिंतित हो गया।

सरिता ने धनराज की दिनचर्या बता दी। सुबह छह बजे जाग कर चाय पीना, फ्रेश होना और एक घंटे तक पार्क में टहलना। पार्क से लौट कर अखबार पढ़ना और नाश्ता लेना। नाश्ते के बाद नहाना-धोना और भायंदर की लायब्रेरी जा कर किताबें पढ़ने की कोशिश करना, लौट कर खाना खाना और सो जाना। शाम को उठ कर चाय पीना और मार्केटिंग करना। लौट कर टीवी देखना, रात का खाना खाना और सो जाना। किताबों की सूची भी सरिता ने ही तैयार कर दी।

धनराज के माथे पर त्यौरियाँ चढ़ गईं। वह चिढ़ कर बोला, ‘मैं क्या रिटायर हो गया हूँ?’

‘रिटायर हुए नहीं हो, रिटायर कर दिए गए हो।’ रोहित ने समझाया, ‘आप तो पैंतालीस वर्ष के हो। इस कॉलोनी में पैंतीस-छत्तीस के आदमी भी बेकार घूमते हैं। उनकी भी कंपनियाँ बंद हो गई हैं।’

चिंतित और बदहवास धनराज ने इसके बावजूद दोस्तों की दुनिया पर निगाह डालना बंद नहीं किया। लगातार निराश होने के बाद अंततः उसने स्वीकार कर लिया कि वह नींद के बाहर का आदमी है और उसकी आवाज नींद के भीतर की दुनिया से टकरा कर लौटने को अभिशप्त है।

नींद के भीतर की दुनिया बहुत विराट थी। उस नींद के भीतर एक महानींद थी। उस महानींद की दुनिया महाविराट थी। उस दुनिया में नींद के बाहर पड़े हुए लोगों का प्रवेश वर्जित था। उस दुनिया में कोई किसी का दोस्त नहीं था। वहाँ संबंध नहीं कारोबार टिकता था। वहाँ एक महाबाजार लगा हुआ था, जिसमें लोग या तो उपभोक्ता थे या विक्रेता। इस दुनिया के सारे रास्ते बाजार की तरफ जाते थे। और इस बाजार में धनराज की कोई जरूरत नहीं थी।

धनराज चिंतित नहीं, विचलित हुआ।

कॉलोनी के लोगों से उसका दुआ-सलाम होने लगा था।

तभी एक हादसा हुआ।

सकीना नाम की एक जवान लड़की ने चूहों को मारनेवाला जहर ‘रैटोल’ खा कर आत्महत्या कर ली।

सकीना उस कॉलोनी में रहनेवाले एक टेलर याकूब की इकलौती बेटी थी और बारहवीं में पढ़ती थी। सरिता से बहुत हिली-मिली थी सकीना, इसलिए इस मौत से सरिता अंदर तक हिल गई। अस्पताल से लौट कर बताया उसने, वह कुछ बताना चाहती थी, लेकिन बता नहीं पाई। शायद उस लड़की को उसके कॉलेज के कुछ गुंडे लड़कों का गैंग परेशान कर रहा था।

‘तुमको याद नहीं है।’ बताया सरिता ने, ‘ये लोग चारकोप में भी हमारे पड़ोसी थे, इसके पापा की वहाँ भी मार्केट में दर्जी की दुकान थी। दिसंबर के दंगों में उनका घर और दुकान जला दिए गए थे।’

‘अरे?’ धनराज चौंक गया, ‘बेचारा उस बस्ती में भी बरबाद हुआ और इस कॉलोनी में भी।’

धनराज को याद आया।

दिसंबर के दंगोंवाले दिनों में वह भी कांदिवली की एक निम्न मध्यवर्गीय बस्ती चारकोप में किराए पर रहता था। वह बुरे दिनों से अच्छे दिनों में जाने का संक्रमण काल था।

‘इसमें कॉलोनी का क्या दोष है?’ सरिता तुनक गई, ‘पूरी कॉलोनी के लोग अस्पताल में हैं। लाश को ले कर आ रहे हैं।’

धनराज ने छह दिसंबर में जा कर देखा – रात के दस बजे थे। मुंबई ने अभी जागने के लिए अँगड़ाई ली थी। धनराज का डॉक्टर दोस्त जयेश और उसकी खूबसूरत युवा पत्नी सोनाली रात भर रुकने का कार्यक्रम बना कर धनराज के घर आए थे। सरिता ने दहीवाला चिकन बनाया था और मछलियाँ फ्राई की थीं। उसका बेटा रोहित अपने एक मुस्लिम दोस्त के घर मालवणी गया हुआ था और रात को वहीं रुकनेवाला था।

शराब पीते हुए और मछलियाँ खाते हुए धनराज ने टीवी के पर्दे पर देखा-मुंबई से हजारों किलोमीटर दूर एक छोटे-से शहर में एक मस्जिद गिराई जा रही थी। धनराज डर गया। गिलास समेट कर वह अस्फुट स्वरों में बोला, ‘गुरु निकल लो। तुम्हारे साथ एक सुंदर औरत है…बेहतर होगा कि तुरंत निकल जाओ।’

छह दिसंबर की उस रात डॉक्टर दंपति चारकोप से चार बँगला अपने घर सुरक्षित पहुँच गए और मालवणी की मुस्लिम बस्ती में गया धनराज का बेटा रोहित भी घर लौट आया। इसके बाद सड़कों पर एक वहशी प्रेत अपनी बाँहें फैलाए हा हा हू हू करता हुआ कहर ढाने निकला।

अगली सुबह या शायद उससे अगली सुबह धनराज नींद में था कि सरिता ने उसे झकझोर दिया, ‘उठो, ऐसे कैसे सो सकते हो तुम? देखो, अपने जले हुए घर की दुर्दशा देखने आई नजमा को बस्ती के कुछ आवारा लड़कों ने पकड़ लिया है। कुछ भी हो, ऑफ्टर आल नजमा हमारे रोहित की टीचर है। उसे बचाओ।’

‘पुलिस? पुलिस कहाँ है?’ धनराज बड़बड़ाया था और अपनी बगल में सोए रोहित पर हाथ फिरा कर फिर नींद में चला गया था।

पुलिस कस्टडी में जब तक नजमा पहुँची तब तक उसकी छातियों से गालों तक के हिस्से में पचपन घाव दर्ज हो चुके थे, और उसकी जाँघों के बीच से रक्त का परनाला बह रहा था।

धनराज उस दिन दफ्तर नहीं जा पाया। तब तक उसे कंपनी की कार नहीं मिली थी। कांदिवली रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए भी ऑटो उपलब्ध नहीं था। हालाँकि ऑटो की तलाश में वह लगभग एक किलोमीटर दूर मछली मार्केट तक पैदल चला गया था।

मछली मार्केट श्मशान की तरह भुतैला और डरावना था। मछली, मुर्गे और मटन बेचनेवाले के बाकड़े और दड़बे जले पड़े थे। लकी ड्राई क्लीनर, जहाँ धनराज के कपड़े धुलते और प्रेस होते थे, नष्ट हो चुका था। उसके जले हुए कपड़ों की ढेर सारी राख के बीच से एक जख्मी हाहाकार झाँक रहा था। लकी ड्राई क्लीनर का मालिक अनवर अपनी पत्नी और दो बच्चों सहित खुली सड़क पर तंदूरी चिकन की तरह भून दिया गया था।

सहमा-थका सा धनराज घर वापस लौटा तो सरिता सिर ढाँप कर लेटी थी और फोन घनघना रहा था, दूसरी तरफ जोगेश्वरी में रहनेवाला उसका एक कांट्रेक्टर दोस्त साजिद था। वह पूछ रहा था, ‘क्यों मियाँ? हमारी ही मस्जिद गिरा दी और हमको ही मारा-काटा जा रहा है। यह लोकतंत्र है या दादागीरी?’

‘मुझे इस पचड़े में मत फँसाओ, यार।’ धनराज ने हताश हो कर कहा था और फोन रख दिया था। तभी दरवाजे की घंटी बजी थी।

दरवाजे पर कॉलोनी के कुछ लोग थे। उनके पीछे लंपट किस्म के कुछ छोकरों का समूह था। धनराज उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। वह आधी रातवाली दुनिया का नागरिक था, उस दुनिया का, जिसमें पड़ोसियों से परिचय रखने की रस्म नहीं होती। शोर जैसा सुन कर सरिता भी दरवाजे तक चली आई थी। सरिता को देखते ही भीड़ का चेहरा खिल उठा था। उनमें से तीन-चार लोग ‘भाभी जी, नमस्ते’ कहते हुए कमरे के भीतर चले आए। बाकी दरवाजे पर खड़े-खड़े कमरे के भीतर रखे सामान का मुआयना करने लगे। इस भीड़ के कुछ चहरों को पिछली ही रात धनराज ने गली के कोने पर रहनेवाले डॉ. हबीबुल्लाह का सामान उठा कर भागते देखा था।

‘आज रात बहुत चौकस रहना है, भाभी जी।’ उनमें से एक बहुत रहस्यमय अंदाज में बोला था, ‘हमें पक्की खबर मिली है कि नागपाड़ा से एक ट्रक भर कर लोग इस तरफ आएँगे… हम भी तैयार हैं लेकिन…’

‘हमें क्या करना होगा?’ सरिता घबराई-सी आवाज में बोली थी।

‘आपको क्या करना है, बस जागते रहना है। रात को कोई लड़का पुलिस से बच कर भागता हुआ आए तो उसे छुपा लेना है…हमारा कोड वर्ड है, भालू आया। वैसे हमारे लड़के तो रात भर जागेंगे हीं…’ दूसरे ने विस्तार से समझाया था फिर मुस्कराते हुए बोला था, ‘लड़कों का जागरण चंदा तो मिलेगा न?’

‘हाँ, हाँ।’ सरिता तुरंत भीतर गई और सौ-सौ के दो नोट ला कर बोली, ‘हम लड़ नहीं सकते…यही हमारा योगदान है।’

वे शोर मचाते हुए लौट गए।

रात की शराब का चंदा बटोरा जा रहा था। शायद शराब पीने के बाद जिस्मों पर घाव बनाने में ज्यादा मजा आता हो या लूट-मार करने की अतिरिक्त ताकत मिलती हो।

उनके जाते ही धनराज बिफर उठा था, ‘यह कैसा तमाशा है? कैसे-कैसे लुच्चों से संबंध रखती हो तुम?’

‘लुच्चे नहीं हैं ये।’ सरिता ने उलटा उसे ही डाँट दिया था, ‘यही लोग छह दिसंबर की रात तुम्हारे बेटे को मालवणी से सुरक्षित निकाल लाए थे…कुछ मालूम भी है तुम्हें, मालवणी में हमारे कितने लोग काट दिए गए…उन्होंने लोगों की पैंटें उतरवाईं, चेक किया और जितने भी हमारे लोग थे, सबको गाजर-मूली की तरह काट डाला।’ सरिता के चेहरे पर दहशत और क्रोध एक साथ बरस था, ‘तुम ला सकते थे अपने बेटे को वहाँ से?’

धनराज को आश्चर्य हुआ। क्या यह वही सरिता है, जो नजमा को बचा लेने की पवित्र करुणा से भरी हुई थी। और तब उसे अपने बेटे रोहित का खयाल आया।

‘रोहित को मैंने अपनी मम्मी के घर भेज दिया है।’ सरिता ने जानकारी दी।

सरिता की माँ कांदिवली में ही रहती थी, लेकिन फ्लैट में। दंगों में फ्लैट अपेक्षाकृत सुरक्षित रहते हैं। ठीक उसी समय धनराज के मन में यह इच्छा जिद की तरह उठी थी कि कैसे भी करके अपना एक फ्लैट खरीदना है।

नागपाड़ा से तो कोई ट्रक नहीं आया, लेकिन उसी रात बस्ती के बचे हुए बंद घरों को लूट कर उनमें आग लगा दी गई। उन जलनेवाले घरों में एक घर सकीना का भी था।

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सकीना के जनाजे में धनराज भी शामिल हुआ।

जनाजे में सकीना के बाप याकूब के अलावा सब के सब हिंदू थे। यह गणित धनराज को समझ नहीं आया। जो लोग चारकोप में सकीना का घर जला रहे थे, वो और जो लोग सकीना के जनाजे में शामिल हैं वो, दोनों की जात में क्या फर्क है?

‘क्या धनराज साब।’ रास्ते में कॉलोनी के टीएल प्रसाद ने पूछा, ‘सुना है, आपकी नौकरी चली गई?’

‘हाँ, चली गई है।’ धनराज ने रुखे लहजे में जवाब दिया।

‘अब क्या करेंगे?’

‘बड़ा-पाव का ठेला लगाऊँगा।’ धनराज इतने ठंडे स्वर में बोला कि प्रसाद दूसरे व्यक्ति के साथ लग गया, प्रसाद एक मल्टीनेशनल कंपनी में टीवी इंजीनियर था।

लौटते समय बूँदा-बाँदी होने लगी। धनराज याकूब की बगल में आ गया।

‘अब क्या करोगे?’ धनराज ने सहानुभूति से पूछा।

‘हैदराबाद चला जाऊँगा।’ याकूब ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, ‘वैसे भी यहाँ अकेला रह कर क्या करूँगा। हैदराबाद में मामू हैं, पापा हैं और तीसरी बार बर्बाद होने की मुझमें ताकत भी नहीं।’ याकूब बाकायदा सिसकने लगा, ‘इस बार तो मुझे मेरे लोगों ने बर्बाद किया है।’

‘मतलब?’ धनराज चौंक गया।

‘कॉलेज के जिन चार लड़कों ने सकीना की इज्जत लूटी है, वे हमारी ही जात के हैं।’ याकूब ने रहस्योद्घाटन-सा किया तो धनराज थर्रा गया।

‘तो तुम पुलिस में क्यों नहीं गए? क्या तुम्हें सकीना ने बताया था यह सब?’ धनराज की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

‘बिन माँ की बच्ची और किसे बताती?’ याकूब ने हिचकी ली, ‘मैं एक गरीब दर्जी…कौन सुनेगा मेरी? वे चारों लड़के नेताओं के शहजादे हैं…सकीना बताती रहती थी उनकी बदमाशियों के बारे में… पर मैं सोचता था कि किसी तरह वह यहाँ अपनी बारहवीं पास कर ले तो उसे ले कर हैदराबाद चला जाऊँ…क्या पता था कि इतनी जल्दी ऐसा हो जाएगा।’

‘हे भगवान!’ धनराज का दिमाग कलाबाजियाँ खाने लगा, ‘ये किस दुनिया में आ गया हूँ मैं?’ फिर वह बहुत उदास हो गया।

०००

उदासी के उन्हीं दिनों में जोधपुर से धनराज का छोटा भाई बिना पूर्व सूचना के अचानक उसके घर आया – पहली बार।

धनराज बहुत खुश हुआ, लेकिन वापस उदास हो गया।

छोटा भाई उससे पाँच साल छोटा था, लेकिन उसके सिर के ज्यादातर बाल उड़ गए थे। बचे हुए बालों को सफेदी खा गई थी। उसके गाल पिचके हुए थे और वह थोड़ा झुक कर चलता था।

‘दस साल बाद मिल रहे हैं हम।’ धनराज ने भाई को गले से लगा लिया। ‘लेकिन ये क्या हालत बना ली है तूने?’

‘कोई नहीं बनना चाहता ऐसा!’ धनराज का छोटा भाई राकेश चौधरी हँसा, एक विषादग्रस्त हँसी, ‘आपने भी कहाँ सुध ली हमारी…केवल अड़तीस सौ रुपए की नौकरी में अपने बीवी-बच्चों के साथ माँ, भाई और बहन को पालता रहा हूँ मैं। ऐसा तो होना ही था।’ भाई धनराज के गले से अलग हो कर बोला और फ्लैट में बसे ऐश्वर्य को ताकने लगा।

‘मैं तो अभी भी नहीं आता…’भाई ने गर्दन झुका ली, ‘लेकिन माँ ने जबरन भेज दिया। बोली, अगर धनराज अपने फर्ज भुला बैठा है तो क्या? मुंबई जा और बहन का हक छीन कर ला।’

‘मतलब?’ धनराज सन्न रह गया, ‘तू यहाँ लड़ाई-झगड़ा करने आया है?’

‘नहीं भाई साहब। बिल्कुल नहीं। माँ की भाषा है वो। एक थक चुकी माँ की भाषा। आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी, जो इन दस वर्षों में चौबीस बरस की हो गई है। उसकी शादी करनी है। मैंने एक लड़का देखा है।’

‘चौबीस बरस की?’ धनराज सोफे पर ढह गया।

‘आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी।’ एक हथौड़ा उठा और धनराज की खोपड़ी पर बजा। उसे याद आया – हर साल राखी पर एक मुड़ा-तुड़ा लिफाफा आता था जोधपुर से, बिला नागा, जिसका जवाब उसने कभी नहीं दिया। बारह बज कर पाँच मिनट पर एक फोन आता था जोधपुर से ही, उसके जन्म दिन पर, उसके दूसरे भाई बबलू का। तीन-चार साल बाद वह फोन आना भी बंद हो गया।

‘मैं रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हूँ, लेकिन मेरे अपने घर में फ्रिज नहीं है।’ भाई ने भाभी को बताया और हँसने लगा।

अपराध-बोध के बीच टहलती सरिता ने देवर के लिए दहीवाला चिकन बनाया और धनराज ने रम की बोतल खोली, ‘पीता है न?’

‘मुफ्त की मिल जाए तो।’ भाई फिर हँसने लगा।

आधी रात बीतने तक कुछ-कुछ हताशा, कुछ-कुछ क्रोध और कुछ-कुछ गर्व के साथ राकेश चौधरी बीते हुए दस वर्षों में खड़े अपने संघर्षों के बारे में बताता रहा। धनराज और सरिता किसी अपराधी की तरह सब सुनते रहे।

‘बबलू क्या करता है?’ बीच बहस में धनराज को बबलू याद आ गया।

‘वो गुंडा बन गया है।’ राकेश चौधरी ने सूचना दी।

‘क्या बात कर रहा है?’ धनराज उत्तेजित हो गया, ‘गुंडा मतलब?’

‘क्या मालूम? उसके कुछ दोस्त लोग ही ऐसा बताते हैं। पता नहीं जोधपुर से बाहर कहाँ-कहाँ जाता रहता है। दो-एक बार मैंने उसकी अटैची में रिवॉल्वर देखी तो डर गया। सीधे मुँह बात भी कहाँ करता है?’ राकेश के चेहरे पर पुनः बीता हुआ दुख उतर आया।

‘अरे?’ धनराज के दुख बढ़ते ही जा रहे थे।

‘पूरे चार साल इंतजार किया उसने आपका, फिर अँधेरी गलियों में उतर गया। तीन साल से तो अपने घर को पूरी तरह छोड़ दिया है। कभी-कभी ही आता है। अपना एक कांटेक्ट नंबर दिया है उसने माँ को। वहाँ मैसेज देने पर उसे मिल जाता है।’ राकेश चौधरी ने अपना गिलास उलटा कर दिया।

‘क्या नंबर है उसका?’ धनराज ने पूछा।

‘वो भी बस माँ को ही पता है। कभी फोन करना हो तो माँ ही करती है।’

धनराज को याद आया। उसने घर छोड़ते समय बबलू से वादा किया था कि मुंबई में सेटल होते ही वह उसे मुंबई बुला लेगा और फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल करने का मौका देगा। बबलू को नाटक वगैरह करने का शौक था और दस साल पहले वह बीस वर्ष का था।

‘मैं तो बहुत बुरा आदमी निकला।’ बिस्तर पर लेटते ही धनराज के दुखों में नए आयाम जुड़ने लगे।

०००

उस रात बहुत-बहुत दिनों के बाद धनराज अपने कठिन दिनों में लौटा।

वहाँ एक घर था। छोटा-सा दो कमरों का घर, जो पिता के आखिरी अरमान और आखिरी सामान की तरह बचा रह गया था। इस मकान के बन जाने के कुछ ही समय बाद बीच नौकरी में ही पिता चल बसे थे। पिता की मृत्यु से एक-दो महीने पहले ही धनराज देहरादून में अपनी नौकरी गँवा कर सरिता और छोटे रोहित के साथ जोधपुर बसने पहुँचा था, पिता के ही घर में। राकेश उन दिनों शहर की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान में रेफ्रीजरेटर मैकेनिक के रूप में लगा हुआ था। उसी दौलत इलेक्ट्रॉनिक्स में धनराज भी बतौर चीफ कैशियर नियुक्त हुआ। पिता की मृत्यु हुई तो धनराज ने भाग-दौड़ करके राकेश को पिता के बदले उन्हीं के दफ्तर में लगवा दिया। पूरा परिवार प्रसन्न था कि घर का एक सदस्य सरकारी मुलाजिम हुआ। सरिता को एक छोटे-से स्कूल में पढ़ाने का काम मिला हुआ था। छोटी-सी ही सही, लेकिन एक बँधी हुई राशि माँ को पेंशन के रूप में मिलने लगी थी। इन्हीं दिनों में जीते हुए धनराज पिता को कृतज्ञता की तरह याद करता था कि उन्होंने एक घर बनवा दिया था, वरना तो पूरा कुनबा सड़क पर ही आ जाता। जैसे-तैसे समय बीत रहा था।

उन्हीं दिनों मुंबई जाते रहनेवाले धनराज के एक दोस्त किशोर ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह पच्चीस हजार खर्च करे तो किशोर उसे मुंबई के सम्राट समूह में घुसवा सकता है। सम्राट समूह मुंबई की नामी कंपनी थी। प्रस्ताव खासा आकर्षक था। यह प्रस्ताव धनराज के स्वप्नों को पंख देता था, लेकिन पच्चीस हजार बड़ी राशि थी। धनराज को लगा कि वह जोधपुर में ही सड़ जाएगा। उन दिनों सबके पैसे माँ के पास जाते थे – धनराज के, राकेश के, सरिता के, पेंशन के। उस सामूहिक आय से कुनबा चलता था। साझे दुखों और साझे सुखों का आत्मीय जमाना था। माँ को भनक मिली तो उसने अपना मंगलसूत्र बेच दिया। सरिता ने भी अपने कड़े उतार दिए। पाँच हजार रुपए राकेश ने भी मिलाए।

और इस तरह धनराज मुंबई आ पहुँचा। तब तक राकेश की शादी नहीं हुई थी।

किशोर ने उस पैसे का क्या किया, यह धनराज नहीं जानता। उसे बस इतना याद है कि किशोर ने उसे सम्राट समूह के पर्सोनेल डायरेक्टर से मिलवाया। डायरेक्टर ने उससे एक एप्लीकेशन ली, बायोडाटा के साथ और सातवें दिन वह चकित-मुदित आँखों से अपने अपाइंटमेंट लेटर को देख रहा था। छह महीने के प्रोबेशन पीरियड के साथ धनराज चौधरी सम्राट समूह का मीडिया मैनेजर हो गया था।

बाद की सफलताएँ धनराज ने खुद अर्जित की थीं।

इसके बाद धनराज आगे नहीं सोच पाया। कमरे में उसके खर्राटे गूँजने लगे थे।

सुबह राकेश चौधरी ने बताया, ‘मैं कल तीन बजे दोपहर की ट्रेन से लौट जाऊँगा।’

‘इतनी जल्दी?’ सरिता ने टोका, ‘दो चार दिन मुंबई तो घूम लेते।’

‘घूमने की अय्याशी मेरे भाग्य में नहीं है, भाभी।’ राकेश बोला, ‘मैं सरकारी नौकरी में जरूर हूँ, लेकिन मेरा काम ऐसा है कि ज्यादा छुट्टियाँ नहीं मिलतीं। मुझे सैनिक अधिकारियों के घर फ्रिज ठीक करने जाना होता है न!’

‘आपको माँ का मंगलसूत्र लौटाना है।’ अचानक राकेश ने याद दिलाया तो धनराज हड़बड़ा गया।

‘शादी डेढ़ लाख में हो रही है।’ राकेश ने ब्यौरे देने शुरू किए, ‘ममता की शादी में पचास हजार मैं लगा रहा हूँ। पच्चीस हजार बबलू भी देगा। बाकी पिचहत्तर हजार रुपए आपको देने हैं।’

‘और ममता के गहने?’ सरिता ने पूछा।

‘दस साल पहले माँ का मंगलसूत्र दस हजार का था, ऐसा माँ ने बताया है।’ राकेश ने सूचना दी, ‘बाकी आप लोगों की श्रद्धा, मैं तो पचास हजार भी कर्जे पर उठा रहा हूँ। मैंने दस वर्ष तक सबको पाला है। इसके बाद मेरा दम निकल जाएगा।’ राकेश ने बेचारगी से कहा, ‘मेरी भी दो बेटियाँ हैं।’

हड़बड़ाए हुए धनराज चौधरी ने बड़ी कातर दृष्टि से सरिता को देखा। सरिता ने आँख के इशारे से कहा, हाँ कह दो।

‘ठीक है।’ धनराज ने एक लंबी साँस छोड़ी, ‘माँ के मंगलसूत्र को जाने दो। ममता के लिए हाथ, कान और गले के गहने हम देंगे। पिचहत्तर हजार का चेक चलेगा?’

‘हाँ।’ राकेश ने राहत की साँस ली और सोचा, इतना बुरा भी नहीं है उसका भाई। राकेश को उम्मीद नहीं थी कि भाई इतनी आसानी से हाँ कर देगा।

‘अब मैं भी तुझे एक खबर दे ही दूँ।’ धनराज ने मुस्कराने की असफल कोशिश करते हुए कहा, ‘मेरी नौकरी छूट गई है।’

‘यह तो अच्छी खबर नहीं है। पर क्या कर सकते हैं?’ राकेश को सचमुच दुख हुआ।

थोड़ी ही देर में दोस्तों के साथ वीकएंड मना कर रोहित भी घर आ गया और इतने वर्षों के बाद अपने चच्चू को देख उछल पड़ा।

‘अबे, तू तो बहुत बड़ा हो गया।’ राकेश ने रोहित को गले लगा लिया, ‘इतना बड़ा भतीजा भी चच्चू को चिट्ठी नहीं लिखता।’ राकेश ने उलाहना दिया।

‘चिट्ठी का जमाना चला गया, चच्चू। तू अपना ई-मेल एड्रेस बना ले फिर देख मैं तुझे रोज एक ई-मेल करूँगा।’ रोहित ने राकेश के उलाहने को मजाक में बदल दिया। फिर वह अपने चच्चू को ले कर बिल्डिंग के टैरेस पर चला गया।

राकेश को विदा करने स्टेशन तक रोहित ही गया। रोहित बहुत खुश था कि ममता बुआ की शादी में जोधपुर जाएगा। चच्चू की शादी में भी वह जोधपुर नहीं गया था, क्योंकि उन दिनों धनराज की सम्राट समूह में नई-नई नौकरी लगी थी और वह खुद इतना बड़ा नहीं हुआ था कि अकेले ही जोधपुर चला जाता। धनराज उन दिनों सम्राट समूह में दिन-रात एक किए हुए था। उसे समूह में खुद को प्रमाणित करना था।

‘खुद को प्रमाणित करते-करते तुम चूतिया बन गए गुरु।’ धनराज ने सोचा और नम आँखों के साथ भाई को विदा किया।

उस रात देर रात तक नींद नहीं आई।

दो

पता नहीं क्यों धनराज को इन दिनों नींद नहीं आती। देर रात तक वह अपनी विशाल कॉलोनी में जहाँ-तहाँ घूमता रहता। पहले जीवन नाक की सीध में चलता था, इसलिए वह कॉलोनी तो क्या अपनी सोसायटी तक के लोगों से अपरिचित था, मगर अब तो वह पूरी कॉलोनी के ही रहस्यों से दो-चार होने लगा था।

पता नहीं क्या सोच कर बिल्डर ने कॉलोनी का नाम गोल्डन नेस्ट रखा था। डाल-डाल और पात-पात तो क्या, वहाँ कहीं भी कोई सोने की चिड़िया बसेरा नहीं करती थी। इस सुनहरे घोंसले को बिल्डर ने इस तरह बनाया था कि उसमें सभी आय वर्ग के लोग रह सकें। ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरी उस कॉलोनी का विशाल मेन गेट बंद होते ही वह पूरी तरह से बंद, सुरक्षित किले जैसी हो जाती थी। गेट के भीतर की तरफ खुलते ही बीचों-बीच दूर तक चली गई सड़क के दोनों ओर बाजार था। सड़क के पहले दाएँ मोड़ पर वन रूम किचन के ढाई सौ फ्लैटोंवाला सेक्टर−एक था। दूसरे दाएँ मोड़ पर वन बेडरूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटोंवाला सेक्टर−दो था। सड़क के पहले बाएँ मोड़ पर टू बेडरूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटोंवाला सेक्टर−तीन था और दूसरे बाएँ मोड़ पर सेक्टर−चार था। सड़क जहाँ समाप्त होती थी वहाँ बँगलेनुमा पचास रो हाउसेज थे। यह सेक्टर−पाँच कहलाता था। इस कॉलोनी के भीतर एक बहुत बड़ा पार्क, स्वीमिंग पुल, अस्पताल, ब्यूटी पार्लर, पोस्ट ऑफिस, सिनेमा हॉल, स्कूल, हेल्थ क्लब और बैंक भी था। सेक्टर पाँच यानी रो हाउसेज आधे से ज्यादा खाली थे, बाकी किराए पर उठे हुए थे। इनमें अधिकतर निजी नर्सिंग होम, कोचिंग क्लासेज, ब्यूटी पार्लर, अँग्रेजी माध्यम के प्राइमरी स्कूल, कंप्यूटर सेंटर, फेमिली रेस्त्राँ, साइबर कैफे और कम्युनिकेशन सेंटर खुले हुए थे। सड़क के दोनों ओर बने बाजार सभी तरह की दुकानों से भरे हुए थे। जरूरत का हर सामान वहाँ मौजूद था। कॉलोनी में दो मंदिर भी थे – एक गणपति का, दूसरा शिरडी के साईंबाबा का। हाँ, मस्जिद वहाँ एक भी नहीं थी। वह कॉलोनी के बाहर, हाईवे के उस तरफ, स्टेशन जानेवाली सड़क पर बसे नया नगर इलाके में थी।

यह छह दिसंबर के बाद हुए दंगों का ध्रुवीकरण था कि ज्यादातर मुसलमान हाइवे के उस तरफ और हिंदू हाईवे के इस तरफ सिमट गए थे। नया नगर का पूरा इलाका लगभग मुस्लिम परिवारों का था। मीरा रोड के हिंदू नया नगर को मिनी पाकिस्तान कहते थे। हाइवे के उस पार भी काफी परिवार हिंदुओं के थे लेकिन ज्यादा आबादी मुस्लिमों की ही थी। वहाँ भी जब जिसको मौका मिलता, अपना घर बेच कर गोल्डन नेस्ट आ जाता था। गोल्डन नेस्ट में मुसलमानों के सात-आठ परिवार ही थे, लेकिन वे सभी वहाँ किराएदार थे, मकान मालिक नहीं। उन्हीं में से एक टेलर मास्टर याकूब भी था, जिसकी लड़की सकीना ने चूहे मारनेवाला जहर खा कर आत्महत्या कर ली थी। वह सेक्टर−एक में किराएदार ही था और अब हैदराबाद चला गया था।

धनराज का घर सेक्टर−दो में था।

सेक्टर−दो में ज्यादातर लोग सरकारी या गैरसरकारी कंपनियों में काम करनेवाले कर्मचारी थे, जिन्होंने इधर-उधर से कर्ज ले कर चालीस की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते अपने फ्लैट बना लिए थे। सेक्टर−एक में निम्न−मध्यवर्गीय लोग रहते थे। इनमें छोटे-मोटे अध्यापक, लोअर डिवीजन क्लर्क, ऑटो-टैक्सी चलानेवाले, फिल्मों और सीरियलों में काम पाने के लिए स्ट्रगल कर रहे भविष्य के अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार-संगीतकार निवास करते थे। सेक्टर तीन और चार साहबों की दुनिया थी। इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, छोटे-बड़े प्रोड्यूसर, शेयर मार्केट के ब्रोकर, बैंकों के अधिकारी, मल्टीनेशनल कंपनियों के कर्मचारी, टीवी चैनलों के कार्यक्रम अधिकारी, कालबा देवी के छोटे व्यापारी, मेडिकल स्टोरों के मालिक, अखबारों के संवाददाता, वकील और प्रोफेसर रहा करते थे।

सेक्टर तीन और चार के नागरिक सेक्टर एक और दो की तरफ जाना तो दूर झाँकना भी पसंद नहीं करते थे। यह अलग बात है कि बाजार ने उनकी निजी पहचान मिटा दी थी। सेक्टर एक और दो के लोग भी अपनी-अपनी विशिष्टता कायम रखने का प्रयत्न करते थे लेकिन उनकी संपन्नता में दस बाई पंद्रह के सिर्फ एक कमरे का फर्क था, इसलिए उन दो सेक्टरों में आवाजाही चलती रहती थी।

सेक्टर एक और दो के ही नहीं, मुख्य बाजार के भी काफी लोग, सेक्टर−दो के ताजा-ताजा बेरोजगार हुए धनराज चौधरी को नाम और शक्ल से पहचानने लगे थे। वाइन शॉपवाला बिना माँगे ओल्ड मौंक रम देता था, सिगरेटरवाला विल्स का पैकेट। मटन शॉपवाला चॉप और गर्दन का गोश्त देता था, साथ में मछली हड्डी। सब्जीवालों को पता था कि उसे करेला, कटहल, पालक, टिंडा, मटर और शलगम-गाजर पसंद हैं। चिकन की उसकी अपनी पसंदीदा दुकान थी और मछली की अपनी। घर का राशन‌‌−पानी अस्मिता सुपर मार्केट से आता था और बाल लकी हेयर कटिंग सैलून में कटते थे। मेडिकल स्टोरवाला धनराज को देखते ही नारमेस फाइव एम जी का पत्ता पकड़ा देता था। शीतल नॉनवेज का मालिक उसे नाम से बुलाता था और उसे देखते ही वेटर को पहाड़ी या रेशमी कबाब पार्सल करने का हुक्म सुना देता था।

वह मोलभाव करने और सब्जियाँ खरीदने में पारंगत हो गया था। कॉलोनी और उसके बीच जो अपरिचय का विंध्याचल था, वह क्रमशः गलने लगा।

धनराज ने देखा कि दैनंदिन जीवन जीते, संघर्षरत लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन, कहाँ, क्या काम कर रहा है या नहीं कर रहा है। वे सिर्फ इस बात पर नजर रखते थे कि किसके किचन में क्या पका, किसके घर कौन-सा नया सामान आया, किसने किसके जन्मदिन पर क्या दिया या किस घर की लड़की या लड़का किससे फँसा हुआ है। रोजगार उनके लिए सिर्फ माध्यम था, ताकत या घमंड का प्रतीक नहीं। उनके दुख इस विषय में लिपटे थे कि सुबह पानी समय पर नहीं आया और उन्हें बिना नहाए काम पर जाना पड़ा। समय पर ट्रेन पकड़ लेना उनके लिए सबसे बड़ी जंग थी। फोन के खराब हो जाने पर वे घंटों बहस कर सकते थे और बिजली चले जाने पर सड़कों पर ट्रैफिक जाम कर सकते थे।

धनराज ने पाया कि कॉलोनी की औरतें उससे बात करने लगी हैं और बच्चे नमस्ते अंकल कहने लगे हैं। वाचमैन उससे अपनी तकलीफें शेयर करने लगे हैं और दुकानदार लगातार गिरते बाजार का रोना रोने लगे हैं। इतने सारे लोगों में किसी को इस बात की चिंता नहीं थी कि धनराज की नौकरी चली गई है। उन्हें लगता था कि ऐसे लोगों की नौकरियाँ लगती-छूटती रहती हैं।

‘भाई साहब, हमारा एक काम करेंगे क्या?’ एक दिन रास्ते में उसे देविका ने टोक दिया।

‘क्या?’ धनराज ने देविका को जाँचा।

वह ऊँची, भरी-पूरी, शानदार महिला थी। अगर उसके पास अच्छे कपड़े, अच्छा मेकअप और कामचलाऊ जेवर होते, तो वह सेक्टर एक और दो की हेमा मालिनी बन सकती थी। वह सेक्टर−एक में रहती थी और धनराज समेत सेक्टर-दो के कई घरों में उसका आना-जाना था।

‘इनकी हिम्मत नहीं पड़ रही है आपसे बात करने की।’ उसने अपने पति का पक्ष सामने रखा, ‘ये लेडीज के अंडरगार्मेंट्स बेचनेवाली कंपनी के सेल्समैन हैं। टूर से लौट कर इन्हें अपनी रिपोर्ट देनी पड़ती है। लेकिन ये अँग्रेजी नहीं जानते। क्या आप इनकी हिंदी रिपोर्ट को अँग्रेजी में बना देंगे?’

‘ठीक है।’ उसने गर्दन हिला दी।

‘धन्यवाद, भाई साहब।’ देविका गदगद हो गई। रात के भोजन पर सरिता ने बताया, ‘देविका के घर से तुम्हारे लिए मिर्ची का अचार और गट्टे की भाजी आई है।’

लेकिन देविका के पति रतन केड़िया की मार्केट रिपोर्ट्स ने धनराज को विचलित कर दिया।

रतन केड़िया की रिपोर्टें देसी रोजगार का मर्सिया थीं। जयपुर हो या जोधपुर, गोवा हो या नागपुर, सातारा हो या सांगली, अजमेर हो या कोल्हापुर, पुणे हो या नासिक, रत्नागिरी हो या इंदौर – हर जगह स्त्रियों के अंतःवस्त्रों पर नामी ब्रेंड हावी थे। बड़े शहरों में स्त्रियों के तन विदेशी ब्रेंड ढँक रहे थे। ऐसे में रतन केड़िया की लोकल कंपनी कहाँ ठहर सकती थी?

कुछ ही समय बाद रतन केड़िया की रिपोर्टें आनी बंद हो गईं।

रतन केड़िया ने बताया कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है और हँसने लगा।

नौकरी चले जाने पर ये लोग हँसते क्यों हैं? धनराज ने सोचा लेकिन उसे जवाब नहीं मिला।

उन्हीं दिनों एक रात वह थैले में सब्जियाँ, अंडे और शराब ले कर लौट रहा था कि उसने सेक्टर दो के सेक्रेटरी हिमांशु शाह को उसके फ्लैट के नीचे खड़े सिगरेट पीते देखा।

‘नीचे क्यों खड़े हो?’ धनराज ने यूँ ही सवाल उछाल दिया।

शाह ने नई सिगरेट सुलगा ली, ‘आज मुझे नौकरी से हटा दिया गया है।’ शाह खिसिया कर बोला, ‘समझ नहीं आ रहा है कि यह बात ऊपर जा कर हर्षिता को कैसे बताऊँ?’

हर्षिता हिमांशु की पत्नी का नाम था।

हिमांशु अपोलो टायर में काम करता था। बीस दिन पहले ही उसने अपनी बेटी का पहला जन्म दिन मनाया था और पूरे सेक्टर−दो को चिकन बिरयानी की दावत दी थी। धनराज के लिए उसने विशेष इंतजाम किया था। लोगों की नजरें बचा कर वह धनराज को अपने बेडरूम में छोड़ आया था, जहाँ रॉयल चैलेंज की एक बॉटल तीन-चार सोडों के साथ पड़ी थी।

धनराज तीन पेग पी कर वापस टैरेस पर चलती पार्टी में शरीक हो गया था।

‘अब क्या करोगे?’ धनराज ने पूछा।

‘देखते हैं।’ हिमांशु बोला, ‘कुछ नहीं हुआ, तो घर-बार बेच कर गाँव चले जाएँगे।’ हिमांशु अपने फ्लैट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

गाँव? धनराज की हलक में काँटे-से गड़ने लगे। गाँव के नाम पर उसे सुबह ही पढ़ी गई एक खबर याद आ गई। वह मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के बरानाँद गाँव की खबर थी।

शताब्दी के सबसे भीषण सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों में स्थितियाँ विकट हो गई थीं। गाँव के लोग पेड़ों की छाल पीस कर खा रहे थे। फसलें तबाह हो गई थीं। जिन लोगों के पास किराए लायक पैसे थे, वे काम की तलाश में निकट के शहरों को निकल गए थे। जिनके पास नहीं थे, वे गाँव में भूखे-प्यासे मर रहे थे।

और यह केवल बरानांद गाँव की कहानी नहीं थी।

गाँव-दर-गाँव भूख-प्यास का प्रेत मँडराता फिर रहा था। कुटीर उद्योग तबाह हो गए थे। रोजगार उपलब्ध नहीं थे। ऐसी कोई कंपनी नहीं बची थी, जहाँ दस, बीस या तीस प्रतिशत कर्मचारी छँटनी के शिकार नहीं हो रहे थे।

ऐसे में धनराज का जन्म दिन आया।

सुबह-सुबह जगा कर सरिता और रोहित ने धनराज को विश किया, फिर सरिता ने ताना जैसा मारा, ‘आज कोई पार्टी-वार्टी नहीं हो रही?’

धनराज ने नींद की दुनिया में जा कर देखा –

वह एक तीन सितारा होटल का पार्टी रूम था, जहाँ उसके जन्म दिन की पार्टी प्रायोजित की गई थी। शहर के करीब पचास लोग उस पार्टी में शरीक थे। उनमें एक टीवी चैनल का कार्यक्रम प्रमुख था। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठेकेदार थे, कुछ होलसेल विक्रेता थे। दो बैंकों के डिप्टी मैनेजर थे। अनेक बिजनेस समूहों के मीडिया मैनेजर थे। कुछ पीआरओ और कुछ सरकारी अधिकारी थे। एक इंटरनेट कंपनी का कंसलटेंट एडीटर था और थीं कुछ उदीयमान मॉडल। सब-के-सब कोई-न-कोई तोहफा ले कर आए थे और अपने-अपने ड्रिंक्स के साथ अपने-अपने जुगाड़ में व्यस्त थे। एक फोटोग्राफर इस खुशगवार मौके को कैमरे में कैद कर रहा था। वेटर पनीर टिक्का, चिकन टिक्का और सीख कबाब सर्व करने में तल्लीन थे। दुखों की सूचनाओं तक से दूर जगर मगर करता एक बाजार वहाँ बिछा पड़ा था।

जन्म दिनवाले रोज धनराज सुबह-सुबह तैयार हो कर फोन के पास बैठ जाता था। उस दिन वह दफ्तर से छुट्टी लेता था। कई वर्षों से यही नियम था। हर बरस वह गिनती करता था कि जन्म दिन की बधाई देनेवालों में कितने लोगों की घट-बढ़ हुई। यह उसका प्रिय शगल था। बधाई देनेवालों में से कुछ को वह शाम को होनेवाली पार्टी में निमंत्रित करता था। सम्राट समूह से कोई कांट्रेक्ट हासिल करने का इच्छुक व्यापारी यह पार्टी आयोजित करता था। इस पार्टी में सौदों का लेन-देन भी होता था। ऐसी अनेक पार्टियों के फोटो एलबम धनराज की वॉल यूनिट की शोभा बढ़ा रहे थे।

लेकिन इस बार धनराज देर तक सोता रहा। पत्नी के ताने पर वह मुस्करा भर दिया। दिन भर में कुल मिला कर तीन फोन आए। एक उसके भाई राकेश चौधरी का, एक उसकी सास का और तीसरा उसके फैमिली डॉक्टर राणावत का।

शाम सात बजे चौथा फोन आया उसके पड़ोसी हिमांशु शाह और उसकी पत्नी हर्षिता का। उसे याद आया – एक जन्म दिन के भव्य आयोजन में उसने शाह दंपति को भी निमंत्रित किया था।

‘तुम्हारा फोन आने से सचमुच अच्छा लगा, हिमांशु।’ धनराज द्रवित हो गया।

‘क्या बात करते हैं, धनराज जी।’ हिमांशु ने गर्मजोशी से कहा, ‘आज आपके जन्म दिन की पार्टी हमारी तरफ से हमारे घर में है। आप भाभी और रोहित के साथ आठ बजे तक पहुँच जाइए।’

धनराज बेआवाज बिखर गया।

निष्कपट जीवन नींद के बाहर ही है धनराज, धनराज ने सोचा। तुमने व्यर्थ ही अपना जीवन यों सुखा डाला। पैसे कमाने के बजाय अगर तुमने रिश्ते कमाए होते, तो जीवन का रंग आज कुछ और ही होता। और पैसे भी क्या कमाए? एक छोटा-सा फ्लैट, जरा-सा बैंक बैलेंस और वह भी अपनी नींदें बेच कर? माँ जैसे दुनिया के सबसे कीमती रिश्ते की अकारण नाराजगी मोल ले कर।

धनराज को अपनी माँ याद आ गई।

बचपनवाली माँ।

माँ धनराज का जन्म दिन मना रही थी।

वह मुजफ्फरनगर का सड़क किनारे बना एक सीलन भरा कमरा था, जिसके बाहर बने बड़े से नाले से कीचड़ और मल-मूत्र लगातार बहता रहता था। उन दिनों पिता का ट्रांसफर जोशीमठ में हो गया था और पिता ने परिवार को यहाँ रखा हुआ था क्योंकि जोशीमठ में परिवार को साथ रखने की अनुमति नहीं थी।

मुजफ्फरनगर के उस किराए के कमरे में माथे पर टीका लगा कर मिठाई के नाम पर गुड़ खाया था धनराज ने और गुल्ली-डंडा खेलने मैदान में चला गया था। तब तक बबलू और ममता पैदा नहीं हुए थे, लेकिन उनके पैदा होने के बाद भी घर में सिर्फ धनराज का ही जन्म दिन मनाया जाता रहा। पता नहीं क्यों?

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पता नहीं क्यों धनराज को इन दिनों बहुत अजीब और बेहूदा-बेहूदा खयाल आते रहते और वह चिंता से भर जाता। पढ़-लिख कर या पढ़ाई छोड़ कर घर बैठ गए सेक्टर-एक के जवान छोकरों को धनराज पार्क की बेंचों, चायघरों या पान की दुकानों के बाहर खाली बैठे देखता और उसे लगता इनमें से कुछ लड़के जल्दी ही अरुण गवली या दाउद इब्राहिम की गैंग में शामिल हो जाएँगे। वह उन्हें अपनी कल्पना में सेक्टर-चार के लोगों को शूट करते देखता और पसीने-पसीने हो जाता। वह देखता कि रोहित की कंपनी भी बंद हो गई है और वह गोल्डन नेस्ट के बाहर उबले हुए अंडे बेचने लगा है। कभी वह देखता कि उसने अपना मकान बेच कर सेक्टर-एक में वन-रूम किचन ले लिया है और ऑटो चलाने लगा है। कभी उसे दिखाई देता कि उसने बबलू को फोन किया है और बबलू ने मुंबई आ कर सम्राट समूह के चेयरमैन का भेजा भून दिया है।

जब कभी वह मार्केट में खरीदारी के लिए निकलता, तो एक-एक दुकान को गौर से देखता और सोचता कि वह किस चीज की दुकान खोल ले, ताकि व्यस्त भी रहे और चार पैसे भी कमाए। लेकिन हर दुकान का मालिक उसे बताता कि उसका धंधा मंदा चल रहा है। दुकानें उठ रही हैं। व्यवसाय बैठ रहे हैं। अपहरण, डकैती और हत्याएँ बढ़ रही हैं।

धनराज जब-जब एटीएम मशीन से पैसे निकालने जाता, अपना बैलेंस देख कर चिंताग्रस्त हो जाता। बैंक में पैसे जमा नहीं हो रहे थे, सिर्फ निकलते जा रहे थे। अगले महीने ममता की शादी थी। हाथ, गले और कान के जेवरों का उसने जो वादा किया था, उनका एस्टीमेट पैंतीस हजार बैठ रहा था। कम से कम दस हजार आने-जाने-रहने में खर्च होनेवाले थे।

अभी तक धनराज ने रोहित की तनख्वाह पर नजर नहीं डाली थी, लेकिन अब उसे रोहित के खर्च खटकने लगे। उसने पाया कि रोहित ने अब तक जो भी कमाया था, वह सब का सब महँगी कमीज-पैंटों, वीकएंड पार्टियों, सिनेमा और जूतों पर उड़ा दिया था, अब उसे जींस और टॉप पहन कर कभी-कभी घर चली आनेवाली रोहित की गर्ल फ्रेंड्स भी अखरने लगी थीं।

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‘तू मोबाइल और बाइक कब लेगा, यार?’ लड़कियाँ धनराज के सामने ही रोहित को नए खर्चों के लिए उकसातीं और धनराज कुढ़ता रहता।

इसी कुढ़न में एक दिन धनराज ने अपना एसी और वीसीआर बेच दिया और पैसे बैंक में जमा कर दिए। उसका तर्क था कि मुंबई में एसी की कोई जरूरत नहीं है और वीसीआर गए जमाने की चीज हो गई है। इतने सारे चैनल हैं, चौबीस घंटे चलती फिल्में हैं, ऐसे में वीसीआर की कोई उपयोगिता नहीं है। कुछ दिनों के बाद उसने एक साइबर कैफे को अपना कंप्यूटर, प्रिंटर, स्कैनर मय कंप्यूटर टेबल के बेच दिया। उसका कहना था कि अब रोहित पूरे दिन दफ्तर में व्यस्त रहता है और शामों को कंप्यूटर के नए कोर्स की कक्षाओं में। इसलिए घर में फालतू सामानों की भीड़ बढ़ाने का कोई तुक नहीं है। कुछ दिनों के बाद धनराज अपनी फैक्स मशीन भी बेच आया। उसका कहना था कि जब नौकरी ही नहीं है तो फैक्स किसके आएँगे?

सरिता और रोहित आदर्श पत्नी और आज्ञाकारी बेटे की तरह जीते आए थे, इसलिए उन्होंने धनराज की हरकतों का सीधा विरोध तो नहीं किया, लेकिन अब वे दोनों भी चिंतित हो गए। दोनों को एक साथ लगा कि धनराज कहीं उन्हें मुंबई के पहलेवाले दिनों में तो नहीं ले जाना चाहता है! दोनों को लगा कि समय रहते जाग जाना चाहिए।

एक रात दो पेग पी लेने के बाद धनराज का सामना रोहित से हो गया। उसने टीवी बंद किया और रोहित को अपने सामने बिठा लिया। रोहित चौकन्ना हो गया।

‘देखो, मैंने तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला है। तुम्हारी खुशियों का दुश्मन नहीं हूँ मैं। लेकिन तुम खुद बताओ…’धनराज ने तीसरा पेग बनाया, ‘अब जब तुम्हारा बाप बेरोजगार है, ऐसे में क्या तुम्हें शोभा देता है कि तुम अपनी पगार वेन ह्यूजन की पैंटों, चिरागदीन की शर्टों और दो-दो हजार के जूते खरीदने में खर्च करो…वीकएंड की पार्टियों में हजार-पाँच सौ का कंट्रीब्यूशन करो…मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए रोहित, तुम्हें छह हजार रुपए मिलते हैं। एक हजार रुपए अपने खर्चे के लिए रखो और पाँच हजार रुपए बैंक में जमा करा दो। एक साल में साठ हजार रुपए…यू नो, ये पैसा एक दिन तुम्हें बहुत ताकत देगा।’ धनराज ने तीसरा पैग समाप्त कर दिया।

‘मैं ऐसा नहीं सोचता, पापा…मैं कमाने और खर्च करने में यकीन रखता हूँ।’ रोहित ने पहली बार अपने पिता के साथ बहस की, ‘आप देखते ही हैं कि डी गैंग के शूटर बिल्डरों, प्रोड्यूसरों, डॉक्टरों को गोलियों से भून देते हैं और उनका पैसा यहीं पर रह जाता है। पिछले दिनों सेक्टर चार में रहनेवाला मेरा एक दोस्त मकरंद जोगेश्वरी में एक खंभे से टकरा कर ट्रेन से गिरा था। वह अब तक कोमा में है। मकरंद एक मल्टीनेशनल कंपनी में वेब डिजाइनर था।’

‘अरे वाह!’ धनराज तालियाँ बजाने लगा, ‘तुम तो बहुत समझदार हो गए हो।’ धनराज हँसने लगा, ‘वैसे मैं तुम्हें बता दूँ कि सेक्टर-चार के लड़कों के साथ तुम्हारी दोस्ती बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं।’

‘तो क्या मैं सेक्टर-एक के टपोरी लड़कों के साथ रहा करूँ?’ रोहित ने तिलमिला कर जवाब दिया।

धनराज चुप हो गया। वह खुद भी यह कहाँ चाहता था कि उसका बेटा सेक्टर-एक के लड़कों जैसा हो जाए। तो फिर?

क्या चाहता है धनराज? धनराज ने सोचा और चौथा पेग बनाने लगा।

‘अब बस करो।’ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘लड़के की तनख्वाह पर आँख गड़ाने से बेहतर है कि तुम शराब पीना छोड़ दो।’

‘क्या?’ धनराज आहत हो गया, ‘तुम भी? ओ.के., छोड़ देता हूँ।’ धनराज ने कहा और रम की बची हुई बॉटल को खिड़की से बाहर फेंक दिया।

रात के अँधेरे और सन्नाटे में फ्लैट के पिछवाड़े गिरने के बावजूद बॉटल के टूटने ने खासा शोर किया। वाचमैन की सीटियाँ गूँजने लगीं। दो-तीन लोगों ने अपनी-अपनी खिड़कियों से झाँक कर भी देखा। धनराज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसकी आँखें एक अजीब-से अचंभे में पहुँच कर स्थिर हो गई थीं, फिर वह सोफे पर ही पसर गया।

बहुत दिनों के बाद धनराज बिना खाना खाए सो गया।

‘सॉरी पापा।’ सोते हुए धनराज के माथे पर किस किया रोहित ने, ‘मैं आपकी तकलीफ को समझता हूँ।’

सरिता की आँख में बड़े दिनों के बाद कुछ आँसू आए। वह धनराज के जूते उतारने लगी। देर तक बेडरूम की खिड़की से बाहर के अँधेरे को ताकती हुई वह सोचती रही कि उनकी गृहस्थी को किसका शाप लगा है।

उस रात दिल्ली के एक महँगे इलाके में एक धनपशु कॉलेज की एक लड़की से बलात्कार करने के बाद उसे काट-काट कर तंदूर में भूना जा रहा था और मुंबई के कुछ होटलों में बीवियाँ बदलने का खेल चल रहा था।

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गोल्डन नेस्ट के बाहर हाईवे पर शेयर ऑटो मिलते थे। हैरान परेशान धनराज ने शेयर ऑटो किया और पाँच रुपए में भायंदर स्टेशन पहुँच गया। पुल पार करके वह भायंदर पश्चिम पहुँचा और उसने भगतसिंह पुस्तकालय की सदस्यता ले ली।

इस पुस्तकालय में होनेवाली एक छोटी-मोटी-सी कवि गोष्ठी में एक बार वह मुख्य अतिथि बन कर आया था।

‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ नाम की किताब इशू करा कर वह पुस्तकालय की मेज के एक कोने पर चला गया। उसे किताब के नाम ने आकर्षित किया था। लेकिन जल्दी ही वह ऊब गया। उसने किताब वापस कर दी और बाहर आ गया।

रेल की पटरियों के पास एक बड़ी-सी खुली जमीन, जिस पर लकड़ी के मोटे-मोटे स्लीपर पड़े थे, पर धनराज ने बहुत सारे बूढ़ों को देखा। उसे लगा, बूढे़ लोगों की कोई सभा है। उन बूढ़ों के पास से गुजरता हुआ धनराज वापस पुल पर आ गया और पुल पर चढ़ती-उतरती भीड़ को देखने लगा।

बहुत भीड़ हो गई है। उसने सोचा और खुद भी भीड़ का हिस्सा बन कर सीढ़ियाँ उतरने लगा। पूर्व में आ कर वह शालीमार फर्नीचर के उपाध्याय जी के पास बैठ गया। धनराज के घर का ज्यादातर फर्नीचर शालीमार से ही गया था। उन्होंने धनराज के लिए कॉफी मँगवा ली।

‘बड़े दिनों के बाद आना हुआ?’ उपाध्याय जी ने पूछा, ‘क्या चाहिए?’

‘अब घर में जगह ही कहाँ बची है।’ धनराज ने जवाब दिया, ‘सब कुछ तो है।’

‘सो तो है।’ उपाध्याय जी खिसिया कर बोले, ‘इस धंधे में भी बहुत मंदी आ गई है। कई-कई दिन बीत जाते हैं कोई कुछ खरीदने ही नहीं आता। लगता है सब लोग सब कुछ खरीद चुके हैं। अब तो दुकान का किराया निकालना भी भारी पड़ रहा है।’ उपाध्याय जी ने अपनी विशाल दुकान को निहारते हुए ठंडी साँस ली।

धनराज ने बूढ़ों के बारे में पूछा, ‘वे कौन लोग हैं?’

उन्हें उनके बेटे-बहुओं या दामाद-बेटियों ने घर से निकाल दिया है। इसलिए दिन भर पटरियों पर टाइम पास करते हैं।

‘क्यों?” धनराज थोड़ा-सा चकित हुआ और थोड़ा-सा उदास, ‘घर से क्यों निकाल दिया है?’

‘क्या है कि लोग एक-एक कमरे के घरों में रहते हैं। बेटा या दामाद काम पर चले जाते हैं तो बेटी-बहुओं के बीच एक कमरे में कैसे रहेंगे? इन्हें सुबह निकाल दिया जाता है और रात को वापस ले लिया जाता है।’ उपाध्याय जी ने समझाया।

इसका मतलब अपने सेक्टर-एक के भी कुछ बूढ़ों का जीवन यही होगा। धनराज ने सोचा और पूछा, ‘और इनका खाना?’ वह बूढ़ों को ले कर चिंतित हो गया।

‘खाना, रात को मिलता है न! दिन में बड़ा पाव वगैरह खा लेते होंगे।’ उपाध्याय जी ने लापरवाही से कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है। मैं कुछ ऐसे बूढ़ों को जानता हूँ, जिन्हें उनके बेटों ने विरार से चर्च गेट का पास बनवा दिया है। बूढ़े सुबह विरार ट्रेन में जा कर बैठ जाते हैं और रात को उसी ट्रेन से उतर कर अपने घर चले जाते हैं।’

‘और लैटरीन-बाथरूम?’ धनराज पूछ बैठा।

‘उसके लिए स्टेशन हैं न!’ उपाध्याय जी को धनराज की अज्ञानता पर चिढ़-सी मची, ‘और बताइए क्या चल रहा है?’

‘चलना क्या है?’ धनराज मुस्कराया और वापस शेयर ऑटो में बैठ कर घर लौट आया।

धनराज का घर!

रात को जब धनराज ने बिना शराब पिए खाना खा लिया तो सरिता खुश होने के बजाय दुखी हो गई। उसके भीतर एक खरा पश्चात्ताप उग आया, ‘इतनी कठोर बात नहीं करनी चाहिए थी इस आदमी से, जिसने परिवार को सारे सुख दिए। क्यों औरतें पति और बेटे में से किसी एक के साथ खड़ी नहीं रह पातीं?’ सरिता ने सोचा और डबडबाई आँख लिए किचन में चली गई।

ग्यारह बजे के करीब रोहित घर में घुसा। उसने धनराज को सोफे पर पड़े देखा तो इशारों से सरिता से पूछा। सरिता ने उस चुप रहने का इशारा किया और रोहित चुपचाप बेडरूम में आ कपड़े बदलने लगा।

खाना खा कर रोहित हॉल में आया और बोला, ‘पापा, लाइट बंद कर दूँ?’

‘नहीं।’ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली। फिर पूरी रात धनराज ने दो ही काम किए – दाएँ से बाएँ करवट ली और बाएँ से दाएँ।

उसकी करवटों को देर रात तक महसूस किया रोहित और सरिता ने।

अगली सुबह फ्रेश हो कर धनराज वापस भगत सिंह पुस्तकालय चला गया। उसने अल्मारियों में लगी बहुत-सी किताबों को देखा – क्राइम एंड पनिशमेंट, अन्ना कैरेनिना, राम की शक्ति पूजा, मुक्ति बोध रचनावली, उखड़े हुए लोग, माँ, सारा आकाश, विद्रोही, कुरु कुरु स्वाहा, एक चिथड़ा सुख, अपने-अपने अजनबी, मित्रो मरजानी, भागो नहीं दुनिया को बदलो, पूँजी, रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूशन, हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड, आधी रात की संतानें, तमस, काला जल, कव्वे और काला पानी, दर्शन दिग्दर्शन, कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो, कसप, अँधेरे बंद कमरे, ठुमरी, गोदान, कनुप्रिया, अंधा युग, मुर्दाघर, बेदी समग्र, मंटोनामा, दादर पुल के बच्चे आदि।

फिर वह थक गया। किताबों से उसका वास्ता बीए पास करने तक का ही रहा था। उसे लगा यह दुनिया उसकी नहीं है। बहुत-बहुत हताश हो कर वह वापस मेज पर बैठ गया। देर तक बैठा रहा फिर थके कदमों से बाहर निकल आया।

बाहर जीवन युद्धरत था। लोग हाथों में ब्रीफकेस लिए, कंधे पर झोला लटकाए, सिर पर बोझ उठाए ट्रेन पकड़ने के लिए भागे जा रहे थे। टिकट विंडो की लंबी-लंबी कतारों में खड़े थे, रेलवे स्टॉल पर खड़े-खड़े बड़ा पाव, पाव समोसा, कचौरी खा रहे थे, कोक पी रहे थे, कानों से मोबाइल चिपकाए संदेश सुन रहे थे, भाग कर ट्रेन के पायदान पर लटक रहे थे। किसी के पास किसी के लिए फुर्सत नहीं थी। भीड़ को देख अंदाजा लगाना मुश्किल था कि कौन काम पर जा रहा है और कौन काम से निकाला जा कर लौट रहा है। किसके पास पैसा है और किसके पास पैसा नहीं है। सबके चेहरों में सिर्फ एक ही समानता थी कि सबके चेहरे खामोश, चिंताग्रस्त और खोए-खोए-से नजर आते थे-फिर चाहे वे चेहरे स्त्रियों के हों या पुरुषों के।

धनराज पुल पार करके भायंदर पूर्व की तरफ आ रहा था कि एक ठीक-ठाक-से दिखते लड़के ने उसे सीढ़ियों पर टोक दिया, ‘आपके पास तीन रुपए हैं?’ धनराज अचकचा गया और तेजी से बोला ‘हाँ हैं, क्यों?’

‘मुझे दीजिए न!’ लड़के ने आग्रह किया।

‘क्यों भई!’ धनराज ने पूछा। लड़का कहीं से भी भिखारी जैसा नहीं लगता था।

‘बड़ा पाव खाना है।’ लड़के ने गर्दन झुका दी।

‘घर से भाग कर आए हो?’ धनराज ने पूछा।

‘हाँ।’ लड़के ने स्पष्ट जवाब दिया।

‘कहाँ से?’ धनराज की उत्सुकता में इजाफा हुआ।

‘बिहार से।’ लड़का मासूमियत से बोला।

‘क्यों?’ धनराज के तेवर आक्रामक हुए।

‘काम की तलाश में।’ लड़का सहमा-सा बोला।

‘तो काम करो। भीख क्यों माँगते हो?’ धनराज ने उसे नसीहत और तीन रुपए एक साथ दिए।

‘लाइए काम।’ लड़का तत्परता से बोला, ‘मैं काम करने को तैयार हूँ। सब बोलते हैं, काम करो, पर काम देता कोई नहीं है।’

‘कहाँ-कहाँ काम ढूँढ़ा? पढ़े-लिखे हो?’ धनराज के भीतर लड़के को ले कर दिलचस्पी पैदा होनी शुरू हुई। यूँ भी वह खाली ही तो था, अच्छा टाइम पास हो रहा था।

‘कालबा देवी के बाजारों से ले कर भायंदर के बाजारों तक घूमा हूँ। दसवीं पास हूँ, पर सब बोलते हैं कि किसी जान-पहचानवाले को लाओ।’ लड़का व्यथित था।

‘मुंबई आने की सलाह किसने दी?’ धनराज ने पूछा।

‘किसी ने नहीं।’ लड़का सहजता से बोला, ‘बिहार के लड़के भाग कर या तो मुंबई आते हैं या कलकत्ता जाते हैं।’

‘तुम्हारे लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकता मैं।’ धनराज गहरी उदासी में डूब कर बोला और उसने लड़के को जेब से एक बीस रुपए का नोट निकाल कर दे दिया।

धनराज रेलवे स्टॉल पर खड़ा इडली सांभर खा रहा था, जब उसने उसी लड़के को एक दूसरे आदमी से पूछते देखा, ‘आपके पास तीन रुपए हैं?’

‘तो भीख माँगने का यह आधुनिक तरीका है?’ धनराज ने सोचा और खुद को छला गया महसूस किया। पैसे चुका कर वह स्टेशन के बाहर निकल रहा था कि एकदम अचानक उसे अपने पिता की याद आई। उसने देखा स्टेशन के बाहर, टिकट विंडो के सामने एक 40-45 साल का थका-थका-सा आदमी बाँसुरी पर गा रहा था-

चुपके-चुपके रोनेवाले

रखना छुपा के दिल के छाले…

ये पत्थर का देस है पगले

कोई न तेरा होय

धनराज रुक गया। कई लोग रुके हुए थे। वह आदमी भीख नहीं माँग रहा था, सिर्फ गाना गा रहा था। लेकिन उसकी आवाज में इतनी करुणा, इतना विलाप और दर्द था कि लोग खुद-ब-खुद उसे एक रुपया, आठ आना, दो रुपया दिए जा रहे थे। धनराज ने भी एक दो रुपए का सिक्का उसे दिया और सोचा, बिहार से आए उस लड़के को इस आदमी के सामने केवल खड़ा कर देना चाहिए।

रखना छुपा के दिल के छाले…धनराज ने दोहराया और पिता की याद गहरी हो गई।

मृत्यु से कुछ समय पहले तक पिता बिस्तर में लेटे-लेटे यही गाना गाया करते थे-

पिंजरे के पंछी रे

तेरा दर्द न जाने कोय…

मृत्यु की तरफ जाते पिता देख रहे थे कि जीवन भर के जी तोड़ संघर्ष के बावजूद घर उनसे सँभल नहीं पाया था। अपने अंतिम दिनों में वह बहुत हताश थे और आँखें बंद कर के गाते रहते थे-

रखना छुपा के दिल के छाले रे …

यह तब की बात है, जब धनराज बी.ए. करने के बाद जोधपुर में नौकरी के लिए मारा-मारा घूम रहा था और राकेश एक बिजली की दुकान में पढ़ाई छोड़ कर रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हो गया था। बाद में उसी दुकान पर धनराज भी लगा, लेकिन तब तक पिता के छाले फूट गए थे और उन छालों को उन्होंने हमेशा के लिए छुपा लिया था।

घर पहुँच कर धनराज लेटने के लिए चला गया। सरिता ने खाने के लिए पूछा, तो उसने मना कर दिया। सरिता ने बताया कि वह सेक्टर चार जा रही है।

‘सेक्टर चार। क्यों?’ धनराज हैरान रह गया।

‘सेक्टर चार के पब्लिक स्कूल में मैथ की टीचर चाहिए। सोचती हूँ अप्लाई कर आऊँ।’ सरिता ने बताया।

‘ओह।’ धनराज के होंठ गोल हो गए। सरिता गणित की अच्छी जानकार थी।

‘ठीक है।’ धनराज ने एक ठंडी साँस भरी और गुनगुनाने लगा – रखना छुपा के दिल के छाले रे…

शाम चार बजे धनराज बैठा अपने ब्रीफकेस की सफाई कर रहा था कि उसे एक कार्ड मिला – अयूबी सिक्योरिटीज। धनराज को याद आया कि जिन दिनों सम्राट समूह का पालघरवाला प्लांट लग रहा था, उन दिनों अयूबी सिक्योरिटीज के मालिक महमूद अयूबी ने उससे प्रार्थना की थी की वह उसे काम दिलाए। फिल्मों में विलेन बनने आए महमूद अयूबी ने फिल्मों में लंबे संघर्ष से ऊब कर छोटे स्तर पर सिक्योरिटी गार्ड्स का धंधा अपना लिया था। अयूबी चारकोप में उसका पड़ोसी था। बाप का तंबाकू का व्यवसाय था, जो उसे रास नहीं आया। वह मुंबई में प्राण या प्रेम चोपड़ा या फिर अमजद खान बनने आया था, लेकिन निर्माताओं ने उसे मौका ही नहीं दिया। वापस घर लौटने में हेठी होती थी, इसलिए उसने इस धंधे में उतरने की सोची। उसने चारकोप में अपने बाजू में एक और घर किराए पर लिया और अपने शहर अलीगढ़ से जाँबाज किस्म के एक दर्जन बेकार युवकों को बुला कर उस घर में रख दिया। घर के बाहर उसने बोर्ड टाँगा — ‘अयूबी सिक्योरिटीज’ और धंधे की तलाश में निकल पड़ा।

उन्हीं दिनों धनराज ने उसके बारह में से छह गबरू जवानों को अपने पालघर के प्लांट में रखवाया था। अयूबी ने कहा था, ‘यह मुसलमान की जुबान है, धनराज सेठ। आपने हमारी मदद की। कभी हमको भी आजमा कर देखना।’ बाद के दिनों में धनराज को पता चलता रहा कि महमूद अयूबी चारकोप की पतरेवाली बैठी चाल से निकल कर एक दो कमरोंवाले फ्लैट में शिफ्ट हो गया है। उसका धंधा चल निकला है और उसकी सिक्योरिटी सर्विस में अब पचास से ज्यादा लोग हैं। सबके सब अलीगढ़, सहारनपुर, नजीबाबाद और मेरठ के मुसलमान नौजवान, जो बिना रोजगार के अपने-अपने शहरों में बेकार भटक रहे थे। मुंबई जैसे शहर में अयूबी पचास से ज्यादा लड़ाकू नौजवानों का माई-बाप था। यह छोटी बात नहीं थी। लोग उन लड़कों को अयूबी के फंटर बोलते थे।

घटाटोप अँधेरे में जैसे एकाएक टॉर्च जल कर बुझ जाए। धनराज उछल पड़ा। उसे लगा, मुसलमान की जुबान को जाँचने का मौका आ पहुँचा है।

समस्या यह थी कि उसके पास अयूबी का नया पता-ठिकाना नहीं था। उसने तय किया कि अयूबी के पुराने घर चारकोप चलता है। फटाफट तैयार हो कर धनराज घर से निकल पड़ा। मीरा रोड पहुँच कर उसने बोरीवली का टिकट लिया और प्लेटफार्म पर आ गया। शाम के छह बज रहे थे। चर्च गेट से आनेवाली गाड़ियाँ थके-टूटे-झल्लाए, भुनभुनाते और भन्नाए लोगों को प्लेटफार्म पर फेंक रही थीं। व्यस्त घंटे शुरू हो गए थे। उस तरफ के प्लेटफार्म पर लोगों की भीड़ टिड्डी दल की तरह बिछी पड़ी थी। सिर ही सिर। न उभरी हुई छातियों का आकर्षण, न उत्तेजक नितंबों को ले कर कोई सिसकारी। जैसे वीतरागियों का हड़बड़ाया हुआ समूह मायालोक से निकल कर मुक्ति के रास्तों पर भागा जा रहा हो।

हालाँकि चर्च गेट जानेवाली गाड़ियाँ खाली थीं, फिर भी एहतियातन धनराज ने प्रथम श्रेणी का ही टिकट लिया था। बोरीवली तक ही तो जाना था। ट्रेन आई तो वह आराम से चढ़ गया और गेट पर खड़ा हो कर हवा खाने लगा। वह दहिसर और बोरीवली के बीच बसी झोपड़पट्टी और उनमें रहते हुए लोगों का मुआयना-सा करने लगा।

दो-तीन लोग पास में डिब्बा या बोतल रख कर पूरे जमाने से निरपेक्ष हो कर पटरियों पर बेफिक्री के साथ निपट रहे थे। कुछ औरतें अपनी झोपड़ियों के बाहर बैठी परात में आटा गूँथ रही थीं। झोपड़पट्टी से थोड़ा हट कर एक मैदान जैसी जगह में कुछ छोटे लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। चार जवान छोकरे और दो अधेड़ ताश खेल रहे थे और किसी बात पर ठहाके लगा कर हँसते जा रहे थे। एक बच्चा घुटनों-घुटनों सरकता हुआ पास बहते गंदे नाले में जा गिरा था, जिसे बचाने के लिए एक औरत झोपड़ी से निकल नाले की तरफ चिल्लाती हुई भागी जा रही थी। इस बीच ट्रेन आगे बढ़ गई।

यह जीवन पहले भी था, धनराज। धनराज के भीतर कोई बुदबुदाया, बल्कि इससे भी ज्यादा बदतर और बेमानी। जरा सोचो क्या तुम इस जीवन के भीतर दो-पाँच दिन के लिए भी साँस ले सकते हो। उसमें रह कर ठहाके लगा सकते हो। झिलमिल करती, मदमस्त मुंबई का चकाचौंध करनेवाला स्वर्ग इस जीवन के नरक पर ही टिका हुआ है। इस जीवन से ताकत लो, धनराज।

धनराज बौखला गया। ऐसा उसके जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। यह कौन उसके भीतर छुपा उसे पुकार रहा है?

बोरीवली उतर धनराज वेस्ट में आ गया। चारकोप के ऑटो में बैठ कर उसने सिगरेट जला ली।

चारकोप का चेहरा बदल गया था। चारकोप बस डिपो से गोराई जानेवाली खाड़ी के जिस मोड़ तक धनराज कभी रात में गुजरने की सोच भी नहीं सकता था, वह पूरा इलाका लकदक बाजारों, छोटे बँगलों और हाउसिंग सोसायटी के फ्लैटों से जगर-मगर हो गया था। इस नए चारकोप के भीतर से पुराने चारकोप को तलाशना खासा कठिन था। धनराज अपने घर ले जानेवाली गली को भूल गया। धनराज आठ बरस के बाद चारकोप लौट रहा था। उसने ऑटो मेन रोड पर छोड़ दिया और बस डिपो के बगल में बनी पहली गली और उस गली के नुक्कड़ पर बने साईंबाबा के मंदिर को खोज निकाला। मंदिर पहले से ज्यादा बड़ा और भव्य हो गया था। उसने मंदिर के सामने खड़े हो कर हाथ जोड़े और गर्दन झुका दी। इसी गली के अंतिम सिरे पर वो मैदान था, जिसमें दिसंबर के दंगों में मुसलमानों का सामान जलाया गया था। वहाँ एक सात मंजिला इमारत खड़ी थी। उस इमारत को पार कर धनराज आगे बढ़ गया। आखिर वह रुका और उसने एक पानवाले से पूछा, ‘क्यों बॉस, सेक्टर चार में डॉ. लवंगारेवाली गली कौन-सी है?’

डॉ. लवंगारे का क्लीनिक उस गली के मोड़ पर एकदम शुरू में था, जिस गली में कभी धनराज रहा करता था। डॉ. लवंगारे अपने मरीजों को इतनी गोलियाँ देता था कि उनसे पेट भर जाए। इसीलिए सरिता उसे घोड़ों का डॉक्टर कहती थी।

लवंगारेवाली गली वही थी, जिसके सामने कभी मैदान और अब सात मँजिला इमारत खड़ी थी। धनराज उस गली में आगे बढ़ गया, आखिर, रोड पर ही बनी 440/41 नंबरवाली पतरे की चाल के सामने वह रुक गया। यह था उसका अपना घर।

उसने बंद घर के बाहर लगी बेल बजा दी।

दवाजा खुला और धनराज एलिस के आश्चर्यलोक में जा गिरा।

वही थी, एकदम वही। सपना सारस्वत। मालाड के चाँदनी बार की उसकी पसंदीदा डांसर, बीते दिनों में एंटरटेनमेंट के वाउचर बना-बना कर बहुत पैसे लुटाए थे उसने सपना सारस्वत पर।

‘तुम?’ दोनों के मुँह से एक साथ निकल पड़ा।

‘आओ। भीतर आओ।’ सपना ने मुस्करा कर कहा, कितने बरसों बाद आए हो…लेकिन ध्यान रखना मेरे निकलने का टाइम हो गया है। सपना ने अपनी घड़ी दिखाई।

धनराज भीतर आ गया। वह सपना को भूल उस घर को घूम-घूम कर देखने लगा।

‘पुलिस में भर्ती हो गए हो क्या?’ सपना खिलखिलाई।

‘पागल। इस घर में कभी मैं रहता था।’ धनराज ने सपना के गालों को थपथपा दिया। कितने जमाने के बाद उसके जीवन में एक मचलता हुआ उल्लास लौट रहा था।

‘क्या बात करते हो?’ सपना दंग रह गई, ‘तो क्या मैं तुम्हारे घर में रहती हूँ?’

‘नहीं रे।’ धनराज उसी उल्लास के बीच खड़ा-खड़ा बोला, ‘मुंबई में घर इतनी आसानी से नहीं बनते। तुम तो वैसी की वैसी हो…एकदम चकाचक।’ अब वह सपना को निहारने लगा।

‘हमको चकाचक रहना पड़ता है, धनराज। हमारा पेशा है यह।’ सपना की आवाज उखड़ने लगी।

‘उखड़ो मत, उखड़ो मत।’ धनराज ने अचानक गार्जियन की भूमिका सँभाल ली, ‘धंधे का टाइम हो रहा है तुम्हारे। अभी भी चाँदनी बार में ही नाचती हो?’

‘नहीं। अभी मैं ‘लोटस’ में हूँ।’ सपना ने इतरा कर कहा।

‘अरे बाप रे? ‘लोटस’ तक पहुँच गईं तुम?’ धनराज चकित हो गया, ‘अगली छ्लाँग कहाँ की है, दुबई की?’

लड़कियाँ श्रीदेवी और रेखा बनने मुंबई आती थीं और बारों में नाचने लगती थीं। बारों में नाचते-नाचते उनका सपना अभिनेत्री बनने के बजाय ‘लोटस’ पहुँच जाने का हो जाता था। ‘लोटस’ में नाचते-नाचते वे दुबई पहुँच जाती थीं – शेखों के दरबार में। पाँच-सात साल दुबई में गुजार कर वे वापस मुंबई लौटती थीं – ढेर सारे हीरे-जवाहरात, मोटे बैंक बैलेंस, निचुड़े हुए सीनों और गंभीर बीमारियों के साथ। मुंबई की किसी अच्छी जगह पर अपना फ्लैट खरीदतीं और उसी फ्लैट में खाते-पीते और मुटाते हुए एक दिन मर जाती थीं।

‘मुझे नहीं जाना दुबई।’ सपना सिहर गई।

‘दुबई तो तुमको जाना ही पड़ेगा, रानी।’ धनराज हँसने लगा। ‘लोटस’ के शब्दकोश में ‘न’ अक्षर छपा ही नहीं है। तुम इतनी सुंदर हो कि तुम्हें दुबई जाना ही पड़ेगा।’

सपना लजा गईं फिर बाहर निकल ताला बंद करने लगी। खाली जाते ऑटो को रोक वह उसमें बैठती हुई बोली, ‘दुनिया बहुत छोटी है, शायद हम फिर मिल जाएँ। वैसे तुमने मेरा घर, सॉरी अपना घर तो देखा ही हुआ है।’

‘बाय।’ धनराज ने हाथ हिला दिया, फिर वह घर के बाहर बनी दीवार की रेलिंग पर बैठ गया।

दो लड़कियाँ सामने से गुजरीं। उन्होंने धनराज को उड़ती नजर से देखा, फिर उनमें से एक एकाएक ठिठक गई?

‘आप धनराज अंकल हैं?’ वह बोली, ‘रोहित के पप्पा?’

‘हाँ!’ धनराज ने कुछ याद करने की कोशिश की, ‘तुम?’

‘अंकल, मैं डॉली हूँ। डॉली काकड़े।’ लड़की पास चली आई।

‘अरे? आप इत्ते बड़े हो गए?’ धनराज को याद आ गया। यह विनोद काकड़े की बेटी थी, जो कभी-कभी अपने घर से उसके लिए फिश फ्राई लाती थी। विनोद काकड़े इसी सोसायटी में अंदर रहता था और बेस्ट में ड्राइवर था।

‘घर चलिए न, अंकल।’ लड़की मचलने लगी।

‘अभी नहीं बेटे।’ धनराज ने मना कर दिया, ‘मुझे तुम यह बताओ कि सामनेवाली सोसायटी में जो अयूबी अंकल रहते थे, उनका पता कहाँ से मिलेगा?’

‘पानबुड़े भाभी से पूछिए न।’ लड़की ने सलाह दी और बोली, ‘आंटी को बोलिए न, कभी इधर भी आएँ।’

‘जरूर।’ धनराज ने जवाब दिया और पानबुड़े भाभी के घर की तरफ बढ़ने लगा।

पानबुड़े भाभी अपने घर के बाहर दुकान लगाती थीं और अयूबी का वहाँ सिगरेट-सोडे-नमकीन का खाता चलता था। पानबुड़े भाभी का पति अच्छा गायक था, लेकिन फिल्मों में मौका न मिल पाने के कारण शराब पी-पी कर मर गया था, वह इस गली की जगत भाभी थीं।

चारकोप के दिनोंवाली दूसरी होली में धनराज ने भाभी के स्तनों पर रंग मल दिया था। भाभी गुर्राने लगी थीं, फिर कमरे में जा कर चॉपर निकाल लाई थीं। धनराज ने माफी माँग ली थी। वह थोड़ा मुटा गई थीं, लेकिन हँसती अभी भी उसी अंदाज में थीं, जिसे देख आदमी फिसलने-फिसलने को हो जाए।

‘अयूबी अब्भी बहुत बड़ा सेठ है।’ भाभी ने बताया, ‘अब्भी इदर एक सेक्टर छह बन गएला है गोराई के बाजू में, कोई भी ऑटो में बैठ जाओ, अयूबी तक पहुँचा देगा। कोई खास बात?’

‘नहीं भाभी। बस यूँ ही। सोचा मिल लेता हूँ। फिर आता हूँ।’ धनराज भाभी से विदा ले कर खाली जाते ऑटो में बैठ गया और बोला, ‘सेक्टर छह। अयूबी के दफ्तर।’

ऑटोवाले ने धनराज का सिर से पाँव तक मुआयना किया और बोला, ‘ऑफिस नजीक ही है, पन पचास रुपया लगेंगा। और अपुन ऑफिस के सामने नई छोड़ेंगा। दूर से दिखा के चला आएँगा, चलेगा?’

‘चलेगा।’ धनराज ने जवाब दिया।

सेक्टर-छह की पुलिस चौकी के पास ऑटोवाले ने धनराज को उतार दिया और बताया, ‘वो सामने काले काँच के दरवाजोंवाली बिल्डिंग अयूबी सेठ की है।’

धनराज ने चुपचाप पचास रुपए दे दिए। ऑटो मुश्किल से दस मिनट चला होगा।

धनराज को याद आ गया। यह वही रास्ता है जो गोराई बीच ले जानेवाले तट पर जाता है। तट से बोट ले कर उस पार उतरते हैं, फिर ताँगे में बैठ कर गोराई बीच जाते हैं। चारकोपवाले दिनों में वह सरिता और रोहित के साथ कई बार इस रास्ते से गोराई बीच जा चुका है। लेकिन तब यह रास्ता सुनसान रहता था। बिल्डिंग और रो हाउस तो क्या चाय की एक गुमटी भी यहाँ नजर नहीं आती थी। लगातार मुंबई आ रहे लोग एक दिन इसकी एक-एक इंच जगह पर खड़े हो जाएँगे। धनराज ने कल्पना की।

काले काँच के दरवाजों के बाहर धनराज को दो सशस्त्र वाचमैनों ने रोक लिया, ‘किससे मिलने का है?’

‘अयूबी से।’ धनराज ने उत्तर दिया।

‘कार्ड?’ एक वाचमैन ने हाथ आगे बढ़ाया।

धनराज ने पर्स निकाला। संयोग से सम्राट समूह के मीडिया डायरेक्टरवाले दो-तीन विजिटिंग कार्ड उसमें मौजूद थे। उसने एक कार्ड पकड़ा दिया और देखा – बिल्डिंग के गेट पर सुनहरे अक्षरों में अयूबी सिक्योरिटीज ही लिखा था। वह थोड़ा-सा आश्वस्त हुआ। उनमें से एक वाचमैन भीतर गया और करीब तीन मिनट बाद वापस आया, ‘जाइए।’

धनराज ने काले काँच का दरवाजा भीतर की तरफ धकेल दिया और एसी की ठंडी फुहार से प्रफुल्ल हो गया।

‘सॉरी सर।’ एक महिला ऑपरेटर बोली और उसने अपने सामने की बेंच पर बैठे कुछ सादी वर्दी वालों को इशारा किया। तत्काल दो लोग उठे और उन्होंने धनराज को सिर से पाँव तक मय ब्रीफकेस के जाँच लिया। इसके बाद उनमें से एक ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया। धनराज चल पड़ा, एक गलियारा पार करने के बाद साथ आए आदमी ने एक कमरे का दरवाजा खोला और बोला, ‘जाइए।’

भीतर अयूबी था।

वह अयूबी नहीं, जिसकी धनराज ने कभी मदद की थी।

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यह चमकते लेकिन खिंचे हुए कटावदार चेहरेवाला वह अयूबी था, जैसा वह फिल्मों में बनने आया था, सुनहरे पर्दे पर उसे यह मौका नहीं मिला तो वास्तविक जीवन को उसने इस दिशा में मोड़ लिया। वह कीमती शेरवानी में था। उसके बाएँ हाथ में राडो घड़ी और दाएँ हाथ में सोने का ब्रेसलेट था। गले में काफी मोटी सोने की चेन डाले एक बड़ी-सी मेज के पीछे वह रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा था।

धनराज के प्रवेश करते ही वहाँ मौजूद तीन-चार लोग कमरे से बाहर निकल गए।

‘वेलकम धनराज सेठ।’ अयूबी ने खड़े हो कर अपनी बाँहें फैला दीं, ‘बहुत दिनों के बाद अपुन को याद किया।’

अयूबी से गले मिल कर धनराज उसके सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गया। वह समझ नहीं पाया कि बात का सिरा किधर से थामे। चुप रह कर वह इस बात का अंदाजा लगाने में भी व्यस्त था कि ‘अयूबी सिक्योरिटीज’ में उसे उसके लायक क्या काम मिल सकता है।

‘मेरी नौकरी चली गई।’ धनराज तत्काल मुद्दे पर आ गया।

‘अपुन को क्या करने का है?’ अयूबी ने पूछा, ‘अपुन ने तुमको जुबान दिया था सेठ। बोलो, अपुन तुम्हारे वास्ते क्या कर सकता है?’

‘मुझे तुम्हारे यहाँ नौकरी मिल सकती है?’ धनराज ने सीधे ही पूछ लिया।

उसके सवाल पर अयूबी की हँसी छूट गई। हँसते-हँसते उसकी आँखों में पानी आ गया। थोड़ा सँभल कर वह बोला, ‘मजा आ गया धनराज सेठ। तुम बिल्कुल नहीं बदले…अभी भी एकदम वैसे ही हो…सिर झुका कर कोल्हू के बैल का माफिक डगर-डगर करते हुए। अच्छा टाइम पास हुआ आज।’ फिर उसने इंटरकॉम उठा कर ऑपरेटर से कहा, ‘सलीम लँगड़े को भेजो तो।’

भरे-पूरे बदन और शातिर-सी आँखोंवाले, दोनों पैरों पर चल कर आनेवाले जिस आदमी ने भीतर आ कर अयूबी से ‘यस बॉस’ कहा उसे देख धनराज अचरज में पड़ गया, ‘इसका नाम लँगड़ा क्यों है?’

‘लँगड़े!’ अयूबी फिर हँसने लगा, ‘यह धनराज सेठ है…अपने शरीफ दिनों का शरीफ दोस्त। अपन को उठाने में इसने बहुत मदद किया था। अभी इसको मदद का जरूरत है। अपुन लोग इसके वास्ते क्या कर सकता है?’

‘किस टाइप का मदद बॉस?’ सलीम लँगड़े ने अदब के साथ पूछा।

‘इसका सेठ इसको नौकरी से निकाल दिया है।’ अयूबी ने बुदबुदा कर कहा।

‘सेठ को खल्लास करने का है?’ लँगड़े ने तत्परता से पूछा।

‘नहीं।’ धनराज डर गया और सहम कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।

‘बैठ जाओ धनराज सेठ। दस साल के बच्चे का माफिक डरो मत। अपुन तुम्हारी समस्या पर डिस्कस कर रेला ऐ।’ अयूबी ने धनराज को कंधे पकड़ कर वापस बैठा दिया। फिर उसने अपने दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में मिला लिया। फिर वह कुछ-कुछ संजीदगी और कुछ-कुछ हताशा की-सी स्थिति में बोला, ‘अयूबी की जुबान झूठा पड़ गया धनराज। तुम शरीफ आदमी हो, अपुन तुमको अपने यहाँ काम नहीं दे सकता। अपुन का धंधा अभी बदल गएला है।’

‘तो मैं चलूँ?’ धनराज उठने लगा।

‘पचास हजार या लाख जो बोलो, ब्रीफकेस में रखवा दूँ?’

अयूबी की सदाशयता को देख धनराज विस्मित रह गया। लाख-पचास हजार की बात अयूबी इस तरह कर रहा था, जैसे सौ−पचास रुपए देने हों।

‘नहीं, धन्यवाद। मैं चलता हूँ।’ धनराज पूरी तरह खड़ा हो गया।

‘ठीक है।’ अयूबी भी खड़ा हो गया, ‘मेरे को गलत मत समझना। क्या है कि ये काम तुमको परवड़ेगा नईं।’

धनराज चुपचाप बाहर आ गया।

बाहर दूर-दूर तक कोई ऑटो नहीं था। धनराज पैदल-पैदल चलता मेन रोड पर आ गया। ऑटो में बैठ कर वह थका-थका-सा बोला, ‘मुझे घर ले चलो।’

‘घर?’ ऑटोवाला चकरा गया।

‘बोरीवली स्टेशन छोड़ दो।’ धनराज ने लगभग बुदबुदाते हुए कहा और सिगरेट जलाने लगा।

घर खोजने, घर बनाने, घर सँवारने, घर सँभालने और घर बचाने में ही जीवन बीत गया है, धनराज। अब घर से थोड़ा ऊपर उठो। वरना पता चलेगा कि घर भी नहीं बचा और जीवन भी गया। धनराज का मस्तिष्क सहसा दार्शनिक किस्म की बातें सोचने लगा।

बोरीवली स्टेशन के बाहर पटरियों के किनारे बसे गरीबों के घर टूट रहे थे। मनपा का तोड़ू दस्ता पुलिस के संरक्षण में लोगों के घर उजाड़ रहा था और लोग अपना छोटा-मोटा सामान बचाने में जुटे थे। धनराज उन टूटे हुए घरों को देखता हुआ पुल पर चढ़ा और बोरीवली पूर्व की तरफ उतरने लगा। गजब है इनका जीवन। धनराज सोच रहा था। दो दिन बाद ये लोग फिर यहाँ घर खड़ा कर लेंगे, आखिर, मुंबई आने के बाद कोई यहाँ से जाता थोड़े ही है। घर रहे या न रहे! प्लेटफॉर्मों पर खड़ी भीड़ उन्मत्त और आक्रामक थी। धनराज ने मान लिया कि उससे ट्रेन नहीं पकड़ी जाएगी। रात के नौ बज रहे थे। इस वक्त बोरीवली से विरार की ट्रेन पकड़ना असाधारण वीरों का ही काम है। सीढ़ियाँ उतर कर खोमचों, ठेलों और दुकानों को निरुद्देश्य ताकता हुआ वह भायंदर जानेवाली बस के स्टॉप पर आ गया।

बस समय जरूर ज्यादा लेती थी, लेकिन ठीक गोल्डन नेस्ट के दरवाजे के बाहर उतारती थी।

दरवाजे के बाहर खासी भीड़ थी। पाँचों सेक्टरों की मिली-जुली भीड़। कुछ पुलिसवाले भी इधर-उधर टहल रहे थे। उस भीड़ को चीरते हुए धनराज राजकुमार पान बीड़ी शॉप पर चला गया, उसकी सिगरेट खरीदने की नियमित दुकान। दुकान के मालिक राजकुमार ने रहस्यमय अंदाज में रस ले-ले कर बताया, सेक्टर-पाँच के सोना ब्यूटी पार्लर पर पुलिस की धाड़ पड़ी है। कॉलेज की पाँच लड़कियाँ पाँच अधेड़ पुरुषों के साथ अश्लील हरकतें करती पकड़ी गई हैं। पकड़े गए पुरुषों में एक वर्मा साहब भी हैं, सेक्टर-चार के वर्मा साहब, जिनकी गोरेगाँव पश्चिम में बहुत बड़ी रेडीमेड कपड़ों की दुकान है और जिनका बेटा फोर्ट की एक कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर है।

‘वर्मा साहब ने सेक्टर-चार की इज्जत का कचरा कर दिया है।’ राजकुमार हँसने लगा, ‘इस उमर में तो आदमी पालक हो जाता है, मेरे को लगता है कि चुसवा रहे होंगे।’ राजकुमार फिर हँसा…’हा…हा…हा…अब उनकी बेटी इस रोड पर से कैसे गुजरेगी? हा…हा…हा…!’

०००

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की कोख से पैदा हुआ उत्तरआधुनिक समय हँस रहा था। शहर के अखबार और बाजार डॉट कॉम कंपनियों के विज्ञापनों से अटे पड़े थे। जुहू की गलियों में चोरी-छिपे चलनेवाला देह व्यापार का धंधा पिछड़ रहा था। महँगे और बड़े कॉलेजों की बिंदास किशोरियाँ चिपकी हुई जींस और टॉप के साथ कॉलेजों से बाहर निकल कर केवल एक रात के डिस्को जीवन और डिनर विद बीयर के सौदे पर लेन-देन कर रही थीं। इंटरनेट पर पोर्नो साइटें सबसे ज्यादा पैसा पीट रही थीं। पूरी दुनिया की हजारों नंगी लड़कियों को करोड़ों बाप-बेटे कंप्यूटर के मॉनीटर्स पर देखने में मशगूल थे। सरकारें अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही थीं। मल्टीनेशनल कंपनियों का अजगर बाजार को लीलता हुआ घुसा चला आ रहा था। कारें बढ़ती जा रही थीं। हवा और पानी समाप्त हो रहे थे। मुँह में चीज बर्गर या चिकन सैंडविच या मटन रोल दबाए और हाथ में कोक की बोतल थामे युवा लड़के डॉट कॉम कंपनियों में चौदह-चौदह घंटे खप रहे थे। जवान होती लड़कियाँ अपने उत्तेजक सीनों और कामातुर नितंबों के साथ फिल्म फाइनेंसरों की हथेलियों पर नाच रही थीं। अकेले छूट गए बूढ़े लोगों को उनके फ्लैटों में घुस कर कत्ल किया जा रहा था। बच्चों को क्रेच में फेंक दिया गया था और माएँ लोकल में लटक कर काम पर जा रही थीं।

दुनिया की सबसे छोटी कविता लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर खड़ी अट्ठहास कर रही थी – आई. व्हाई?

आई. व्हाई? गोल्डन नेस्ट के सेक्टर-चार की उदीयमान अभिनेत्री गीता अलूल कर ने सोचा और सातवें माले के अपने कीमती फ्लैट की खिड़की से छ्लाँग लगा दी। गीता अलूल कर के साथ-साथ उसके गर्भ में जन्म ले चुका उसका बच्चा भी मारा गया।

आई. व्हाई? सेक्टर-एक के शराबी ऑटो ड्राइवर की बीवी शोभा नार्वे कर ने सोचा और बदन पर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली। फिर घर से निकल कर पूरे सेक्टर में वह पछाड़ खाती फिरती रही।

नागपाड़ा पुलिस चौकी में बिना सोए छत्तीस घंटे से ड्यूटी दे रहा कांस्टेबल सालुंके बड़बड़ाया-आई. व्हाई? फिर उसने खुद को गोली मार ली।

घर से निकाल दिए गए सत्तर साल के सतवीर राणा ने दोहराया-आई. व्हाई? फिर वह विरार फास्ट के आगे कूद कर कट गया।

बारहवीं में पढ़ रहे साइंस के स्टूडेंट नासिर हुसेन ने सोचा-आई. व्हाई? और बस स्टॉप पर खड़ी अपनी सहपाठी रमेश टिपणिस के चेहरे पर तेजाब फेंक कर भाग खड़ा हुआ।

आई. व्हाई? एक समवेत और नसों को तड़का देनेवाला शोर उठा और मालाड, गोरेगाँव, चेंबूर, डोंबीवली, कुर्ला, भायंदर, मुलुँड, कल्याण, विरार के नौजवान और हताश लड़के सीधे हाथ की उँगलियों को रिवॉल्वर की शक्ल में ताने दगड़ी चाल की गलियों में गुम हो गए, जहाँ सात-सात हजार में शूटरों की भर्ती चल रही थी।

आई. व्हाई? छोटे-मोटे बिल्डर और शराबघरों के मालिक सोचते थे और चुपके से सत्ता के गलियारों में दाखिल हो जाते थे।

पत्र-पत्रिकाएँ बंद हो रही थीं। पुस्तकालय सूने पड़े थे। बड़े लेखक या तो मर गए थे या चुक गए थे। मीडियाकर लेखकों को शौचालयों के मालिक, जूतों और टायरों के मालिक, शराब कंपनियों के हिस्सेदार लाखों रुपए में पुरस्कार बाँट रहे थे। जन संघर्षों में सक्रिय रूप से जुड़े रचनाकारों को सलाखों के पीछे डाला जा रहा था। युवा लेखक टीवी सीरियलों के फूहड़ संसार में सेंध लगा रहे थे। अपहरण ने उद्योग का और हफ्ता वसूली ने धंधे का रूप धर लिया था। गुंडे नगरसेवक बन गए थे, डॉक्टर व्यापारी और क्रिकेटर घपलेबाज।

और इस पूरे ‘सीन पिचहत्तर’ में धनराज के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी।

तीन

नहीं, यह वह बबलू नहीं था, जिसे धनराज अमिताभ बच्चन बनने का सपना देखते हुए जोधपुर में छोड़ गया था। यह सलोने, लंबोतरे चेहरे, स्वप्निल आँखों और बात-बेबात पर मुस्कराता किशोर नहीं था। यह नागेश चौधरी था।

नागेश चौधरी का चेहरा सख्त और खुरदुरा था। उसकी आँखों में एक बनैली हिंसा और क्रूर चमक कौंधती थी। हँसता वह अभी भी था, लेकिन अब उसकी हँसी में एक उपेक्षा जैसा कुछ रहता था। सबसे बड़ी बात, उसकी बातें अजनबी हत्यारों के रहस्यमय देश से आती अंतिम आदेशों जैसी थीं।

इस नागेश चौधरी को अपने सामने खड़ा पा धनराज तो एकाएक लड़खड़ा ही गया।

धनराज जोधपुर आया हुआ था, सपरिवार। बहुत जमाने के बाद वह अपने कुल कुनबे के बीच था। एक बहुत सादे विवाह समारोह में ममता को विदा कर देने के बाद वे सब लोग अजीब-सी फुर्सत में एकाएक खाली हो गए थे। शादी का सारा इंतजाम, भागदौड़ और सरंजाम राकेश ने एक जिम्मेदार अभिभावक की तरह अंजाम दिया था और अब वह अपने प्रयत्नों को शहीदों की-सी मुद्रा में एकालाप की तरह गा रहा था। धनराज और सरिता उसकी शौर्यगाथा को बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे, जबकि नागेश के चेहरे पर एक अजीब-सा वीतराग था।

यह वीतराग धनराज ने अपनी माँ के चेहरे पर भी देखा। पता नहीं, माँ-बेटे में से किसने-किसके चेहरे से यह वीतराग चुरा लिया था। ठीक-ठीक यही वीतराग धनराज ने पिता के अंतिम समय में उनके चेहरे पर भी देखा था। कहाँ से आता है यह वीतराग और क्यों?

बुआ की शादी में, लड़केवालों के दल में शामिल हो कर रोहित जम कर नाचा था और अब थक कर, दादी की गोद में सिर छुपा कर एक बेफिक्र नींद में चला गया था। राकेश की पत्नी अपनी दोनों बेटियों के साथ दूसरे कमरे में जा चुकी थी। बैठकवाले कमरे में बाकी लोग थे — सरिता, धनराज, राकेश, नागेश, माँ और सोता हुआ रोहित। बीच-बीच में ममता की यादें भी टहलने चली आती थीं। इस पूरे कुनबे को बैठक की दीवार में, फ्रेम में जड़े पिता मुस्कुराते हुए देख रहे थे। राकेश की शौर्यगाथा से पूरी तरह निरपेक्ष नागेश टीवी पर समाचार सुन और देख रहा था। अचानक वह रुका। धनराज ने देखा-टीवी पर उद्घोषिका कह रही थी –

‘जनाधिकार अभियान के सिलसिले में मुंबई आए पूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने पत्रकारों को बताया कि या तो एनरॉन द्वारा महाराष्ट्र को लूट लिया जाएगा या महाराष्ट्र की जनता एनरॉन को लूट लेगी। केंद्र सरकार की उदार अर्थव्यवस्था तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया को भारत के लिए खतरे की घंटी बताते हुए श्री चंद्रशेखर ने कहा कि उदारीकरण एवं विदेशी कंपनियों के लिए दरवाजे खोल दिए जाने के कारण इतनी विषमता पैदा हो गई है कि गरीब इलाकों में भारी तनाव की स्थिति छाई हुई है। बेरोजगारी बढ़ने के साथ-साथ कारखाने बंद हो गए हैं। सब्सिडी बंद हो जाने के कारण हमारे किसान आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। श्री चंद्रशेखर ने कहा कि जो आत्महत्या करने पर मजबूर होता है, कल वह हत्या भी कर सकता है।’

‘गुड!’ बबलू उर्फ नागेश चौधरी चहका, ‘बुर्जुआ नेता भी चिंतित हैं।’ फिर उसने टीवी बंद कर दिया।

धनराज ने राहत की साँस ली, फिर बात शुरू करने के लिहाज से बोला, ‘बुर्जुआ मतलब?’

‘आप नहीं समझेंगे। छोड़िए।’ नागेश हँसी में हिकारत-सी भर कर बोला, जिससे धनराज को चोट लगी।

‘राकेश बता रहा था कि तुम गुंडागर्दी करने लगे हो?’ धनराज ने पलट कर वार किया।

बहुत जोर का ठहाका लगाया नागेश चौधरी ने फिर तिक्त लहजे में बोला, ‘बीवी बच्चे, माँ, बहन, नौकरी, आर्थिक तंगी की सदाबहार रुलाई के बीच मेढ़क की तरह टर्रा-टर्रा कर जीवन गुजारते राकेश भाई की कोई गलती नहीं है। वे भी उसी सड़े-गले समाज का हिस्सा हैं, जिसे हम बदलना चाहते हैं।’

‘क्या बदलना चाहते हो तुम?’ धनराज तनिक जोर से बोला, ‘मुझे तुम्हारी बातें समझ में नहीं आ रहीं?’

‘आएँगी भी नहीं।’ नागेश फिर टहलने लगा, ‘आप मुंबई के अपने सुखी जीवन में मस्त रहिए।’

‘क्या सुखी जीवन?’ धनराज तिलमिला गया, ‘मेरी नौकरी को गए छह महीने हो गए हैं।’

‘तो क्या हुआ?’ नागेश रुका, ‘रोहित कमाता है न?’

‘केवल छह हजार रुपए।’ धनराज ने याद दिलाया।

केवल छह हजार रुपए? नागेश फिर हँसा, ‘केवल? उन दिनों को भूल गए आप जब केवल छह सौ रुपए में हमारा बाप हम सबको पालता था। ममता को हम इंटर के बाद क्यों नहीं पढ़ा सके? इसलिए कि हम हर महीने उसकी फीस नहीं भर सकते थे। बिहार के जिन गाँवों में मैं काम करता हूँ, वहाँ के लड़के इंटरव्यू का बुलावा आने पर भी दिल्ली-मुंबई इसलिए नहीं जा पाते, क्योंकि उनके पास रेल का किराया नहीं होता।’

`’बिहार के गाँवों में क्या काम करते हो तुम?’ धनराज की उत्सुकता जागी।

‘वो भी आपको समझ में नहीं आएगा।’ नागेश उपेक्षा से बोला।

‘मगर यह कैसा काम है?’ धनराज बुजुर्गों की तरह बड़बड़ाया।

‘यह ऐसा काम है, जो पूरा होने पर देश का नक्शा बदल देगा।’ नागेश की आँखें चमकीं, ‘लेकिन उस बदले हुए नक्शे में आप लोगों के लिए भी जगह नहीं होगी। वर्ग शत्रुओं के कत्ले-आम के दौरान आप जैसे लोग भी मारे जाएँगे…पेटी बुर्जुआ रास्कल।’

धनराज सहम गया। उसे लगा राकेश ने शायद ठीक कहा था कि बबलू गुंडा हो गया है। धनराज ने राकेश की तरफ देखा, वह ऊबा-ऊबा सा, सोने के लिए दूसरे कमरे में जा रहा था। फिर नागेश भी बाहर चला गया, शायद किसी दोस्त से मिलने। ऐसे कौन-से दोस्त हैं, जो इतनी रात को भी जागते हैं। धनराज सोच रहा था। अंततः धनराज और सरिता ने भी उसी कमरे में चटाई पर बिस्तर लगा लिया और रोहित को जगा कर उस बिस्तर के एक कोने पर सुला दिया। माँ अपने कोने में पसर गई। माँ का वर्षों पुराना कोना।

यह पिता का घर था।

रखना छिपा के दिल के छाले…

घर छालों की तरह फट गया था। घर की दुर्दशा को देखते-देखते धनराज ने सरिता की तरफ ताका, तो पाया कि सरिता धनराज को ताक रही थी।

‘क्या सोच रही हो?’ धनराज ने पूछा।

‘मुझे लगता है, हमें इस घर को इस तरह नहीं भुला देना था।’ सरिता की आँखें नम थीं। वह एक सच्चे पश्चात्ताप के बीच खड़ी पिघल रही थी।

‘मुझे भी ऐसा ही लगता है।’ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली।

सुबह जब वह जागा, तो कमरे के एक कोने में रोहित, उसका बबलू चच्चू और राकेश की दोनों बेटियाँ बातों में व्यस्त थे। सरिता शायद मंजू के साथ किचन में थी और माँ?

धनराज ने इधर-उधर देखा – माँ कमरे की खिड़की के पार सीढ़ियाँ चढ़ कर छत पर जाती दीख रही थी। शायद धूप में टहलने के लिए। धनराज ने देखा कि इस वक्त बबलू का चेहरा बबलू का ही था। शायद इसलिए कि वह मासूम बच्चों की निष्पाप दुनिया में बैठा था।

बबलू रोहित को समझा रहा था – इन्फर्मेशन टेक्नोलॉजी का लॉलीपॉप थोड़े-से लोगों के लिए है बेटे। ये सब, लोगों को चूतिया बनाने का गोरख-धंधा है। जिस देश में सत्तर प्रतिशत लोगों को रोटी नहीं मिलती, उस देश में कंप्यूटर क्रांति को तरजीह देना अवाम के साथ एक भौंडा मजाक है। हकीकत यह है कि मल्टीनेशनल कंपनियों के माध्यम से इस देश में उपनिवेशवाद की वापसी हो रही है।’

‘उपनिवेशवाद क्या होता है, चच्चू?’ रोहित ने पूछा।

‘यह बताना तो बहुत कठिन है बेटे।’ बबलू उलझ गया, ‘इसे इस तरह समझ कि अँग्रेजों के समय में हम उनकी एक कॉलोनी थे, जहाँ वे लूटमार करते थे। अभी भी हम लूटमार की मंडी हैं, लेकिन इस बार उन्होंने गैट और उदारी करण का नकाब पहना हुआ है।’

‘पर चच्चू, मुंबई में तो मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी पाना खुशी की बात समझी जाती है।’ रोहित अपनी नौकरी को जस्टीफाई करने के चक्कर में था।

‘मुंबई देश नहीं है, बेटे। मुंबई देश के जिस्म पर उगा हुआ कैंसर है।’ बबलू हँसने लगा। धनराज को लगा बबलू की आत्मा में फिर से नागेश चौधरी प्रवेश ले रहा है। एक समय था। धनराज को याद आया, यही बबलू मुंबई जाने के नाम से रोमांचित हो उठता था।

‘मैंने सुना है।’ बबलू पूछा करता था। ‘वहाँ हेमा मालिनी सड़कों पर सब्जी खरीदती हुई दिख जाती है?’

‘चच्चू मेरे को अपनी पिछतौल दिखाओ न?’ यह सोना थी, राकेश की छोटी बेटी।

नागेश जेब से रिवॉल्वर निकालने लगा।

धनराज फिर सहम गया और करवट बदल कर वापस सो गया।

दुबारा जब वह जागा, तो धूप चढ़ आई थी। उस धूप में घर की दुर्दशा और भी चमकीली हो गई थी। यह ठीक है कि इन दिनों वह बेकार है, लेकिन सुखी दिनों में तो उसे कुछ पैसे हर महीने माँ को भेजते रहने चाहिए थे। वह सोचता था कि नो न्यूज इज गुड न्यूज। उसे क्या पता था कि उसके भाई, उसकी बहन और उसकी माँ अपने दारिद्र्य के अभिमान की ऊँची अटारियों पर चढ़े बैठे थे। शुरू में कुछ समय तक माँ की चिट्ठियाँ आती रही थीं। उनमें वही सब होता था जो ढहते हुए घरों से आनेवाली चिट्ठियों में होता है – ममता चुप रहने लगी है। राकेश चिड़चिड़ा हो गया है। बबलू के लच्छन ठीक नहीं हैं। वह रात-रात भर बाहर रहता है। कई-कई दिन तक घर नहीं आता। तू बबलू को अपने पास क्यों नहीं बुला लेता?

तब धनराज चारकोप की बैठी चालवाले एक कमरे में रहता था। उसकी नई-नई नौकरी थी जिसके नए-नए जानलेवा तनाव थे। वह सोचता था कि थोड़ा सँभल जाए, तो कुछ करे, लेकिन तब तक माँ की चिट्ठियाँ ही आनी बंद हो गईं।

धनराज जानता है कि ये सब केवल खुद को दिलासा दिलानेवाले तर्क हैं। गुनहगार तो वह है।

तभी रोहित के साथ वह आता दिखा-बबलू। नहीं, नागेश चौधरी।

‘रिवॉल्वर से क्या करते हो?’ धनराज ने लेटे-लेटे पूछा।

‘रिवॉल्वर से उस आदमी का भेजा उड़ा देते हैं, जो भूखी, बदहाल लड़कियों के साथ बलात्कार करता है, जो बच्चों से अपने खेत में बँधुआ मजदूरी करवाता है, जो किसानों के घर जला देता है।’ नागेश चौधरी हँसा, ‘और कुछ जानना है?’

‘चच्चू, तू लोगों को मार देता है?’ यह रोहित था, पूरे आश्चर्य के बीचोंबीच।

‘हाँ बेटा, कभी-कभी मार देना पड़ता है।’ बबलू ने रोहित को इस तरह समझाया मानो कभी-कभी वह मच्छर को मसल देता हो।

‘तुझे पुलिस नहीं पकड़ती, चच्चू?’ रोहित ने प्रश्न किया।

‘पुलिस में भी अपने दोस्त होते हैं, बेटा। वो बता देते हैं कि भाग जाओ। फिर हम भाग जाते हैं।’ बबलू अभी तक बबलू था, मुस्कराता हुआ, सहज और सरल।

‘और कभी तू पकड़ा गया तो?’ रोहित की जिज्ञासाएँ उफान पर थीं।

‘तो तेरा चच्चू मार दिया जाएगा।’ बबलू जोर-जोर से हँसने लगा, ‘मरना तो सभी को होता है बेटे। किस मकसद के लिए मरे, बड़ी बात यह है।’

खाना खा कर बबलू रोहित को जोधपुर का किला दिखाने ले गया। धनराज के दिमाग में हथौड़े चलने लगे – मकसद। मकसद। मकसद।

बच्चों को पढ़ाना-लिखाना, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाना, परिवार को सुखी रखना क्या यह सब मकसद के दायरे में नहीं आता? धनराज सोच रहा था। लगातार। क्या जीवन में उससे कोई चूक हो गई है? लोग गरीब हैं, भूखे हैं, अशिक्षित हैं, गटर में हैं, सड़क पर हैं, मारे जा रहे हैं – इसमें उसका क्या दोष है?

माँ आ रही थी। धीरे-धीरे। धीर गंभीर।

धनराज उठ कर बैठ गया।

माँ के पीछे-पीछे सरिता भी आई और सरिता के पीछे ‘ताई−ताई’ करती राकेश की दोनों बेटियाँ – सोना−मोना। राकेश अपनी नौकरी पर जा चुका था।

‘सुखी तो है न?’ माँ ने पूछा और सोना-मोना को अपनी गोद में बिठा लिया।

धनराज हँसा, एक फीकी हँसी। पछतावे और दुख में डूबी-डूबी-सी। फिर उसने अचानक पूछा, ‘डैडी की याद आती है?’

माँ ने इनकार में गर्दन हिला दी। धनराज ने देहरादूनवाले दिनों में जा कर देखा-पिता नशे में धुत्त हैं और माँ को लात-घूसों से पीट रहे हैं। उसने एकाएक पिता का हाथ पकड़ लिया है और भौंचक्के पिता ने माँ को छोड़ धनराज को पकड़ लिया है। धनराज के मुँह पर झापड़ रसीद कर उन्होंने उसे ठंडे बाथरूम में बंद कर दिया है।

माँ का चेहरा एकदम शांत है। उसे कोई दुख-सुख नहीं व्यापता।

‘अपने दुख किसके साथ बाँटती हो?’ धनराज ने पूछा।

‘मुझे कोई दुख नहीं है।’ माँ मुस्कुराने लगी, ‘मेरे दुख भी उसके हैं और सुख भी उसी के।’

‘उसके? उसके कौन?’ धनराज चौंका।

‘राम के।’ माँ ने आँखें बंद कर लीं।

माँ का राम कौन है? धनराज असमंजस में पड़ गया। उसने छह दिसंबर में जा कर देखा – राम का नाम ले कर ढेर सारे लोग मस्जिद गिरा रहे थे।

खाना खा कर धनराज सोना-मोना को गोद में ले कर छत पर चला गया। गर्मी के दिनों में इसी छत पर पिता की महफिल जमती थी। पिता के अंतिम दिनोंवाला घर, जो उन्होंने दर-दर की ठोकरें खाने के बाद आखिरकार जोधपुर में बना ही डाला था। पिता सोचते थे कि अपने-अपने पैरों पर खड़े होने के बाद उनके तीन बेटे इस घर को तीन मँजिला भवन में बदल देंगे।

‘बड़े पापा हम मुंबई जाएँगे,’ मोना ने धनराज को टोका।

‘औल हम भी।’ छोटी सोना ने सुर में सुर मिलाया।

‘जरूर।’ धनराज ने दोनों को आश्वासन दिया और छत से दिखती, दूर जाती उस सड़क को देखने लगा, जिससे गुजर कर धनराज मुंबई और बबलू बिहार चला गया था। एक ही सड़क लोगों को अलग-अलग जगहों पर क्यों ले जाती है। धनराज सोच रहा था। दोनों लड़कियाँ आपस में झगड़ने लगी थीं। धनराज उन्हें ले कर नीचे आ गया।

रात को जमीन पर बैठ कर सब लोगों ने एक ही कमरे में एक साथ खाना खाया। गोश्त और चावल। गोश्त माँ ने पकाया था। मंजू ने बताया, ‘माँ जी ने कई साल बाद अपने हाथ से मटन पकाया है।’

धनराज को फिर पिता याद आ गए। पिता कहते थे – ‘तेरी माँ बिना मसालों के भी ऐसा गोश्त पकाती है कि बख्शी दा ढाबा भी शरमा जाए।’ बख्शी दा ढाबा देहरादून का एक मशहूर रेस्त्राँ था, जिस पर हर समय भारी भीड़ रहती थी। खास कर रात में।

‘मैंने भी कई सालों के बाद गोश्त खाया है।’ बबलू हँसने लगा।

‘चच्चू, तेरे इलाके में मटन नहीं मिलता है?’ यह रोहित था।

‘ज्वार की मोटी-मोटी रोटी पर लहसुन और लाल मिर्च की चटनी मिल जाए, तो लोग खुश हो जाते हैं, बेटे।’ बबलू बता रहा था, ‘और अगर साथ में चोखा हो, तो बात ही क्या?’

‘चोखा क्या होता है चच्चू?’ रोहित पूछ रहा था।

‘आलू को उबाल कर उसे सरसों के तेल में मसल देते हैं…’

‘बस?’ रोहित चकित था, ‘कौन लोग इतने गरीब होते हैं चच्चू?’ पीजा, बर्गर, कोक की दुनिया में बड़ा हुआ रोहित उबले हुए आलू के साथ सुख का सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा था।

‘हर मेहनत करनेवाला गरीब होता है बेटे।’ बबलू ने जवाब दिया।

‘घर के सब लोग बैठे हैं।’ अचानक धनराज बोला, ‘बबलू तुम क्या सोचते हो? मुझे अब क्या करना चाहिए?’

बबलू को संभवतः धनराज से इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। वह अचानक हड़बड़ा-सा गया। फिर संजीदा हो कर बोला, ‘बुरा मत मानना, भाई साहब। पूरे विवेक के साथ बोल रहा हूँ। असल में आपकी समस्या यह है कि आपके जीवन का कोई मकसद नहीं है। आप जैसे लोग दोनों तरफ से मारे जाते हैं। आपकी जरूरत न इधर है न उधर।’ बबलू ने कहा, ‘एशिया की सबसे नारकीय झोपड़पट्टी धारावी आपकी मुंबई में ही है। कभी वहाँ गए हैं आप? आपने नासिक के देवलाली गाँव के बारे में सुना है। उसे विधवाओं का गाँव कहते हैं। वहाँ के सारे पुरुष फायरिंग रेंज में चोरी से घुस कर पीतल-ताँबा बटोरते हैं, ताकि उसे बेच कर पेट भर सकें। पीतल-ताँबा बटोरते-बटोरते वहाँ का एक-एक पुरुष तोप के गोलों का शिकार हो गया। निपाणी का नरक देखा है आपने? मुंबई की कितनी सारी कपड़ा मिलें बंद हो गई हैं। उनके मजदूर क्या कर रहे हैं, पता है आपको? मुझे मालूम है, इन सवालों से नहीं टकरा सकते आप। ये बहुत असुविधाजनक सवाल हैं। आपका पूरा जीवन मैं−से−मैं के बीच चक्कर काटते बीता है, इसीलिए बाकी लोग खुद ब खुद आपके जीवन से बाहर चले गए हैं। उन सबके जीवन में आपकी कोई जरूरत नहीं है।’ बबलू रुका, फिर वह नागेश चौधरीवाली हँसी हँसने लगा, ‘ऐसा करो, आप मुरारी बापू की शरण में चले जाओ। सुना है, मुंबई में उसकी नौटंकी सुपर-डुपर हिट है।’

धनराज का सिर झुक गया।

‘बबलू,’ सरिता ने खाना रोक दिया, ‘तुम हद के बाहर जा रहे हो।’

‘सॉरी, भाभी,’ बबलू ने विनम्रता से जवाब दिया, ‘मेरा मकसद किसी का भी दिल दुखाना नहीं था।’ फिर वह हाथ धोने के लिए आँगन में बने नल पर चला गया।

रात दस बजे कोई लड़का बदहवास-सा बबलू से मिलने आया। कुछ देर आँगन में कुछ खुसुर-फुसुर की उन्होंने, फिर बबलू उसी के साथ घर के बाहर चला गया।

जब बबलू को गए दो घंटे बीत गए, तो धनराज ने प्रश्नाकुल हो राकेश की तरफ देखा। राकेश ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, ‘वो गया। वो ऐसे ही जाता है।’

धनराज जड़ हो गया।

०००

मुंबई पहुँचने के अगले रोज धनराज के सीने में तेज दर्द उठा। उसका बदन पसीने-पसीने हो गया। तकलीफ से उसका चेहरा ऐंठने सा लगा और दोनों आँखें बाहर निकलने को आतुर हो उठीं।

रोहित उस समय अपने ऑफिस में था और सरिता ‘कौन बनेगा करोड़पति’ देख रही थी। धनराज छटपटा कर बेडरूम में ड्रेसिंग टेबल के पास गिरा। उसके गिरने की आवाज सुन कर सरिता भाग कर बेडरूम में पहुँची, फिर वह सामनेवाले पड़ोसी के.के. महाजन की मदद से उसे सेक्टर-पाँच के नर्सिंग होम में ले गई।

धनराज को दिल का दौरा पड़ा था।

स्वस्थ होने में धनराज को एक महीना लगा।

उसकी बीमारी में जोधपुर से कोई नहीं आ पाया। राकेश को छुट्टी नहीं मिली। ममता ससुराल में थी। उस तक खबर काफी देर से पहुँची। अकेली माँ आ नहीं सकती थी और बबलू बिहार के गाँवों में था।

बिस्तर पर पड़ा-पड़ा धनराज अपने एकांत में गुनगुनाया करता –

रखना छुपा के दिल के छाले रे…

उन्हीं दिनों सरिता को सेक्टर-चार के पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई।

धनराज और अकेला हो गया।

यह अकेला धनराज एक रात गौतम बुद्ध की तरह सरिता और रोहित को सोता छोड़ कहीं अँधेरे में गुम हो गया।

कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने धनराज को हाथ में एक ईंट लिए अयोध्या के रास्ते पर पैदल-पैदल जाते देखा था।

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नींद के बाहर – Neend Ke Baahar

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