नौकरी न होने के दिनों में - एक | घनश्याम कुमार देवांश
नौकरी न होने के दिनों में - एक | घनश्याम कुमार देवांश

नौकरी न होने के दिनों में – एक | घनश्याम कुमार देवांश

नौकरी न होने के दिनों में – एक | घनश्याम कुमार देवांश

ऐसा भी होता है कि
कभी-कभी अच्छा-खासा आदमी भी खरगोश हो जाता है
जिसे लगता है कि
दुनिया में उसके
और शिकारियों के अलावा कोई
तीसरी प्रकार की जीवित चीज नहीं पाई जाती
ये बहुत आम बात है
कि ऐसा आदमी हर बात पर शक करता है
इस बात पर भी जब उसकी प्रेमिका
उसके गालों को चूमते हुए
बराबर कहती है कि वह अब भी
उसे प्यार करती है
उसे अक्सर अपने ही घर का दरवाजा
बुरा मानता प्रतीत होता है
वह अक्सर खिड़कियों से भीतर
बुदबुदाता है कि उसके और घर के बीच से
दरवाजा हटा लिया जाए
वह माँ का मुँह ताकता रह जाता है
जब माँ
घर में सिर्फ उसी से पूछती है
कि आज क्या खाने का मन है
जब पिता घर में प्राय सोते हुए
मिलते हैं और बहनें
धूप में चोटियाँ सेंकती हुईं
खरगोश हुआ आदमी
नहाते समय बाल्टी के सामने
शर्मिंदा होता है
कि वह आखिर इतना क्यों डरता है
पार्क में आलिंगनबद्ध एक जोड़े से

Leave a comment

Leave a Reply