नदियाँ | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
नदियाँ | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

नदियाँ पानी की बेलें हैं
फैली हुई धरती में चहुँफेर
खेतों को हरा-भरा करतीं
मैदानों-जंगलों को करती हुई आबाद

पीठ के बल लेटूँ
या पेट के बल
नदियों की कराह सुनता हूँ
क्यों दुखी हैं नदियाँ आजकल
पानी का चेहरा दिनोंदिन
उतरता क्यों जा रहा

उमँगती हैं जब नदियाँ
पृथ्वी उन्हें निहार-निहार
पुरखुश होती रहती है
और बहता रहता है उन में खुशीमन आसमान
धरती के नीचे फैली पानी की बेलें ही
हमारे कुओं में आ
बुझाती हैं हमारी प्यास

See also  जहर घुलने लगा है | रमा सिंह

नदियाँ पानी की बेलें हैं
पहाड़ से निकल
रस्ते में आए पहाड़ को भी फोड़
आगे निकल जाती हैं

पहाड़ से फूटीं यह लतरें ही हैं
उतरती हुई मैदान की तरफ
इसे आप पानी की लतर या लता कहिए
अथवा झरना
पहाड़ बुरा नहीं मानेंगे

धरती की धमनियों में दौड़ती
पानी की बेलें सोख ली जा रही हैं
नदियों को लील रहे हैं
लोभी-लालची मुँह

See also  दीपावली | हरिओम राजोरिया

गोलार्द्धों के फेरों से थक
नदियों में बैठ जाता है
दिन-दोपहर जब अपना सूरज
धूप चीख-चीख कर मछलियाँ
अपना खयाल रोशन करती रहती हैं

नदियाँ पानी की बेलें हैं
हम घाट पर बैठ
अपनी उलझनों के साथ
पानी की बेलें भी सुलझाते रहते हैं!

Leave a comment

Leave a Reply