नदी जो अब भी बहती है | कविता
नदी जो अब भी बहती है | कविता

नदी जो अब भी बहती है | कविता – Nadi Jo Ab Bhi Bahati Hai

नदी जो अब भी बहती है | कविता

डॉक्टर अब भी हतप्रभ है और हम चुप। ऐसी स्थिति में इतना भावशून्य चेहरा अपने बीस साला कैरिअर में शायद उसने पहली बार देखा है।

हम चुप्पी साधे हुए उसके चैंबर से बाहर निकल पड़ते हैं।

उनकी और मेरी चुप्पी बतियाती है आपस में… ‘ऐसे कैसे चलेगा? अब तो तुम्हें…।’ ‘…। ऐसे ही चलने दीजिए।’ ‘जिसे आना हो हर हाल में आता है और जिसे नहीं…।’ ‘वैसे भी मैं कुछ भी नहीं चाहती, बिल्कुल भी नहीं।’ चुप्पी की तनी शिराएँ जैसे दरकी हों; मैं भीतर ही भीतर हिचकियाँ समेट रही हूँ… नील जानते हैं सब… नील समझते हैं सब… नील सँभाल लेना चाहते हैं मुझे, पर मैं सँभलना चाहूँ तब न…। मैं झटके से धकेल देती हूँ अपने कंधे तक बढ़ आया उनका हाथ…। सिसकियाँ अपने आप तेज हो जाती हैं। मुझे परवाह नहीं किसी की…। एक कौवा जो ठीक अस्पताल के मेन गेट पर बैठा था, उड़ जाता है। काँव-काँव करता जैसे उसे मेरी सिसकियों से आपत्ति हो। आते-जाते लोग क्षण भर को देखते हैं मुझे ठहर कर… फिर… चौकीदार ने तो देखा तक नहीं मेरी तरफ। बस गेट पास…। आखिरकार अस्पताल ही तो है यह… यहाँ तो आए दिन…।

…महीनों से यह भावशून्य चेहरा लिए घूम रही हूँ। जी रही हूँ हर पल… घर, दफ्तर, आस-पड़ोस… हर जगह लोग कहने लगे हैं, अब ठीक लग रही हो पहले से… लेकिन मैं जानती हूँ कुछ भी ठीक नहीं है। मेरे भीतर और वे सब कुछ कुछ भी कहते हैं सब मेरा मन रखने की खातिर…। फिर भी उनका कहना मुझे एक बार सब कुछ याद दिला जाता है…। एक सिरे से सब कुछ। वह सब जिसे कि मैं भूलना चाहती हूँ या कि वह सब जिसे मैं बिल्कुल भी भूलना नहीं चाहती।

एक शून्य है मेरे भीतर… और इस शून्य को हर पल जिंदा रखना ही जैसे मेरे जीवन का मकसद हो…।

तेज चलते-चलते मैं पेट थाम लेती हूँ… और सचमुच मुझे लगता है जैसे कुछ है मेरे भीतर जो कह रहा है मुझे सँभाल कर रखना।

रात को अब तक अकेले में सलवार सरका कर या कि नाइटी को थोड़ा खिसका कर सहलाती हूँ। नाभि से ठीक-ठीक नीचे या कि ऊपर का वह भाग जहाँ कुछ खुरदुरे से चिह्न हैं… उस खुरदुरेपन को महसूसते-महसूसते आँखों में नदियाँ उमड़ने लगती हैं अपने आप, और नदियों के साथ बहने लगती हूँ मैं जैसे यही मेरा भवितव्य…

मुझे लगता है कि वह है कहीं मेरे भीतर… कि वह गया ही नहीं कहीं… मीठे से दर्द का वही एहसास… खाने से वैसी ही अरुचि… वही थकान… वही उचाटपन…

ऐसे में जानबूझ कर याद करती हूँ मैं अपनी हिचकियाँ… अपना निढालपन… और उसके बाद का लंबा-लंबा खालीपन… मैं याद करती हूँ आधी-आधी रात को मुझे बेचैन कर देनेवाले अपनी छातियों में समा आए समंदर को… जो बँधना नहीं चाहता… जो जाना चाहता है अपने गंतव्य तक। उस समंदर की उफनती बैचैनी मुझे तड़फड़ा देती है बार-बार। मैं हिचकियों में डूब जाती हूँ ऊपर से नीचे तक… माई सँभाल लेती हैं मुझे ऐसे में… गार लेती हैं उस समंदर को अपनी हथेलियों से किसी कटोरे में मैं असीम दर्द से कराह उठती हूँ…

कमर और पीठ दर्द से जब तड़पती रहती हूँ, माई कटोरे में तेल ले कर मालिश करने आ पहुँचती हैं। मना करने पर भी मानतीं नहीं… बनाती हैं मेरे लिए सोंठ-अजवायन के वही लड्डू जो मैंने अब तक जचगी के वक्त खाते देखा है भाभी और दीदियों को… तब मैं जिसे शौक से खाती थी आज उसे देख रुलाई और जोर से फूट पड़ती है… और प्लेट परे सरका देती हूँ।

रीतता है कुछ भीतर… पर रीतता कहाँ है… नील याद करके मुझे दवा खिलाते हैं… मेरी पसंद की किताबों के अंश पढ़-पढ़ कर सुनाते हैं… धीरे-धीरे सूख पड़े घाव की तरह सूखता है वह… पर सूख कर भी भीतर से कुछ अनसूखा ही रह गया हो जैसे।

…और वह चाहे सूख भी ले, उस निरंतर बहती नदी का क्या… जो याद दिलवाती रहती है अक्सर… वह नहीं रहा… वह… वही जो इस सबका वायस था… जिसके कारण ही थे यह सब कुछ… और जिसके होने भर से यह सारा दुख सुख में बदल जाता…

वह नदी भी सूख ही रही है बहते-बहते। पूरे दो महीने बीत चले हैं इस बीच। जाँघों के बीच दो टाँकेवाली वह सिलाई टीसती है कभी-कभी… और फिर याद आ जाता है डॉक्टर का कहा सब कुछ आहिस्ता-आहिस्ता, मानो कल की ही बात हो… दो-दो सिर हैं, बिना टाँके के काम नहीं चलेगा… वो तो यह प्रीमैच्योर है, नहीं तो ऑपरेशन ही करना पड़ता…

टू डाइमेंशनल अल्ट्रासाउंड करते हुए डॉ सिन्हा ने मुझसे कहा था – तुम्हें पता है कि बच्चा कन्ज्वाइंट है… मतलब इसका शरीर तो एक है पर सिर दो… मेरी साँसें जहाँ की तहाँ अटकी रह गई थीं। मैं भक्क-सी थी, जड़वत… पाँच महीने बीत जाने के बाद भी कुछ बताया नहीं तुम्हारे शहर के डॉक्टरों ने…? नील ने खुद को सँभालते हुए कहा था – नहीं, बस इतना कहा कि कुछ कॉंप्लीकेशन लगता है, अच्छा हो आप एक बार बाहर दिखा लें… डॉक्टर निकल गई थी उस हरे पर्दे के पार।

सिस्टर मेरे पैरों में सलवार अटका रही है। मेरे हिलडुल नहीं पाने से उसे दिक्कत है, लेकिन फिर भी वह कुछ कहती नहीं… जैसे-तैसे सलवार अटका कर मुझे किसी तरह खड़ा करती है वह। फिर जैसे जागी हो उसके भीतर की स्त्री। मेरी आँखों के कोरों से बहते हुए आँसुओं को हौले से पोंछते हुए कहती है – ऐसे में हिम्मत तो रखना ही होगा।

मैं उसके सहारे जैसे-तैसे बाहर निकलती हूँ। डॉक्टर पूर्ववत दूसरे अल्ट्रासाउंड की तैयारी में हैं। बाहर बैठा एक शख्स कहता है… नेक्स्ट…

रिक्शे पर हम दोनों बिल्कुल चुप-चुप बैठे हैं… ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलते रिक्शे के हिचकोलों के बीच कभी वो गिरने-गिरने को होते हैं तो कभी मैं… मैं हमेशा की तरह इन झटकों में पेट को थाम नहीं रही, सोच रही हूँ बस…

इंटर की जूलॉजी की कक्षा में लंबे खुले बालों और खूब लंबी नाकवाली मिसेज सिन्हा पढ़ा रही हैं – टि्वन्स तीन तरह के होते हैं – ‘आइडेंटिकल’, ‘अन-आइडेंटिकल’ और ‘कन्ज्वाइंट’। आइडेंटिकल में दोनों बच्चे बिल्कुल एक जैसे होते हैं, एक ही सेक्स के… चेहरा-मोहरा बिल्कुल एक ही जैसा… पूरा क्लास पीछे की ओर देखने लगता है जहाँ एक ही बेंच पर निशि और दिशि बैठी हैं, अपने-अपने बाएँ हाथ की कन्गुरिया उँगली का नाखून चबाती हुई… निशिता-दिशिता बनर्जी। पढ़ने में बहुत तेज पर जरूरत से ज्यादा अंतर्मुखी… उनकी दुनिया एक-दूसरे तक ही सीमित है। हम भी उन्हें भाव नहीं देते।

इस तरह सारी निगाहों का ध्यान अपनी ओर खिंच जाने से झेंप कर उन्होंने अपनी उँगलियाँ बाहर निकाल ली हैं… और अब दोनों एक ही साथ ब्लैक बोर्ड पर बने डायग्राम की नकल उतार रही हैं…

सिन्हा मैडम लगभग चीखती हैं… ध्यान कहाँ है आप लोगों का… और पल भर में पीछे की ओर देखती सारी निगाहें सामने देखने लगती हैं। मैडम की तरफ… ब्लैक बोर्ड की तरफ… मैडम कह रही हैं, आइडेंटिकल ट्विन्स अक्सर मोनोजायनोटिक होते हैं, यानी इनका फर्टिलाइजेशन (निषेचन) माँ के एक ही अंडे से होता है… उसके दो भागों में बँट जाने और विकसित होने से… जबकि अन-आइडेंटिकल ट्विन्स में सेक्स या कि चेहरे की समानता नहीं होती। यह दो भिन्न स्पर्मों के मदर एग सेल से निषेचन के द्वारा बनते और विकसित होते हैं। मुझे नेहा और रितु की याद हो आती है, दीदी के दोनों जुड़वा बच्चे। नेहा जितनी चंचल, रितु उतनी ही शांत। बहुत दिनों से मैंने उन्हें नहीं देखा। बड़े हो गए होंगे… मैं बरबस अपना ध्यान लेक्चर की तरफ मोड़ती हूँ। अगर मिसेज सिन्हा ने इस तरह कुछ सोचते हुए देख लिया तो कोई सवाल दे मारेंगी और जवाब देने की मनःस्थिति में जब तक आऊँ उनका दूसरा लेक्चर शुरू हो जाएगा… आजकल के बच्चे… इसमें असली लेक्चर का बेड़ा तो गर्क होना ही है, मुझे तब तक खड़ा रहना पड़ेगा जब तक कि दूसरी बेल बज नहीं जाती।

सिन्हा मैम नाक तक खिसक आए अपने चश्मे को साध कर सचमुच सारी कक्षा का निरीक्षण कर रही हैं… कहीं कुछ मिल जाए ऐसा चहाँ से शुरू कर सकें वे अपने लेक्चर। लेकिन नहीं, सब कुछ ठीक-ठाक है या कि ठीक-ठाक लगा है उन्हें। …वे आगे बढ़ती हैं… और अब, क्न्ज्वाइंट ट्विन्स। ऐसे बच्चे अक्सर कहीं न कहीं से जुड़े होते हैं और दो शरीरों के अनुपात में उनके सरवाइकल ऑर्गन्स पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाते या कि कम विकसित होते हैं। माँ के एग सेल के पूरी तरह से विकसित और विभाजित न होने के कारण या कि दो एग सेल के एक में क्न्ज्वाइंट होने पर भी पूरी तरह से अलग-अलग विकसित न हो पाने के कारण।

बगल से मारी जानेवाली कुहनियों ने मेरा ध्यान खींचा है। सीमा फुसफुसा रही है धीरे-धीरे। यह बेल भी कब बजेगी। भूख लग गई है यार… ये ट्विन-विन तो फिर पढ़ लेंगे, समझ भी लेंगे, कोई इतना बड़ा पजल भी नहीं है यह फिजिक्स की तरह। पर मैम हैं कि चुप ही नहीं हो रहीं…

मैं नजरें आगे रखे-रखे ही उसकी बातें सुन रही हूँ… पर अब मेरा ध्यान भी कैंटीन से आती खुशबू खींच रही है… समोसे के अलावा मूँग दाल की पकौड़ियाँ भी बन रही हैं शायद। मुझे पसंद हैं। आज तो मजा आ जाएगा। मौसम भी बारिश-बारिश का-सा हो रहा है, शायद इसीलिए दादा ने…

गड्ढा शायद बहुत बड़ा था… गिरने-गिरने को हो आई मुझे नील सँभाल लेते हैं। पानी के छींटे पड़े हैं नील और मेरे कपड़े पर। पर मैं कुड़बुड़ाती नहीं, न ही उसे रूमाल से पोंछने का उपक्रम करती हूँ हमेशा की तरह… बस सोचती हूँ। काश जिंदगी उतनी ही आसान होती जितनी कि उस वक्त थी या कि लगती थी… तब जिन चीजों को समझना आसान लग रहा था आज उन्हें भोगना…

हम अस्पताल तक आ पहुँचे हैं। नील मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रिक्शे से उतार रहे हैं… मैं हैरत मैं हूँ… अभी और इन परिस्थितियों में भी नील को इतना होश है। अपनी तकलीफ को इस तरह अपने भीतर समेट लेना…

डॉक्टर सक्सेना कह रहे हैं… क्न्ज्व्वाइंट बेबी के के बारे में तो आपलोग जानते ही होंगे… मेरा सिर हाँ में हिलता है, नील का ना में…

डॉक्टर का उजला-उजला चेहरा अल्ट्रासाउंड देखते हुए सँवलाने लगा है। रिपोर्ट के काले प्रिंट की छाया से या कि उसमें दिखते हुए सच से… कि दोनों से ही। वे सँभालते हैं खुद को और पानी के गिलास का ढक्कन हटा कर एक ही साँस में पी जाते हैं उसे… ऐसा केस देखने-सुनने में बहुत कम आता है… शायद लाखों-करोड़ों में कोई एक… मैं तो अपने कैरिअर में आज तक कोई ऐसा केस नहीं देखा… क्न्ज्वाइंट ट्विन्स का भी यह एक रेयर केस है, रेयर ऑफ रेयरेस्ट… ऊपरी तौर पर तो बच्चे का सिर्फ सिर ही दो है… लेकिन बाकी के सारे ऑर्गन्स एक आम इंसान जैसे ही… अब देखना यह है कि इसके भीतर अंगों की क्या स्थिति है… दिमाग और हृदय का संबंध बड़ा गहरा होता है। अगर सिर दो हैं तो हार्ट का भी दो होना जरूरी है इस बच्चे के जिंदा पैदा होने के लिए… नील ने मेरा हाथ मजबूती से थाम रखा है जैसे कि उन्होंने मेरा हाथ छोड़ा और मैं…

डॉक्टर अब भी कह रहे हैं… हालाँकि सब कुछ जान पाना बहुत कठिन है फिर भी इसकी कोशिश तो करनी ही होगी… अब तक जो मुझे समझ में आ रहा है उसमें ऐसे बच्चे का जीना… डॉक्टर रुक-रुक कर कह रहे हैं… बहुत… मुश्किल… सा… लगता… है। मेरे एक मित्र हैं डॉक्टर रितेश कपूर… आप एक बार जा कर उनसे मिलिए… वे आपका एक और अल्ट्रासाउंड करवाएँगे…

एक बार हम फिर रिक्शे में हैं। माई का फोन है… उसी शहर में हो, जा कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर लेना… कहना उनसे जो है जैसा है, आ जाए… तो माई का मन मान गया है… इस दो सिरवाले बच्चे के लिए… उन्होंने तैयार कर लिया है खुद को… मैं हैरत में हूँ… घर के कामकाज में सनक की हद तक पूर्णता और सफाई चाहनेवाली माई एक अपूर्ण बच्चे के पैदा होने की कामना कर रही है…

मैं टटोलती हूँ नील को… अगर वो ऐसे ही इस दुनिया में आए तो आपको कोई परेशानी…?

नहीं… मुझे कोई परेशानी नहीं होगी वह जैसा भी है मेरा है… मेरा अपना बच्चा…

मेरे भीतर की माँ भी कहती है… हाँ, जैसा भी है हमारा है पर दिमाग…?

मैं अपने दिमाग की सुनती हूँ इस पल… पहले तो आपको बच्चे से ही परेशानी थी… मुझे समझाते रहते थे… और अब… नील, अपने दो सिरों को सँभाल कर कैसे चल-फिर पाएगा यह बच्चा… उसकी जिंदगी तो शायद बिस्तर तक ही सिमट कर रह जाए… अपने हमउम्र और दूसरे बच्चों के लिए वह खेल हो कर रह जाएगा… मुझे तो इस बात का भी डर है कि कहीं लोग उसे देवता या कि राक्षस ही न समझने लगें… क्या आप चाहेंगे उसके लिए ऐसा कुछ…? और उसकी भी तो सोचिए… कितना खुश हो पाएगा वह अपनी जिंदगी से… न खेल-कूद… न स्कूल… न संगी-साथी…

नील चुप हैं… बिल्कुल चुप…

रोज अस्पताल के चक्कर लग रहे हैं… डॉक्टरों-नर्सों की टोली… ड्यूटी और बिना ड्यूटी के डॉक्टरों का भी मुझे आ कर बार-बार देखना… मेरा केस डिस्कस करना… मेरे अल्ट्रासाउंड को अलग-अलग कोणों से बार-बार भेदती वे निगाहें… यह सब मुझमें चिढ़ जगाता है… जैसे कि कोई तमाशा हो गई हूँ मैं… सारी जिंदगी शायद मुझे यही झेलना हो… मेरी जिद और पुख्ता हुई जा रही है…

वह जाए वह नहीं रहे… यह मेरा निर्णय था… पर वह नहीं रह कर भी इस तरह रह जाएगा, मैं कहाँ सोच पाई थी तब… मैंने पूरे होशोहवास में कहा था, नील को समझाती हुई… नहीं, वह नहीं आए यही हम सबके लिए अच्छा है… उसके लिए भी…

नील का बदन सिसकियाँ ले रहा था… मैं तुम से नहीं कहूँगा कुछ भी… मैं पालूँगा… उसे आने दो… जैसा भी है वह… मैं उसकी कोई शिकायत कभी नहीं करूँगा तुम से…

मैंने कहा था… नील भावुक मत बनिए… ऐसे तो हम सबकी जिंदगी नर्क हो जाएगी और उसकी तो… नील सिसकते रहे थे और मैं भावशून्य।

…यह एक अच्छी बात है कि बच्चा लड़का है… नहीं तो गिराए जाने की बात हमारे संस्थान के लिए भी उतनी आसान नहीं होती… मैं अपने दर्द को भीतर ही भीतर धकेलती हूँ… वह लड़की नहीं है यह तो तय है… अब जो भी करना है जल्दी कीजिए…

नील इन दिनों मेडिकल साइंस की किताबें पढ़ने लगे हैं। जर्नल्स भी… नेट पर पता नहीं क्या-क्या तलाशते रहते हैं…

उस दिन से ठीक एक दिन पहले नील बहुत दिनों के बाद खुश-खुश आते हैं… देखो निकिता, देखो… उन्होंने कुछ प्रिंट आउट मेरे सामने रख दिया है… यह है दो सिरोंवाला बच्चा। फिलीपींस के अस्पताल में जन्मा है चार दिन पहले… और अभी तक जिंदा है… मैं भी ध्यान से देखती हूँ उस दो सिरवाले बच्चे को… और उसके साथ छपी सूचनाओं को पढ़ती हूँ बार-बार… पता नहीं क्यों, प्यार के बजाय एक वितृष्णा-सी जागती है मेरे भीतर और उनकी बातों को खारिज करने का एक दूसरा तर्क खोज ही लेती हूँ मैं… नील, इस बच्चे के सिर्फ सिर ही नहीं दिल भी दो हैं… डॉक्टर सक्सेना की कही बातें कौंधती हैं उनके भीतर और वे निरस्त से हो जाते हैं मेरे इस तर्क के आगे…

…लेबर रूम में दर्द शुरू होने के लिए दिया जानेवाला इंजेक्शन… मैं टूट रही हूँ… छटपटा रही हूँ मैं… एक असहनीय-सा दर्द, तन से ज्यादा मन का… और एक नॉर्मल डिलेवरी के सारे तामझाम… सब कुछ नॉर्मल… सिवाय उसके जिसे नॉर्मल होना चाहिए था…

दर्द की उस इंतहा से गुजरने के बाद जैसे मेरे भीतर सब कुछ हिल चुका है, मेरा आत्मविश्वास मेरा निर्णय और शायद मेरा दिमागी संतुलन भी… उस बच्चे के लिए अब तक सोई हुई मेरी ममता जैसे फूट निकली है इस धार के साथ… मेरा बच्चा… एक बार मुझे दिखा तो दीजिए… मुझे… देखकर क्या करना है… क्या मिल जाएगा देख कर फिर भी बस एक बार… न जाने कैसी तड़प बढ़ रही है मेरे अंतस में उस दो सिर के बच्चे की खातिर… मैं नील को बुलवाती हूँ… उनके कंधे से चिपट-चिपट कर कहती हूँ… एक बार नील… बस एक बार दिखला दो मुझे… मेरा बच्चा… थोड़ी देर पहले तक सिसकते नील अब जैसे पत्थर हो गए हैं… न हिलते-डुलते हैं न कुछ कहते हैं… बस खड़े हैं जड़वत।

तो क्या नील की नाराजगी मुझसे है… क्या मेरी दुविधा… मेरी पीड़ा… मेरी मजबूरी कुछ भी नहीं समझ में आ रही उन्हें… क्या इसलिए नाराज हैं वे मुझसे कि हर कुछ मेरी ही जिद से… या फिर उनकी चुप्पी मुझे समझने की कोशिश कर रही है…?

‘हमें अभी बच्चे की जरूरत नहीं।’ नील बार-बार कहते थे। ‘अभी तो हमने अपनी जिंदगी शुरू ही की है।’ पर मैं अड़ जाती थी… ‘बस एक बच्चा… एक नन्हीं सी जान…’ ‘बहुत मुश्किल होगा निकी… हम दोनों के दफ्तर… तुम्हारी माँ हैं नहीं… माई हमेशा बीमार…’

…तो क्या हम इसलिए जिंदगी भर यूँ ही… जिनके घर में कोई सँभालनेवाला नहीं होता क्या उनके घर में बच्चे पैदा नहीं होते? मिल ही जाता है कोई न कोई।

…कभी न कभी तो लेना ही होगा यह निर्णय तो फिर अभी क्यों नहीं… हर चीज की एक उम्र भी तो होती है…

नील धीरे-धीरे हारने लगे थे मुझसे पर हारते हुए भी खुद को जीता हुआ साबित करने की खातिर कहते… देख लेना मेरा बेटा बिल्कुल मेरे जैसा होगा… पर मैं अड़ जाती, नहीं बेटी… मेरे साथ रहेगी हर पल… मेरे कामों में मेरा हाथ बँटाएगी… सहेलियों की तरह रहेंगे हम दोनों।

अपने घर के उस अँधेरे कमरे में नील के कंधों पर हिलकती हुई कहती हूँ मैं… सुना है गर्भ में बच्चा सुनता है सब कुछ और माँ-बाप की कल्पना का ही रूप धरता है वह। वह शायद सुन रहा था मेरे भीतर… और कशमकश में रहने लगा था। वह माँ का बने कि पापा का। वह माँ की बात माने या पापा की। कभी वह इस पलड़े झुकता होगा तो कभी उस पलड़े… और हँसी खेल की यही लड़ाई उसके जान के लिए घातक बन गई होगी शायद…

हाँ निकिता, उसके दो चेहरों में से एक चेहरा बिल्कुल लड़कियों जैसा था… यह भी तो हो सकता है कि उसके दो सिर मेरी महत्त्वाकांक्षाओं के ही परिणाम हों… न जाने कितने सपने कितनी ख्वाहिशें पालने लगा था मैं उसकी खातिर… उसके आने से पहले ही…

…जो हो चुका था, अपनी-अपनी तरह से हम उसका कारण तलाश रहे थे…

यह उसके जाने के बाद की पहली रात थी जब हम साथ थे… सचमुच साथ-साथ…

ऐसे तो जब मैं रो रही होती नील उठ कर चल देता… और नील जब पास आते मुझे उसमें कोई साजिश नजर आती। वही साजिश जो मुझे आजकल हर आसपास के चेहरे में दिखती है, जिसके तहत माई बार-बार मेरे समानांतर लेटा हुआ बच्चा उठा कर कहीं फेंक आती हैं… वे कहती हैं नील से… बस एक ही उपाय है… डॉक्टर भी ऐसा कहती है… बस एक ही उपाय… इसी तरह भूल सकेगी वो यह सब कुछ…

मैं सूँघती रहती हूँ नील के अपने पास आने का उद्देश्य…

वे मुझसे मेरा गुड्डा छीनने आए हैं… मैं रजाई की तहों के बीच छिपा कर रख देती हूँ उस दो सिरवाले गुड्डे को… सात तहों के बीच… यह वही खिलौना है जिसे नील अपने बच्चे के लिए पहले ही खरीद लाए थे और उसमें मैंने अब कपड़े का एक अतिरिक्त सिर जोड़ दिया है, लड़कियों के से नैन-नक्शवाला…

मैं नील को या कि माई को घुसने नहीं देती अपने कमरे में… मेरा गुड्डा… मेरा बच्चा… मैं कमरा बंद करके हँसती हूँ, खेलती हूँ, बतियाती हूँ उससे… उसकी मालिश करना… उसके कपड़े बदलना…

…पूरे साल में बस एक महीना कम… पर मेरे लिए तो घड़ी की सुई जैसे वहीं अटक गई है, ग्यारह महीने पहले के उसी दिन में…

पर उस रात जब नील आए फफक पड़े थे मुझे देख कर… और मैं हँस नहीं पाई थी हमेशा की तरह उनकी रुलाई पर।

निकी… निकिता यह हमारा बच्चा नहीं… हमारा बच्चा तो… तुमने ही तो वह निर्णय लिया था और ठीक लिया था… उन्होंने मुझे कंधे से झकझोरा था।

उसे तमाशा कैसे बनने देते हम… मुझे तो उसके लिए डॉक्टरों से भी लड़ना पड़ा था… वे तो रिसर्च करना चाहते थे उस पर… उसे जार में रख कर म्यूजियम का हिस्सा बनाना चाहते थे… काफी जद्दोजहद के बाद हासिल कर पाया था मैं अपने बच्चे को… और इन्हीं हाथों से उसे सुपुर्द कर दिया था माटी को… यह कहते हुए कि मेरे बच्चे का खयाल रखना… इसे छिपा कर रखना अपनी गोद में… कि फिर किसी की नजर न पड़े इस पर… नील ने अपना चेहरा वहीं छिपा लिया था जहाँ उसके होने का अहसास अब भी जिंदा था… और जिसे जिंदा ही रखना चाहते थे हम दोनों…

आपने एक बार… बस एक बार भी मुझे उसे देखने नहीं दिया… मुझे, मेरे उस बच्चे का चेहरा… मैं भी फूट पड़ा थी…

देख लेती तो उसे जाने नहीं दे पाती तुम… भोला-भाला-सा मासूम चेहरा… उसकी उँगलियाँ… उसकी आँखें मेरे लिए तो सब… नील की हिचकियाँ डूबती हैं भीतर ही भीतर…

मैं उन्हें बाँहों में समेट लेती हूँ कस कर… जैसे नील ही… मैं महसूसती हूँ… नील की हड्डियाँ बाहर दिखने लगी हैं, कॉलेज के दिनों से भी ज्यादा… नील के दाँत ऊपर की ओर उभर से गए हैं… नील की आँखें उदास… पीली… नील का चेहरा बुझा-बुझा सा निर्जीव… मैं कैसे भूली रही नील को इतने दिन… जबकि नील मेरी पहली जरूरत थे, मेरी जिंदगी का मकसद…

मैंने नील को अपने अँकवारे में यों भर लिया है जैसे नील ही मेरा बच्चा हों…

और उसी क्षण, उसी पल वह खाली जगह कुनमुनाई थी…

…मैं हल्की-हल्की रहने लगी थी। नील भी खुश थे, मुझमें आई तब्दीली को देख। माई ने ही कहा था धीरे से एक दिन उनसे कहा था कि वह मुझे डॉक्टर से दिखा लाएँ…

उन्होंने मुझसे भी कहा था… वह लौट आया है शायद… तू खुश रहा कर इसी तरह… पर मेरी खुशी उसी क्षण काफूर हो गई थी… वह नहीं और उसकी स्मृतियाँ भी न रहे इसकी साजिश में सब कामयाब हो गए थे… खास कर के माई।

पर जब डॉक्टर ने इस बात की पुष्टि की…। मुझे लगा मैं हार गई… साजिशें जीत गईं मुझे उससे जुदा करने की…

…मैं जानबूझ कर माँ और नील को चिढ़ा-चिढ़ा कर सब काम करती हूँ… कपड़े धोना… सफाई करना… और वे सब बेआवाज सहते हैं यह…

खाने की सब अच्छी चीजें डस्टबिन में डाल आती हूँ मैं… कमरा बंद करके बतियाती हूँ अपने गुड्डे से… ये सब तुझे मुझसे छीनना चाहते हैं… दूर करना चाहते हैं मुझसे… मैं ऐसा कभी होने नहीं दूँगी… कभी भी नहीं…

उसके दोनों चेहरे हँसते हैं खिल-खिल…

अपनी हर सजा में जैसे मुझे आनंद मिलने लगा है… साइकेट्रिस्ट कहता है… सैडिस्ट हो गई हैं ये… इस तरह कभी खुद को भी चोट पहुँचा सकती हैं… या कि फिर बच्चे को…

वे सब जो मुझे सहानुभूति से देखते थे… मुझे समझाने आते थे… अब कतराने लगे हैं मुझसे… मेरे परिवार से। पर मुझे क्या…

मैं अपनी दुनिया में मगन हूँ… नील कहते हैं ऐसे तो बहुत मुश्किल है माँ… बच्चे का सही ग्रोथ कैसे होगा… सही खुराक न मिले तो…

मैं सुनती हूँ पर सुनती नहीं हूँ… नील आते हैं एक दिन… एक कौर… बस यह कौर… मैं दूर भागती हूँ उनसे… वे खाकी लिफाफे में से एक एक्स रे प्रिंट निकालते हैं… देखो यह है तुम्हारा बच्चा… बिल्कुल सही सलामत… इसका एक सिर… दो हाथ-पाँव… सब ठीक-ठाक… मैं हँसती हूँ… मेरा बच्चा तो यहाँ है मेरी गोद में…

मैं उनसे वह काला प्रिंट छीन कर फाड़ देना चाहती हूँ…

…और इसी छीना-झपटी में गिर जाती हूँ मैं। माई दौड़ी-दौड़ी आती हैं… अरे क्या हुआ…? नील उठाओ तो इसे…

नील उठाते हैं मुझे झट से… माई डॉक्टर को फोन लगाती हैं… मैं हँस रही हूँ फिर भी… हँसी पकती है मेरी… और अचानक से रुलाई में तब्दील हो जाती है… मेरे पेट में असहनीय दर्द है… मैं अपना पेट सँभाले जैसे चीख पड़ती हूँ… माई मेरा बच्चा…

माई की हथेलियाँ मेरी मुट्ठियों को कसे हैं… नील मेरा पैर सहला रहे हैं… माई समझाती हैं मुझे… कुछ भी नहीं होगा तुझे और तेरे बच्चे को भी… बस धीरज धर… थाम खुद को…

Download PDF (नदी जो अब भी बहती है)

नदी जो अब भी बहती है – Nadi Jo Ab Bhi Bahati Hai

Download PDF: Nadi Jo Ab Bhi Bahati Hai in Hindi PDF

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *