मुक्ता | पांडेय बेचन शर्मा
मुक्ता | पांडेय बेचन शर्मा

मुक्ता | पांडेय बेचन शर्मा – Mukta

मुक्ता | पांडेय बेचन शर्मा

प्रवाल-द्वीप की राजकुमारी का नाम था माया। प्रियतम द्वारा चोरी से चूमे जाने पर मुग्‍धा कपोलों पर जो तप्‍त सुवर्ण-लज्‍जा बिखर जाती है, वह वैसी ही सुंदरी थी। बसंत के मंद-मंद मलयानिल के मधुर झोंकों से मुग्‍ध होकर जो मुकुल-मंडली चिटख पड़ती है, खुल और खिलकर नाच उठती है, वह वैसी ही भोली थी।

प्रवाल द्वीप के महाराज के और कोई संतान तो थी नहीं, वह कुमारी को प्राणोपम प्‍यार करते थे। जब महाराज दरबार में जाते, कुमारी पुरुष-परिधान धारण कर उनके साथ जाती। कुमारी के तन पर धवल रेशम की लाल किनारे की धोती होती, जिसे वह महाराष्‍ट्र-महिलाओं-सी कछनी काछकर पहनती। मगर उसका कोई भाग उसके मस्‍तक या वक्ष पर न होता। धोती के ऊपर प्रशांत महासागर के एक द्वीप का बना गुलाबी रेशम का कुरता पहनती, जिसकी चौड़ी मोहरियों और नीचे की छोरों पर सोने के तारों से शाल्‍मली और अंगूर की पत्तियाँ बनी होतीं। कुरते के ऊपर वह हरे रंग की मखमली जाकेट पहनती और उसमें भी सोने की बारीक कारीगरी झिलमिलाती दिखाई पड़ती। उसके काले-काले केश दो भागों में विभक्त होकर गर्दन से वक्ष पर और वक्षःस्‍थल से आजानु प्रलंबित होते। माथे पर उसके सोने का हलका, सुगढ़, सकिरीट मुकुट होता, और किरीट के बीच, शिव के तीसरे नेत्र की तरह, एक अंडाकार, बड़ा गुलाबी हीरा चमचमाया करता।

प्रवाल-द्वीप के प्राणी राजकुमारी को देखकर वैसे ही सभक्ति नमित हो जाते जैसे किसी देवता के सामने।

महाराज नित्‍य दरबार में कुमारी को साथ ले जाते; मगर केवल दो घंटे के लिए, इसके बाद वह राजहंसिनी-सी स्‍वतंत्र रहती। वह कभी उद्यान में विचरती, कभी मैदान में चौगान खेलती, कभी निकटस्‍थ उपवन में रसाल की डाल पर रजत-पालना झूलती। उसकी सात सहेलियाँ सदैव उसके साथ रहती। चौगान में राजकुमारी के आगे-पीछे उसी-सी धवल पोशाक में, उसी-सी धवल-मुखी वे सहेलियाँ जब इधर से उधर दौड़तीं, तब मैदान मानो सप्राण हो खिल पड़ता। ऐसा लगता, गोया हंसिनियों की पंक्ति इधर से उधर झपट रही है।

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सहेलियों के साथ, उस दिन, राजकुमारी समुद्र-तट पर खड़ी जीवन-कोलाहल सुन रही थी। तब के चराचर के प्राणी एक दूसरे की बोली बोल और समझ लेते थे। तभी तो समुद्र के अनेक प्रकांड प्रवाहों ने सुकुमार लहरियों के कान में गंभीर स्‍वर में कहा – ‘ओहो, अद्भुत सुंदरी है! जरा पुकारो।’

‘आओ, कुमारी!’ लहरियों ने कल-कल राग में गाकर कहा – ‘हमारी छाती पर बैठकर एक बार नाचो, गाओ और मुस्‍कुराओ। जरा जल-जगत की सैर करो।’

सहेलियों ने लहरियों को डाँटा – ‘चुप, धृष्‍ट! हमारी महती महिमामयी कुमारी को क्‍या कमी है जो तेरे यहाँ जाएँ।’

कुमारी ने जलद-श्‍याम नेत्रों से लहरियों की ओर देखा। उनके एक बार देखते ही जल के अनेक जीव ऊपर उठ आए। जल-परियों ने पुकारा – ‘हम बाहर आएँ? हमें खिलाओगी अपने साथ। ओह! तुम्‍हारे चरण कमल-से सुंदर और कोमल भासित होते हैं। हमें उन चरणों में स्‍थान दोगी?’

कुमारी ने लीला से कहा – ‘नहीं।’

प्रवाल-बालों के एक दल ने प्रेम से अरुणतम होकर निवेदन किया – ‘हमें स्‍वीकार करो सुमुखि! चाहे मुट्ठी में बाँधे रक्‍खो, चाहे चरणों में – या गले में। हम धन्‍य हो जाएँगे।’

भ्रू-संकोच के साथ राजकुमारी ने कहा – ‘न, मुझे तुम्‍हारे रंग से घृणा है। तुम खून के भाई मालूम पड़ते हो।’

जल की नीली, पीली, चमकीली मछलियों ने आग्रह किया – ‘कुमारी! हमें ही अपना लो।’ मगर इस समय राजकुमारी की दृष्टि अनंत सीपों पर थी, जो मुँह खोले हुए शून्‍य की उपासना कर रही थीं।

‘ये कौन हैं? क्‍या करती हैं? अरे, ये ऊपर क्‍या देख रही हैं? मेरा स्‍वागत क्‍यों नहीं करतीं?’

जल-परियों ने अदब से कहा – ‘वे मुक्ति-अभिलाषिणी हैं। मुक्ति तो ऊपर ही से आती है न। इसी से ये उधर ही बराबर देखा करती हैं। ये नीचेवालों पर व्‍यर्थ अपनी नजर नहीं डालतीं।’

‘ये कब तक ऊपर ताकती रहेंगी?’ कौतूहल से कुमारी ने जल-परियों से पूछा।

‘जब तक इनकी मनोकामना पूर्ण न होगी।’

‘कौन पूरी करता है इनकी कामना?’

‘सुना है, ऊपर कोई घन-श्‍याम हैं – वही तो।’

‘मुक्ति होती कैसी है?’

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‘सुना है – परमोज्‍ज्‍वल।’

‘उसका फल क्‍या है?’

‘परम तृप्ति।’ जब ये सीपें मुक्तिमयी हो जाती हैं, तब ऊपर-नीचे किसी को दाँत काढ़कर नहीं दिखातीं। भूख, प्‍यास, जल, वायु, सबसे परे हो जाती हैं। अतल में जा, आँखें बंदकर अपनी प्रियतमा मुक्ति में तन्‍मय होकर बेसुध पड़ी रहती हैं। सुना है, तब इन्‍हें महा आनंद मिलता है।’

राजकुमारी ने गंभीर साँस खींची और विमन भाव से कहा – ‘हूँ।’ सीपों ने जो उसकी उपेक्षा की, वह उसे बहुत खली। उसने मन-ही-मन निश्‍चय किया कि वह एक बार सीपों की मुक्ति देखती, तो पता चलता कि वह कितनी सुंदरी होती है।

इसी समय घर-घर स्‍वर सुनाई पड़ा। जल-परियों ने कहा – ‘भागो राजकुमारी, घन-श्‍याम आ रहे हैं।’

राजकुमारी ने ऊपर देखा, घन-श्‍याम ही थे। मगर वह भागी नहीं। घन-श्‍याम तडित-पटका लहराते, झूम-झूमकर, घहर-घहरकर ऊपर से उज्‍ज्‍वलता की वृष्टि करने लगे। लहरें विसुध भाव से नाचने लगीं। सीपों का हृदय आनंद से दोलायमान हो गया बेहोश-सी होकर उन्‍होंने आने मुखों को और भी प्रसारित कर दिया।

समुद्र ने देखा, प्रवाल-द्वीप के अनेक जल-पोत उसकी छाती चीरने के लिए झपटे आ रहे हैं। सेना-की-सेना अस्‍त्र-शस्‍त्र और बड़े-बड़े रस्‍से लिए बढ़ी आ रही है।

‘क्‍यों, क्‍यों?’

‘प्रवाल-द्वीप की कुमारी ने अभाव का अनुभव किया है।’

‘किस बात का अभाव? क्‍या उसके योग्‍य राजपुत्र नहीं मिल रहे हैं, इसलिए तुम देश-विदेश की परिक्रमा करोगे?’

‘आह! नहीं।’ राजसेवकों ने उत्तर दिया – ‘राजकुमार तो अनेक हैं – महाकुमारी माया के चरणों पर लोटने के लिए चंचल, परंतु उन्‍हें उनकी चाह नहीं।’

‘फिर?’

‘कुमारी को मुक्ति का अभाव है। सुनाओ है, तुम्‍हारी सीपों के पास वह है। है न?’

‘है तो, है तो।’ समुद्र सजल भाव से हाहाकार कर उठा – मगर तुम उन्‍हें उनकी मुक्ति से वंचित न करोगे। बेचारियों की बड़ी गाढ़ी कमाई है।’

‘चुप धृष्‍ट!’ राजसेवक तड़प उठे – ‘कुमारी माया की तुष्टि के लिए हम तुझे भी बाँध सकते हैं। जिस वस्‍तु के लिए कुमारी व्‍यग्र हैं, उसे संसार में कोई भी – वह सीप हो या समुद्र – अपने पास नहीं रख सकता।’

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समुद्र चिल्‍लाता ही रहा, और राजसेवक उसकी छाती फाड़कर अतल गहराई में पहुँच गए। कुछ ही देर में शतशः सीपें अपनी मुट्ठियों में भरकर वे बाहर आए।

कुमारी जलयान के एक सुंदर प्रकोष्‍ठ में, मणि-मंडित चौकी पर बैठी, उत्‍सुकता से उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्‍हें और उनके हाथों की सीपों को देखकर वह खिल उठी।

‘अपनी मुक्ति मुझे दो।’ परतंत्र सीपों से मायाकुमारी ने कहा।

‘प्राण ले लो कुमारी, पर मुक्ति हमारी न माँगो। वह सारी साधनाओं की सिद्धि और जन्‍म-भर की कमाई है।’

राजकुमारी से उत्तर-प्रत्‍युत्तर! भवें तन गईं, बिंबोष्‍ठ फड़क उठे, राजसेवकों को आज्ञा हुई – ‘इनके प्राण व्‍यर्थ हैं; तुम लोग ले लो, और मुक्ति मुझे दे दो। मुझे प्राण नहीं चाहिए।’

यद्यपि रक्तिम रंग कुमारी को अप्रिय था, इसीलिए उस दिन उन्‍होंने प्रवालों का तिरस्‍कार भी किया था, मगर मुक्ति के लिए उन्‍होंने उसका भी स्‍वागत किया। संसार में सदा से मुक्ति के नाम पर रक्‍त बहाया जाता है।

राजसेवकों ने सैकड़ों प्राण लिए, मगर कुमारी माया को मुक्ति एक ही मिली। आह! कैसी चमक थी उसमें। कुमारी ने देखा, उसके वक्ष-दर्पण पर उसका धवल मुख छप गया था। वह मगन हो उठी।

राजसेवकों ने मुक्ति की छाती को लोहे से छेद डाला। सहेलियों ने उसे सोने के सुकुमार तार में पिरोकर कुमारी माया के धवल कपोत-कंठ में सँवार दिया। कुमारी ने दर्पण में अपने मुक्ति-मंडित मुख को देखा, तो अपने ही पर मुग्‍ध हो नाचने लगीं। सहेलियाँ भी इधर-उधर घूम-घूमकर थिरक-थिरक उठीं।

नाचते-नाचते रुककर कुमारी ने पुनः अपना सुंदर रूप दर्पण में देखा; मगर इस बार उसे ऐसा लगा, मानो उसके कंठ में मुक्ति हँस रही थी।

‘क्‍यों हँसती है?’ माया ने दर्पण में मचलकर पूछा।

‘हँसी आती है, इसलिये कुमारी! मुक्ति बोली – ‘माया मुझे मुक्ति समझती है।’

‘यानी? तू मुक्ति नहीं है? फिर कौन है?’

‘मैं सीप का लोभ, लालसा और काल हूँ। माया के गले का चमकीला फंदा। मैं मुक्ति नहीं – मुक्‍ता हूँ।’

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मुक्ता – Mukta

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